जीवन और मृत्यु

जीवन के तेरह रूप

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मानव जीवन की विभिन्नता प्रसिद्ध है आपको जिस प्रकार का जीवन पसंद है दूसरा उसी को निम्न दृष्टि से देखता है तीसरा उसी का मजाक उड़ाता है चौथा उसी से प्रभावित होता है ।

यहां हम तेरह प्रकार के जीवन का अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं । पाठक स्वयं ही देखें कि वे कौन सी श्रेणी में आते हैं ? किस प्रकार के जीवन को कितने अंशों में पसंद करते हैं ?

प्रथम रूप :-

इस दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति सामाजिक जीवन तथा अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में सक्रियता से भाग लेता है । अपने समुदाय तथा जाति के कार्यों में दिलचस्पी लेता है उसके वातावरण को परिवर्तित तो करना नहीं चाहता वरन उसे समझना पसंद करना और मानव समुदाय ने जो सर्वोत्तम किया है उस तक पहुँचना चाहता है । अनियंत्रित इच्छाओं का दमन तथा नियंत्रण को पसंद करता है । जीवन की सभी अभिनन्दनीय वस्तुओं का सुख क्रमानुसार प्राप्त करना चाहता है । वह जीवन में स्पष्टता संतुलन परिष्कार और संयम की आकांक्षा रखता है । बेहूदगी, अत्यधिक जोश, थोथी शान, अविवेकी व्यवहार, अशान्ति वासना पूर्ति या जिह्वा तृप्ति से दूर रहता है । सबके साथ मित्रता का व्यवहार रखता है किन्तु अनेक व्यक्तियों से गहरी दोस्ती स्थापित नही करता । जीवन में संयम, स्पष्ट उद्देश्य उत्तम व्यवहार तथा निश्चित क्रम अनिवार्य है । सामाजिक जीवन में जो परिवर्तन आयें वे बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे होने चाहिए जिससे मानव संस्कृति को बड़ा धक्का न लगे । व्यक्ति सामाजिक और शारीरिक दृष्टि से सक्रिय बना रहे । सक्रिय जीवन में अनुशासन और बुद्धि तत्व की प्रधानता रहे । द्वितीय रूप :-

व्यक्ति को अपना मार्ग निर्धारित करना चाहिए । मानव समाज से अपना सम्बन्ध गुप्त रखना अपने पर ही अधिक समय देना अपने जीवन को संयमित करना चाहिए । व्यक्ति को आत्म तुष्ट, चिन्तन, मनन और आत्म ज्ञान में लिप्त रहना चाहिए । ऐसा व्यक्ति सामाजिक झुण्डों से दूर भौतिक वस्तुओं से विरक्त अपने आपको संयमित करने में ही अधिक समय देता है । सोचता है अपना बाहरी जीवन सरल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए और भौतिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को घटाने का प्रयत्न करना चाहिए । शरीर के कार्य आत्मा के विकास परिष्कार और प्रतीति के लिए होने चाहिए । बाह्म जीवन अर्थात् बाहरी आडम्बरों तथा झंझटों में लिप्त जीवन से कुछ नहीं हो सकता । व्यक्तियों तथा बाह्य वस्तुओं पर अत्यधिक आश्रित रहना कम करना चाहिए । जीवन का मूल केन्द्र आन्तरिक जीवन में ही प्राप्त हो सकता है ।

तृतीय रूप :-

सोचता है- सहानुभूति पूर्ण व्यवहार तथा दूसरों में दिलचस्पी ही जीवन का मूल अभिप्राय होना चाहिए । जीवन के प्रेम वह प्रेम जो दूसरों पर दबाव या अनुचित रीति से अपने स्वार्थ के लिए उनकी सेवाओं का उपयोग करना नहीं सिखलाता । यह प्रेम स्वार्थ सिद्धि से मुक्त है । बहुत सी वस्तुओं पर अधिकार कामोत्तेजक सुखों तथा वस्तुओं व मनुष्यों पर शासन करने की आदत छोड़नी चाहिए । क्योंकि इससे दूसरों के साथ पूर्ण प्रेम विस्त्रत सार्वभौमिक प्रेम की सिद्धि नहीं हो सकती । और बिना इस प्रेम प्रतीति के जीवन नीरस बालू के समान है । यदि हम हिन्सक है या हिन्सा जन्य मानवीय दुर्बलताओं के शिकार हैं तो हम इस सहानुभूति के हृदय-द्वार बन्द कर रहे है । अत: हमें अपनी संकुचितता त्याग कर दूसरों के लिए प्रेम आदर प्रशंसापूर्ण सहायता से परिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए ।

