न डरिये न अशान्त हूजिये

हम किसी से क्यों डरें

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परमात्मा ने अनेक विभूतियों से सुसज्जित कर मनुष्य को इस धरती में भेजा है। जिन मंगलकारी उपहारों को लेकर वह इस वसुन्धरा में अवतीर्ण होता है वे इतने हैं कि एक-एक की खोज और गणना करने बैठें तो अतुल श्रम व समय लगाना पड़े। भावनाओं को व्यक्त करने के लिए जैसी बुद्धि व वाणी उसे मिली है, संसार के किसी अन्य जीव जन्तु को उपलब्ध नहीं। संसार की सारी मशीनें एक ही शरीर के सम्मुख हतप्रभ हैं। खाने, पीने, चलने, फिरने की स्वचालित मशीन और कोई भी नहीं जैसी मनुष्य को प्राप्त है। पारस्परिक प्रेम और स्नेह, त्याग और आत्मोत्सर्ग सौजन्य और सौहार्द, संगठन और सहानुभूति के बल पर वह चाहें तो इसी धरती पर स्वर्ग उतार कर रख दें। इनसे भी बढ़कर श्रेष्ठ व अनुपम वस्तु उसे मिली है।

 वह है आत्मिक बल की अनुपम सम्पदा। इसे प्राप्त कर मनुष्य सचमुच देवता बन जाता है। किन्तु कार्य-जगत में जब हम इन उपहारों में से एक को भी अधिकतर जीवनों में फलित होते नहीं देखते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इन महत्त्वपूर्ण अनुदानों का स्वामी होकर भी उसकी दीनता, हीनता देखकर बड़ी निराशा होती है। लगता है उसने इनका दुरुपयोग कर लिया। बजाय सुखी व समुन्नत जीवन बिताने के बेचारा क्लेश और क्लान्त परिस्थितियों में पड़ा किसी प्रकार जीवन के दिन पूरे करता रहता है। इसका एक प्रबल कारण है भय। भय से बढ़कर अनिष्टकारी दूसरा कोई मनोविकार नहीं। यह ऐसा महान् घातक शत्रु है, जो व्यक्ति की विकास-विजय को पराजय में, आशा को निराशा में, उन्नति को अवनति में क्षणभर में बदल कर रख देता है। भय के दो रूप हैं एक क्रियात्मक, दूसरा भावनात्मक। पहला कर्त्ता और परिस्थिति के स्थूल संयोग या संघर्ष की आशंका से होता है। रात के अंधकार में डर जाना। चोर, बदमाश आदि किसी आततायी के आक्रमण आदि की आशंका को इस कोटि में माना जाता है। इससे शारीरिक, आर्थिक व व्यावसायिक क्षति सम्भव है। किन्तु दूसरी प्रकार का भय जो मनुष्य को देर तक उत्पीड़ित करता, घुलाता रहता है वह है मन का भय। इनके पीछे भी आधार क्रियात्मक हो सकते हैं किन्तु ऐसे भय अधिकांश निराधार ही होते हैं। पहले से उतना नुकसान नहीं होता, क्योंकि वे घटना के अनन्तर ही समाप्त हो जाते हैं। किन्तु निरन्तर शारीरिक व मानसिक शक्तियों का शोषण करने वाला तो यह मन का भय ही होता है। भयभीत होने का अर्थ है—आत्म-बल की कमी, आत्म-विश्वास की न्यूनता।

आने वाली कठिनाई या दुर्घटना से आतंकित होने का एक ही अर्थ होता है कि उससे लड़ने-जूझने और संघर्ष करने का साहस नहीं है। यह मनुष्य का एक बड़ा दुर्गुण है कि वह बिना जाने पहचाने केवल कागजी कंस से—कपोल कल्पित मान्यताओं से—भयभीत रहे। भय की परिस्थिति के मूल तक पहुंचकर देखें तो वास्तविकता कुछ भी न निकलेगी। मानसिक दुर्बलताओं अतिरिक्त भय का और कोई कारण नहीं। यदि कुछ हो भी तो उसे अपने सुदृढ़ मनोबल के द्वारा, विवेक और बुद्धि के माध्यम से सुलझाया जाना सम्भव है। एक आदमी अंधेरे में पांव धरता है तो आगे भूत खड़ा दिखाई देता है। बेचारा डर जाता है। होंठ सूख जाते हैं, छाती धड़कने लगती है। धैर्य छूटा कि भूत सवार हुआ। फिर जैसी कल्पना करते जाते हैं भूत वैसी ही क्रियायें करने लगता है। पर एक दूसरा व्यक्ति थोड़ी हिम्मत बांधता है सारा साहस बटोर कर आगे बढ़ता है, सोचता है देखें यह भूत भी क्या बला है। आगे बढ़ता है तो हवा के कारण हिलती-डुलती झाड़ी के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है। तब उसे पता चल जाता है भूत और कुछ नहीं अपना ही मानस-पुत्र है, अपनी ही कल्पना की तस्वीर है। डर जाने के अस्सी फीसदी कारण ऐसे ही होते हैं। कई बार ऐसे समय आ सकते हैं जब कोई हिंसक जीव या आततायी पुरुष द्वारा ऐसी घटना उपस्थित हो।

