परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय

स्वार्थ के दो स्वरूप

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साधारण रीति से 'स्वार्थ' शब्द का अर्थ अच्छा नहीं समझा जाता । 'स्वार्थी कहना एक प्रकार की गाली या निन्दा की बात समझी जाती है पर कुछ विचार करने से लोगों की यह धारणा गलत जान पड़ती है । स्वार्थ की प्रवृत्ति जीव मात्र में और मनुष्य में भी स्वाभाविक रूप से पाई जाती है और उसे किसी तरह भी बुरा नहीं कह सकते । इस प्रवृत्ति के बिना आत्मरक्षा ही संभव नहीं । अगर मनुष्य आरम्भ से ही स्वार्थ पर दृष्टि न रखे और अपने शरीर की रक्षा के लिए यथोचित प्रयत्न न करे तो इस सृष्टि का स्थिर रह सकना ही असम्भव है । छोटे सें छोटा बालक भी जब भूख लगने पर रोता है और दूध पीने की चेष्टा करता है, तो वह स्वार्थ की प्रवृत्ति का ही मूल रूप है । इसके पश्चात् उसे निरन्तर अपने हानि-लाभ का विचार करना पड़ता है । सच तो यह है- 'स्वार्थ' की एक ऐसी बहुमूल्य कसौटी परमात्मा ने हमें दी है जिस पर कसकर हम जान लेते हैं कि कौन काम खरा है और कौन खोटा है ? किसे करना चाहिए और किसे न करना चाहिए ? स्वार्थ जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है और उसका सदैव उचित रूप में ध्यान रखना चाहिए ।

पाठकों को यहाँ सन्देह उत्पन्न हो सकता है यदि स्वार्थ इतनी ही उत्तम वस्तु है तो उसे बुरा क्यों कहा जाता है, स्वार्थी से घृणा क्यों की जाती है, स्वार्थ परायणता को धिक्कारा क्यों जाता है ? हमें जानना चाहिए कि लोक और वेद में जिस स्वार्थ की निन्दा की गई है उसका नाम यथार्थ में 'अनर्थ' होना चाहिए । पूर्व आचार्यों ने विशुद्ध स्वार्थ को परमार्थ के नाम से पुकारा है । यह परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ है । अनर्थ को स्वार्थ कहना भूल है क्योंकि वास्तविक अथों में परमार्थ से ही स्वार्थ की पूर्ति होती है । अनर्थ को अपनाना तो आत्मघातक है इसे किसी दृष्टि से स्वार्थ नहीं कहा जा सकता है ।

स्वार्थ के दो भेद किए जा सकते हैं । एक अनर्थ दूसरा परमार्थ । एक किसान खेत को बड़े परिश्रम से जोतता है, रुपया खर्च करके गेहूँ लाता है और उस गेहूँ को मिट्टी में मिला देता है । इसके बाद महीनों उस खेत को सींचता रहता है और रखवाली करता है । करीब एक वर्ष तक उसे निरन्तर उस खेत में कुछ न कुछ लगाना पड़ता है, कभी हल खरीदना पड़ा, कभी फावड़ा, कभी बैल लिए कभी चरस लिया निराई निकाई आदि में परिश्रम लगा और चिन्ता करनी पड़ी उसका ध्यान रखना पड़ा सो अलग । यह किसान परमार्थी है, वह जानता है कि इस समय जो त्याग कर रहा हूँ । उसका बदला कई गुना होकर मुझे मिलेगा । सचमुच उसकी मेहनत अकारथ नहीं जाती । खेत में एक दाने के बदले हजार दाने पैदा होते हैं किसान प्रसन्न होता है और अपनी परमार्थ बुद्धि की प्रशंसा करता है । एक दूसरा किसान परमार्थ पसन्द नहीं करता, वह सोचता है कि कल किसने देखा है । आज का फल आज न मिले तो परिश्रम क्यों किया जाय ? वह अपने अनाज को खेत में डालने से झिझकता है कल पर उसका विश्वास नहीं, आज के अनाज की आज ही रोटी बनाकर खा लेता है खेत खाली पड़ा रहता है फसल नहीं उगती कटौती के समय जब परमार्थी किसान के कोठे अन्न से भर रहे हैं यह बैठा-बैठा सिर धुनता है वह अपने बीज को बोनें से पहले ही खा चुका अब उसे कुछ भी नहीं मिलने वाला है । आप समझे होंगे कि परमार्थ का मतलब कल की बात सोच कर आज का काम करना है और अनर्थ का मतलब कल की भलाई- बुराई का विचार छोड़कर आज के लिए आज का काम करना है।

