सच्ची आस्तिकता अपनायें

आस्तिकता का सच्चा स्वरूप

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‘ईश्वर है’—केवल इतना मान लेना मात्र ही आस्तिकता नहीं है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास कर लेना भी आस्तिकता नहीं है क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं अपितु एक अनुभूति है।

‘ईश्वर है’ यह बौद्धिक विश्वास है। ईश्वर को अपने हृदय में अनुभव करना, उसकी सत्ता को सम्पूर्ण सचराचर जगत् में ओत-प्रोत देखना और उसकी अनुभूति से रोमांचित हो उठना ही सच्ची आस्तिकता है। आस्तिकता की अनुभूति ईश्वर की समीपता का अनुभव कराती है। आस्तिक व्यक्ति जगत् को ईश्वर में, और ईश्वर को जगत् में, ओत-प्रोत देखता है। वह ईश्वर को अपने से और अपने को ईश्वर से भिन्न अनुभव नहीं करता। उनके लिए जड़-चेतनमय सारा संसार ईश्वर रूप ही होता है। वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी भी सत्ता अथवा पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं मानता।

प्रायः जिन लोगों को धर्म करते देखा जाता है उन्हें आस्तिक मान लिया जाता है। यह बात सही है कि आस्तिकता से धर्म-प्रवृत्ति का जागरण होता है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जो धर्म-कर्म करता हो वह आस्तिक भी हो। अनेक लोग प्रदर्शन के लिये भी धर्म-कार्य किया करते हैं। वे ईश्वर के प्रति अपना विश्वास, श्रद्धा तथा भक्ति को व्यक्त करते हैं किन्तु उनकी वह अभिव्यक्ति मिथ्या एवं प्रदर्शन भर ही हुआ करती है—ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लोग आवश्यकता, परिस्थिति, शिष्टाचार अथवा स्वार्थवश किसी के प्रति भाव न होने पर भी स्नेह, प्रेम श्रद्धा अथवा भक्ति दिखाया करते हैं।

आस्तिकता से उत्पन्न धर्म में प्रदर्शन सम्भव नहीं। जो अणु-अणु में ईश्वर की उपस्थिति अनुभव करता है, उससे प्रेम रखता है वह मिथ्या प्रदर्शन का साहस कर ही नहीं सकता। जो उस प्रेमास्पद सर्व शक्तिमान् को ही अन्दर बाहर सब जगह विद्यमान देखता है वह उसके लिये किसी अप्रिय व्यवहार को किस प्रकार कर सकता है? वह उसके अप्रसन्न हो जाने का भय मानेगा। सच्चे धार्मिक जिनकी धार्मिकता का जन्म आस्तिकता से होता है स्वतः धर्माचरण में प्रवृत्त रहते हैं, उन्हें प्रयत्न-पूर्वक वैसा करने की आवश्यकता नहीं होती। उनका प्रत्येक व्यवहार धर्म सम्मत एवं उसी से प्रेरित होता है। जीव मात्र को आत्मवत् तथा सम्पूर्ण जगत को परमात्मा का रूप मानने वाले धर्मात्मा से असंगत, अनुचित अथवा अकरणीय कार्य होना सम्भव नहीं।

प्रदर्शनकारी धर्म-ध्वजियों में आस्तिकता का विश्वास करना एक बड़ा भ्रम है। लोग इसी भ्रम के वशीभूत होकर उनकी पूजा प्रतिष्ठा तथा आदर सत्कार करने लगते हैं। वे उसे भगवान का बड़ा भक्त समझते हैं। अपनी अन्ध-श्रद्धा के कारण लोग धर्मध्वजियों के उन कृत्यों को नहीं देखते जो किसी भी धार्मिक के लिये सर्वथा अनुचित होते हैं। प्रातः काल दो-दो घन्टे, घन्टी बजाने वाले बड़ी-बड़ी प्रार्थनायें करने और आसन, प्राणायाम करने वाले अपने व्यावहारिक जीवन में निकृष्ट, स्वार्थों एवं संकीर्णताओं का आश्रय लिया करते हैं। तनिक-तनिक सी बात में झूठ बोलना, एक पैसे के लिये किसी का बड़े से बड़ा अहित कर देना, सहसामाजिकों के साथ असहयोग करना, उनसे स्पर्धा मानना और उनके प्रति ईर्ष्या द्वेष मानना, हर समय लोभ, क्रोध मोह से प्रेरित रहना उनका दैनिक जीवन का अंग बन जाता है। ऐसे आदमी भी यदि थोड़ी देर पूजा पाठ का प्रदर्शन कर देने पर धार्मिक अथवा आस्तिक माने जा सकते हैं। तो फिर यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये कि संसार आस्तिक है और अपनी-अपनी तरह से धर्मात्मा भी।

