परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय

परमार्थ और सेवा-साधना

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वैसे परमार्थ के अनेक रूप हैं, पर एक सामान्य मनुष्य के लिए उसका सुलभ रूप पर सेवा ही है । कष्ट या अभावों में ग्रस्त व्यक्ति की किसी रुप में सहायता करने से उनका संकट-निवारण होने के साथ ही हमको आत्म-सन्तोष भी प्राप्त होता है । इससे आत्मिक बल की वृद्धि होती है और मनुष्य अधिक महत्वपूर्ण कार्यो के करने में समर्थ होता है ।

लोक सेवा के तीन प्रकार हैं (१) परोक्ष सेवा), (२) प्रत्यक्ष सेवा, (३) सह सेवा । परोक्ष सेवा का तात्पर्य है अपना कार्यक्रम निर्दोष , निष्पाप, लोक हितकारी रखते हुए जीवन यापन किया जाय । प्रत्यक्ष सेवा उसको कहते हैं जिसमें जीवन का प्रधान कार्य, सार्वजनिक कार्यों में लगे रहना होता है । यह सेवा वह है जिसमें मनुष्य अपना बचा हुआ समय दूसरों की सहायता में लगाता है या आवश्यकता पड़ने पर अपने दैनिक कार्यों में से परहित के लिए समय निकाल देता है ।

जो व्यापारी अभक्ष, मिलावटी, नकली, खराब, कमजोर चीजें नहीं बेचता वरन् उपयोगी वस्तुएँ बेचकर जनता की अभाव पूर्ति करता है तौल, नाप, प्रामाणिकता और भाव में ईमानदारी बरतता है वह व्यापारी परोक्ष लोक सेवक है । यद्यपि वह अपने व्यापार को व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से चलाता है पर उसमें यह ध्यान रखता है कि यह कार्य दूसरों के लिए भी उपयोगी हो । ऐसे व्यवसाय से व्यापारी अपना उतना लाभ नहीं कर पाता जितना कि बेईमान दुकानदार कर लेते हैं फिर भी निश्चित रूप से उसकी ईमानदारी एक प्रकार की लोकसेवा है । इसी प्रकार कोई भी किसान मजदूर, वकील, वैद्य, सरकारी, कर्मचारी, कारीगर, अध्यापक, वैज्ञानिक, ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ अनीति के द्वारा धन संचय का लाभ त्याग कर परोक्ष लोक सेवा के पुण्य का भागीदार हो सकता है ।

प्रत्यक्ष सेवा की वर्तमान समाज में अत्यधिक आवश्यकता है । कारण यह है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, शासक-शासित शिक्षित-अशिक्षित किसान-जमींदार सेठ-मजदूर की बड़ी भारी विषमता फैली हुई है । सरकारी ढाँचा भी ऐसा बोदा है कि वह निर्बलों गिरे हुए लोगों एवं आपत्ति ग्रस्तों को अधिक सहायता नहीं कर सकता । ऐसी दशा में कमजोरों की हिमायत करने उनकी तकलीफें दूर करने और ऊँचा उठाने के लिए सार्वजनिक कार्यकर्त्ता न हों तो पीड़ितों के कष्टों का ठिकाना न रहेगा । कितने ही उदार हृदय दयालु भावना वाले ,स्वार्थ त्यागी मनुष्य अपने आराम और लोभ को त्यागकर सार्वजनिक आन्दोलनों संस्थाओं सेवा केन्दों का संचालन करते हैं और गुजारे के लिए अनायास जो प्राप्त हो जाता है उसमें जीवन यात्रा चलाते रहते हैं । इस बर्ग को लोक सेवक न कह कर लोक सैनिक कहना उपयुक्त होगा। सैनिक अपना सारा समय राष्ट्र रक्षा में लगाता है और प्राण देने तक का त्याग करने के लिए हर धड़ी तैयार रहता है । यही स्थिति लोक सैनिकों की होती है ।

तीसरे सह-सेवक हैं जो अपना कार्य ईमानदारी और समाज हित का ध्यान रखते हुए करते हैं साथ ही सार्वजनिक कार्यी के लिए यथाशक्ति कुछ न कुछ समय निकालते रहते है । उपयोगी संस्थाओं के कार्य में हाथ बँटाना, सद्गुणों की वृद्धि में सहायता करना एवं सत्कायों में प्रोत्साहन देने के लिए प्रयत्नशील रहना सद्सेवकों को बड़ा रुचिकर होता है । अपनी जीवनचर्या चलाने के लिए वे कमाते हैं साथ-साथ सेवा सामने आ जाय तो अपना काम हर्ज करके भी उसे पूरा करते हैं ।

