सच्ची आस्तिकता अपनायें

आस्तिकता का स्वरूप एवं प्रतिफल

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आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर को मानना, मानने का अर्थ है उसका अनुयायी होना, अनुयायी होने का तात्पर्य है उनके विचार, निर्देश एवं आदर्श के अनुसार चलना। जो अपने को आस्तिक मानता है उसे यह भी मानना होगा कि वह परम प्रभू परमात्मा का अनुयायी है, उसका प्रतिनिधि है उनका ऐसा प्रतिबिम्ब है जिसको देखकर परमात्मा के स्वरूप तथा उसके गुण तथा विशेषताओं का आभास पाया जा सकता है परमात्मा में विश्वास करते हुए भी जो अपनी रीति-नीति उसके अनुरूप नहीं बनाता, पवित्र एवं उन्नत आत्मा नहीं बनाता वह धृष्ट विद्रोही तथा प्रच्छन्न नास्तिक है।

आस्तिकता स्वयं में ही एक उदात्त भावना है जिसे हर मनुष्य को अपने में विकसित करना ही चाहिए। उस परमात्मा को मानना, उसमें विश्वास करना, मनुष्य का परम पावन कर्त्तव्य है जिसने चिदानन्द का साधक हर समर्थ जीवन दिया है, एक से एक बढ़कर विशेषतायें एवं क्षमतायें दी हैं। साथ ही आस्तिकता एक बहुत बड़ा सम्बल भी है। आस्तिक भावना एक ऐसी अक्षय एवं अमोघ शक्ति है जिसके सहारे मनुष्य भयानक से भयानक संकट-सागर को सहज ही पार कर जाता है। संसार में किसी समय भी कोई संकट आ सकता है और ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि उस समय उससे बचने अथवा उबरने का कोई साधन न हो, संसार के सारे मित्रों, प्रेमियों, हितैषियों ने साथ छोड़ दिया हो, मनुष्य हर तरह से निरुपाय एवं असहाय बन गया हो, ऐसी भयानक स्थिति के अवसर पर उस निरुपाय एवं असहाय मनुष्य को आस्तिकता बहुत बड़ी सहायता बन जाती है। सब ओर से निराश होकर आस्तिक व्यक्ति ईश्वर का सहारा पकड़ लेता है उसे ही अपना सबसे बड़ा सहायक एवं साथी समझ लेता है।

सर्वशक्तिमान् परमात्मा का अंचल पकड़ते ही उसमें आत्मबल, आत्मविश्वास तथा उत्साह पूर्ण आशा का संचार होने लगता है प्रकाश पाते ही अन्धकार दूर हो जाता है मनुष्य में संकट सहने अथवा उसको दूर कर सकने का साहस आ जाता है। ईश्वर में अखण्ड विश्वास रखने वाला सच्चा आस्तिक जीवन में कभी हानि नहीं मानता। एक तो उसे यह विश्वास रहता है कि परमात्मा जो भी सुख, दुःख, अनुग्रह किया करता है उसमें मनुष्य का कल्याण ही निहित रहता है। इसलिए वह किसी हर्ष-उल्लास अथवा कष्ट-क्लेश से प्रभावित नहीं होता। दूसरे परमात्मा के प्रति आस्थावान् होने से उसमें संकट सहने की शक्ति बनी रहती है। आस्तिक व्यक्ति परमात्मा का नाम लेकर संकट सहना क्या उसका नाम लेकर जहर पी जाते और शूली पर चढ़ जाते हैं। मीरा, प्रह्लाद, ईसा और मन्सूर ऐसे ही आस्तिक थे।

आस्तिक व्यक्ति के पास परमात्मा जैसा कोई अन्य सम्बल अथवा शक्ति साहस का स्रोत नहीं होता इसलिए वह निरुपाय अथवा निःसहाय की दशा में संकट आ जाने पर बहुत अस्त-व्यस्त, अशान्त एवं हताश हो जाता है। मानसिक सन्तुलन बनाये रहने के लिए उसके पास आस्तिक भाव जैसा कोई मानसिक आधार नहीं होता इस अभाव से या तो वह अपने जीवन से भटक जाता है, कुमार्गगामी, सिद्धांत-हिंसक आदर्शहीन होकर अपनी रक्षा करता है अथवा हार मानकर मैदान से हट जाता है, अथवा विक्षिप्त होकर आत्महत्या तक कर देता है। संसार में मानसिक संकटों से घबराकर विक्षिप्त होने अथवा आत्महत्या करने वालों की यदि मनः परीक्षा सम्भव हो सके और उनके विचारों तथा विश्वासों का पता लगाया जा सके तो निश्चय ही वे नास्तिक भावना वाले निकलेंगे।