एक क्षण भी धर्म-कर्म न करने वाला यदि मनुष्यों का ठीक-ठीक मूल्यांकन करता है, समाज के प्रति अपने दायित्व का पालन करता है, सब को ईश्वर का रूप मान कर ईर्ष्या द्वेष नहीं रखता, जिसका हृदय प्रेम सहानुभूति तथा सम्वेदना से भरा है वही सच्चा धार्मिक तथा आस्तिक है। किन्तु खेद है कि लोग धार्मिकता आस्तिकता के मूल तत्व न देखकर प्रदर्शन के प्रवाह में बह जाते हैं।

ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना, यह मानना कि ईश्वर कोई है—आस्तिकता नहीं है। यह आस्तिकता की ओर उन्मुख होने की उपक्रम विधि है। उसकी ओर जाने वाले पथ पर चरण भर रखना है, चलना नहीं। इस मान्यता से जिज्ञासा का जन्म होता है जिससे मनुष्य आस्तिकता की ओर डरते डरते ही गतिशील होता है। फिर ज्यों-ज्यों जिज्ञासा बढ़ती जाती है गति तीव्र होती जाती है और मनुष्य ईश्वर के सान्निध्य की अनुभूति करना प्रारम्भ कर देता है।

प्रारम्भ में ईश्वर की सत्ता अथवा अस्तित्व का विश्वास उसकी ऐश्वर्य महिमा के प्रभाव से ही होता है। जब मनुष्य इस अनन्त एवं अनादि जगत पर दृष्टि डालता है, जीवों के जन्म-मरण की अनबूझ लीला देखता है, कण मात्र बीज से वट-वृक्ष का उदय देखता, जन्म, विकास ‘जरा एवं मृत्यु पर विचार करता, अनन्ताकाश में लटके तथा चक्कर लगाते ग्रह-नक्षत्रों का आधार ढूंढ़ता है तब उसका मन मान उठता है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता है अवश्य, जो कि इस समस्त सृष्टि का पालन, संचालन करती है। बाह्य जगत् के अतिरिक्त जब वह अंतर्जगत् में विवेक, बुद्धि, भावना तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकारों एवं प्रेम, सौहार्द, सम्वेदना आदि गुणों का उदय-अस्त एक वैज्ञानिक विधि से होना अनुभव करता है, तब हेतु भूत किसी अदृश्य कर्त्ता में विश्वास किये बिना चैन नहीं पड़ता। परमात्मा की ऐश्वर्य-महिमा से उद्भूत विश्वास आस्तिकता नहीं बल्कि आस्तिकता का प्रारम्भ भर है, जो जिज्ञासा का आधार पाकर कालान्तर में चिन्तन करने, आस्तिकता की अनुभूति विकसित करने में लगता है। ईश्वर की ऐश्वर्य-महिमा परिपक्व होकर जब आनन्द बन कर हृदय में उतरने लगती है तब मनुष्य में यथार्थ आस्तिकता का आविर्भाव प्रारम्भ हो जाता है। उसके लिये संसार का अणु-अणु आनन्द का स्रोत बन जाता है। जिस पर भी उसकी दृष्टि पड़ती है उसी में उसे परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं। उसका ईश्वर सम्बन्धी बौद्धिक विश्वास आत्मिक अनुभूति में बदल जाता है। संसार के सारे सुख-दुःख उसे आनन्द रूप बन जाते हैं। सच्ची आस्तिकता की उपलब्धि होते ही मनुष्य और ईश्वर के बीच पड़ा मोह, अज्ञान अथवा अन्धकार का आवरण हट आता है और अन्दर बाहर सब जगह ईश्वर के दर्शन करने लगता है। उसकी निष्ठा, उसकी श्रद्धाhttp://literature.awgp.org अपने अतिरेक में सारे तर्कों, संदेहों तथा अनिश्चयों को अपने प्रवाह में निमग्न कर लेती है।