चौथे प्रकार का जीवन :-

जीवन आनन्द के मजेदारी के लिए दिया गया है । इन्द्रियों के सुख लूटने चाहिए आमोद-प्रमोद का आनन्द उठाना चाहिए । जीवन का अभिप्राय संसार या जीवन के क्रम को रोकना नहीं । प्रत्युत जीवन को सब प्रकार के आनन्दों के लिए उनमुक्त करना है जीवन एक आनन्दोत्सव है नैतिकता तथा नियंत्रण का स्कूल या धर्मालय नहीं । जैसे जीवन प्रवाह बहता है वैसे ही उसे चलने देना, वस्तुऐं या व्यक्ति जैसा चलना चाहते हैं उन्हें वैसा ही विकसित होने देना शिव तत्व या न कार्य करने से अधिक महत्व पूर्ण है । इस प्रकार के ऐंद्रिक आनन्द के लिए दूसरों पर निर्भर नही रहना चाहिए ।

पांचवे प्रकार का जीवन:-

मनृष्य को केवल अपने आप हो में डूबे नहीं रहना चाहिए । न दूसरों से बचना दूर रहना या अपने ऊपर ही केन्द्रित रहना चाहिए । इसके विपरीत उसे अपने समाज में विलीन कर देना चाहिए । अपने साथियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए । मित्रता द्वारा सामान्य तथा सार्वभौमिक हितों को प्राप्ति में प्रयत्नशील होना चाहिए । व्यक्ति को सामाजिक होना चाहिए और क्रियाशील जीवन व्यतीत करना चाहिए । आलस्य में नहीं जीवन को शक्ति के वेग में लय करना चाहिए और सामूहिक आनन्द लाभ करना चाहिए । चिन्तन संयम आत्म नियंत्रण इत्यादि मनुष्य को सीमित बना कर जीवन का आनन्द ही नष्ट कर डालते हैं । हमें बड़े शान से जीवन के सभी बाह्य और एन्द्रिय सुखों का उपभोग करते हुए दूसरों की सहायता तथा उनके सुख में सुखी होते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए । मानव जीवन अधिक गंभीर चीज नहीं है ।

जीवन का छटा रूप :-

जीवन की गति धीरे-धीरे स्थिरता और रुकावट की ओर है, आराम तलब बनकर जीवन में जंग लग जाता है इस निश्चेष्टता तथा स्थिरता के विरुद्ध हमें निरन्तर उद्योग करना चाहिए और निरन्तर कुछ न कुछ करना शारीरिक श्रम समस्याओं का 'यथार्थवादी' स्पष्टीकरण समाज तथा विश्व को नियन्त्रित करने के लिए क्रियात्मक योजनाऐं बनाते रहना चाहिए । मनुष्य का भविष्य मूल रूप से इस बात पर निर्भर रहता है कि वह क्या करता है ? कैसे करता है ? कितना प्रयत्न और उद्योग करता है ? न कि वह क्या सोचता है । सोचने से करना अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि विकास की आकांक्षा है तो परिष्कृत कार्य होने आवश्यक हैं । हम केवल' प्राचीन काल के स्वरुप मात्र नहीं देख सकते न भविष्य के विषय में रंगीन कल्पनायें ही निर्मित कर सकते हैं । हमें तो दृढ़ता और नियमितता से कार्य करना है ।

