विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना जिन आधारों पर सम्भव है उनमें आस्तिकता सर्व प्रधान है। ईश्वर के अस्तित्व पर, उनकी सर्व व्यापकता और न्यायशीलता पर विश्वास हुए बिना मनुष्य के लिये यह कठिन है कि वह प्रलोभनों के समय, आपत्तियों के समय भी अपने कर्त्तव्य धर्म से विचलित न हो। सामाजिक एवं राजकीय प्रतिबन्ध एक सीमा तक जन-साधारण को कुमार्गगामी होने से बचा सकते हैं। वे अधिक से अधिक इतना कर सकते हैं कि किसी व्यक्ति के दुष्कर्म कर लेने के पश्चात् उसकी भर्त्सना या दण्ड की व्यवस्था करे। पर यह तो बहुत पीछे की बात हुई। कुकर्म का प्रारम्भ कुविचारों से ही हो जाता है। मन में कुविचार उठते हैं तो मस्तिष्क उसके अनुरूप अनेक योजनायें बनाने लगता है और उन योजनाओं में से छोटे-बड़े रूप में कई फलित भी होती रहती हैं। पकड़ में तो कोई एकाध ही आती हैं और पकड़े जाने पर भी दण्ड का भागीदार कभी-कभी होना पड़ता है अन्यथा लोग अपनी चतुरता और सफाई के बल पर छूट भी जाते हैं।
कुकर्मों के कारण ही इस संसार में सारी अशान्ति है। परस्पर जो राग-द्वेष और छीना-छपटी की अनीतिपूर्ण प्रक्रिया आज चल रही है उसी के फलस्वरूप विविध विधि के संघर्ष और क्लेश दृष्टिगोचर होते हैं। दैवी विपत्तियां भी हमारे पूर्व संचित दुष्कर्मों के फलस्वरूप ही आती हैं। संसार में जितना भी कष्ट है वह किसी न किसी कुकर्म का फल है। आक्रमणकारी एवं अपहरणकर्ता का कुकर्म उसके लिए तो दुःखदायक होता ही है पर पहले दूसरे निर्देशों को भी अपनी चपेट में ले लेता है। संसार में जितने भी कुकर्म पनपेंगे उतने ही दुख भी बढ़ते रहेंगे। इसलिये हमें शान्ति की स्थापना करनी है तो कुकर्मों को हटाना पड़ेगा। यह कुकर्म कैसे घटें? इस पर विचार करते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कुविचार ही कुकर्मों के उत्पादक हैं। मस्तिष्क में घूमती रहने वाली अधर्म मूलक विचारधारा ही अवसर पाकर कुकर्म का रूप धारण करती है। पानी ही जमकर बर्फ बनेगा। यदि हवा में पानी का अंश न हो तो बर्फ कैसे गिरेगी? हवा में रहने वाला पानी अदृश्य और गिरने वाली बर्फ दृश्य है इसी प्रकार कुविचारों को सूक्ष्म अदृश्य एवं कुकर्म को स्थूल दृश्य पाप कहा जाता है। कुकर्मों को मिटाने के लिए कुविचारों पर प्रहार करना आवश्यक है।
कुविचारों में अनैतिक बातों का समावेश रहता है। अनैतिकता में एक आकर्षण है। जुआ, चोरी, लूट, व्यभिचार, बेईमानी आदि का परिणाम पीछे कुछ भी हो, तत्काल इनमें बहुत लाभ एवं बहुत आकर्षण दिखाई पड़ता है। इस लोभ एवं आकर्षण को नियन्त्रित रखने का एकमात्र उपाय यदि हो सकता है तो वह ईश्वरीय न्याय का भय ही है। पाप को छिपाये रहना और राजदण्ड से बचे रहना आज की दुनिया में कुछ बहुत मुश्किल नहीं है। इसलिये मनुष्य सोचता है कि जब पाप के प्रतिफल से बचा जा सकता है तो फिर उसके लाभ और लोभ को क्यों छोड़ा जाय? आज यही विचारधारा दुष्कर्मों को बढ़ावा दे रही है और इसी कारण हमारे मनों में कुविचारों की घटायें स्वच्छन्द होकर विचरण करती हैं।
