न डरिये न अशान्त हूजिये

हम अशांत और आतंकित न हों

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कितना ही प्रयत्न करने पर भी, कितनी ही सावधानी बरतने पर भी, ऐसा सम्भव नहीं कि मनुष्य के जीवन में अप्रिय परिस्थितियां प्रस्तुत न हों। यहां सीधा और सरल जीवन किसी का भी नहीं है। अपनी तरफ से मनुष्य शान्त, सन्तोषी और संयमी रहे, किसी से कुछ न कहे, कुछ न चाहे, तो भी दूसरे लोग उसे शान्तिपूर्वक समय काट ही लेने देंगे इसका कोई निश्चय नहीं। कई बार तो सीधे और सरल व्यक्तियों से अधिक लाभ उठाने के लिये दुष्ट, दुर्जनों की लालसा और भी तीव्र हो उठती है। कठिन प्रतिरोध की सम्भावना न देखकर सरल व्यक्तियों को सताने में दुर्जन कुछ न कुछ लाभ ही सोचते हैं। सताने पर कुछ न कुछ वस्तुयें मिल जाती हैं और दूसरों को आतंकित करने, डराने का एक उदाहरण उनके हाथ लग जाता है। हम सब के शरीर अब जैसे कुछ बन गये हैं उनमें पग−पग पर कोई बीमारी उठ खड़ी होने की आशंका रहती है।

 प्रकृति का सन्तुलन एटमबमों के परीक्षण से, वृक्ष वनस्पतियों के नष्ट हो जाने से, कारखानों के धुंए से हवा गन्दी होते रहने से, बिगड़ता चला जा रहा है उसके कारण दैवी विपत्ति की तरह कई बार बीमारियां फूट पड़ती हैं और संयमी लोग भी अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं। खाद्य पदार्थों का अशुद्ध स्वरूप में प्राप्त होना, उनमें पोषक तत्त्व घटते जाना, आहार−विहार की अप्राकृतिक परम्परा के साथ घिसटते चलने की विवशता आदि कितने ही कारण ऐसे हैं जो संयमी लोगों को भी बीमारी की ओर घसीट ले जाते हैं। कौन ऐसा है जिसे प्रियजनों की मृत्यु का शोक सहन नहीं करना पड़ता? इस नाशवान् दुनियां में सभी तो मरण-धर्मा होकर जन्मे हैं। मरघटों की चितायें सुलगती ही रहती हैं। जन्म की भांति मृत्यु भी इस संसार की एक सुनिश्चित सचाई है। अपने घर के, अपने परिवार के, अपने प्रिय समाज के कोई न कोई स्वजन, स्नेही मरेंगे ही और मरने पर शोक सन्ताप होगा ही। माताओं को अपनी गोदी के खेलते हुए प्राणप्रिय बच्चों का शोक सहना पड़ता है। पत्नियां अपने जीवनाधार पतियों का अर्थी पर कसा जाना देखती हैं। मित्र, मित्र से बिछुड़ते हैं। भाई बहिन, साले, बहनोई, दामाद, पिता, माता, बेटे, पोते आगे-पीछे, समय−असमय मरते ही रहते हैं। जिनके ऊपर बीतती है वे उसे वज्रपात जैसा समझते हैं बाकी लोग उसे एक बहुत छोटी−सी नगण्य घटना, क्षणिक कौतूहल मात्र मानकर दिखावटी सहानुभूति प्रकट करते हुए, उपेक्षा करते रहते हैं।