आस्तिकता न केवल बाह्य संकटों में सहायक होने वाला सम्बल अथवा सहारा है, अपितु वह आन्तरिक पशुओं, काम, क्रोध, मद, लोभ आदि से भी रक्षा करती है। आस्तिक व्यक्ति अणु-अणु में परमात्मा का दर्शन करता है। उसका आत्म विश्वास रहता है कि जिस प्रकार मैं परमपिता परमात्मा का प्रिय पुत्र, अनुयायी अथवा प्रतिबिम्ब हूं, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी भी हैं। इस विश्वास से पुलकित सच्चा आस्तिक प्रत्येक प्राणी को अपना भाई, बहन ही मानता और तदनुरूप प्रेम व्यवहार करता है। सम्पर्क में आने वाला जब प्रत्येक व्यक्ति अपना भाई-बहन ही है तब सच्चा आस्तिक उनसे कठोर, क्रूर, अथवा छल, कपटपूर्ण व्यवहार किस प्रकार कर सकता है? वह तो सबसे प्रेमपूर्ण निश्छल एवं उपयुक्त व्यवहार ही करेगा। बन्धुभाव से प्रेरित वह प्रत्येक की सहायता करने को हर समय तैयार रहेगा। वह किसी से स्वार्थ अथवा विश्वासघात पूर्ण व्यवहार कदापि नहीं करेगा। इस प्रकार सच्चा आस्तिक सहज ही में आत्मकल्याणकारी भव्य भावना का अधिकारी बन जाता है। काम क्रोध अथवा लोभ ये शत्रु तभी आक्रमण करते हैं जब मनुष्य का मन—मलीन अथवा अरक्षित रहता है। आस्तिक व्यक्ति का ईश्वरीय विश्वास एवं परमात्मा की अनुभूति उसके हृदय को प्रसन्न एवं उज्ज्वल बनाने में सहायक होते हैं। उनकी भावनाओं में हर समय परमात्मा का विश्वास रहता है जिससे उसके सुरक्षित हृदय पर आसुरी वृत्तियां आक्रमण नहीं कर पाती। आस्तिक भावना से परमात्मा का सहारा पाकर मनुष्य नितान्त निर्भय एवं निश्चिन्त हो जाता है। उसके अखण्ड विश्वास के रूप में उनका साथी मित्र, पिता तथा रक्षक हर समय उनके साथ रहता है। परमात्मा रूपी पिता अथवा रक्षक साथ रहने पर भय अथवा चिन्ता किस बात की? संसार में ऐसा शक्तिशाली दुष्ट कौन हो सकता है जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा से रक्षित किसी आस्तिक का बाल भी बांका कर सके। अखण्ड विश्वास के साथ जब कोई आस्तिक भूत-भविष्य वर्तमान के साथ अपना सम्पूर्ण जीवन परमात्मा अथवा उसके उद्देश्यों को सौंप देता है, तब उसे अपने जीवन के प्रति किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रहती। तब भी यदि वह चिन्ता करता है तो समझना चाहिए कि उसने अपना दायित्व पूरी तरह से सर्वशक्तिमान् को सौंपा नहीं है, अथवा उसकी ईमानदारी में विश्वास नहीं करता—कि धरोहर रूप में उसके पास सौंपे हुए जीवन की वह खोज खबर लेता ही रहेगा जो अपना सर्वस्व पूर्णरूप से परमात्मा को सौंप कर उद्देश्य में नियोजित हो जाता है, पूरी तरह से उसका बन जाता है, परमात्मा उसके जीवन का सारा दायित्व खुशी-खुशी अपने ऊपर ले लेता है और कभी भी विश्वासघात नहीं करता आत्म-समर्पण में कमी अथवा दुरभिसंधि होने पर ही उसकी उपेक्षा बरती जा सकती है अन्यथा अनुभूति से परमात्मा में समाहित हो जाने पर किसी प्रकार का भय अथवा चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रहती। निश्चिन्तता एवं निर्भयता में कितना अनिवर्चनीय सुख है इसको एक सच्चा आस्तिक ही अनुभव कर सकता है।