कुविचारों पर अंकुश रखना किसी आन्तरिक एवं भावनात्मक आधार पर ही सम्भव है। ईश्वर की सर्वज्ञता एवं निष्पक्ष न्यायशीलता की बात जब तक मन में न जमेगी तब तक और किसी आधार पर मानसिक दुर्भावनाओं को रोका न जा सकेगा। कर्मफल, स्वर्ग नरक, परलोक, पुनर्जन्म पर जिसका विश्वास है वही कुमार्ग पर बढ़ते हुए हिचकेगा। जिसका अन्तःकरण कुमार्ग पर चलने से रोकता है, केवल वही कुमार्गों से बच सकता है। आन्तरिक अंकुश हो सकता है। सत्कर्म का कोई तात्कालिक प्रत्यक्ष लाभ न मिले, या उस मार्ग में कष्ट उठाना पड़े तो भी आस्तिक विचार का आदमी यह सोचकर सन्तोष कर सकता है कि सर्वज्ञ ईश्वर की न्यायशीलता निश्चित है तो आज न सही कल मेरे सत्कर्म का फल मिलेगा। पर यदि किसी को ईश्वर पर आस्था न हुई, कर्मफल के बारे में सन्देह रहा तो फिर सत्कर्म के लिए कष्ट उठाना या त्याग करना निश्चय ही कठिन हो जायगा।
सत्कर्म का तुरन्त ही वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा कुकर्म का। इसी लिये लोग सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग पर चलने को तत्पर होते हैं। इस कठिनाई के रहते हुए भी कोई व्यक्ति यदि कुकर्मों का लाभ छोड़कर सत्कर्म के होने वाले स्वल्प लाभ पर सन्तोष करता है। तो उसे पुण्य-परमार्थ का, ईश्वरीय प्रसन्नता का एवं समयानुसार सत्परिणाम प्राप्त होने का विश्वास अवश्य होना चाहिये। इस विश्वास के अभाव में मनुष्य भटक जाता है और बिना पतवार की नाव की तरह उसका मन न सोचने योग्य सोचने में और न करने योग्य करने में अग्रसर हो चलता है। ईश्वरीय विश्वास के अभाव में मन की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश और किस प्रकार लगाया जाना सम्भव, इसका और कोई सुनिश्चित विकल्प अभी तक किसी की समझ में नहीं आया है।
पापी के सामाजिक बहिष्कार एवं सार्वजनिक निन्दा की एक प्रथा प्राचीनकाल में सबल थी और उस कारण से किसी कदर लोग बुराई से बचते थे, अब वह बन्धन भी टूट चले। कहीं हैं भी तो वे रोटी-बेटी की रूढ़ियों तक सीमित हैं। झूठ बोलने वाले, बेईमानी करने वाले, अनीति बरतने वाले का सामाजिक बहिष्कार होता अब कहीं दीखता नहीं। उल्टे ऐसे लोगों से डरकर या लाभ उठाने का अवसर देखकर अनेक लोग उसके समर्थक बन जाते हैं। यही बात राजदण्ड के बारे में है। एक तो कानून ही बहुत थोड़ा-सा दण्ड देते है। दूसरे पुलिस का इतना विस्तार भी नहीं कि छिपकर हुए दुष्कर्मों का भी पता प्राप्त कर सके। फिर दण्ड दिलाने के लिए जितना सबूत, जितने गवाह चाहिये वह नहीं जुट पाते तो असंख्य लोग अपराधी होते हुए भी छूट जाते हैं। धन खर्च कर सकने वालों के लिए तो इस प्रकार की छूट और भी सुलभ हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक बहिष्कार एवं राजदण्ड की पद्धतियां कुकर्मों को रोकने तक में सफल नहीं हो पा रही हैं तो कुविचारों के उठने के गुप्त मनोभूमि की गहराई तक तो उनका प्रवेश हो सकना और भी कठिन है। लोकनिन्दा और राजदण्ड की उपेक्षा का भाव यदि मन में जम जाये तो मनुष्य और भी ढीठ एवं उच्छृंखल हो जाता है। आज ऐसी ही ढिठाई एवं उच्छृंखलता तेजी से बढ़ती चली जा रही है।
समाजनिष्ठा, देश-भक्ति या आदर्शवाद के नाम पर एक और भी प्रयोग इस शताब्दी में ऐसा हो रहा है जिसमें ईश्वर की उपेक्षा करके इन आधारों पर मनुष्य को सदाचारी एवं आत्मसम्मान युक्त बनाने का परीक्षण किया गया है। साम्यवादी विचारधारा इसी की पोषक है। रूस आदि साम्यवादी देशों में इसका प्रयोग पिछले पचास वर्षों से चल रहा है उस पर सूक्ष्म दृष्टि डालने पर स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रयोग एक प्रकार से असफल ही रहा है। देश-भक्ति