यह क्रम संसार में अनादि काल से चला आ रहा है। परिस्थितियां मनुष्य को स्थान परिवर्तन करने के लिये भी विवश करती रहती हैं। नौकरी वालों की बदली होती रहती है। व्यापार, शिक्षा या अन्य कार्यों के कारण पति−पत्नी को अलग−अलग रहना पड़ता है। हवा के झोंके में उड़ते हुए सूखे पत्तों की तरह परम स्नेही मनुष्य भी कई बार यहां से वहां चले जाते हैं और उनका बिछोह करकता रहता है। आर्थिक हानियों के अवसर बुद्धिमानों के सामने भी आते रहते हैं। चतुर व्यापारी कई बार ऐसे उतार-चढ़ावों के बीच फंस जाते हैं कि उन्हें अपनी आजीविका और प्रतिष्ठा दोनों से ही हाथ धोना पड़ता है। दैवी प्रकोप से, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड, चोरी, डकैती, कमाऊ व्यक्ति की मृत्यु, प्रतिस्पर्धा, भावों को तेजी मंदी, विश्वासघात, ठगी आदि कितने ही आकस्मिक कारण ऐसे हो सकते हैं जिनके कारण अनायास ही बहुत बड़ा आर्थिक आघात लगे और उसके फलस्वरूप भारी हानि उठानी पड़े, चलती हुई गाड़ी पटरी पर से उतर जाय और अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना करना पड़े। परीक्षा की तैयारी में लगे हुए छात्रों में से 35 प्रतिशत उत्तीर्ण और 65 प्रतिशत अनुत्तीर्ण होते हैं। नौकरी के लिये खाली जगहों में एक स्थान के पीछे 100 अर्जी पहुंचती हैं। स्थान तो एक को मिलता है बाकी 99 को तो निराश रहना पड़ता है। कितने ही प्रेम—अभिनयों का दुःखद अन्त होता है। सुनहरे सपने परिस्थितियों की ठोकर खाकर चूर−चूर हो जाते हैं।

 इस प्रकार असफलता, निराशा, हानि, चिन्ता, प्रतिकूलता और परेशानी के अवसर हर मनुष्य के सामने छोटे या बड़े रूप में आते ही रहते हैं। उनसे पूर्णतया सुरक्षित रहना किसी के लिये भी सम्भव नहीं। इच्छा या अनिच्छा से प्रतिकूलताओं का सामना करना ही पड़ता है। रोकर या हंसकर उन्हीं को ही भुगतना पड़ता है। मानसिक दृष्टि से दुर्बल और भावावेश में बहने वाले व्यक्ति इन छोटी−छोटी प्रतिकूलताओं में अपना सन्तुलन खो बैठते हैं और परेशानी में ऐसे बौखला जाते हैं कि उनका मस्तिष्क विक्षिप्त एवं उद्विग्न होकर ऐसी विपन्न स्थिति में जा पहुंचता है कि क्या करना, क्या न करना यह वे बिलकुल भी नहीं सोच पाते। ऐसी स्थिति में वे जो भी कदम उठाते हैं वह प्रायः गलत ही होता है। विक्षोभ की स्थिति में किये हुए निर्णय आमतौर से ऐसे होते हैं जिनसे विपत्ति से निकलने का मार्ग नहीं मिलता वरन् उलटे कठिनाइयों के और अधिक गहरे दलदल में फंस जाने का खतरा सामने आ खड़ा होता है। कई बार लोग घर छोड़कर भाग निकलने, आत्महत्या कर लेने, कपड़े रंगाकर बाबाजी हो जाने आदि की ऐसी गलतियां कर बैठते हैं जिन पर पीछे केवल पश्चाताप ही करना शेष रह जाता है। कई बार उद्विग्न लोग उन पर बरस पड़ते हैं जिन्हें वे आप प्रतिकूलता का कारण समझते हैं।

 गाली गलौज, मार−पीट, फौजदारी, कत्ल आदि की दुर्घटनायें प्रायः आवेश की स्थिति में ही की जाती हैं और पीछे इनकी प्रतिक्रिया में इतनी हानि उठानी पड़ती है जो उस कारण से भी अधिक महंगी पड़ती है जिसके लिये यह सब किया गया था। कहते हैं कि ‘‘विपत्ति अकेली नहीं आती, वह अपने साथ और भी अनेकों मुसीबतें लिये आती है।’’ कारण स्पष्ट है कि प्रतिकूलता से घबराया हुआ मनुष्य यह सोच नहीं पाता कि अब उसे क्या करना चाहिये। साधारण कठिनाइयों से पार होने पर ही काफी धैर्य सूझ−बूझ और दूरदर्शिता की आवश्यकता पड़ती है, फिर कुछ अधिक परेशानी की जरूरत हो तब तो और भी अधिक सही मानसिक सन्तुलन अभीष्ट होता है। यह न रहे तो विपत्तिग्रस्त मनुष्य किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर प्रायः वह करने लगता है जो न करना चाहिये था।

