पवित्र जीवन

क्रोध के भयंकर परिणाम

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डाक्टर अरोली और केनन ने अनेक परीक्षणों के बाद यह घोषित कर दिया है कि क्रोध के कारण अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली रक्त की विषैली शर्करा हाजमा बिगाड़ने के लिए सबसे अधिक भयानक है । आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्वास्थ्य-निरीक्षक डा०-हेमन वर्ग ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है- "एक बार परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों में अधिकांश चिड़चिड़े मिजाज के थे । पागलखानों की रिपोर्ट बताती है कि ''क्रोध को लेकर सोना अपनी बगल में जहरीले साँप को लेकर सोना है ।'' सचमुच क्रोध की भयंकरता सब दृष्टियों से बहुत अधिक है ।

इस महाव्याधि का शरीर और मन पर जो दूषित असर होता है वह जीवन को पूरी तरह असफल बना देता है अशान्ति, आशंका, आवेश, उसे घेरे रहते हैं । पास पड़ौसियों की दृष्टि में वह घृणा का पात्र बन जाता है ।गृह-कलह छिड़ा रहता है । प्रसिद्ध दार्शनिक सोना कहते हैं- ''क्रोध शराब की तरह मनुष्य को विचार शून्य दुर्बल एवं लकवे की तरह शक्तिहीन बना देता है । दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड़ जाता है उसका सर्वनाश करके ही छोड़ता है । डॉक्टर पूनमचन्द खत्री का कथन है कि- "क्रोध का मानसिक रोग किसी शारीरिक रोग से कम नहीं है । दमा, यकृति-वृद्धि, गठिया आम रोग जिस प्रकार आदमी को धुला-धुला कर मार डालते हैं उसी प्रकार क्रोध का कार्य होता है । कुछ ही दिनों में क्रोधी के शरीर में कई प्रकार के विष उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी तीक्ष्ण्ता से भीतरी अवयव गलने लगते हैं ।

'' न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने परीक्षा करने के लिए गुस्से में भरे हुए मनुष्य का कुछ बूँद खून लेकर पिचकारी द्वारा खरगोश के शरीर में पहुँचाया । नतीजा यह हुआ के बाईस मिनट बाद खरगोश आदमियों को काटने दौड़ने लगा । पैंतीसवें मिनट पर उसने अपने आप को काटना शुरू कर दिया और एक घण्टे के अन्दर पैर पटक-पटक कर मर गया । क्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली विषैली शकर खून को बहुत अशुद्ध कर देती है । अशुद्धता के कारण चेहरा और सारा शरीर पीला पड़ जाता है । पाचन शक्ति बिगड़ जाती है । नसें खिंचती हैं एवं गर्मी, खुश्की का प्रकोप रहने लगता है । सिर का भारीपन आँखों तले अन्धेरा, कमर में दर्द, पेशाब का पीलापन क्रोध जन्य उपद्रव हैं । अन्य अनेक प्रकार की व्याधियाँ उसके पीछे पड़ जाती हैं । एक अच्छी होती है तो दूसरी उठ खड़ी होती है और रात-दिन क्षीण होकर मनुष्य अल्पकाल में ही काल के गाल में चला जाता है ।

क्रोध एक भयंकर विषधर है । जिसने अपनी आस्तीन में इस साँप को पाल रखा है उसका ईश्वर ही रक्षक है । एक प्राचीन नीतिकार का कथन है कि "जिसने क्रोध की अग्नि अपने हृदय में प्रज्ज्वलित कर रखी है उसे चिता से क्या प्रयोजन ? अर्थात् वह तो बिना चिता के ही जल जायगा । ऐसी महाव्याधि से दूर रहना ही कल्याणकारी है जिन्हें क्रोध की बीमारी नहीं है, उन्हें पहले से ही सावधान होकर इससे दूर रहना चाहिए और जो इसके चंगुल में फँस चुके हैं उन्हें पीछा छुड़ाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए ।

क्रोध का कारण प्राय: हमारा झूँठा अहंकार या अज्ञान होता है । ''प्रत्येक व्यक्ति हो हमारी आज्ञा या बात माननी चाहिए ।'' इस दूषित भावना के कारण प्राय: क्रोध भड़का करता है । इसके लिए हमको सदैव अपनी वास्तविक स्थिति पर विचार करके चित्त को शान्त करने का अभ्यास करना चाहिए । प्रतिज्ञा कर लीजिए कि ''अपने दुश्मन क्रोध को पास न फटकने दूँगा । जब आवेगा तभी उसका प्रतिकार करूँगा ।'' हो सके तो इन शब्दों को लिख कर किसी ऐसे स्थान पर टाँग लीजिए जहाँ दिन भर निगाह पड़ती रहे । जब क्रोध आवे तभी अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करना चाहिए एवं कुछ देर के लिए चुप्पी साध लेनी चाहिए । क्रोध के समय ठण्डे पानी का एक गिलास पीना आयुर्वेदीय चिकित्सा है । इससे मस्तिष्क और शरीर की बड़ी हुई गर्मी शान्त हो जाती है । एक विद्वान का मत है कि जिस स्थान पर क्रोध आवे, वहाँ से उठकर कहीं चले जाना या किसी और काम में लग जाना अच्छा है । इससे मन की दशा बदल जाती है और चित्त का झुकाव दूसरी ओर हो जाता है । एक योगाभ्यासी सज्जन बताते हैं कि क्रोध आते ही गायत्री मन्त्र का जप करने लगना अनुभूत और परीक्षित प्रयोग है । इन उपायों से आप क्रोध को भगाकर अपने मन को पवित्र बना सकेंगे ।
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