एवं समाज निष्ठा का भरपूर शिक्षण देने पर भी वहां अपराधों की संख्या आस्तिक देशों से भी कहीं अधिक है। इन देशों में जितना उत्पीड़न और रक्तपात जनता की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिये किया गया है वह लोमहर्षक है। इतने दमन और नियन्त्रण की परिस्थितियों ने आतंक तो पैदा कर दिया है, जिसके भय से निर्धारित प्रतिबन्धों के विरुद्ध कोई शिर न उठावे। पर हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। भीतर ही भीतर अनैतिकता की वह आग मौजूद है और समय-समय पर उसकी चिनगारियां सामने आती रहती हैं। रूस के शीर्षस्थ नेताओं को आये दिन देशद्रोही ठहरा कर मौत के घाट उतारा जाता रहता है। एक दिन देशभक्त दूसरे ही दिन देशद्रोही घोषित कर दिये जाते हैं। इस प्रक्रिया के शिकार जितने बहुसंख्यक शीर्षस्थ नेता रूस में हुए हैं उसे देखते हुए सोचना पड़ता है कि जब इन ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का यह हाल है तो साधारण या निम्न वर्ग का क्या हाल होगा? जर्मनी, इटली, स्पेन, आदि देशों में अधिनायकवाद का भी परीक्षण करके देख लिया है बुरे कहे जाने वाले लोगों को दमन के बल पर कुचल डालने से लोग अच्छे रास्ते पर लेंगे, इसका भयानक परीक्षण हुआ है पर जनता कितनी सुधरी, यह तो पीछे खोजा जायगा, पहले यही देख लिया जाय कि इस विचारधारा के शीर्षक लोग ही परस्पर कितने विश्वासघाती और निष्ठुर सिद्ध हुए और इन सत्ताधारियों ने आपस में ही एक दूसरे से कितनी प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या, विश्वासघात एवं निष्ठुरता की नीति बरती। शीर्षस्थ स्तर पर जो परीक्षण असफल रहा है वह सामान्य स्तर की जनता में सफल होगा, ऐसी आशा करना दुराशा मात्र ही कहा जायगा।
सामूहिक भर्त्सना, राजदण्ड और समाज निष्ठा यह तीनों ही बातें अच्छी हैं और इन तीनों की उपयोगिता भी है हर मनुष्य के आन्तरिक स्तर को सद्विचारों में ओत-प्रोत रखने एवं सत्कर्मों के लिये कुछ भी कष्ट उठाने की सुदृढ़ प्रेरणा इसमें नहीं है। वह तो ईश्वर निष्ठा में ही है। उपर्युक्त तीन दृष्टिकोण उपयोगिता, अनुपयोगिता की कसौटी पर नैतिक मूल्यों को बदल लेते हैं इसलिये मनुष्य सोचता है कि सदाचार तो एक साधारण सा नीति नियम मात्र है, उसे आवश्यकतानुसार तोड़ा भी जा सकता है। मांसाहार को ही लीजिये—भौतिक दृष्टि से परखने वाले लोग आर्थिक या अन्य उपयोगिताओं के कारण उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, और निरपराध प्राणी को मर्मान्तक कष्ट देकर उसका प्राणघात करने में संकोच नहीं करते। जब एक अवसर पर यह मान लिया गया कि अपने लाभ के लिये दूसरे के प्राणघात करने में कुछ हर्ज नहीं हो यह नीति दूसरे अवसर पर मनुष्यों के प्रति भी व्यवहार में लाई जा सकती है। प्रश्न हत्या में पाप होने का न रहा, उपयोगिता की न्यूनाधिकता का रह गया, जिसे भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी कसौटी पर अलग-अलग ढंग से भी कस सकते हैं और कोई अतिवादी चिड़ियों के शिकार खेलने की तरह मनुष्यों को भी शिकार खेल कर अपना मनोरंजन कर सकता है। कानपुर में एक कनपटी मार बाबा लोहे की कील से सड़क पर सोते हुए कितने ही निरीह मजदूरों को मौत के घाट उतार कर अपना मनोरंजन कर भी चुका है। यह उपयोगितावाद की विचारधारा मनुष्य को अवसरवादी ही बना सकती है, आदर्शवादी नहीं। और जब तक आदर्शवादी में सुदृढ़ निष्ठा न होगी तब तक मनुष्य अपने लाभ और लोभ को त्याग कर देर तक परमार्थ वादी न बना रह सकेगा। स्वार्थ और परमार्थ के संघर्ष में ऐसे लोग देर तक पुण्य-पथ पर सुदृढ़ नहीं रह सकते।