असंदिग्ध आस्तिकता ईश्वर के साथ भावनात्मक सत्संग है जब साधारण सज्जनों तथा सत्पुरुषों का संग असुर को देवता बना देता है तब ईश्वर जैसी परिपूर्ण एवं सर्वगुण सम्पन्न सत्ता का संग मनुष्य को क्या बना देगा इसकी प्रसन्न कल्पना उसका संग करके ही अनुभूत की जा सकती है, कही नहीं जा सकती है।

मनोवैज्ञानिक तथ्य के अनुसार जो जिसके संसर्ग में रहता है वह उसी का अनुरूप एवं अनुभव हो जाता है। ऐसा तो तब हो जाता है जब मनुष्य बाह्य रूप में किसी के सम्पर्क से आता है। भावनाओं का समावेश होने पर तो यह अनुरूपता और भी अधिक गहरी होकर सद्रूपता में बदल जाती है। जब साधारण लौकिक व्यक्तियों का सत्संग इस प्रकार प्रतिफलित होता है तब उन सर्व एवं सम्पूर्ण श्रेय तथा श्रीमन्त सर्वशक्तिमान के सम्पर्क में आकर सोऽहं की भावना भूमि के स्तर पर आकर मनुष्य किस अनिर्वचनीय आत्मकल्प की दिशा में गतिमान् हो उठेगा, इसे उस सौभाग्यपूर्ण स्थिति में पहुंचे बिना किस प्रकार बताया जा सकता है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि भृंगी कीट की तरह मनुष्य ईश्वर रूप हो जायगा। इस कल्पनातीत एवं अन्तिम पदवी की प्रदायिनी आस्तिकता को कौन बुद्धिमान् अपने अन्तर एवं अणु-अणु में ओत-प्रोत करने का प्रयत्न नहीं करेगा।

आस्तिकता सदाचार की जननी है। जो आस्तिक होगा, जो सबमें और सब जगह भगवान् की उपस्थिति देखेगा वह कोई दुराचार करने का साहस नहीं करेगा। सदा सर्वदा ऐसे ही कार्य करने और भावनाएं रखने का प्रयत्न करेगा, जो सच्चे आस्तिक-ईश्वर के अनुयायी के अनुरूप हों। ईश्वर निर्देश एवं आदर्श, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता। प्रेम सहानुभूति, सहयोग, सत्य तथा सेवाभाव आस्तिक के विशेष गुण हैं। चोरी, मक्कारी, छल-कपट ईर्ष्या-द्वेष लोभ मोह, काम आदि की दूषित प्रवृत्तियों से आस्तिक व्यक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं रहता। आस्तिकता द्वारा ईश्वर से भावनात्मक सम्पर्क रखने वाला तो उसके अनुरूप ही अपने जीवन को उन्नत एवं उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करेगा। आज संसार जिस शान्ति, व्यवस्था तथा सहयोग भावना की आवश्यकता अनुभव कर रहा है वह आस्तिकता द्वारा सहज ही प्राप्त हो सकती है।

यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति पूर्णरूप से आस्तिक होकर ईश्वरीय आदर्श पर चलने लगे तो न तो कोई किसी को सताये और न प्रवंचित करने का प्रयत्न करे। हर कोई अपनी सीमाओं में सन्तुष्ट होकर शान्ति पूर्वक जीवन यापन करे। आज संसार में फैला हुआ सारा अनाचार इसी कारण है कि लोग केवल अपने स्वार्थ को देखते हैं, किसी दूसरे की सुख-सुविधा अथवा अधिकार सीमा का ध्यान नहीं रखते। यदि आज आस्तिकता का व्यापक प्रचार हो जाये लोग ईश्वर को सच्ची भावना से जानने, मानने और उससे डरने लगें तो कल ही सारे अपराधों का अन्त हो जाये और चिरवांछित रामराज्य साकार हो उठे।