 फलस्वरूप विपत्ति की कई शाखायें फूट पड़ती हैं और कठिनाई का नया दौर आरम्भ हो जाता है। जब कभी ठण्डे मस्तिष्क से विचार करने का अवसर आता है तब मनुष्य पछताता है और सोचता है कि आगत विपत्ति नहीं टल सकती थी तो कोई बात न थी। अपने मानसिक सन्तुलन को तो विवेक द्वारा बचाया ही जा सकता था और जो परेशानियां अपनी भूलों के कारण सिर पर ओढ़ली गईं उनसे तो बचा ही जा सकता था। घर में किसी की मृत्यु हो गई, एक प्रिय पात्र चला गया, उसके जाने से हानि भी हुई, धक्का भी लगा और शोक के कारण रुलाई भी आई। पर यदि लगातार रोते ही रहा जाय, भोजन त्याग दिया जाय, मूर्छित पड़े रहा जाय, उस शोक को ही स्मरण रखा जाय तो परिणाम एक ही होना है कि रहे−सहे स्वास्थ्य का नाश और उस गड़बड़ी में साधारण कार्यक्रमों को नष्ट होने से दूनी विपत्ति का उद्भव। कमजोर आंखों वाले अधिक रोते रहें तो उनकी आंखों की रोशनी चली जाती है।

 दिल की धड़कन, ब्लड-प्रेशर, अनिद्रा, उन्माद, मूर्च्छा, अपच, उलटी, सिर-दर्द आदि अनेकों नये रोग उठ खड़े होते हैं। दूसरे लोग उस शोक सन्ताप को समझाने-बुझाने या उसकी सहानुभूति में लगे रहते हैं और साधारण व्यवस्था को भूल जाते हैं तो दूसरी ओर से भी काम बिगड़ते हैं। दुधारू पशु समय पर न दुहे जाने, चारा पानी ठीक प्रकार न मिलने से दूध देना बन्द कर देते हैं, बिना देखभाल के खेती या व्यापार खराब होता है। बच्चे परेशान होते हैं। चोरों की ऐसे ही मौके पर घात लगती है। दुश्मनों को हंसने का मौका मिलता है। उस मृत्यु के कारण उत्पन्न हुए नये कामों और उत्तरदायित्वों के निबाहने के लिये जो महत्वपूर्ण हेर-फेर करने आवश्यक होते हैं वह भी नहीं सूझ पड़ते। इस प्रकार वह मृत्यु−शोक अपने साथ अनेकों नई विपत्तियां उत्पन्न करने वाला सिद्ध होता है। यदि दूरदर्शिता के साथ यह सोच लिया गया होता कि घटित हुई घटना अब लौट नहीं सकती, गया हुआ व्यक्ति आ नहीं सकता, अन्ततः शोक को समाप्त करके साधारण क्रम अपनाना ही पड़ेगा, तो उस कार्य को बिना अधिक क्षति उठाये और बिना अधिक समय गंवाये ही पूरा क्यों न कर लिया जाय। इस प्रकार सोचने वाले अपना मन संभालते हैं, धैर्य विवेक, सन्तोष और दूरदर्शिता से काम लेते हैं। शोक घटाकर सन्तुलन ठीक करते हैं और स्वाभाविक जीवन की व्यवस्था जल्दी ही बना लेते हैं। ऐसे लोग अनावश्यक रूप में स्वयं उत्पन्न की गई विपत्ति से बच जाते हैं।