जीवन का सातवां रूप :-

भिन्न-भिन्न काल और समयों में जीवन के क्रम उद्देश्य एवं नीति को परिस्थिति एवं काल के अनुसार परिवर्तित करना है किसी एक को पकड़ कर नहीं चलना है । कभी एक उद्देश्य तो कभी दूसरी नीति काम करती है । जीवन में आनन्द चिन्तन एवं कार्य सभी आवश्यक तत्व है । जय इनमें से कुछ भी कम या अधिक हो जाता है तो हम कुछ न कुछ महत्त्व पूर्ण चीज खो देते है अत: हमें परिस्थिति के अनुसार मुड़ना या लचक जाना सीख जाना चाहिए, और साथ ही साथ आनन्द और कार्य में से कुछ समय पृथक चिन्तन के लिए भी निकालना चाहिए । जीवन का अधिकतम लाभ कार्य चिन्तन, आनन्द के क्रियाशील सामंजस्य में निहित है, अत: इन सभी का उचित उपयोग जीवन में होना चाहिए ।

आठवीं प्रकार का जीवन

आनन्द ही जीवन का मूल तत्व होना चाहिए । तीव्र और उद्वेगजन्य आनन्द नहीं, सरल और सहज रुप में प्राप्त हो जाने वाला आनन्द ही सर्वोत्कृष्ट है । इन आनन्दों में सीधा-सादा सात्विक आहार आराम देने वाली परिस्थितियाँ इष्ट मित्रों की सुखद वार्ता विश्राम और मानसिक तनाव को कम करना है । प्रेम और सौहार्द से युक्त घर सम्माननीय सामाजिक स्थिति पौष्टिक भोजन से भरी हुई रसोई ये घर को रहने योग्य बनाती है । शरीर विश्राम ले सके मानसिक तन्तु तने न रहे मस्तिष्क से धीरे-धीरे काम लिया जाता रहे अनावश्यक तेजी चिन्ता जल्दबाजी न रहे । सायंकाल दिनभर के कठिन परिश्रम के पश्चात् विश्राम कर सके संसार को कृतज्ञता से आशीर्वाद दे सकें । यही जीवन सार है । आगे ढकेलने वाली महत्वाकांक्षा और योगियों जैसा कठोर संयम अतृप्त व्यक्तियों का प्रतीक है । इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों में सरल निर्द्वन्द और निश्चिन्त आनन्द के प्रवाह में तैरने की शक्ति नहीं होती ।

नवीं प्रकार का जीवन

हमें अपने आप को शिक्षण के लिए खुला रखना चाहिए । यदि हम मन को संकार्ण न बनावें और प्रत्येक प्रकार की शिक्षा तथा सद्ज्ञान को ग्रहण करने के लिए तैयार रहे तो हमारा जीवन स्वयं उत्तम प्रकार के रुप में आ जायगा । जीवन में उत्तमोत्तम वस्तुऐं स्वयं उत्पन्न होने लगती हैं क्योंकि हमारे जीवन का आदि स्रोत परमेश्वर है । आनन्द हमें शारीरिक इन्दियों द्वारा ग्राह्य पाँचों प्रकार के आनन्दों से मिलने वाला नहीं है । सामाजिक जीवन की गूढ़ गुत्थियों में जकड़े रहने से सर्वोत्कृष्ट लाभ नहीं मिल सकता । न इसे दूसरे को दिया जा सकता है इन्हें गूढ़ चिन्तन द्वारा भी नहीं प्राप्त किया जा सकता । ये तो भली प्रकार का जीवन व्यतीत करते रहने से स्वयं आते हैं । हमारा जीवन धीमी गति से उन गुणों को प्रकट कर रहा है जो आत्मा में विद्यमान है । जब हमारा शरीर आवश्यकताओं और फरमाइशों को बन्द कर दे और शान्त हो कर सद्ज्ञान ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो जाय तो वह उच्च मत दैवी नियमों के द्वारा परिचालित होने के लिए तैयार हो जाता है । इन दैवी विभूतियों से परिचालित हो कर उसे वास्तविक आनन्द और शान्ति मिलती है । दैवीय संदेह को ग्रहण करने के लिए प्रकृति के आंगन में शान्त बैठना और अन्तरात्मा के अनुसार जीवन पथ निर्धारित करना मूल चीज है । तब बाहर से मन के अन्दर ज्ञान का पूर्ण प्रकाश होता है ।

