स्वास्थ्य, आरोग्यता, दीर्घायु के अतिरिक्त आध्यात्मिक दृष्टि से
उपवास का विशेष महत्व है । शरीर की शुद्धि होने से मन पर भी
प्रभाव पड़ता है । शरीर तथा मन दोनों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
जब हमारा पेट भरा होता है तो दृष्टि भी मैली हो जाती है मन में
कुविचार आते हैं दुर्बल वासनाएँ उदीप्त हो उठती हैं मानसिक विकारों में
अभिवद्धि होती है । राजसी भोजन से श्रृंगार रस की उत्पत्ति होती है
और काम, क्रोध रोगादि रिपु प्रबल हो उठते हैं ।
सम्पूर्ण पाप को जड़
अधिक भोजन विशेष राजसी कामोत्तेजक भोजन करना है । पेट का
विवेक शान्ति धर्मबुद्धि इस तत्व को ध्यान में रख हमारे पुरुष अतीत
काल से उपवास को मानसिक एवम् आत्मिक स्वास्थ्य के लिए अपनाते रहे
हैं । इस प्रकार के उपवासों में ईसा मुहम्मद महावीर के लम्बे उपवास
सर्व विदित हैं । महात्मा गाँधी के उपवास इसी कोटि में आते हैं । महात्माजी
ने जितने भी उपवास किए सभी लगभग नैतिक ध्येय से किए ।
जब हमें भोजन खान-पान से छुट्टी मिलती है और ये झंझट दूर
हो जाते हैं तब चित्त-वृत्ति अच्छी तरह उच्च विषयों पर एकाग्र हो पाती
है । हमारी आंतरिक वृत्ति पवित्र एवं निर्दोष होती है । ब्रह्म में वृत्ति
लीन करने के लिए उपवास सर्वोत्तम उपाय है । ऐसा प्रतीत होता है कि
जिन व्यक्तियों ने ब्रह्मानन्द का वर्णन किया है वे अवश्य ही उपवास
परायण रहे होगे । उपवास के समय चिंतन तथा एकाग्रता बड़ी उत्तमता से
कार्य करते हैं । उपवास काल का ज्ञान अधिक स्थाई और स्पष्ट होता
है । ज्ञान प्राय: भोजन के बोझ से दब जाता है किन्तु भोजन से मुक्ति
मिलने पर स्पष्ट निर्विकार और स्थायी बनता है । गीता में कहा है
विषया बिनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रस वर्ज रसो प्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
उपवास में बहुत-सी नीच प्रवृत्तियाँ क्षीण हो जाती है अन्तर्दृष्टि
पवित्र बनती है वृत्तियाँ वश में रहती हैं, धर्म बुद्धि प्रबल बनती है काम
क्रोध, लोभ आदि षट्ररिपु क्षीण पड़ जाते है प्राणशक्ति का प्रबल प्रवाह
हमारे हृदय में बहने लगता है और शान्त रस उत्पन्न होता है । उपवास
से इन्द्रियों का नर्तन वृत्तियों का व्यर्थ इधर-उधर बहक जाना और
एकाग्रता का अभाव दूर हो जाता है ।ईश्वर पूजन साधना तथा योग के
चमत्कारों के लिए उपवास अमोध औषधि है ।
महात्मा गाँधी जी ने उपवास के आध्यात्मिक पहलू पर बड़ा जोर
दिया है । वे कहते हैं ''मैं तो सदा ही इसका पक्षपाती रहा हूँ क्योंकि
ब्रह्म परायण के लिए उपवास सदा सहायक है । ईश्वर और उपवास का
गठजोड़-सा जान पड़ता है । खाऊपन (ठूँस-ठूंस कर भोजन करना)
और ईश्वर का परस्पर बैर है ।'' सत्याग्रही के लिए उपवास अन्तिम
उपाय है उसका न चूकने वाला शस्त्र है । गाँधी जी इसे आग्नेय अस्त्र
कहते हैं और उनका दावा है कि उन्होंने उसे वैज्ञानिक रूप दिया है ।
उपवास से मनुष्य की दैवी सम्पदाएँ विकसित हो उठती हैं उसके मन में
दैवी शक्ति आ जाती है अत: इस आध्यात्मिक साधन के प्रयोग के बड़े
चमत्कार प्रतीत होते हैं ।
उपवास का प्रयोग आत्म-विकास के लिए भी होता है । यदि हम
से जानबूझकर कोई गलती हो जाय और बाद में मन में ग्लानि का
अनुभव हो तो हमें अपने आप को सजा देनी चाहिए ।अपने प्रत्येक
दोष पर कमजोरी को दूर करने के लिए उपवास का प्रयोग हो सकता
है । अपने दोषों को देखकर उनका निवारण करना आत्मोद्धार का
अचूक उपाय है । महापुरुषों का वचन है- "जैसे पुरुष पर-दोषों का
निरूपण करने में अति कुशल है यदि वैसे ही अपने दोषों को देखने में
हो तो ऐसा कौन है जो संसार के कठोर बन्धन से मुक्त न हो जाय ।''
प्रत्येक दोष पर उपवास कीजिए ।
''जब कभी आपके सन्मुख कोई उलझन उपस्थित होती है तो
आप उपवास क्यों कर बैठते हैं ।'' यह प्रश्न महात्मा गाँधी जो से पूछा
गया तो उन्होंने उपवास के आध्यात्मिक पहलु पर प्रकाश डालते हुए
कहा था-
इस प्रकार के प्रश्न मुझसे पहले भी किए गए हैं किन्तु कदाचित्
इन्हीं शब्दों में नहीं । इसका उत्तर सीधा और स्पष्ट है । अहिंसा के
पुजारी के पास यही अन्तिम हथियार है । जब मानवी बुद्धि अपना कार्य
न कर निरुपाय हो जाती है तो अहिंसा का पथिक उपवास करता है ।
उपवास द्वारा शोधित शरीर से प्रार्थना की ओर चित्त-वृत्ति अधिक
सूक्ष्मता और सत्यता से उन्मुख होती है अर्थात् उपवास एक आध्यात्मिक
वस्तु है और उसकी मूल प्रवृत्ति ईश्वर की ओर होती है । मनुष्य को
यदि यह यकीन हो जावे कि वह उचित और न्यायोचित है तो उसे उस
कार्य को पूर्ण करने से कदापि नहीं रुकना चाहिए । इस प्रकार का
आध्यात्मिक उपवास अन्तरात्मा की अन्तर्ध्वनि के उत्तर में किया जाता है
अत: उसमें जल्दबाजी का भय कम होता है