जप-तप, पूजा पाठ कर लेने अथवा किसी देव प्रतिमा के सम्मुख सिर नवां देने मात्र से ही कोई आस्तिक नहीं हो जाता। आस्तिकता का अर्थ है अपनी भावनाओं एवं क्रिया को उत्कृष्ट बनाना। ईश्वर में विश्वास करता हुआ और अपने को आस्तिक घोषित करता हुआ भी जो व्यक्ति सांसारिक तृष्णा, वासना का दास बना हुआ है, वह आस्तिक नहीं आडम्बरी है किसी प्रकार भी आस्तिक मानकर उसका आदर नहीं किया जा सकता। आस्तिकता का अर्थ है प्राणीमात्र में परमात्मा की झांकी देखना और तदनुसार ही प्रत्येक का आदर करना, उसके साथ उदारता, दया और प्रेम का व्यवहार करना ही आस्तिक जनों के श्रेष्ठ लक्षण हैं।

आस्तिक भावना शक्ति रूप में परिपक्व होकर मनुष्य को कृतार्थ कर देती है। अपने को आस्तिक कहते हुए भी जिसमें भगवद्भक्ति का अभाव है, वह झूठा है, उसकी आस्तिकता अविश्वसनीय है। आस्तिकता के माध्यम से जिसके हृदय में भक्ति भावना का उदय हो जाता है, आनन्द मग्न होकर उसका जीवन सफल हो जाता है। भक्ति का उदय होते ही मनुष्य में सुख-शान्ति, सन्तोष आदि के ईश्वरीय गुण फूट पड़ते हैं। भक्त के पास अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति आन्तरिक दुःख, क्षोभ, ईर्ष्या का कोई कारण नहीं रहता। भक्त का दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक हो जाता है। उसे संसार में प्रत्येक प्राणी से प्रेम तथा बन्धुत्व अनुभव होता है। जन-जन उसका तथा वह जन-जन का होकर लघु से विराट् बन जाता है। आठों याम उसका ध्यान प्रभु में ही लगा रहता है। संसार की कोई भी बाधा-व्यथा उसे सता नहीं पाती। वह इसी शरीर में जीवन मुक्त होकर चिदानंद का अधिकारी बन जाता है। यह है आस्तिकता की परिपक्वता का परिणाम। तब भला कौन ऐसा होगा जो भगवान् से सान्निध्य संसर्ग तथा उसकी भक्ति पाकर कृतार्थ होने के लिये सच्चा आस्तिक बनकर अपना जीवन धन्य न करना चाहेगा।

भक्ति का वास्तविक स्वरूप—प्रेमी को सदा देना ही देना पड़ता है। यदि हम सच्चे भक्त हों तो उससे कोई भौतिक उपलब्धि की कामना न रखें वरन् यह देखें कि वह हमसे क्या मांगता और क्या चाहता है। उसी की पूर्ति में लग पड़े तो उस त्याग की तुलना से असंख्य गुना प्रेमोपहार हमें प्राप्त होगा। देने से मिलता है यह अनादि सिद्धान्त हर—आस्तिक को सीखना चाहिए। गांधी, बुद्ध आदि ने जितना त्याग किया उसकी तुलना में बहुत अधिक उन्हें मिला। ईश्वर त्यागने वाले को देता है और निरन्तर झोली पसारे रहने वाले भिखमंगे की ओर से मुंह फेर लेता है। हम भिखमंगे नहीं प्रेमी बनें। प्रेमी कहने से कोई प्रेमी नहीं होता वरन् उसे अपने प्रेम के प्रमाण स्वरूप त्याग का आचरण करना पड़ता है। हम अपनी प्रतिभा, विद्या, समृद्धि क्षमता का कितना अंश ईश्वरीय निर्देशों की पूर्ति में—विश्व मानव की पूजा में लोक-मंगल में लगाते हैं, यही एक मात्र वह कसौटी है जिस पर हमारी भक्ति भावना परखी जायगी। हमें ईश्वर से निरन्तर प्रेम करना चाहिए ताकि प्रेम करना हमारा स्वभाव बन जाय। वह स्वभाव अपने आत्मा से, अपने परिवार से, अपने समस्त संसार से प्रेम करने में प्रतिफलित होना चाहिए। प्रेम इस विश्व का अमृत है। उसकी आन्तरिक अनुभूति ईश्वर दर्शन के समान ही मधुर होती है। यह अमृत जब मनुष्य के अन्तःकरण में से बाहर प्रकट होता है तो जिस पर भी उसके छोटे पड़ते हैं वह धन्य हो जाता है इसकी मंगलमयी प्रतिक्रिया से उस सच्चे प्रेमी का ईश्वर भक्त का आनन्द और भी दिन-दिन बढ़ता जाता है।