 पर यदि वहां भी मनुष्य साहस और शौर्य से काम ले तो उन्हें भी पार कर सकता है। कहावत है—‘‘हिम्मतां मरदे तो मददे खुदा।’’ अनेकों ऐसी घटनायें घटित हुई हैं जब छोटे-छोटे बालकों ने खूंख्वार हिंसक जानवरों का मुकाबला करके उनसे अपनी आत्मरक्षा की है। भयभीत होने का तो एक ही अर्थ है—अपने प्रतिद्वन्द्वी के आक्रमण के सामने सिर झुका देना। डर जाना जान-बूझ कर अपने आपको आपत्तियों के जाल में फंसा देना है। छोटे-छोटे जीव-जन्तु, पशु पक्षी घोर जंगलों में भी निर्भय विचरण करते रहते हैं। अनेकों भयदायक परिस्थितियां होते हुए भी उन्हें इस तरह निर्भीक घूमते देखते हैं तो मनुष्य की क्षमता पर, शारीरिक व मानसिक शक्ति पर सन्देह होने लगता है। भय मनुष्य की योग्यता कुण्ठित कर देने का प्रमुख कारण है। मानवीय योग्यताओं को देखते हुए यह आशा की जाती है कि लोग दिन प्रतिदिन उन्नति की ओर, विकास की ओर बढ़ते चले जायें। आज जिस स्थिति में हैं कल उससे बेहतर स्थिति में हों। आज की अपेक्षा कल कुछ अधिक धनवान्, बलवान्, गुणी एवं शिक्षित हों।

किन्तु इस तरह भयभीत रह कर अपनी विकास गति को शिथिल एवं लुञ्ज-पुञ्ज कर डालने की बात उपहासास्पद सी लगती है। यह सब इसलिये होता है कि आने वाली घटनाओं तथा परिस्थितियों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और अपनी शक्तियों को उनसे कमजोर मानते हैं। इससे पराक्रम तथा कर्तव्य-निष्ठा का ह्रास होता है। जिस कर्म के किये जाने की यथार्थ आवश्यकता थी वह नहीं हो पाता। कई बार तो उसके स्थान पर अनुचित कार्य तक होते देखे जाते हैं। डरपोक मन, कायरता और सशंकित रहने की विनाशक वृत्तियों के रहते कोई महत्त्वपूर्ण कार्य पूरा कर पाने में समर्थ नहीं हो सकता। सफलता प्राप्त करनी हो तो भयरहित होकर उस कार्य में जुटना पड़ेगा अन्यथा मानसिक चेष्टाओं में वह एकाग्रता, लगन एवं तत्परता न बन पड़ेगी जिनकी कार्य-पूर्ति के लिये आवश्यकता अनुभव की गई थी। छिन्न-भिन्न एवं दुर्बल मनोबल से कोई कार्य पूरे नहीं होते। इसलिये पहले साहस का अनुसरण करना होता है। भय सफलता का सबसे बड़ा बाधक है। साहसी और हिम्मतवर व्यक्ति हजार कठिनाइयों में भी विचलित नहीं होते। जीवन के किसी भी क्षेत्र में व्यवस्था एवं क्रम बनाये रखने के लिये सुदृढ़ मनोबल एवं साहसी होने की अत्यन्त आवश्यकता है।

 इनके अभाव में पग-पग पर भय उत्पादक परिस्थितियां रास्ता रोकतीं और पीछे लौटने को मजबूर कर देती हैं। विकास की गाड़ी रुके नहीं—सफलता की मंजिल तक पहुंचने में संदेह न रहे—इसके लिये भय-भीरुता को छोड़ना पड़ेगा। परिस्थितियों से संघर्ष करने की हिम्मत करनी पड़ेगी। तभी किसी महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष तक पहुंचना सम्भव हो सकेगा।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118