इन सब बातों पर विचार करते हुए ईश्वर विश्वास ही एकमात्र वह उपाय रह जाता है जो सत्प्रवृत्तियों को किसी नीति के रूप में नहीं, वरन् मानव जीवन की मूल-भूत आधार शिला मानकर हृदयंगम करने के लिये प्रेरणा दे सकती हैं। धर्म और कर्त्तव्य पालन आस्तिकता की दो भुजायें हैं। सच्चे ईश्वरविश्वासी के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी धर्मशीलता और कर्त्तव्य-परायणता के आधार पर परमात्मा को प्रसन्न करे। सब प्राणियों में परमात्मा की ज्योति देखे और सबके साथ शिष्टता, सज्जनता एवं सहृदयता का व्यवहार करे। पाप का दण्ड मिलने और पुण्य का पुरस्कार प्राप्त होने की मान्यता उसके धैर्य को कायम रख सकती है। इस उल्टी दुनिया में सन्मार्ग पर चलते हुए कष्ट भी उठाना पड़े तो परलोक या अगले जन्म में मिल जाने की आशा भी उसे कठिन अवसरों पर विचलित होने से रोके रह सकती है।
आस्तिकता के आध्यात्मिक लाभ असंख्य हैं स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द प्राप्त होना भव बन्धनों छूटना, जीवन का आनन्द लेना, ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धि, ईश्वर की कृपा से कष्टों से छुटकारा, आत्म-बल की वृद्धि आदि अगणित लाभ आस्तिकता एवं उपासना से सम्बन्धित हैं। पर सामाजिक एवं लौकिक दृष्टि से आस्तिकता का सबसे बड़ा लाभ है कि वह मनुष्य को कुकर्म करने से ही नहीं, कुविचारों से भी दूर रहने की प्रेरणा देती है। आत्म-नियन्त्रण का यही उपाय ऐसा है कि जो हमारे नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा को जन-मानस में गहराई तक जमाये रह सकता है। अपने सुधार और दूसरों के साथ सद्व्यवहार की जिस प्रक्रिया के ऊपर विश्व शान्ति की सम्भावना निर्भर है उसके लिए आस्तिकता ही एक प्रेरक शक्ति का केन्द्र बन सकती है। जीव लघु से महान् बने, अणु से विभु के रूप में विकसित हो, आत्मा को परमात्मा के रूप में परिणत करे यह आकांक्षा आस्तिकता के आधार पर ही तो जाग्रत होगी और इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसे धर्मनिष्ठा, आत्मसंयम, परोपकार एवं सदाचार का अनिवार्यता अवलम्बन करना पड़ेगा। यही वह मार्ग हो सकता है जो हमारी वैयक्तिक एवं सामाजिक दुरवस्था का समाधान करके वह परिस्थिति उत्पन्न करे जिसमें सब लोग सुखपूर्वक रह सकें और विश्वव्यापी शान्ति का सुखद आनन्द अनुभव कर सकें।
सर्वोत्कृष्ट सत्संग की भूमिका—सांसारिक वातावरण के स्वार्थपरता, वासना, तृष्णा, काम-क्रोध, लोभ, मोह की प्रवृत्तियां भरी पड़ी हैं। हर घड़ी ऐसी ही सब कुछ हम देखते सुनते हैं अतएव वैसे ही संस्कार भी अपने ऊपर जमते हैं। अपना जीवन-क्रम भी उसी ढर्रे पर लुढ़कने लगता है। विशिष्ट उत्कृष्ट एवं आदर्शवादी मानव-जीवन जीने की प्रेरणा तब मिले जब वैसे ही उत्कृष्ट वातावरण या व्यक्ति के साथ रहना हो। यह प्रयोजन उपासना द्वारा पूरा होता है। ईश्वर में सब कुछ श्रेष्ठता है, वह सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों का आगार है। निरन्तर श्रम, निःस्वार्थ, उपकार, निन्दा, स्तुति, हानि लाभ से परे, उदारता, क्षमा, स्नेह, करुणा, मैत्री