इस संसार में ईश्वर भक्ति के द्वारा विकसित हुई प्रेम भावना यदि बिखर पड़े तो चारों ओर स्वर्ग का वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे कोई किसी को न तो सताये और न ठगे। एक दूसरे को प्रेम और सहयोग प्रदान करें तो प्रगति की समृद्धि की कोई सीमा न रहे। अपराधों का कहीं पता भी न चले। विश्वशान्ति का लक्ष्य साकार होकर सामने उपस्थित हो जाय। जिस सतयुग को, धर्मराज्य या रामराज्य को लाने की हम कामना करते हैं वह ईश्वर भक्ति के द्वारा आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के द्वारा ही सम्भव है। जेल, पुलिस कचहरी एवं कानून से दुष्प्रवृत्तियां नहीं रुक सकती। मनुष्य के भीतर रहने वाली असुरता प्रतिबन्धों, जीवन दण्डों से बच निकलने के अनेकों मार्ग ढूंढ़ लेती है। दण्डित होने पर और भी अधिक ढीठ एवं निर्लज्ज बन जाता है। स्थिर उपाय तो यही है कि हर मनुष्य दूसरों में परमेश्वर की झांकी करके उसके साथ सद्-व्यवहार करना सीखे और उस सर्वज्ञ की निष्पक्ष न्यायशीलता का स्मरण रखते हुए हर बुरे काम से बचे। व्यापक सदाचरण की आधारशिला आस्तिकता ही हो सकती है और उसी आधार पर मानव जाति की हर समस्या को सुलझाया जा सकना सम्भव होगा।

कृतज्ञता की भावना—कृतज्ञता मनुष्य का सबसे बड़ा आध्यात्मिक गुण है जो दूसरों के लिये उपकारों का स्मरण रखता है, उस सहायता के लिए सद्भावना रखता है और यथासम्भव बदला चुकाने का प्रयत्न करता है। उसे आध्यात्मिक व्यक्ति कहना चाहिए। आध्यात्मिकता में प्रेम भावना की तरह कृतज्ञता भी उसका दूसरा प्रतीक है। यदि हमें कृतज्ञता की दृष्टि उपलब्ध है तो यह सारा संसार ही उपकारी एवं सहयोगी प्रतीत होने लगे। कृतघ्नता का असुर जब हमारी आंखों में बैठा होता है तब दूसरों की छोटी-छोटी कमियां भी पहाड़-सी मालुम देती हैं और उनके उपकार छोटे बनकर उस पहाड़ के पीछे छिप जाते हैं, तब यह सारा संसार दुष्ट एवं शत्रु प्रतीत होने लगता है। किन्तु यदि उपकारों को पहाड़ और त्रुटियों को उपेक्षणीय मानने की अपनी दृष्टि हो तो यह संसार स्नेही, सौम्य एवं मित्र प्रतीत होगा। कृतज्ञता के दृष्टिकोण में स्वर्ग और कृतघ्नता की दृष्टि में नरक का निवास रहता है। दोनों में से हम जिस प्रवृत्ति के भी अभ्यस्त होते हैं उसी के अनुरूप इस संसार का वातावरण हमें दिखाई देने लगता है। हमारे चारों ओर सुखद वातावरण बना रहे इसके लिये कृतज्ञता की भावनायें हमें अपने स्वभाव में समाविष्ट करनी चाहिए। उपासना के द्वारा हम इस सद्प्रवृत्ति का भी सहज अभ्यास कर लेते हैं।