परोक्ष सेवक होने की प्रत्येक नागरिक से आशा की जाती है । जो बेईमानी, बदमाशी और अनीति का आश्रय लेकर कमाता है वह कानूनी पकड़ एवं जनता की घृणा से बचा रहते हुए भी पापी एवं लोकघाती है । उसका वैभव कितना ही बढ़ जाय चाटुकार उसे कितना ही घेरे रहें पर वह आत्म-हत्यारा धर्म-द्रोही होने के कारण ईश्वर के दरबार में अपराधी ठहराया जायगा । धर्म की आत्मा की हर व्यक्ति से यह पुकार है कि वह पुण्य पथ पर अधिक अग्रसर न हो सके तो कम से कम ईमानदार नागरिक चरित्रवान मनुष्य एवं परोक्ष लोक सेवक तो अवश्य ही बने । इस मर्यादा से नीचे गिरने बाला तो अपनी मनुष्यता के उत्तरदायित्व से भी गिर जाता है ।

लोक सैनिकों को अपने पारिवारिक भारी को कम से कम रखना चाहिए । ऐसे व्यक्ति विवाहित हों तो आगे के लिए सन्तान पैदा करना बन्द कर दें । आश्रितों के लिए कोई ऐसा आधार बन सके कि वे उसकी सहायता की अपेक्षा न रखें तो सबसे अच्छा है । आश्रितों के आर्थिक उत्तरदायित्वों से लदा हुआ मनुष्य प्राय: ईमानदारी से, पूरी दिलचस्पी और शक्ति के साथ सार्वजनिक सेवा नहीं कर पाता । प्राचीनकाल में वानप्रस्थ और संन्यास की व्यवस्था इसीलिए थी कि उस समय तक पर्याप्त मात्रा में अनुभव और ज्ञान इकट्ठा होकर शेष समय सार्वजनिक सेवा में लगाया जा सके पर अब तो वह श्रृंखला भी टूट गई है । इसलिए गृहस्थों को हो लोक सैनिक सार्वजनिक कार्यकर्त्ता बनना पड़ता है । ऐसी दशा में वे कामचलाऊ वेतन लें तो इसमें कुछ अनुचित बात नहीं है ।

सह-सेवकों के लिए आकस्मिक या स्वल्पकालीन सेवाओं का वेतन या मुआवजा लेना निषिद्ध है । यदि लोग ऐसी छोटी- छोटी सेवाओं का भी प्रतिफल माँगने लगे, लेने-देने का कायदा प्रचलित हो गया तो सेव की प्रथा और पवित्रता पूर्णतया नष्ट हो जायगी ।

किसी के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पास पड़ौस के लोग बिना कुछ मुआवजा लिए उस मृतक की अन्त्येष्टि करने के लिए श्मशान को ले जाते हैं । यदि मुआवजा लेकर मुर्दा उठाने का रिवाज चल पड़े तो आज अन्त्येष्टि में जाना जैसा धर्म कार्य माना जाता है फिर बैसा न रहेगा । लोग मुर्दाफरोसी का पेशा करने लगेगे । इससे तो निर्धन दुःखी जो अपने स्वजन की मृत्यु से दुःखी हैं और भी अधिक कष्ट में पड जायेगे । विवाह, शादी, रंज, गमी, बीमारी, मुसीबत में लोग एक-दूसरे की सहायता बिना कुछ लिए करते हैं । पर्व उत्सवों, मेलों पर आने वाले यात्रियों के लिए लोग सेवा समितियों द्वारा जल आदि की व्यवस्था करते हैं । बाढ़, अग्निकाण्ड, भूकम्प, अकाल मेला प्रबन्ध आदि में स्वयंसेवक सेवा कार्य करके दुःखियों की सेवा करते हैं । धार्मिक कथा कीर्तन यज्ञ प्रचार जुलूस आदि में लोग श्रद्धापूर्वक अपना समय देते हैं । यदि इन सब बातों के लिए वेतन मुआवजा या मजदूरी लेने की प्रथा चल पड़े तो एक ऐसी सत्यानाशी परम्परा कायम हो जायगी जिसके कारण सेवा नाम के पवित्र तत्व के लिए मानव जीवन में कोई स्थान ही न रह जायगा ।

आत्मिक समृद्धियों में दैवी सम्पदाओं में सेवा सबसे बड़ी सम्पदा है । लोग भौतिक धन ऐश्वर्य को इकट्ठा करने के लिए दिन-रात चिन्ता और परिश्रम करते हैं पर खेद की बात है कि आत्मा के साथ रहने वाली जन्म-जन्मान्तरों तक सुख देने वाली आत्मिक सम्पत्ति सेवा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता । जब तक सेवा भावना का जीवन में पर्याप्त सम्मिश्रण नहीं किया जाता तब तक कोई व्यक्ति आत्मिक शक्ति नहीं पा सकता चाहे वह कितना ही धनी या पदाधिकारी क्यों न हो ?

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