व्यवस्था पर दृष्टिपात करें तो उसमें सर्वांग पूर्णता मिलेगी। उपासना के समय ईश्वर का जप ध्यान करते हुए उसकी महिमा एवं गरिमा का भी ध्यान करना पड़ता है। इससे एक ऐसे श्रेष्ठ सत्संग की आवश्यकता मिलती है, जिसके आधार पर हमारी अंतःचेतना को उच्च स्तरीय विकास के लिये प्रोत्साहन मिले। सांसारिक वातावरण की कलुषता, ईश्वरीय सान्निध्य से कट जाती है, इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति का एक बड़ा रोड़ा हटता है।
जीव अन्य क्षुद्र योनियों में से क्रमशः विकास करता हुआ मानव योनि के उच्च स्तर तक आ पाया है। अब उसे ऋषित्व एवं देवत्व की कक्षाएं पार करते हुए ईश्वर का अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करना है। यह कार्य अपूर्णताएं दूर करते चलने में ही सम्भव है। पूर्ण परमात्मा में पूर्ण जीवों का ही लय होता है जल में जल ही घुलता है लोहा नहीं। ईश्वर की जो प्रकृति, एवं प्रवृत्ति है, उसी प्रकार की अन्तःचेतना जिस दिन हमारी हो जायेगी, अपने आप पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। उपासना हमें लघु में महान् बनने की प्रेरणा करती है। ईश्वर को अपने में धारण करना अथवा अपने को ईश्वर में समर्पण करना एक ही बात को दो ढंग से कहना मात्र है। यह प्रयोजन वाणी से करने और कल्पना से सोचने पर सिद्ध नहीं होता वरन् जीवन की रीति-नीति ऐसी बनानी पड़ती है जिसमें से अपूर्णताओं, त्रुटियों का निष्कासन एवं महानताओं का अभिवर्धन निरन्तर होता रहे। प्रातः उठते समय दिनभर का श्रेष्ठतायुक्त कार्यक्रम बनाना और रात्रि को सोते समय दिनभर की क्रिया पद्धति को इस कसौटी पर कसना कि वह पूर्णता की दिशा में प्रगति कराती है कि नहीं—उपासना का आवश्यक अंग है। भजन की तरह यह आत्म-निरीक्षण, आत्म-चिन्तन, एवं आत्म-विकास का हृदय मन्थन उपासना का अनिवार्य अंग है। हम जैसे-जैसे उदार एवं महान् होते जाते हैं वैसे-वैसे ही आत्मोत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होता है लघु से महान्, अणु से विभु, आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की विचारधारा का नाम आस्तिकता है और उसका दैनिक अभ्यास-भावनात्मक व्यायाम करने की प्रक्रिया को उपासना कहते हैं। सच्चे आधार पर की हुई उपासना का प्रभाव साधक के जीवन में दिन-दिन अधिक प्रखर होता चलता है और उसका व्यक्तित्व दूसरों की अपेक्षा अत्यधिक प्रकाशवान् बनने लगता है। जो आत्मविकास कर रहा होगा उसकी क्षमता, प्रतिभा, गरिमा, महिमा सभी कुछ बढ़ रही होगी। उस की पहचान उसके संतुष्ट, प्रभाव एवं समुन्नत अन्तःकरण के रूप में कभी भी देखी, परखी जा सकती है। मानव जीवन की सार्थकता इसी स्थिति को प्राप्त करने में अनुभव होती है।
आत्म प्रवंचना एवं लोक विडम्बना—आज लाखों करोड़ों तथाकथित आस्तिक एवं उपासक दृष्टि-गोचर होते हैं, पर उनका दृष्टि-कोण गलत होने के कारण चिरकाल तक जप-तप करते हरने पर भी कोई लाभ या प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। जिसका यह लोक उज्ज्वल नहीं, जिसको आज प्रसन्नता नहीं उसे मरने के बाद स्वर्गीय आनन्द मिलेगा यह कल्पना सर्वथा असत्य है। स्वर्ग तो सद् भावनाओं की प्रतिक्रिया मात्र है, जिसके लिये मरने के बाद या मरने से पहले जैसा स्तर नहीं किया जा सकता। वह स्थिति तो जब भी जिसकी होगी तभी उसे आनन्द का अनुभव मिल