ईश्वर के द्वारा हमारे ऊपर जो उपकार हैं, उनका स्मरण करने का स्तुतिगान उपासक के मन में परम प्रभु के प्रति कृतज्ञता का भाव भर देता है। सभ्य समाजों का यह उचित शिष्टाचार है कि उपकार करने वाले को धन्यवाद दिया जाय। पाश्चात्य देशों में छोटे-छोटे सहयोगों के लिए घर, कुटुम्ब में भी परस्पर धन्यवाद, 'थैंक्यू ’—कहने का शिष्टाचार बरतते हैं। जिस ईश्वर के हमारे ऊपर अनन्त उपकार है उसके लिए हजार बार भी यदि प्रतिदिन सराहा जाय तो कम है। नाम जप या ईश्वर स्मरण का एक बड़ा प्रयोजन हमारी कृतज्ञता वृत्ति का विकास करना भी है। यह मनोवृत्ति संसार में जितनी ही अधिक बढ़ेगी, उतना ही सद्भाव एवं सहयोग बढ़ेगा, परस्पर एक दूसरे का सम्मान करेंगे और सुखी रहेंगे। व्यक्ति और समाज के लिए परम श्रेयस्कर इस कृतज्ञता की सद्प्रवृत्ति का उपासना द्वारा संसार में अभिवर्धन ही होता है।

समग्र सुविकसित व्यक्तित्त्व—परमात्मा का ध्यान करते हुए उपासक को एक समग्र सुविकसित परम पुरुष की कल्पना करनी होती है। राम, कृष्ण, शिव, सरस्वती, दुर्गा, गायत्री आदि के रूप में हम एक सर्वांगपूर्ण, सर्व सद्गुण सम्पन्न व्यक्तित्व का ध्यान करते हैं उसे अपना इष्ट मानते हैं। जिसका भी हम तन्मयतापूर्वक ध्यान करेंगे उसके अनुरूप हमारा व्यक्तित्व भी बनता चलेगा। भृंग और झींगुर का उदाहरण प्रसिद्ध है। कहते हैं कि झींगुर भृंग के चंगुल में फंस जाता है, और उसका निरन्तर गुंजन सुनता एवं स्वरूप देखता है। फलतः कुछ समय में वह स्वयं भी शरीर एवं मन से भृंग बन जाता है। यह उदाहरण कितना सच है कह नहीं सकते। पर यह तथ्य मनोविज्ञान शास्त्र के आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जैसा लक्ष्य बनाता है और उसका जितनी भावना एवं तन्मयता के साथ चिन्तन करता है, उतना ही वह ऊंचे ढांचे में ढलने लगता है। एक परिपूर्ण समस्त सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न व्यक्तित्त्व के रूप में परमेश्वर का जब ध्यान किया जाता है, उसको अपने में और अपने को उसमें देखने का अभ्यास किया जाता है तो उसका परिणाम यह होता है कि उस इष्टदेव की विशेषतायें अपने भीतर बीज रूप से विकसित हों और आगे चलकर वे मूर्तिमान बन जायें। आत्म विकास की दृष्टि से यह इष्टदेव के ध्यान वाली प्रक्रिया बहुत ही उत्तम है। इसमें इतनी ही सतर्कता की आवश्यकता है कि इष्टदेव को दोष, दुर्गुण, अभाव एवं कुरूपताओं से आच्छादित न किया जाय, अन्यथा वे दोष भी अपने में आने लगेंगे। मांसाहार, मद्यपान, व्यभिचार, छल जैसे दूसरों का आरोपण किसी को भी अपने इष्टदेव में नहीं करना चाहिए। अच्छा यही है कि उन्हें पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक माना जाय और कोई भला बुरा चरित्र उनका मन में चित्रित न किया जाय।

