समस्याओं में एक और पक्ष ऐसा है, जो तुरंत समाधान चाहता है। शिक्षा की बहुत
थोड़ी आवश्यकता ही स्कूल कॉलेजों के माध्यम से पूरी हो पाती है। एक शब्द
में इसे यों भी कहा जा सकता है कि इससे लिखा- पढ़ी हिसाब- किताब जैसे ही
काम चल पाते हैं। यह भी हो सकता है कि उनके मस्तिष्क में वे जानकारियाँ भी
कुछ अधिक मात्रा में भर गईं हों, जो आमतौर से व्यावहारिक जीवन में कभी काम
नहीं आतीं। इतिहास, भूगोल, रेखागणित आदि ऐसे ढेरों विषय हैं, जो निजी जीवन
में कदाचित् ही कभी कुछ काम आते हों? किंतु प्रचलन यही है कि स्कूलों की
कक्षा पास होने का प्रमाण- पत्र प्राप्त कर लेने पर ही किसी को शिक्षित
कहलाने का अधिकार मिलता है। यद्यपि उसमें काम का कम और बेकाम का अधिक होता
है। नौकरी न लगने पर तथाकथित शिक्षित लोग अपने और दूसरों के लिए समस्या
बनते हैं। शारीरिक श्रम के काम करने में उन्हें बेइज्जती मालूम पड़ती है।
आदत भी छूट जाती है। ऐसी दशा में शिक्षित बेकार अपने और दूसरों के लिए अधिक
गंभीर दशा में समस्या बनते हैं। इसकी तुलना में अशिक्षितों को अपेक्षाकृत
कम परेशानी का सामना करना पड़ता है।
शिक्षा की गुण गरिमा
जितनी भी गाई जाए, उतनी ही कम है। विद्या को ज्ञान चक्षु की उपमा दी गई है।
उसके अभाव में मनुष्य अंधों के समतुल्य माना जाता है। विद्या को सर्वोपरि
धन माना गया है। उससे अमृत की प्राप्ति होती है, ऐसा कहा जाता रहा है। पर
उसमें यह सभी विशेषताएँ तब उत्पन्न होती हैं, जब उसके द्वारा मनुष्य के
गुण, कर्म, स्वभाव का ,, व्यक्तित्व का विकास हो, प्रतिभा को समुन्नत-
सुसंस्कृत बनाने में सहायता मिले। अन्यथा भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण से
मनुष्य और भी अधिक खतरनाक होता जाता है। उसे ब्रह्म- राक्षस की संज्ञा दी
जाती है।
इस तथ्य पर नये सिरे से विचार करना पड़ेगा कि शिक्षा
के नाम पर ऐसे ही कुछ अगड़म- बगड़म चल रहा है या उसमें व्यक्तित्व को
निखारने वाले, व्यावहारिक सभ्यता के ढाँचे ढालने वाले, प्रतिभा को प्रखर
बनाने वाले लक्ष्यों का किसी स्तर तक समावेश बन पड़ रहा है? इन्हीं के आधार
पर व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र को समुन्नत बनाने का अवसर मिलता है। यदि
मानवीय गरिमा के अनुरूप विभूतियों का समावेश न हो सके, तो मात्र बहुज्ञ
होने के नाम पर उद्धत अहमन्यता से संबंधित दुर्गुण सँजो लेने पर कोई
अशिक्षित से भी गया- गुजरा सिद्ध हो सकता है। वह ऐसे दुःस्वभाव का आदी बन
जाएगा, जिससे हर किसी का, हर प्रकार अहित ही हो सकता है। शिक्षा की इन
रचनात्मक और ध्वंसात्मक दोनों ही शक्तियों से हमें भली प्रकार अवगत होना
चाहिए।
समाज को इच्छानुरूप ढालने वाले मूर्धन्यों ने अपने समाज
की शिक्षा पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित किया है। जर्मनी, रूस, चीन, इजराइल,
यूगोस्लोवाकिया जैसे नवोदित देशों ने शिक्षा को इच्छित ढाँचे में ढालने के
उपरांत ही यह सफलता पाई, जिसके फलस्वरूप वे अपने देशवासियों का चिंतन,
चरित्र एवं स्वभाव- अभ्यास ऐसा ढाल सके, जिसके सहारे सर्वसाधारण में नए
सिरे से नई जीवट उत्पन्न कर सके।
अपने देश में इस प्रकार की
शिक्षा की कमी सर्वत्र अनुभव की जा रही है, पर जिनके हाथ में नीति निर्धारण
एवं व्यवस्था संचालन की क्षमता है, उन्हें वर्तमान परिस्थितियों में किसी
बड़े परिवर्तन के लिए सहमत कर सकना कठिन दीखता है। ऐसी दशा में एक ही
विकल्प शेष रह जाता है कि देश के मनीषियों, विचारशीलों को इस अभाव की
