परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय

परमार्थ का मार्ग और उसके सहायक

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परमार्थ का मार्ग परोपकार, दीन और निर्बलों की सेवा तथा आध्यात्मिक विषयों की उन्नति में है । इनकी वृद्धि के लिए हमको सत्संग, आत्म-निरीक्षण नियम पालन और विश्वास की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना चाहिए ।

सत्संग मानसिक उन्नति का सर्वप्रथम साधन है । सत्संग से ही मनुष्य को भले और बुरे लाभदायक और हानिकारक उत्कृष्ट और निकृष्ट की पहिचान होती है । इसलिए सत्संग का नियम कभी भंग नहीं करना चाहिए । अमर विद्वान और त्यागी पुरुषों का समागम नित्यप्रति न हो सके तो ऐसे महापुरुष के विचारों को उनके रचे हुए ग्रंथों में अवलोकन करना चाहिए । जहाँ तक संभव हो इसका एक विशेष समय निर्धारित कर लेना चाहिए और उस समय विशेष रूप से पवित्र होकर किसी उपदेश पूर्ण धर्म-ग्रन्थ का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए । इस प्रकार स्वाध्याय करने से मन पर दृढ़ प्रभाव पड़ता है ।

आत्म-निरीक्षण के लिए अन्य लोगों के गुणों पर ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है । सत्संग और स्वाध्याय से हमको अपनी त्रुटियों का पता लग जाता है । हम जान सकते हैं कि हम में कैसे और कितने दोष भरे पड़े हैं । दूसरों के गुणों को देखकर हम भी उनका अनुकरण कर सकते हैं । हमको इस बात पर भी विचार करते रहना चाहिए कि हमारे दोषों के कारण किसी की हानि तो नहीं हो रही है किसी के हृदय को आघात तो नहीं लग रहा है । इस प्रकार की भावना से हमारा कल्याण होने के साथ-साथ अन्य लोगों का भी हित होगा और हम परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे । गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-

खल अध अगुन साधु गुनगाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा ।
तेहि ते गुण और दोष बखाने । स्रंगह त्याग न बिनु पहिचाने ।।

मनुष्य का कर्तव्य है कि सत्संग करके गुण और दोषों की पहचान करे और समझ-बूझकर गुणों को ग्रहण करे तथा अवगुणों को दूर फेंक दे । प्राचीन और नवीन सभी युगों के महान पुरुष इसी नीति से विश्ववंद्य पदवी को प्राप्त कर सकें थें । जिन पाठकों ने महात्मा गांधी की आत्म कथा पढ़ी है वे जानते हैं कि महात्मा जी अपने आरम्भिक जीवन से ही दोषों और पापों के प्रति कितने सतर्क और जागरूक रहते थे और कैसे प्रयत्न से उन्होंने अपनी त्रुटियों को दूर किया था । इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाओं सें प्रकट होता है कि अहंकार और मोह से बचने के लिए वे सदैव आत्म निरीक्षण किया करते थे और अपने दोषों की बड़ी तीव्रता के साथ आलोचना करते थे ।

अपने नियम पर दृढ़ रहना प्रत्येक कार्य की पूर्णता के लिए परम है । इससे शरीर और मन नियन्त्रण में रहते हैं और सहनशक्ति की वृद्धि होती है । मनुष्य का मन बड़ा चंचल है । सत्संग और आत्म निरीक्षण के प्रभाव से उतने समय के लिए संयत हो जाने पर भी वह सदैव सुमार्ग पर चलेगा इसकी कोई गारण्टी नहीं, जैसे ही अनुकूल वातावरण मिल जाता है कि वह उछलकूद मचाने लगता है । इसीलिए उस पर नियम पालन का प्रतिबन्ध रखना आवश्यक है । जब कभी परिस्थितिवश कोई नियम भंग हो जाय तो उसके बदले में कुछ प्रायश्चित कर लेना भी जरूरी है । इस तरह निरन्तर अभ्यास से मन वश में होकर परमार्थ-पथ पर आरूढ़ रह सकता है । जो लोग थोडा-सा साधन करते ही अपने को पूर्ण समझ लेते हैं वे कभी सफल नहीं हो सकते । गीता में कहा गया है-

  अज्ञश्चाश्रद्धानश्च  संशयात्मा  विनश्यति ।
   नायं लोकऽस्ति न परो सुखं संशयात्मनः ।।

''जो लोग निश्चल दृढ़ भावना से साधन करते हैं वे ही सफल मनोरथ हो सकते हैं । जिनका मन संशय में पडा रहता है वे कभी पार नहीं पहुँच सकते बीच में ही बह जाते हैं ।''

परमार्थ के उद्देश्य में पूर्ण विश्वास ही साधक को आगे बढ़ाता है । विश्वास में कमी रहने से भी सफलता प्राप्त होना असम्भव होता है । विश्वास की दृढ़ता से मन और आत्मा का बल बढ़ता है और मनुष्य दिल बाधाओं का मुकाबला करता हुआ आगे बढ़ता जाता है । वह संकटों से कभी भयभीत नहीं होता और जब तक लक्ष्य हो प्राप्त न कर ले अपनी गति को कभी मन्द नहीं पड़ने देता ।

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