घर में प्रचुर सम्पत्ति है। सुन्दर मकान, आज्ञाकारिणी स्त्री, स्वामिभक्त सेवक, सज्जन परिवार—सभी कुछ है। शरीर भी पूर्ण स्वस्थ और बलिष्ठ है, पर जिस जीवन में सदैव भय और आतंक छाया रहता है उसे कभी सुखी न कहेंगे। भय संसार में सबसे बड़ा दुःख है। जिन्हें संसार में रहते हुए यहां की परिस्थितियों का भय नहीं हो तो मृत्यु की कल्पना से वे भी कांप उठते हैं। इसलिये यह निश्चित ठहरता है कि अभय होने के सदृश सुख इस संसार में नहीं है। भय-विमुक्त होना मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य है।
भय के लिये कारण निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं है। मानसिक कमजोरी, दुःख या हानि की काल्पनिक आशंका से ही प्रायः लोग भयभीत रहते हैं। सही कारण तो बहुत थोड़े होते हैं।
कोई सह-कर्मचारी इतना कह दे कि आप नौकरी से निकाल दिये जायेंगे, इतने ही से आप डरने लगते हैं। कोई मूर्ख पण्डित कह दे कि अमुक नक्षत्र में अतिवृष्टि योग है, बस फसल नष्ट होने की आशंका से किसानों का दम फूलने लगता है। नौकरी छूट ही जायगी या जल गिरेगा ही यह बात यद्यपि निराधार है, इस अवास्तविक भय का कारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी है, इसका निराकरण भी सम्भव है। मनुष्य इसे मिटा भी सकता है।
परिस्थितियों या आशंकाओं के विरुद्ध मोर्चा लेने की शक्ति हो तो भय मिट सकता है। इसके लिये हृदय में दृढ़ता और साहस चाहिये। 1812 ई. जब अंग्रेजों और अमरीकनों में युद्ध चल रहा था तो सीचिवे भास नामक बस्ती के पास समुद्र में अंग्रेजों का जहाज दिखाई दिया। उसमें से कुछ सिपाही छोटी-छोटी किश्तियों में बैठ कर बस्ती की ओर बढ़ने लगे। यह लोग गांव जला देंगे और हमें मार डालेंगे, इस भय से ग्रामवासी अपने-अपने हथियार रखते हुए भी पहाड़ियों के पीछे छिप गये। बारह वर्षीय लड़की से यह कायरपन सहन न हुआ, वह अकेले युद्ध भी नहीं कर सकती थी। वह कहीं से ढोल उठा लाई और एक जगह छुपकर उसे जोर-जोर से पीटने लगी। उसकी योजना सच निकली। छुपे हुए ग्रामवासियों ने समझा हमारे सिपाही आ गये हैं अतः निकल कर अंग्रेजों पर हमला कर दिया।
अंग्रेज डर का भाग गये। साहस ही वस्तुतः भय को पराजित करता है। इसके लिये मानसिक कमजोरियों का परित्याग होना चाहिये। परिस्थिति से घबड़ा जाने के कारण ही लोगों को हानि उठानी पड़ती है।
अनहोनी बात की कल्पना यदि आपके मस्तिष्क में आती है तो उसका एक भययुक्त चित्र अपने आप में दिखाई देने लगता है, इसी से डर जाते हैं। ऐसे अवसर आने पर वस्तुस्थिति का निराकरण तत्काल कर लेना चाहिये, क्योंकि जब तक यह कल्पना आपके मस्तिष्क में बनी रहेगी तब तक आप कोई दूसरा काम भी न कर सकेंगे। अंधेरी रात में घर में सोये हैं, ऐसी शंका होती है कि छत पर कोई है। ‘‘चोर ही होगा’’ यह कल्पना अधिक दृढ़ हो जाती है। बस आपकी हिम्मत छूट जाती है और डर जाते हैं। थोड़ा साहस कीजिये और उठिये, चाहें तो हाथ में लाठी उठा लीजिये। ऊपर तक हो आइये आपकी परेशानी दूर हो जायगी, चोर ही हुआ तो वह आपकी आहट पाते ही भागेगा। आपकी सम्पत्ति भी बच जायेगी और भय की दशा भी दूर हो जायगी। काल्पनिक भय या आशंकाजन्य भय तत्काल निराकरण से ही दूर हो जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें तो यह निष्कर्ष निकलता है—‘द्वितीया भयं भवति ।’’ अर्थात् परमात्मा को भूल कर अन्य वस्तुओं के साथ लगाव रखने के कारण ही भय होता है। मनुष्य अपने शाश्वत स्वरूप को विस्मृत करके शरीर और उसके हितों के प्रति जितना अधिक आसक्त होता है उसे दुःख और मृत्यु की आशंका उतना ही भयाकुल बनाती है। हम में से ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो शरीर की नश्वरता और मृत्यु की असंदिग्ध सम्भावना को स्वीकार न करता हो। यह एक तथ्य है जो मनुष्य को शिक्षा देना चाहता है कि वह शरीर से विलग कोई अविनाशी तत्त्व है। जन्म और मरण के नित्य-क्रमों से यह स्पष्ट भी हो जाता है कि मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से अविनाशी तत्त्व है।
तः उसे मृत्यु-भय से कदापि विचलित नहीं रहना चाहिये।
शरीर आपका साधन मात्र है। यह आपके कल्याण और सांसारिक सुखोपभोग के लिये मिला है। किन्तु सच्चा सुख आपको तभी मिलेगा जब आपको अपनी आत्म-शक्ति की पहचान हो जायगी।