वैसे पवित्रता और स्वच्छता प्रधानत: एक शारीरिक कार्य माना जाता
है पर हमारे मनोविकारों से भी उसका बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहता है ।
देखने में तो सभी सांसारिक कार्य हमारी बाह्य इन्द्रियों हाथ-पैरों द्वारा
किए जाते हैं पर जैसा हम सभी जानते हैं इन्द्रियों का संचालन मन
द्वारा ही होता है । हमारा मन ही भली-बुरी इच्छाएँ और अभिलाषाएँ
किया करता है और उसका प्रभाव हमारे शरीर पर पूर्ण रूप से पड़ता है ।
कितने ही लोग यह ख्याल करते हैं कि काम, क्रोध लोभ आदि
मनोविकार केवल आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्ध रखते है भौतिक बातों से
उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता पर यह विचार ठीक नहीं । परमात्मा ने
मनुष्य की जिस प्रकार रचना की है उसमें भौतिक और आध्यात्मिक
पहलुओं में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । भौतिक विभाग में खराबी आने से
उसका प्रभाव आध्यात्मिक जीवन पर अवश्य पड़ेगा और आध्यात्मिक
दोषों के उत्पन्न होने से भौतिक जीवन में भी अव्यवस्था और बुराइयों
का उत्पन्न हो जाना अनिवार्य है । हमारे काम क्रोधादि एक प्रकार के
वास्तविक विष हैं जो मन में प्रवेश करके वहाँ अपना अड्डा जमा लेते
हैं और हमारे भीतरी शारीरिक अंगों को गन्दा बना डालते हैं ।
ये विष
अपने काले धुएँ से शरीर की धातुओं को विषैला बनाकर उन्हें रोगों
का केन्द्र बना देते हैं । यदि इन विकारों को हटाकर जीवन को
प्रसन्नता प्रेम सौन्दर्य और पवित्रता के भावों से भर लिया जाय तो
मनुष्य बहुत ही अल्प समय में पूर्ण स्वस्थ बन सकता है और यह कहने
की तो आवश्यकता ही नहीं कि स्वास्थ्य ही सौन्दर्य है एक ही वस्तु के
यह दो पहलू हैं ।