आस्तिकता की यथार्थ अनुभूति मनुष्य में ईश्वरत्व का जागरण कर देती है। जिससे उसका सारा जीवन आध्यात्मिक भावों से भर कर उच्च से उच्चतम की ओर उठता चला जाता है और शीघ्र ही ‘सोऽहम्’ की स्थिति में पहुंच जाता है। मनुष्य का ध्यान जिस पर केन्द्रित हो जाता है उसके निरन्तर चिन्तन से मनुष्य मन, वचन, कर्म से उसी का स्वरूप हो जाता है। आस्तिक भाव में एकनिष्ठ हो जाने से निरन्तर ईश्वर का चिन्तन करते और सभी ओर, सब में उसको ही देखते रहने से मनुष्य स्वयं ईश्वर रूप हो जाता है। आस्तिक मनुष्य का ध्यान हर घड़ी ईश्वर की ओर लगा रहता है। वह जीवन के सारे काम एक उसी के लिये ही किया करता है उसी की ओर से उसी के लिये काम करने के कारण उनकी अच्छाई-बुराई का सारा दायित्व परमात्मा पर रहता है। अपने उत्तरदायित्व का ध्यान रखते हुये परमात्मा आस्तिक व्यक्ति को सदा ही असत् कर्मों से बचा कर सत्कर्मों की ओर चलाया करता है। वह पिता की तरह अभिभावक बनकर अपने पर निर्भर विश्वासी की हर अनिष्ट से रक्षा किया करता है। जग-प्रांगण में शिशु की तरह, कर्म क्षेत्र में खेलते हुए अपने आस्तिक को हारने अथवा गिनने से ममतामयी माता की तरह बचाये रहता है। अपने अस्तित्व को परमात्मा में विलीन कर देने पर आस्तिक को जीवन की सफलता-असफलता की चिन्ता नहीं रहती। आस्तिक भाव में उतर जाने का अर्थ है—परमात्मा की गोद में चला जाना, जहां केवल आनन्द ही आनन्द है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना आस्तिकता की ओर उन्मुख होने का प्रारम्भिक उपक्रम है और विश्वास से उत्पन्न जिज्ञासा उसकी ओर गतिशील होना है, किन्तु अशुद्ध भावना के कारण ईश्वर की ओर गतिशील होने वाले जिज्ञासु में एक भय एक अनिश्चितता रहा करती है। जिज्ञासु की इस शंकाजन्य भय से रक्षा करना ईश्वर का ही दायित्व होता है जिसे वह अवश्य ही अनुग्रह पूर्वक पूरा करता है। एक बार आस्तिकता के बीज साहस पूर्वक बो लेने के बाद मनुष्य को फिर किसी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए। ईश्वर की ओर उसी में ध्यान लगाये, उन्मुख हो चलने पर ईश्वर स्वयं ही उसकी रक्षा किया करता है।

इतिहास में आस्तिक भावना के धनी, सन्तों एवं भक्तों के असंख्यों उदाहरण पाये जाते हैं। प्रह्लाद, ध्रुव, मीरा, ईसा, मन्सूर आदि सब सच्ची आस्तिकता के जीते-जागते उदाहरण हैं। प्रह्लाद को पहाड़ पर से समुद्र में गिराया गया, आग में जलाया गया, लोहे के गर्म खम्भे में बांध कर खड्ग से धमकाया गया किन्तु सच्चे आस्तिक भावों के कारण उसे उन सब भय परिस्थितियों में भी ईश्वर के ही दर्शन होते रहे जिससे उसे कोई भय अनुभव न हुआ और उसने सारे अत्याचार को हंसते-हंसते सहा। सात वर्ष की अवस्था में निर्जन वन में शेर-चीतों और भालुओं के बीच तप करते हुए ध्रुव को कोई भय न लगा क्योंकि वह सच्चे आस्तिक थे और हिंसक जीवों में भी उस परमात्मा के दर्शन कर रहे थे। मीरा को विष दिया, सांप को गोद में खिलाया अडिग आस्तिकता के बल पर काला सांप और काला विष उसके लिए भावना के अनुसार कृष्ण रूप बन गये। महात्मा मन्सूर और ईसामसीह ने आस्तिकता के बल पर ही शूली एवं क्रास पर लटक कर अपनी विश्वास पूर्ण मुस्कान को जीवित रखा। अपनी भावना की वास्तविकता के प्रभाव से उन्हें मृत्यु में भी जीवन और यातना में भी सुख का अनुभव होता रहा। ऐसा नहीं कि ईश्वर भक्त का शरीर किसी जादू का हो जाता है और उस पर आघात प्रतिघातों का कोई प्रभाव नहीं होता है ऐसी मान्यता मिथ्या है। प्रकृति अपना काम आस्तिक-नास्तिक सब पर समान रूप से करती है। घटनाओं की प्रतिक्रिया सब पर होती है। आस्तिक की विशेषता यह होती है कि वह उन कष्टों को नास्तिकता समझता और अपनी आदर्श भक्ति की रक्षा में जो सन्तोष मिलता है। उसकी तुलना में उन कष्टों को कोई महत्व नहीं देता। उसी प्रकार उनकी मानसिक शक्ति किसी भी परिस्थिति में नष्ट नहीं होने पाती।

आस्तिकता सच्ची भक्ति, सच्चा जीवन तथा सच्चा धर्म है, जिसे अपनाने से मनुष्य सुख दुःख परे होकर ईश्वर भक्त हो जाता है।
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