असफलता के समय दिल छोटा करने और निराश होने की क्या बात है। प्रथम प्रयास अवश्य ही सफल होना चाहिये यह कोई जरूरी नहीं। संसार में प्रयत्नशील व्यक्ति भी दो तिहाई असफलता और एक तिहाई सफलता का अनुमान लगा कर काम करते हैं। उसी पर सन्तोष करते और उतना ही पर्याप्त भी मानते हैं। एक परीक्षा में एकबार फेल हो जाना कोई ऐसी विपत्ति नहीं है जिसके लिये अत्यधिक चिन्तित और निराश हुआ जाय। अबकी बार फेल होने पर दो वर्ष की तैयारी में अच्छा डिवीजन मिल सकता है और आगे की नीव पक्की हो सकती है। जिन्दगी इतनी लम्बी है कि उसमें दो−चार असफलताओं के लिये भी जगह रखनी पड़ती है। हर काम में सदा सफलता ही मिलती रहे तब तो मनुष्य, मनुष्य न रह कर देवताओं की श्रेणी में गिना जाने लगे। यह सोचकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले अपना साहस समेट कर रह सकते हैं और उस खिन्नता को भुलाकर दूने उत्साह से अगली तैयारी में लग सकते हैं। इस बार नौकरी न मिली, इस जगह पर नियुक्ति न हुई, तरक्की का अबकी बार अवसर न मिला तो आगे मिलेगा। इसमें हतोत्साह होने की कौन-सी बात है? उन्नति के लिये प्रयत्न करना चाहिये पर जो परिणाम सामने आवें उसे सन्तोष और धैर्यपूर्वक हंसते मुस्कराते हुए शिरोधार्य ही करना चाहिये। आर्थिक घाटा लग गया तो हैरानी की क्या बात है? अपने पास यदि क्षमता, प्रतिभा, साहस, पुरुषार्थ और कौशल मौजूद हैं तो आज न सही चार दिन बाद फिर आवश्यक साधन जुट जायेंगे। न भी जुट जांय तो थोड़ा ‘‘स्टेण्डर्ड’’ (स्तर) घटाकर कम खर्च में भी अच्छा-खासा जीवन जिया जा सकता है।

 गरीब लोग भी तो आनन्द और उल्लास की जिन्दगी जीते हैं फिर हम भी वैसा क्यों न कर सकेंगे। खर्चों में कमी कर डालने से गरीबी अखरने वाली नहीं रहती। समय ने हमारी आमदनी पर कुल्हाड़ा चलाया तो हम अपने खर्चों में काट-छांटकर आसानी से उस सन्तुलन को पूरा कर सकते हैं। समय के अनुरूप अपने स्तर को घटा लेने का साहस जिसमें मौजूद है, जिसे हल्के दर्जे की मजूरी में अपना गौरव नष्ट होते नहीं दीखता उसके लिये घाटे की स्थिति में भी परेशानी का कोई कारण नहीं। परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेने का जीवन विज्ञान जिनने सीखा है उनके लिये अमीरी की तरह गरीबी में भी हंसने और प्रसन्न रहने का कारण मौजूद है। जिन्हें श्रम करने में शरम नहीं आती, जिनने प्रयत्न पुरुषार्थ, साहस और उल्लास को नहीं खोया है वे आजीविका का उपयुक्त मार्ग आज नहीं तो कल प्राप्त कर लेंगे। कल पंजाब में सब कुछ खोकर आये हुए और आज ठीक प्रकार जीवनयापन करने वाले शरणार्थी भाइयों का उदाहरण हमारे सामने है। अधीरता तो कायर का चिह्न है।