रहा होगा। आज के तथाकथित आस्तिक न लौकिक दृष्टि से समृद्ध हैं और न आध्यात्मिक दृष्टि से समुन्नत। ऐसी दशा में यही मानना पड़ेगा कि उनकी क्रिया व्यवस्था में कहीं दोष है। सच्ची उपासना सच्चे हीरे या स्वर्ण की तरह है—जिसके बदले में सहज ही अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त की जा सकती हैं। कांच का बना हीरा और मुलम्मे का नकली सोना जिस प्रकार किसी की समृद्धि नहीं बढ़ाता, उसी प्रकार भ्रान्त आस्तिकता भी किसी उपासक की प्रगति में कोई सहायक नहीं होती।
आज लोग दस-बीस मिनट जो देव-दर्शन, जप ध्यान, स्तोत्र पाठ, वन्दन अर्चन में लगाते हैं, उसके पीछे निकृष्ट प्रयोजन काम करते रहते हैं। वे सोचते हैं इतने में ईश्वर प्रसन्न हो जायगा और उन्हें जितनी भी सांसारिक कामनाएं अभीष्ट हैं वे सभी पूरी कर देगा। इसी प्रकार वे निरन्तर दुर्भावग्रस्त एवं पापलिप्त रहते हैं उसके दण्ड से बचा देने की भी ईश्वर से आशा करते हैं। यह दोनों ही मान्यताएं ऐसी हैं जो उपासक की आत्मिक प्रगति में भारी बाधा उपस्थित करती हैं। सांसारिक सुख साधन मनुष्य को क्षमता, कुशलता एवं प्रतिभा के आधार पर उपलब्ध होते हैं। अनेकों नास्तिक भी अपनी इन विशेषताओं को विकसित करते और मनमाने लाभ उठाते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने हीन व्यक्तित्व को तो विकसित करता नहीं, पर जो लाभ पुरुषार्थियों को मिलना चाहिए वह बिना श्रम के थोड़े-से पूजा द्वारा ही प्राप्त करना चाहता है तो वह एक प्रकार से ईश्वर की महान व्यवस्था को उलट देने की ही कल्पना करता है। ईश्वर की प्रसन्नता सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाये बिना सम्भव नहीं। भजन-पूजन तो इस मार्ग पर बढ़ने का एक आधार मात्र है। स्लेट-पेन्सिल तो गणित सीखने का अवलम्बन है। स्लेट पेन्सिल हाथ से लेने मात्र में कोई गणितज्ञ नहीं हो सकता। इसी प्रकार माला सद्गुणों के विकास का पथ-प्रशस्त करती है तब उससे समृद्धि की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। यह बीच की प्रक्रिया पूर्ण न की जाय, आत्म विकास की वह साधना जिसमें हर आस्तिक को अपना जीवन सराबोर करना पड़ता है, छोड़ दिया जाय, तो फिर माला से कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता। आज ऐसे ही तथाकथित भक्तों का बाहुल्य है जो आत्म-निर्माण के आवश्यक कर्त्तव्यों का परित्याग कर किसी कोने में बैठे माला जपते रहते हैं और इस लोक तथा परलोक में बड़े-बड़े लाभ मिलने की कल्पना करते रहते हैं।
इसी प्रकार आज गंगा स्नान से लेकर हनुमान चालीसा का पाठ अथवा एकादशी उपवास तक हर छोटा-मोटा कर्म काण्ड समस्त पापों को नाश करने का प्रमाणपत्र मान लिया जाता है। जब पाप इतने सस्ते में कट सकते हैं तो फिर पाप से डरने की क्या आवश्यकता? फिर क्यों न भरपूर पाप करके इस लोक का मजा लूटा जाय? उनका दण्ड तो इन कर्मकाण्डों के माध्यम से नष्ट हो ही जायगा। इस मान्यता से मनुष्य पाप से डरना छोड़ देता है। यही कारण है कि इस तथाकथित आस्तिकों में दोष दुर्गुणों के अम्बार भरे पड़े रहते हैं और वे साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक गये-गुजरे देखे जाते हैं। इसी शंका से शंकित होकर लोग कहते हैं कि जो उपासना व्यक्तित्व में निखार या परिष्कार न ला सकी वह परलोक में सद्गति का प्रयोजन कैसे पूरा करेगी?
