सम्भव है अब तक के विवेचन से अनेक पाठक इस उलझन में पड़ गये होगे कि वे किसको स्वार्थ समझें और किसको परमार्थ ? यदि मनुष्य में स्वार्थ की भावना प्राकृतिक और स्वाभाविक है तो क्या 'परमार्थ' का शब्द कोरी कल्पना है ? हम पहले ही बता चुके है: कि मनुष्य प्रधानत: स्वार्थी ही है और ऐसा होना आवश्यक भी है । यदि मनुष्य में स्वार्थ आत्म-रक्षा और आत्म-विकास की भावना न हो तो उसका आस्तित्व रह सकना कठिन है । परन्तु साथ ही यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उच्च सभ्यता अरि संस्कृति की गोद में पले मनुष्य में परमार्थ और परमार्थ की भावना भी न्यूनाधिक अंशों में अवश्य पाई जाती है । पुत्र-प्रेम, पति-प्रेम, देश-प्रेम शब्द केवल कल्पना मात्र नहीं है । किसी अनजान दीन व्यक्ति के कष्ट देखकर अनेक मनुष्य द्रवीभूत हो जाते हैं तो वह कोई दिखावटी बात नहीं होती हम निःस्वार्थ उसकी सेवा करते हैं ।
''हमारे देश के हजारों व्यक्ति परोपकार के लिए सर्वस्व त्याग कर चुके हैं । गरीबों और अनाथों की सेवा के लिए अनेक लोग अति प्राचीन कथाओं को छोड़ भी दें तो अब भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने करोड़ों की सम्पत्ति अपनी खुशी से देशाद्धार के लिए अर्पण कर दी । हम यही बताना चाहते हैं कि ऐसा स्वार्थ जो अपनी प्रत्यक्ष हानि करके दूसरी के लाभार्थ किया जाय परमार्थ कहलाता है । ऐसा स्वार्थ जिससे बहुसंख्यक लोगों का हित साधन होता है दूसरों को भी श्रेष्ठ कार्य करने का प्रोत्साहन मिलता है और स्वयं करने वाले को आत्मोन्नति का लाभ मिलता है वास्तव में परमार्थ है ।