जीवन और मृत्यु

जीवन और मृत्यु

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गायत्री का सत्रहवां अक्षर 'धि' हमको जीवन और मृत्यु के तत्व को जानने की शिक्षा देता है ।

धियामृत्यु स्मरेन्मर्म जानीयं जीवनस्य च तदालक्षं समालक्ष्य पादौ संततमाक्षिपेत ।।

अर्थात्- ''मृत्यु को ध्यान में रखें और जीवन के मर्म को समझ कर अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर हो ।''

मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं क्योंकि कपड़ा बदलने के समान यह एक स्वाभाविक एवं साधारण बात है । परन्तु मृत्यु को ध्यान में रखना आवश्यक है । मार्ग के विश्रामगृह में ठहरे हुए यात्री को जैसे रातभर ठहर कर कूच की तैयारी करनी पड़ती है और फिर दूसरी रात किसी अन्य विश्रामगृह में ठहरना पड़ता है उसी प्रकार जीव भी एक जीवन को छोड़ कर दूसरे जीवनों में प्रवेश करता रहता है ।

क्षणिक जीवन में कोई ऐसा कार्य न करना चाहिए जिससे आगे की प्रगति में बाधा पड़े । विश्रामगृह के अनावश्यक झगड़ों में उलझ कर जैसे कोई मूर्ख यात्री मुकदमा जेल में फँस जाता है और अपनी यात्रा का उद्देश्य बिगाड़ लेता है वैसे ही जो लोग वर्तमान जीवन के तुच्छ लाभों के लिए अपना परम् लक्ष्य नष्ट कर लेते हैं वे निश्चय ही अज्ञानी हैं ।

जीवन एक नाटक की तरह है । इस अभिनय को हमें इस प्रकार खेलना चाहिए कि दूसरों को प्रसन्नता हो और अपनी प्रशंसा हो । नाटक खेलते समय सुख और दुःख के अनेक प्रसंग आते हैं पर अभिनय करने वाला पात्र उस अवसर पर वस्तुत:सुखी या दुःखी नहीं होता । इसी प्रकार हम को जीवन रूपी खेल में बिना किसी उद्वेग के अभिनय का कौशल प्रदर्शित करना चाहिए । पर साथ ही अपने लक्ष्य को भूलना न चाहिए ।

मृत्यु इस जीवन नाटक का अन्तिम पटाक्षेप है । इसके बाद अभिनय कर्ता को विश्राम मिलता है । मृत्यु का दूत जीवन का अन्तिम अतिथि है उसके स्वागत के लिये सदा तैयार रहना चाहिए । अपनी कार्य प्रणाली ऐसी रखनी चाहिए कि किसी भी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो तो किसी प्रकार का पश्चाताप न करना पड़े ।

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