आधार सही करें—भौतिक कामनाओं की पूर्ति तथा पापनाश इन दोनों ही प्रयोजनों को छोड़कर हमें सर्वशक्तिमान सत्ता के सान्निध्य से प्राप्त होने वाली महानता के लिये ही उपासना करनी चाहिये। आस्तिकता का दृष्टिकोण अपनाकर प्रेम भावनाओं का अभिवर्धन करना चाहिए और मानसिक एवं शारीरिक पापों से बचना चाहिए। उपासना से आस्तिकता परिपक्व होती है। आस्तिकता, मानवता एवं उत्कृष्टता का ही दूसरा रूप है। उपासना इसी का अभ्यास करने के लिए एक महत्वपूर्ण विज्ञान-सम्मत, मानसिक व्यायाम के रूप से की जाती है। इससे आत्मबल निश्चित रूप से बढ़ता है। और जब शरीर बल, धन बल, बुद्धिबल जैसे भौतिक बलों का आशाजनक लाभ, मिलता है तो आत्मबल जैसे इस विश्व के सर्वोत्कृष्ट बल का लाभ क्यों न मिलेगा? ईश्वर का भक्त ईश्वर के सामने ही सामर्थ्यवान एवं महान बन जाता है इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। पर वह भक्ति होनी चाहिए ढंग से, बेढंगी भक्ति तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना ही कही जायगी।
हममें से प्रत्येक को आस्तिक बनना चाहिये और इसके लिए नित्य नियमित रूप से उपासना की क्रम व्यवस्था दैनिक जीवन में रखनी चाहिये। एक परिपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में ईश्वर की किसी छवि का ध्यान करें, उसके गुणों का चिन्तन करें और उसी में तन्मय हो जावें उसे अपने में धारण कर लेने की भावना करें। जिह्वा से नाम जप होता रहे। वाणी से नाम जप मस्तिष्क से स्वरूप का ध्यान, हृदय से एकात्मकता का, परस्पर घुलने मिलन के उल्लास का अनुभव यह तीनों क्रियायें साथ-साथ चलती रहनी चाहिए। भजन के समय कोई भाव ध्यान में न आवे यह सोचना उचित नहीं। विचारों का न उठाना योगाभ्यास का चित्तवृत्ति निरोध साधन तो है पर भजन में इसका कुछ उपयोग नहीं। भजन में भावनायें तो रहनी ही चाहिए। जो भावना से तरंगित न हो वह भजन कैसा?
जिन्हें ईश्वर का निराकार स्वरूप प्रिय है वे उपासना के समय प्रकाश ज्योति अथवा समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का—विश्व-मानव का विराट् रूप ध्यान कर सकते हैं। जिन्हें साकार स्वरूप प्रिय है वे राम, कृष्ण, शिव, सूर्य, गायत्री माता, सरस्वती आदि का ध्यान कर सकते हैं। रूप कोई भी हो उसे पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक माना जाय। देवताओं को औंधे सीधे चरित्र बताये गये हैं उससे इस इष्ट ध्यान का कोई सम्बन्ध न जोड़ा गया। अन्यथा वे देव-दोष हममें भी आने लगेंगे।
आस्तिकता और समाज-कल्याण—आस्तिकता की भावना का एक महत्वपूर्ण और उज्ज्वल पहलू समाज-कल्याण की भावना का प्रसार भी है। नास्तिक मनुष्य के उच्छृंखल हो जाने की संभावना अधिक रहती है, जब कि भगवान पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति दुष्कर्मों से बचने की न्यूनाधिक प्रेरणा किसी न किसी रूप में पाता ही रहता है और उससे प्रायः लाभ भी उठाता है। आस्तिकता का वास्तविक तात्पर्य होता है अन्य मनुष्यों को, एक ही भगवान का पुत्र मानकर उनके साथ भ्रातृभाव की भावना रखना। यद्यपि विदेशों के कितने ही दार्शनिकों तथा आन्दोलनकारियों ने भी, जो ईश्वर पर विश्वास नहीं रखते, भ्रतृ-भाव के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, पर ऐसी बातों का प्रभाव लोगों की अन्तरात्मा पर नहीं