जड़ पदार्थों का निर्माण एवं संचालन चेतन तत्त्व द्वारा होता है। संसार में जितनी भी निर्जीव वस्तुएं गतिशील दिखाई पड़ती हैं, इनका संचालन चेतन प्राणियों द्वारा होता है। रेल, जहाज, मोटर, बैलगाड़ी, मशीनें, तार, रेडियो आदि में हलचल दिखाई देती है, वह मनुष्य कृत है। मनुष्य या पशुओं द्वारा यदि प्रयत्न परिश्रम न किया जाय तो कृषि, उद्योग, परिवहन, शिक्षा, विज्ञान आदि की जितनी भी हलचलें दिखाई देती हैं, ये कहीं भी दिखाई न दें। जड़ पदार्थों का अस्तित्त्व तो है पर वे निर्जीव होने के कारण हलचल नहीं कर सकते। शरीरों को ही लीजिये कितने उपयोगी और आश्चर्यजनक कार्य वे करते हैं पर यदि प्राण निकल जायें तो सुन्दर एवं समर्थ देह भी निःचेष्ट होकर सड़ने लग जाती हैं।
ईश्वर और उसका अस्तित्व—जिस प्रकार व्यवहार संसार में होने वाली हलचलों का संचालक जीव है उसी प्रकार इस विश्व ब्रह्माण्ड का, पंचतत्वों का निर्माता एवं संचालक परमेश्वर है। शरीर के भीतर रहने वाली चेतन सत्ता आत्मा कहलाती है और विश्व शरीर के भीतर रहने वाली चेतना को परमात्मा कहते हैं यदि परमात्मा न हो या निष्क्रिय हो जाय तो विश्व की समस्त शक्तियां एवं व्यवस्थायें विशृंखलित हो जायें और तब प्रलय होने में क्षणभर को भी देर न लगे।
जिस प्रकार किसी मशीन का संचालन बिजली द्वारा, शरीर का जीव द्वारा होता है, उसी प्रकार समस्त विश्व की सक्रियता परमात्मा की उपस्थिति के कारण ही है। सूर्य चन्द्रमा का समय पर निकलना, अस्त होना, दिन और रात का नियमित रीति से बदलना, ऋतुओं का परिवर्तन, भूमि की उर्वरता, पवन की गतिशीलता, जल की आर्द्रता, शरीरों एवं पेड़-पौधों का जन्म वृद्धि एवं मरण का क्रम, जीवों एवं बीजों द्वारा अपनी ही जाति के प्रजनन, ईश्वर आकर्षण आदि विभिन्न सूक्ष्म शक्तियों का अपने-अपने ढंग से नियमित संचरण आदि को गम्भीरता से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस विश्व का नियामक एवं संचालक कोई चेतन-तत्व है। यदि वह न हो तो आकाश में घूमने वाले अरबों-खरबों ग्रह-नक्षत्र अपने स्थान से तनिक भी भटक जाने पर एक दूसरे से जा टकरायें और यह सुन्दर विश्व देखते-देखते नष्ट-भ्रष्ट होकर धूल होकर बिखर जाय।
परमात्मा के अस्तित्व से इनकार करना मूर्खता है। कुछ दिन पूर्व विज्ञानवादी यह कहते थे कि इस जगत के मूल में जो विद्युत कण-इलेक्ट्रोन प्रोटोन आदि हैं वे अपने-अपने स्वसंचालित काम कर रहे हैं। उन्हीं से अपने आप चेतना उत्पन्न होती है, इसलिये ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। यह उपहासास्पद तर्क उन दिनों कुछ जोर पकड़ने लगा था जब वैज्ञानिक अन्वेषणों का प्रथम चरण ही उठा था। अब विश्वविख्यात मूर्धन्य वैज्ञानिक आइंस्टीन तक यह स्वीकार कर चुके हैं कि अणुओं का नियमित रूप से अपनी गतिविधियां जारी रखना ही किसी चेतन तत्व का कार्य नहीं अपितु उन अणुओं के भीतर उनकी निज की चेतना भी विद्यमान है। यह कण-कण में समाये हुई सर्वव्यापक सर्वेश्वर के अस्तित्व की स्वीकृति ही है। जैसे जैसे विज्ञानरूपी बालक में अधिक प्रौढ़ता एवं समर्थता आती आयेगी वैसे वैसे अपने पिता को पिता के रूप में पहचानना कठिन न होगा।
जीव और ईश्वर का सम्बन्ध—जीव उस परम चेतन परमेश्वर का अंश है। जिस प्रकार जल के प्रपात में पानी के अनेक छींटे उत्पन्न और विलय होते हैं उसी प्रकार विभिन्न जीवधारी परमात्मा में से उत्पन्न होकर उसी में लय होते रहते हैं। यह लय-विलय की लीला इसलिये रची गई है कि इस विश्व में जो प्रेम का अमृत भरा हुआ है उसका जीव रसास्वादन करे और उस आनन्द से परितृप्ति होकर अपने को धन्य माने। इस विश्व का सृजन ऐसे सुन्दर ढंग से हुआ है कि जीव अपनी गतिविधि और भाव-दृष्टि ठीक रखे तो उसे पग-पग पर आनन्द, उल्लास, सौंदर्य, सन्तोष और शान्ति का अनुभव होता रहे। स्वर्गीय अनुभूतियों की परितृप्ति मिले। किन्तु दुःख की बात है कि हम रास्ता भूलकर भ्रम जंजाल में पड़ते हैं, उलटी रीति से सोचते और उलटी नीति पर चलते हैं, फलस्वरूप जीवन नरक बन जाता है। चारों ओर दुःख-दुर्भाग्य की घटायें घिर आती हैं। रोग, अभाव, द्वेष, चिन्ता भय एवं शोक संतापों से कष्टदायक वातावरण बन जाता है। स्वर्गीय सुख-शान्ति भरे विश्व का नारकीय दुःख-दारिद्र से भर जाना, अपनी भावनात्मक भूल का ही दण्ड-प्रतिफल है। हमें इसी को सुधारना चाहिए। यह सुधार ही आध्यात्मिकता का—आस्तिकता का एकमात्र उद्देश्य है।
