जीवन और मृत्यु

मृत्यु का भय त्याग दीजिए

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जो व्यक्ति जीवन के सच्चे सिद्धांतों को समझ कर तदनुसार आचरण करता है और प्रपंचों से बचकर कर्तव्य पालन में दत्तचित्त रहता है वह संसार में किसी बात से भयभीत नहीं होता । मृत्यु भी उसे डरा नहीं सकती । बल्कि ऐसे सत्यमार्ग पर चलने वाले के लिये तो वह एक समुचित विश्राम की तरह ही जान पड़ती है ।

मरने से डरने का कारण हमारा अज्ञान है । परमात्मा के इस सुन्दर उपवन में एक से एक मनोरम वस्तु है । यहाँ यात्रियों के मनोरंजन की सुव्यवस्था हैं पर वह यात्री जो इन दर्शनीय वस्तुओं को अपनी मान बैठता है उन पर स्वामित्व प्रगट करता है उन्हें छोड़ना नहीं चाहता अपनी मूर्खता के कारण दुःख का ही अधिकारी होगा । इस संसार का हर पदार्थ हर परमाणु तेजी के साथ बदल रहा है । इस गतिशीलता का नाम ही जीवन है । यदि हमें आगे चलते रहना है तो निश्चय ही उत्पादन विकास और विनाश का क्रम टूट जाय तो यह संसार एक निर्जीव जड़ पदार्थ बन कर रह जायगा । यदि इसे आगे चलते रहना है तो निश्चय ही उत्पादन परिवर्तन और नाश का क्रम अनिवार्यत: जारी रहेगा । शरीर चाहे हमारा अपना हो अपने प्रियजन का हो उदासीन का हो या शत्रु का हो निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त होगा । जब जिस समय हम चाहें तभी वे शरीर नष्ट हो ऐसा नही हो सकता । प्रकृति के परिवर्तन, कर्म-बन्धन ईश्वरीय इच्छा- ये प्रधान हैं इनके आगे हमारी इच्छा चल नहीं सकती । जिसे जब मरना है वह तब मर ही जायगा, हम उसे रोक नहीं सकते । इस जीवन मृत्यु के अटल नियम को जानने के कारण ही मृत्यु जैसी साधारण घटना के लिये हम रोते चिल्लाते, छाती कूटते भयभीत होते और दुःख मनाते हैं ।

जिसे जीवन का वास्तविक स्वरूप मालूम हो गया है उसे न अपनी मृत्यु में कोई दुःख की बात प्रतीत होती है और न दूसरों की मृत्यु का कष्ट होता है । किसी विशाल नगर के प्रमुख चौराहे पर खड़ा हुआ व्यक्ति देखता है कि प्रतिक्षण असंख्यों व्यक्ति अपने कार्यक्रम के अनुसार इधर से उधर आते जाते हैं । वह स्वयं भी कहीं से आया है और कहीं जा रहा है केवल कुछ क्षण के लिये चौराहे का कौतूहल देख रहा है । इस अपने या दूसरों के आवागमन पर यदि यह व्यक्ति दुःख माने रुदन या विलाप करे तो उसे अविवेकी ही कहा जायगा । संसार के विशाल चौरस्ते पर ऐसे ही आवागमन की भीड़ लग रही है । एक की मृत्यु ही दूसरे का जन्म है एक का जन्म दूसरे की मृत्यु है । एक का सुख दूसरे का दुःख है और दूसरे का दुःख एक का हर्ष । यह आँख मिचौली भूल भुलैयाँ विवेकवानों के लिए एक चित्ताकर्षक, विनोदमयी क्रीडा़ है पर बाल बृद्धि के व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और इस कौतूहल को कोई अपत्ति मानकर सिर धुनते, रोते चिल्लाते और पश्चाताप करते हैं ।

मृत्यु के दुःख में शरीरों का नष्ट होना कारण नहीं वरन् जीवन के वास्तविक स्वरूप की जानकारी न होना ही कारण है । ऐसे कितने वीर बलिदानी हुए हैं जो फांसी की कोठरी में रहते हुए दिन-दिन अधिक मोटे होते गये वजन बढ़ता गया और फाँसी के फंदे को अपने हाथों गले से लगाया और खुशी के गीत गाते हुए मृत्यु के तख्ते पर झुल गये । कवि 'गंग' को जब मृत्यु दण्ड दिया गया और उन्हें पैरों तले कुचल डालने को खूनी हाथी छोड़ा गया तो वे प्रसन्नता से फूल उठे उन्होंने कल्पना की कि देवताओं की सभा में किसी छन्द बनाने वाले की आवश्यकता हुई है इसलिये मुझ कवि गंग को लेने हाथी रूपी गणेश आये हैं । कितने ही महात्मा समाधि लेकर अपना शरीर त्याग देते हैं उन्हें मरने में कोई अनोखी बात दिखाई नहीं देती ।