अन्तरात्मा की पुकार—अन्तरात्मा की अपनी एक आवाज होती है जो हमें ईश्वरीय मार्ग दर्शक की तरह रास्ता बताती है। पापकर्म में हाथ लगते ही अन्तःकरण कांपता एवं धिक्कारता है। सत्कर्म करने पर वह प्रफुल्लता, हल्कापन एवं सन्तोष अनुभव करता है। आत्मा की इस पुकार को यदि हम सुनने लगें और उसका अनुसरण करें तो निश्चय ही इससे जीवन को सार्थक बनाने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। जीवन-शोधन का प्रयत्न करते रहने पर आत्मा पर चढ़े हुए मल, आवरण, विक्षेप हट जाते हैं। अंगार के ऊपर राख की पर्त जम जाने से वह ठण्डा और काला प्रतीत होता है। जब राख हटा दी जाती है तो भीतर का अंगार फिर गर्मी और रोशनी के साथ प्रकट होता है। उपासना द्वारा आत्मा पर चढ़े हुए आवरण हटते हैं और वह राख हटाये हुए अंगारे की तरह अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट होती है। ऐसी दशा में वे ऋद्धि-सिद्धियां स्वयमेव प्रकट होने लगती हैं जो कठिन योगाभ्यास द्वारा योगीजनों को उपलब्ध होती हैं। उपासना मनुष्य के आत्म-विकास का महत्वपूर्ण माध्यम है। कुछ कहने की आवश्यकता नहीं कि विकसित व्यक्तित्व ही पूर्णता के परमपद का अधिकारी होता है।

जीव जब तक वासना और तृष्णा के बन्धनों में बंधा है तब तक वह माया ग्रसित एवं भवसागर में फंसा हुआ माना जायेगा और जब वह इन कषाय-कल्मषों से ऊपर उठ जाता है तब उसे ब्रह्मलीन होने में—सायुज्य मुक्ति पाने में किसी प्रकार की बाधा नहीं रह जाती। लकड़ी जब तक मौजूद हैं तभी तक अग्नि की लौ उठेगी। जब लकड़ी समाप्त हुई तो लौ भी व्यापक अग्नि तत्त्व में लय हो जाती है। इसी प्रकार जब तक वासना, तृष्णा की लकड़ी मौजूद है जीव बन्धन में पड़ा माना जाता है और जैसे ही संकीर्णता दूर हुई कि परमात्मा से मिलन प्रत्यक्ष होगा। हवा का आवरण ही पानी से बबूले को पृथक करता है, हवा हटी कि बबूला फूटकर जल राशि में लय हुआ। उपासना हमारे आत्म-विकास का पथ प्रशस्त करती है और हम अपूर्णताओं को, दोष दुर्गुणों को छोड़ते हुए पूर्ण परमात्मा की पूर्णता में लय हो जाते हैं। आत्मिक स्तर का विकास ही आत्म-कल्याण का एक मात्र उद्देश्य होता है।

जीवन साथी का सहारा—उपासना के माध्यम से जब हम परमात्मा को अपने भीतर और बाहर समाया हुआ देखते हैं, अपना सखा, स्वामी, मित्र और घनिष्ठ आत्मीय मानते हैं, तो स्वभावतः हमारा साहस असंख्य गुना बढ़ जाता है। सशस्त्र पुलिस गारद के पहरे में हम रात्रि को भयानक जंगलों के बीच भी निर्भय होकर जा सकते हैं क्योंकि तब यह विश्वास रहता है, कि साथी पुलिस गारद दुष्ट आक्रमणकारी की दाल न गलने देगा। इसी प्रकार अनन्त सामर्थ्य सम्पन्न परमेश्वर को जब हम हर घड़ी अपने साथ देखते और अपना विश्वास पात्र मित्र मानते हैं तो हर प्रकार के भय से छुटकारा मिल जाता है। भय ही आत्मिक अशान्ति का कारण है। निर्भयता के बराबर और कोई सुख नहीं। जो निर्भय है, निश्चिन्त है, जिसे अनन्त बलशाली का सहारा है उसे अपने भविष्य के बारे में आशंका ही क्या हो सकती है? कुशल ड्राइवर के द्वारा चलाई जा रही रेल में हम सोते चले जाते हैं तो फिर जीवन की नाव परमात्मा के हाथ में सौंप देने वाले भगवान् के भक्त को अपने भविष्य के बारे में कोई चिन्ता एवं उद्विग्नता क्यों होगी? सचमुच जो अटूट विश्वास परमात्मा पर रखते हैं और उसकी मर्जी में अपनी मर्जी मिलाकर निश्चिन्त रह कर कठोर कर्म करते रहते हैं ऐसे सच्चे विश्वासियों की नाव वह कभी डूबने भी नहीं देता।
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