पड़ता। परिणाम यह होता है कि ‘‘भ्रातृभाव’’ और ‘‘समता’’ का नारा लगाते हुये भी वे स्वार्थपरता की अनुचित प्रवृत्ति से ऊंचा नहीं उठ पाते। वे अपने निकटवर्तियों के साथ भी समता का व्यवहार करने की बजाय ‘‘शोषण’’ का व्यवहार ही करते हैं और अन्य देश वालों का तो खुल्लम खुल्ला खून चूसने में भी संकोच नहीं करते। पर जिस व्यक्ति का ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास है और जो मानव-मात्र में एक ही आत्मा के विद्यमान होने में थोड़ा भी विश्वास रखता है वह दूसरों का उत्पीड़न करने का बुरा समझता है।
बहुत से लोग पूजा-पाठ उपासना ध्यान, भजन कीर्तन, तीर्थ यात्रा आदि में विशेष दिलचस्पी रखने वाले लोगों को ईश्वर प्रेमी और आस्तिक समझते हैं। साथ जब वे उनकी स्वार्थपरता के कारण दूसरे व्यक्तियों के साथ दुर्व्यवहार करते देखते हैं, तो उनको आस्तिकता के महत्व पर सन्देह होने लगता है। इसमें गलती यह होती है कि केवल पूजा-पाठ भजन-कीर्तन को ‘‘आस्तिकता’’ का प्रमाण मान लिया जाता है, जब कि यह उसके बाह्य लक्षण मात्र हैं, जो व्यक्ति इन कार्यों को करते हुये व्यवहार विपरीत मार्ग पर चलता हो, उसके लिये यही निश्चय कर लेना चाहिये कि या तो वह इन कार्यों का वास्तविक तात्पर्य नहीं समझता और केवल परम्परा का पालन करने के विचार से वैसा करता रहता है, अथवा दूसरी बात है यह कि अनेक लोग जान बूझ कर अन्य लोगों को बहकाने के लिये भी ऐसा आचरण करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करने से अब लोग हमें ईश्वर भक्त समझने लगेंगे और इस प्रकार विश्वास जमा कर हम अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहेंगे। इस लिए आस्तिकता के प्रभाव का निर्णय करने के लिये हमको इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों के नकली पन को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये।
आस्तिकता की सचाई का सबसे पहला प्रमाण यही है कि उस व्यक्ति में लोक-कल्याण की आन्तरिक भावना हो। जो मनुष्य दूसरों के सुख-दुःख में हिस्सा बंटाता और दूसरों के हित के लिये अपने स्वयं का बलिदान करने के लिए प्रस्तुत रहता है, वही वास्तव में ‘आस्तिकता’ का अनुयायी माना जा सकता है। इस दृष्टि से हम तो प्रत्यक्ष में ईश्वर उपासना करने वाले, पर संसार के अन्धकार में संलग्न व्यक्तियों को ‘नास्तिक’ कहेंगे। इसके बजाय जन्म भर देवालय में न जाने वाले और भजन न करने वाले पर अपना जीवन लोक सेवा और परोपकार के लिये उत्सर्ग कर देने वालों को ‘आस्तिक’ मानेंगे।
नियमित उपासना के अतिरिक्त हर समय भगवान् का ध्यान रखा जाय, उसे चौबीस घण्टे के साथी की तरह विश्वस्त, आत्मीय समझा जाय, उसे प्रसन्न करने के लिये आदर्शवादिता से परिपूर्ण आचरण किया जाय और उन कुविचारों एवं दुष्कर्मों से दूर रहा जाय, जिनमें ईश्वर अप्रसन्न होता है। यह भूलना नहीं चाहिये कि पूजा अर्चन का उद्देश्य जीवन के कण-कण में आस्तिकता का समावेश करना, दिव्य जीवन की प्रेरणा ग्रहण करना है। जीवन घृणित एवं अव्यवस्थित बना रहा तो समझना चाहिए कि हमने प्राणरहित कलेवर मात्र ही पूजा है। आस्तिक व्यक्ति का हर विचार एवं हर कार्य उत्कृष्ट ही होना चाहिए इस कसौटी पर हम अपनी उपासना को सही सिद्ध करते हुए भजन-ध्यान करें तो उससे ईश्वर की सच्ची प्रसन्नता का लाभ मिलना सुनिश्चित है।