आस्तिकता वह शुद्ध दृष्टि है जिसके आधार पर मनुष्य अपने जीवन की रीति-नीति का क्रम ठीक प्रकार बना सकने में समर्थ होता है। ‘‘हम ईश्वर के पुत्र हैं, महान् महत्ता, शक्ति एवं सामर्थ्य के पुंज हैं। अपने पिता के उत्तराधिकार में हमें वह प्रतिभा उपलब्ध है जिससे अपने सम्बन्धित जगत् का, समाज एवं परिवार का सुव्यवस्थित संचालन कर सकें। ईश्वर की विशेष प्रसन्नता अनुकम्पा एवं सहायता प्राप्त करने के लिए हमें परमेश्वर का आज्ञानुवर्ती, धर्म परायण होना चाहिए। प्रत्येक प्राणी में भगवान् व्याप्त है, इसलिए हमें हर किसी के साथ सज्जनता का सद्व्यवहार करना चाहिए। संसार के पदार्थों का निर्माण सभी के लिए है। इसलिये अनावश्यक उपयोग न करें। पाप से बचें क्योंकि पाप करना अपने ईश्वर के साथ ही दुर्व्यवहार करना है। कर्म का फल ईश्वरीय विधान का अविच्छिन्न अंग है। इसलिये सत्कर्म करें, और सुखी रहें दुष्कर्मों से बचें ताकि दुःख न सहने पड़ें।’’ यह भावनायें एवं मान्यतायें जिसके मन में जितनी ही गहरी जमी होगी, जो इन्हीं मान्यताओं के अनुरूप अपनी रीति-नीति बना रहा होगा, वह उसी अनुपात से आस्तिक कहलावेगा और यह निश्चित है कि आस्तिकता का दृष्टिकोण मनुष्य को पग-पग पर उत्कृष्ट स्तर के आनन्द, उल्लास, सन्तोष एवं गौरव का अनुभव कराता है। उसे अपना जीवन हर घड़ी पूर्णतया सार्थक हुआ दीखता है। इसी स्थिति का नाम स्वर्ग है। स्वर्ग नरक किसी स्थान विशेष का नाम नहीं वरन् वे मानसिक स्तर हैं। जो निकृष्ट भावनास्तर पर है उसे हर घड़ी नरक की ज्वाला में जलते रहना होता है और जो उत्कृष्ट भावनाओं से सराबोर है उसे स्वर्ग की मंगलमय रसानुभूति इसी जीवन में होती रहती है। आस्तिकता की मान्यतायें हमें उसी ओर ले जाती हैं जिस ओर स्वर्गीय सुख-शान्ति की अजस्र धारा बहती रहती है।
प्रशिक्षण एवं परीक्षा—मनुष्य को अनन्त प्रतिभा प्रदान करने के उपरान्त परमात्मा ने उसकी बुद्धिमत्ता परखने का भी एक विधान बनाया है। उपलब्ध प्रतिभा का वह सदुपयोग कर सकता है या नहीं, यही उसकी परीक्षा है जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता है उसे वे उपहार मिलते हैं जिन्हें जीवन मुक्ति, परमपद अनन्त ऐश्वर्य, सिद्धावस्था, ऋषित्व एवं देवत्त्व आदि नामों से पुकारते हैं जो असफल होता है, उसे कक्षा में अनुत्तीर्ण विद्यार्थी की तरह एक वर्ष और पढ़ने के लिए, चौरासी लाख योनियों का एक चक्कर और पूरा करने के लिये रोक लिया जाता है। यह बुद्धिमत्ता की परीक्षा इस प्रकार होती है कि एक ओर पाप, प्रलोभन, स्वार्थ, लोभ, अहंकार एवं वासना तृष्णा के शस्त्रों से सज्जित शैतान खड़ा रहता है और दूसरी ओर धर्म, कर्त्तव्य, स्नेह, संयम की मधुर मुस्कान के साथ विहंसता हुआ भगवान्। इन दोनों में से जीव किसे अपनाता है, यही उसकी बुद्धि की परीक्षा है, यह परीक्षा ही ईश्वरीय लीला है। इसी प्रयोजन के लिए संसार की ऐसी विलक्षण द्विविधापूर्ण स्थिति बनी है। हममें से अनेक दुर्बल व्यक्ति शैतान के प्रलोभन में फंसते और गला काटते हैं। विवेक कुण्ठित हो जाता है। भगवान् पहचानने में नहीं आता, सन्मार्ग पर चलना नहीं बन पड़ता और हम चौकड़ी चूककर मानव जीवन में उपलब्ध हो सकने वाले स्वर्णिम सौभाग्य से वंचित रह जाते हैं।
इस परीक्षा में हम अनुत्तीर्ण न हों, अपने गौरव एवं लक्ष्य के अनुरूप उदात्त भावनाओं एवं उत्कृष्ट भावनाओं से नीचे न गिरने पावें इसका सम्बल आस्तिकता ही हो सकती है। ईश्वर पर अटूट विश्वास और उसकी अविच्छिन्न समीपता का अनुभव, इसी स्थिति को आस्तिकता कहते हैं। उस स्थिति को बनाये रहने के लिए जो साधन अपनाना पड़ता है, उसका नाम उपासना है।