कई व्यक्ति सोचते हैं कि मरते समय भारी कष्ट होता है इसलिये उस कष्ट की पीड़ा से डरते हैं । यह भी मृत्यु समय की वस्तु स्थिति की जानकारी न होने के कारण है । आमतौर से लोग मृत्यु से कुछ समय पूर्व बीमार रहते हैं । बीमारी में जीवनी शक्ति घटती जाती है और इन्दियों की चेतना शिथिल पड़ती जाती है इस शिथिलता के साथ साथ ज्ञान तन्तु संज्ञाशून्य होते जाते है फलस्वरूप दुःख की अनुभूति भी पूरी तरह नहीं हो पाती । प्रसूता स्त्रियाँ या लंघन के रोगी गर्मी की ऋतु में रात को भी अक्सर बन्द घरों में सोते हैं पर उन्हें गर्मी का वैसा कष्ट नहीं होता जैसे स्वस्थ मनुष्य को होता है । स्वस्थ मनुष्य रात को बंद कमरे में नहीं सो सकता पर रोगी सो जाता है । कारण यह है कि रोगी के ज्ञान तन्तु शिथिल हो जाने के कारण गर्मी अनुभव करने की शक्ति मंद पड़ जाती है रोगियों को स्वाद का भी ठीक अनुभव नहीं होता स्वादिष्ट चीजें भी कडुबी लगती हैं क्योंकि जिह्वा के ज्ञान तन्तु निर्बल पड़ जाते हैं । रोगजन्य निर्बलता धीरे-धीरे इतनी बढ़ जाती है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य संज्ञा शून्य हो जाता है और बिना किसी कष्ट के उसके प्राण निकल जाते हैं । जो कुछ कष्ट मिलना होता है रोग काल में ही मिल जाता है । डाक्टर लोग जब कोई बड़ा आपरेशन करते हैं तो रोगी को क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश कर देते हैं ताकि उसे कष्ट न हो । दयालु परमात्मा भी आत्मा से शरीर को अलग करने का आपरेशन करते समय संज्ञा शून्यता का क्लोरोफार्म सुंघा देता है ताकि हमें मृत्यु का कष्ट न हो।

यह सभी जानते हैं कि कोई रोगी जब मरने को होता है तो मृत्यु से कुछ समय पूर्व उसकी बीमारी मंद हो जाती है । कष्ट घट जाता है । तब अनुभवी चिकित्सक समझ जाते है कि अब रोगी का अन्तिम समय आ गया । कारण यह है कि बीमारी के कारण रोगी की जीवनी शक्ति चुक जाती है और ज्ञान तन्तु रोग को प्रकट करने एवं कष्ट अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं । यह मान्यता भ्रम पूर्ण है कि गर्भकाल में माता के उदर में और मृत्यु के समय प्राणी को अधिक कष्ट होता है । दोनों ही दिशाओं में मस्तिष्क अचेतन अवस्था में और ज्ञानतन्तु संज्ञाशून्य अवस्था में रहने के कारण प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । ऐसी दशा में मृत्यु के कष्ट से डरने का कोई कारण नहीं रह जाता ।

अनावश्यक मोह ममता ही मृत्यु भय का प्रधान कारण है । हम कर्तव्य से प्रेम करने की अपेक्षा वस्तुओं से मोह करने लगते है । हमारा प्रेम कर्तव्य भावना में संलग्न न रहकर शरीर सम्पत्ति आदि में लग जाता है । प्रिय वस्तु के हाथ से जाने में कष्ट होता ही है इसलिये मरने का भी दुख होता है । यदि आरम्भ से ही यह मान कर चला जाय कि हमारे अधिकार या सम्बन्ध में जो भी शरीर या पदार्थ हैं दे प्रकृति के धर्म परिवर्तन के कारण किसी भी समय बन बिगड़ या नष्ट हो सकते हैं तो उनसे अनावश्यक मोह ममता जोड़ने की भूल न हो । तब मनुष्य यह सोचेगा कि संसार में सबसे अधिक प्रिय सबसे अधिक आत्मीय, सबसे अधिक लाभदायक अपना 'कर्तव्य' है । उसी से पूरा प्रेम किया जाय । इस प्रेम को जितना अधिक बढ़ाया जा सके बढ़ाया जाय, इस प्रेम से जहाँ रत्ती भर भी बिछोह हो वहां दुःख माना जाय तो यह प्रेम अनन्त सुख शान्ति देने वाला बन जायगा । जो कर्तव्य पालन को अपना लाभ समझेगा उसे हानि का दुःख न उठाना पड़ेगा । कारण यह है कि अपना प्रेमी 'कर्तव्य' सदा अपने साथ हैं, उसे कोई भी शक्ति हमारी इच्छा के विपरीत हमसे नहीं छीन सकती । इसी प्रकार हमारे लाभ का केन्द्र बिन्दु हमारा 'कर्तव्य' है तो उसमें घाटा पहुँचाने वाला हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता । हमारे प्रेम और लाभ जब पूर्णतया हमारे हाथ में है तब बिछोह या हानिजन्य दुखों के सामने आने का कोई कारण नहीं रह जाता । दूसरों की मृत्यु-प्रेमियों और पदार्थो की मृत्यु का दुःख हमसे तभी दूर रह सकता है जब हम मिथ्या मोह ममता को छोड्कर कर्तव्य से प्रेम करना और उसी को अपनी सम्पत्ति समझने का विवेक हृद्धयंगम कर ले ।

अपनी मृत्यु में दुःख भी इस बात का होता है कि जीवन जैसे बहुमूल्य पदार्थ का सदुपयोग नहीं किया गया । आलस्यवश जब देर में स्टेशन पहुंचने पर रेल निकल जाती है तो उस दिन नियत स्थान पर न पहुँच सकने के कारण जो भारी क्षति हुई उसका विचार कर करके यह आलसी मनुष्य स्टेशन पर खड़ा हुआ पछताता है और अपने आप को कोसता है । मृत्यु के समय भी ऐसा पश्चाताप होता है जब कि मनुष्य देखता है कि मानव जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु को मैंने व्यर्थ की बातों में गँवा दिया उसका सदुपयोग नहीं किया उससे जितना लाभ उठाना चाहिए था वह नहीं उठाया यदि हम जीवन के क्षणों का सदुपयोग करें, उसकी एक-एक घड़ी को केवल आत्म लाभ के, सच्चे स्वार्थ के लिए लगावें तो चाहे आज चाहे कल जब भी मृत्यु सामने आवेगी तो किसी प्रकार का पश्चाताप या दुःख न करना पड़ेगा ।

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