पूर्ति का भार अपने जिम्मे लेना चाहिए और समझदार लोगों के सहयोग से इस दिशा
में महत्त्वपूर्ण कदम उठाना चाहिए। परमार्थ भी जीवन का एक अति
महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उसे और भी अधिक उभारा जा सकता है और व्यक्तित्वों
में उत्कृष्ट प्रगतिशीलता बढ़ाने के लिए केंद्रीभूत किया जा सकता है।
प्राचीनकाल में शिक्षा उसे कहते थे, जो निर्वाह साधनों को जुटाने और उनका
सही प्रयोग कर सकने की विधा समझाकर अपना प्रयोजन पूरा करती थी। इसी के साथ
वह प्रकृति संपदा और चेतना के क्षेत्र में प्राणियों तथा मनुष्य की रीति
नीति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन उत्पन्न करती थी। इसे जागरूकता,
विचारशीलता या विवेकनिष्ठ भी कहा जा सकता है।
नशेबाजों को अर्धमूर्छित कहा जाता है। यों उनके हाथ- पाँव आँख, कान आदि
अवयव तो साधारण रीति से काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर विवेक बुद्धि काम
नहीं करती। सभ्यता एवं सुसंस्कारिता से संबंधित जागरूकता को वे भुला बैठते
हैं। ऐसी ही स्थिति प्राय: अनगढ़ जनों की होती है। मानवीय गरिमा के अनुरूप
चिंतन किस प्रकार करना चाहिए? अपना चरित्र स्तर कैसा रखना चाहिए? व्यवहार
में शालीनता का समुचित समावेश किस प्रकार रखना चाहिए? वह सब औचित्य वे भूल
जाते हैं। उनींदों से खुमारीग्रस्तों से जैसी भूलें होती रहती हैं वैसी ही
वे आए दिन पग- पग पर करते रहते हैं।
आत्म विस्मृति का लांछन ऐसा
है, जिसके रहते मनुष्यों को नरपशु, वनमानुष आदि के नाम से ही जाना जा सकता
है। मनुष्यता, सभ्यता एवं सुसंस्कारिता से आरंभ होती है। यही है अपने स्तर
के गुण, कर्म, स्वभाव के संबंध में बरती जाने वाली जागरूकता। इसके अभाव
में मनुष्य गई- गुजरी स्थिति में पड़ा रहता है। प्रगति का द्वार तो उसके
लिए बंद ही रहता है। सुविकसित जनों की तुलना में उसकी रीति- नीति
उपहासास्पद, हेय एवं तिरस्कृत ही बनी रहती है।
हमें यह मानकर
चलना चाहिए कि इन दिनों सर्वत्र भौतिकवाद का ही बोलबाला है। मनुष्य अपने
आपको मन समेत इंद्रियों का समुच्चय शरीर मानता है। इसीलिए उसकी जो कुछ
इच्छा, अभिलाषा, आकाँक्षा, चेष्टा होती है, वह शरीर की परिधि तक ही सीमित
होकर रह जाती है। पढ़ना, करना और सोचना उसी छोटी परिधि में सीमाबद्ध रहता
है। आत्मा भी कोई चीज है, इस क्षेत्र में उससे कुछ सोचते, करते भी नहीं बन
पड़ता। वस्तुतः यह कार्य विद्या के क्षेत्र में आता है। सभ्यता शरीर को और
सुसंस्कारिता मन को प्रभावित करती तथा परिष्कृत बनाती है। यह पक्ष उपेक्षित
है। जब उसकी महत्ता, आवश्यकता तक समझी न जा सकेगी तो फिर कोई कुछ करेगा भी
क्यों?
शिक्षा को लोक व्यवहार का, उपार्जन प्रक्रिया का,
सुविधा संग्रह का एक प्रयोजन भर माना जा सकता है। इतने भर से किसी का जीवन
स्तर ऊँचा नहीं उठ सकता है। सज्जनता- शालीनता की विद्या के अभाव में मनुष्य
का भावनात्मक स्तर पशुवत ही बनकर रह जाता है।
विद्या की एक
सांगोपांग रूपरेखा बनानी पड़ेगी और उसे जन- जन के मन- मन में प्रविष्ट करने
की इतनी बड़ी, इतनी व्यापक योजना बनानी पड़ेगी, जो स्कूली शिक्षा की कमी
पूरी करने में समर्थ हो सके। इसके लिए विचारशील भाव- संपन्नों का समय, श्रम
मनोयोग एवं पुरुषार्थ प्राय: उतनी ही मात्रा में नियोजित करना पड़ेगा,
जितना कि सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में शरीर साधन जुटाने के लिए शिक्षा
के साथ, बड़ी तैयारियों का समन्वय करते हुए व्यापक स्तर पर क्रियान्वित
करना इन्हीं दिनों अभीष्ट है।