जीवन का दसवा स्वरूप

आत्म-संयम मानव जीवन का मूल होना चाहिए । वह सरल आत्म संयम नहीं जिसके कारण मनुष्य संसार से विरक्त होकर दूर चला जाता है प्रस्तुत सदैव सचेत, दृढ़, पुरुषोचित आत्म संयम जो जीवन में रहता है और मानव जीवन की कमजोरियों को समझता है । उत्तम जीवन का निर्देशन समझदारी से होता है और उच्च आदर्शो पर मजबूती से दृढ़ रहता है । आनन्द और इच्छा मात्र से ने आदर्श नहीं झुकते । वे सामाजिक प्रतिष्ठा के भूखे नहीं होते अन्तिम पूर्ण सफलता में भी उनका पूर्ण विश्वास नहीं होता अधिक लाभ की आकांक्षा नहीं की जा सकती । सावधानी से चलने पर मनुष्य व्यक्तित्व पर अंकुश रख सकता है, कार्यो पर नियन्त्रण रख सकता है और स्वतन्त्र अस्तित्व स्थिर रख सकता हैं । यही जीवन का मर्म है । यद्यपि इस मार्ग पर चलने से मनुष्य नष्ट हो जाता है तथापि इसमें उसका पुरुषोचित गौरव कायम रह सकता है ।

जीवन का ग्यारहवां स्वरूप :-

चिन्तन प्रधान जीवन उत्तम जीवन है । बाह्य सामाजिक जीवन मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है । यह अत्यन्त विस्त्रत है नीरस और स्वार्थ मय है । जीवन की महानता ही जीवन को जीने योग्य बनाती है । आदर्शो का आन्तरिक जीवन कोमल भावनाओं भावी उन्नति के सुखद स्वप्न, आत्म जिज्ञासा की तृप्ति मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति है । आन्तरिक विकास के द्वारा ही मनुष्य मानवीय विभूतियों से परिपूर्ण होता है । आन्तरिक गंभीर चिन्तन प्रधान जीवन से ही मनुष्य को स्थाई आनन्द को उपलब्धि होती है ।

जीवन का बारहवां स्वरूप

शरीर की शक्ति का अधिकतम उपयोग जीवन का पुरस्कार है । हाथों को कुछ ऐसी चीज की आवश्यकता है जिससे वे कुछ निर्माण कर सकें । लकड़ी और ईट मकान के लिए काटने के लिए सफल आरी ,सांचे में ढालने के लिए मिट्टी करने के लिये कुछ काम । उसके पुट्ठे और मांसपेशियाँ, विभिन्न अवयव कुछ न कुछ करने के लिए आतुर रहते हैं । जीवन का उत्साह मार्ग की अढ़चनों को विजय करने में विजयी जीवन व्यतीत करने में राज्य करने में है । क्रियात्मक स्फूर्ति दायक चलने फिरने से युक्त जीवन जो जल की भांति सदैव चलता फिरता हिलता डुलता रहे अग्रगामी सचेष्ट हो वही वास्तविक जीवन का स्वरूप है ।

जीवन का तेरहवां स्वरूप

हमें अपने आप को दूसरे के द्वारा काम में लाये जाने देना चाहिए । दूसरे व्यक्ति अपने विकास के लिए हमें काम में ले और हम चुपचाप बिना किसी दिखावे के उनकी सहायता करते रहे उन्हें कुछ देकर उन्नत होने में सहायक हो जिससे वे वह कार्य पूर्ण कर सके जिसके लिये उनका निर्माण हुआ है । प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश विद्यमान है और उन पर विश्वास किया जा सकता है । हमें विनम्र निरन्तर उघोगशील सत्यनिष्ठ होना चाहिए । जो प्रेम करे उसके प्रति कृतज्ञ जो सहायता करे उनके लिए सहायक सिद्ध होना चाहिए किन्तु किसी प्रकार की मांग पेश करना अनुचित है । जनता के समीप आइये । प्रकृति के समीप आइये और क्यों कि आप समीप हैं आप प्रत्येक भांति सुरक्षित भी हैं । एक ऐसा गंभीर शांत विशाल पात्र बनिये जिसके द्वारा सबकी इच्छा तृप्त होती रहे ।
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