वर्तमान के लिए भविष्य को भुला देने की नीति अनर्थ मूलक है । एक चटोरा व्यक्ति वर्तमान समय के स्वाद में लिप्त होकर जरूरत से ज्यादा खा जाता है कुछ समय बाद पेट में दर्द होता है डाक्टर आता है, जितना लोभ किया था उससे अधिक खर्च हो जाता है । एक कामी पुरुष किसी तरुणी पर मुग्ध होकर अमर्यादित भोग करता है, कुछ ही समय उपरान्त वीर्य रोगों से ग्रसित हो जाता है । इसके विपरीत एक व्यक्ति जिहृवा पर संयम रखता है, कल की बात सोचकर आज के चटोरेपन को हटा देता है उसका मर्यादित भोजन स्वस्थ रहने और दीर्घ जीवन जीने के लिए सहायता करता है । इसी प्रकार एक ब्रह्मचारी गृहस्थ नियत मर्यादा में रति संयोग करता है वह निरोग रहता है, बलवान सन्तान प्राप्त करता है और पुरुषत्व को सुरक्षित रखता है । पहले दो असंयमी व्यक्ति दुःखी होगे, क्योंकि वे आज के लोभ में कल की बात भुला देते हैं । इसके विपरीत पिछले दो व्यक्ति आनन्द करते हैं क्योंकि वे कल के लिए आज का काम करते हैं ।

''हमें तो अपने मतलब'' की नीति को अपनाने वाले लोगों को स्वार्थी कह कर घृणा की दृष्टि से देखा जाता हैं । वास्तव में वे स्वार्थी नहीं अनर्थी हैं, क्योंकि वे वास्तविक स्वार्थ को भूल गए हैं और सत्यानाशी अनर्थ को अपनाए हुए हैं । जो व्यक्ति पड़ौस में हैजा फैल जाने पर उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करता जो व्यक्ति समाज में दुष्टता उत्पन्न करने पर उसे रोकने के लिए नहीं उठता जो व्यक्ति गाँव में लगी हुई आग को बुझाने की कोशिश नहीं करता वह केवल अनर्थ करता है, क्योंकि मुहल्ले का हैजा उसके घर में घुस कर उसके बेटे की जान ले लेगा, फैली हुई दुष्टता उसकी खुद की छाती पर चढकर एक दिन खून पीने के लिए तैयार हो जायगी, गाँव में लगी हुई आग कुछ घण्टों बाद अपने छप्पर में आ पहुँचेगी, असहायों का रोष एक दिन राक्षस रूप धर कर अपनी आँतों से हमारी शान्ति पीसने लगेगा । इस प्रकार ''अपने मतलब से मतलब'' रखने की 'लाला शाही' नीति यथार्थ में स्वार्थ की नही, अनर्थ की नीति है । यह अनर्थ एक दिन उन्हें ले बैठता है । सिर्फ आटे की गोली को ही देखने वाली मछली अपनी जान से भी हाथ धो बैठती है ।

पाप, दुष्कर्म, लालच, लोभ आदि में तुरन्त ही कुछ आकर्षण और लाभ दिखाई पड़ता है, इसलिए लोग कबूतर की तरह दाने प्राप्त करने के लिए उनकी और दौड़ पड़ते हैं और जाल में फँस कर दुःसह दुःख सहते और रोते चिल्लाते हैं किन्तु धैर्यवान पुरुष शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और किसान की तरह आज कष्ट सहकर कल के लिए फसल तैयार करते हैं । वास्तव में पूरा पक्का स्वार्थी वह व्यक्ति है जो हर काम को भविष्य के परिणाम के अनुसार तोलता है और धैर्य एवं गम्भीरता के साथ उत्तरोत्तर कर्म करता हुआ अपने लोक और परलोक को उज्ज्वल बनाता है इसे परमार्थी कहा जाता है । अविवेकी और मूर्ख वह है जो क्षणिक सुख की मृग तृष्णा में भटकता हुआ इस लोक में निन्दा और परलोक में यातना प्राप्त करता है । यह स्वार्थ नहीं अनर्थ है । हम में से हर एक को यह बात भलीभाँति हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि सच्चा स्वार्थ परमार्थ में है । अनर्थ का तात्पर्य तो आत्महत्या ही हो सकता है । कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है उसकी रगड़ से अपने मसूड़े में से जो खून निकलता है उसको पीकर समझता है कि मुझे इस हड्डी में से रक्त प्राप्त हो रहा है । अनर्थ को नीति को अपनाने वाले अपने मुँह में से खुद खून निकाल कर पीते हैं और उसमें प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ।

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