मुफ्त की मौज उड़ाने वाले हरामखोर हानि का रोना रोवें यह तो बात समझ में आती है पर जिनकी नसों में पुरुषार्थ मौजूद है वह तो जमीन में लात मारकर कहीं से भी पानी निकाल लेगा। वह क्यों निराश होगा, वह क्यों सिर धुनेगा? लक्ष्मी पुरुषार्थ की चेरी है। जिसके पास पुरुषार्थ है उसको लक्ष्मी के चले जाने की चिन्ता क्यों करनी चाहिये? मतभेद के, लड़ाई झगड़े के कई कारण हो सकते हैं। ठंडे मस्तिष्क से, शान्त चित्त से विचार विनियम करलें तो हम उनमें से कितनों को ही चुटकी बजाते सुलझा सकते हैं। उत्तेजित दिमाग तिल को ताड़ बना देता है और राई को पर्वत बनाता है। संशय, अविश्वास और विक्षोभ से भरा हुआ मन दूसरों में अगणित प्रकार के दुर्भावों की कल्पना किया करता है। उन्हें दूसरे सभी दुष्ट, दुर्जन, द्वेष रखने वाले, स्वार्थी आक्रमणकारी दीखते रहते हैं। पर यदि चढ़े हुए दिमाग का पारा नीचे उतार लिया जाय तो लगेगा कि मतभेद के कारण बहुत ही छोटे थे। कुछ अपने को सुधार कर कुछ उन्हें समझा बुझाकर ठीक रास्ता आसानी से निकल सकता है। समझौता करके मिलजुलकर समन्वय और सहिष्णुता की—सहअस्तित्व की नीति पर चलते हुए मतभेद रखने वाले लोगों के साथ भी गुजारा करने का रास्ता निकल सकता है। आवेश में और उत्तेजना में कहे हुए कोई कटु शब्द हमें भुला ही देने चाहिये। जूड़ी, सन्निपात में बकझक करने वाले रोगी की बातें कौन स्मरण रखता है? किसी ना समझी या गलत-फहमी के कारण यदि कभी कुछ कटु-वचन किसी ने कह दिया तो उसे स्मरण रखे रहने से कुछ लाभ नहीं। स्वाभाविक स्थिति प्रेम-सहयोग और सहिष्णुता की ही है।

 वही हमें अपने प्रियजनों के बीच बनाये रहनी चाहिये और वही नीति सम्बन्धित सर्वसाधारण के साथ बरतनी चाहिये। अपनी ओर से मीठे और सज्जनतापूर्वक वचन बोलते रहने और शिष्ट व्यवहार करते रहने से लड़ाई-झगड़े का बहुत-सा आधार अपने आप ही नष्ट हो जाता है। भविष्य की आशंकाओं से चिन्तित और आतंकित कभी नहीं होना चाहिये। आज की अपेक्षा कल और भी अच्छी परिस्थितियों की आशा करना, यही वह सम्बल है जिसके आधार पर प्रगति के पथ पर मनुष्य सीधा चलता रह सकता है। जो निराश हो गया, जिसकी हिम्मत टूट गई, जिसकी आशा का दीपक बुझ गया, जिसे अपना भविष्य अन्धकारमय दीखता रहता है, वह तो मृतक समान है। जिन्दगी उसके लिये भार बन जावेगी और वह काटे नहीं कटेगी। यह दुनिया कायरों और डरपोकों के लिये नहीं, साहसी और शूरवीरों के लिए बनी है। हमें साहसी और निर्भीक होकर के ही इस संसार में जीना चाहिये।

प्रतिकूलताओं से लड़ने का साहस रखना और जब वे सामने आ जावें तो हिम्मत वाले पहलवान के समान उनको परास्त करने के लिये जुट जाना यही बहादुरी का काम है। बहादुर को देखकर आधी विपत्ति अपने आप भाग जाती है। मनुष्य प्रयत्न करके प्रतिकूलताओं को निश्चय ही परास्त कर सकता है। अन्धकार के बाद प्रकाश का आना जब निश्चित है तो विपत्ति ही सदा कैसे टिकी रह सकती है? हम हिम्मत बांधें तो ईश्वर की मदद जरूर मिलेगी। परमात्मा सदा से प्रयत्नशीलों की, साहसी, विवेकवान् और बहादुरों की सहायता करता रहा है फिर हमारी ही क्यों न करेगा? शांति के बाद यदि अशांति की परिस्थिति आ धमकीं तो परिवर्तन-चक्र इन्हें सदा थोड़े ही बना रहने देगा।

अशान्ति के बाद शान्ति के क्षणों का, विपत्ति के बाद सम्पत्ति का आना भी उतना ही निश्चित है जितना रात के बाद दिन का आना है। फिर हमें निराशा क्यों हो? हम अशान्त और आतंकित क्यों हों?

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