छोटी, सामाजिक, स्थानीय एवं वैयक्तिक समस्याओं के उपाय उपचार छोटे रूप में
भी सोचे और खोजे जा सकते हैं, पर जब विपन्नताएँ व्यापक हों तो उनसे निपटने
के लिए बड़े पैमाने पर व्यापक तैयारियाँ करनी होती हैं। नल का पानी कुछ
लोगों के जल की आवश्यकता पूरी कर सकता है, किंतु सूखाग्रस्त विशाल भू
खण्डों का स्थाई समाधान बड़े उपायों से ही बन पड़ता है। भगीरथ ने यही किया
था। वे हिमालय में कैद जलराशि को गंगा के रूप में विशाल क्षेत्र में दौड़ने
के लिए कटिबद्ध हो गया। फलस्वरूप उसके प्रभाव में आने वाले क्षेत्र समुचित
जल व्यवस्था बन जाने से सुरम्य और समृद्धिशाली बन गये।
तथाकथित
बुद्धिमान और शक्तिशाली इन दिनों की समस्याओं और आवश्यकताओं को तो समझते
हैं, पर उपाय खोजते समय यह मान बैठते हैं कि यह संसार मात्र पदार्थों से
सजी पंसारी की दुकान भर है। इसकी कुछ चीजें इधर की उधर कर देने अनुपयुक्त
को हटा देने और उपयुक्त को उस स्थान पर जमा देने भर से काम चल जाएगा। समूचे
प्रयास इन दिनों इसी दृष्टि से बन और चल रहे हैं। वायु प्रदूषण दूर करने
के लिए कोई ऐसी नई गैस खोजने का प्रयत्न हो रहा है, जो हवा के भरते जा रहे
विष को चूस लिया करे। खाद्यान्न की पूर्ति के लिए खादों के ऐसे भीमकाय
कारखाने खुल रहे हैं, जो एक के दस पौधे उगा दिया करें। पर मूल कारण की ओर
ध्यान न जाने से अभाव, असंतोष एवं विग्रह किस प्रकार निरस्त होगा, इसे
सोचने की न जाने क्यों किसी को फुरसत नहीं है?
चोट की मरहम
पट्टी की जा सकती है, पर समस्त रक्त में फैले हुए ‘‘रक्त कैंसर’’ को मरहम
पट्टी से कैसे ठीक किया जाए? एक दिन तो कोई किसी को मुफ्त में भी रोटी खिला
सकता है, पर आए दिन की आवश्यकताएँ तो हर किसी को अपने बलबूते ही हल करनी
पड़ेगी। उसके लिए किसी भी दानवीर के सदावर्त भंडार से सभी लोगों का गुजारा
चलता रहे, यह संभव नहीं।
व्यक्ति के सामने शारीरिक, मानसिक,
आर्थिक, पारिवारिक स्तर की असंख्य समस्याएँ आए दिन नये- नये रूप में आती
रहती हैं। उन सबसे निपटने के लिए अपनी ही सूझबूझ को इस स्तर तक विकसित करना
चाहिए, जिससे आँगन का कूड़ा रोज साफ करते रहने की तरह आवश्यक समाधानों को
भी सोचा और अपनाया जा सके।
वस्तुतः मनुष्य का चिंतन, चरित्र और
व्यवहार बुरी तरह गड़बड़ा गया है। उसकी स्थिति तो विक्षिप्तों जैसी हो गई
है, उसी से ऐसे ऊटपटाँग काम होने लगे हैं, जिनके कारण अपने और दूसरों के
लिए विपत्ति ही विपत्ति उत्पन्न हो गई है। पगलाए हुए व्यक्ति द्वारा की गई
तोड़- फोड़ की मरम्मत तो होनी चाहिए, पर साथ ही उस उन्माद की रोकथाम भी
होनी चाहिए, जिसने भविष्य में भी वैसी ही उद्दण्डता करते रहने की आदत अपनाई
है।
मनुष्य को अड़चनों से निपटने के लिए योजना बनानी और तैयारी
करनी चाहिए। निराश होने से मात्र आशंकाओं का आतंक ही बढ़ेगा। यहाँ यह तथ्य
भी स्मरण रखने योग्य है कि सामान्यजन अपनी निजी समस्याओं को ही किसी
प्रकार सँभालते, सुधारते रहते हैं, पर व्यापक विपत्ति से मिलजुल कर ही
निपटना पड़ता है। बाढ़ आने, महामारी फैलने जैसे अवसरों पर सामूहिक योजनाएँ
ही काम देती हैं। पुरातन भाषा में ऐसे ही महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को युग
परिवर्तन अथवा अवतार अवतरणों जैसे नामों से पुकारा जाता रहा है। ऐसे तूफानी
परिवर्तनों को महाक्रान्ति भी कहते हैं। क्रान्तियाँ प्रतिकूलताओं से
निपटने के लिए संघर्ष रूप में उभरती हैं, पर महाक्रान्तियों को दूरगामी
योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। अनीति के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के साथ- साथ
नवसृजन के निर्धारण करने एवं कदम उठाने पड़ते हैं। इस अपने समय में अदृश्य
में पक रही खिचड़ी को महाक्रान्ति के रूप में जाना जाए और युग परिवर्तन कहा
जाए इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य की संरचना जैसा कुछ नाम दिया जाए, तो
भी कोई हर्ज नहीं।
अत्यधिक विशालकाय सुविस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करने वाले ६०० करोड़
मनुष्यों के चिंतन को अवांछनीयता से विरत करके वाँछनीयता के साथ जोड़ देने
वाले कार्य कोई एक व्यक्ति न कर सकेगा, पर इस तथ्य पर अन्धविश्वास नहीं
करना चाहिए। ऐसे अवसर भूतकाल में भी अनेक बार आये हैं। जब मनुष्य निराश
होने लगते हैं, तब उनमें नये सिरे से नई हिम्मत भरने के लिए प्रभात काल के
अरुणोदय की तरह नये तूफानी प्रवाह उदय होते रहे हैं, जिनके लिए बड़ी से
बड़ी उथल- पुथल भी असंभव नहीं होती।
पूर्णमासी को समुद्र में
आने वाले ज्वार भाटे ऐसे लगते हैं, मानों वे प्रशांत सागर को ज्वार भाटों
के सहारे आकाश तक उछाल कर रहेंगे। मनुष्य के लिए यह सब कर सकना कठिन हो
सकता है, पर उस प्रकृति के लिए तो ऐसी उठक- पटक क्रीड़ा- विनोद मात्र है,
जो आए दिन विशालकाय ग्रह पिंड रचने और मिटाने का खेल खिलवाड़ करते रहने में
अलमस्त बालक की तरह निरत रहती है। स्रष्टा की सत्ता और क्षमता पर जिन्हें
विश्वास है, उन्हें इसी प्रकार सोचना चाहिए कि गंदगी कितनी ही कुरुचिपूर्ण
क्यों न हो, वह तूफानी अंधड़ के दबाव और मूसलाधार वर्षा के प्रवाह के सामने
टिक नहीं सकेगी। बिगाड़ रचने में मनुष्य ने अपनी क्षुद्रता का परिचय कितना
ही क्यों न दिया हो? पर इस सुन्दर भूलोक के नंदन वन का संस्थापक, उसे इस
प्रकार वीरान न होने देगा जैसा कि कुचक्री उसको विस्मार कर देने के
षड्यंत्र रच रहे हैं। अनाचारियों की करतूतें निश्चय ही रोमांचकारी होती
हैं। पर विश्व को संरक्षण देने वाली ऐसी देव सत्ताएँ भी सर्वथा निष्क्रिय
नहीं। जिनको सृष्टि का संतुलन बनाये रहने का काम सौंपा गया है।
मृत्यु की विभीषिका आए दिन भयंकर मारकाट मचाती और असंख्यों को हर क्षण
निष्प्राण करती रहती है। इतने पर भी उसकी चुनौती को सृजन का देवता सदा से
स्वीकार करता रहा है। मरने वालों की तुलना में जन्मने वाले सदा- सदा अधिक
रहे हैं। यदि ऐसा न होता, तो प्राणियों की वृद्धि रुक गई होती और धीरे-
धीरे समस्त जीवधारी मर- खप कर कब के समाप्त हो गये होते, जबकि वे निरंतर
अपनी वंश वृद्धि ही करते चले आ रहे हैं। यह तथ्य बताते हैं कि निराश और
चिंतित करने वाला वातावरण कितना ही निराशाजनक क्यों न हो, विचारशीलों में
से एक को भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि
मनुष्य मात्र भ्रष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण पर ही उतारू रहता है। मनुष्यता
समय- समय पर ऐसी आश्चर्यजनक करवटें लेती रही है, जिसके अनुसार देव मानवों
का नया वसंत, नई कोपलें, नई कलियाँ और नये फल- फूलों की संपदा लेकर सभी
दिशाओं में अट्टहास करता दीख पड़ता है। महामानवों, देवपुरुषों, सुधारकों,
सृजेताओं का ऐसा उत्पादन होता है, मानों वर्षा ऋतु ने अगणित वनस्पतियों और
जीव- जंतुओं की नई फसल उगाने की सौगन्ध खाई हो। अगले ही दिनों नये सृजेताओं
की एक नई पीढ़ी हम में से ही विकसित होगी जिसके सामने अब तक के सभी संतों,
सुधारकों और शहीदों के पुरुषार्थ छोटे पड़ जाएँगे।