जीवन और मृत्यु

सिद्धांतों पर आचरण करना आवश्यक है

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संसार में आचरण की महिमा सबसे अधिक है । जिस मनुष्य के कहने और करने में अन्तर रहता है उसकी बात का प्रभाव न तो दूसरों पर पड़ता है और न वह स्वयं कोई स्थाई सफलता प्राप्त कर सकता है । जीवन में यह जानना सबसे आवश्यक बात है कि सबसे प्रमुख क्या है तथा सर्व प्रथम क्या किया जाना चाहिए । मध्य से किसी कार्य को प्रारम्भ करना असफलता का सूचक है । वह व्यापारी जो अपना व्यापार छोटी मात्रा से प्रारम्भ करता है और क्रमश: उसे बढ़ाता है अन्त में समृद्धि प्राप्त करता है । तत्व ज्ञानियों को भी यही अध्ययन प्राय: जीवन की साधारण घटनाओं और गुत्थियों से होता है । उन्नति की परम चोटी पर एक बारगी उछाल द्वारा नहीं चढ़ा जा सकता उस पर पहुँचने के लिए कर्म और साधना की सीढ़ी आवश्यक है ।

जब हम मानव जीवन के मूल सिद्धाँतों पर दृष्टिपात करते हैं तो 'कर्तव्य' इसमें सर्व प्रथम आता है । कर्तव्य की सबसे स्पष्ट व्याख्या है अपने कार्य में तल्लीनता और दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप न करने की भावना । वह व्यक्ति जो सदैव दूसरों को मार्ग बताने का दावा करता है स्वयं अपने ही मार्ग को नहीं जानता । भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के कर्तव्य भिन्न-भिन्न होते है और दूसरे के कर्तव्य की अपेक्षा अपने कर्तव्य का ज्ञान अधिक होना चाहिए । आवश्यकता और स्थिति के अनुसार हम कर्तव्य की मीमांसा में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर सकते है ।

ईमानदारी जीवन का दूसरा सिद्धान्त हैं, 'वही करो जो कहो, इसका मूल मन्त्र है । इसका कार्य जीवन को अनेकानेक चालाकियों और चालबाजियों और छल कपटों से दूर करना है । ईमानदारी से मनुष्य के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है और यह विश्वास ही सम्पूर्ण सुख और समृद्धि का जनक है ।

मितव्ययता जीवन का दूसरा सिद्धांत है । धन के उचित उपयोग को ही मितव्ययता कहते हैं । ज्यो-ज्यों धन बढ़ता जाता है मितव्ययता की आवश्यकता पड़ती जाती है । अपनी आय की सीमा में ही अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखो, यही इसकी सर्व प्रथम सीख है । धन के अतिरिक्त यह हमें मानसिक और शारीरिक दुरुपयोग से भी रोकती है । हमारी आय और शक्तियाँ सीमित हैं । उनका अपव्यय शीघ्र ही हमें उनसे वंचित कर देगा । इसलिए उनका उपयोग क्रमश: एवं आवश्यकता के अनुसार किया जाना चाहिए ।

उदारता अप्रत्यक्ष रुप से मितव्ययता से संबंधित है । जो मितव्ययी न होगा वह उदार भी नहीं हो सकता । जो अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का अपव्यय स्वयं ही कर लेगा, उसके पास इतनी शक्ति ही कहाँ रहेगी कि वह दूसरों पर उसका उपयोग करे । धन की सहायता तो उदारता की सबसे साधारण व्यवस्था है । विचारों भावनाओं सद्कामनाओं द्वारा प्रदत्त सहायता उदारता की सीमा में आती है । उदारता का प्रभाव व्यापक और बहुत काल तक रहने वाला होता है । उदारता अपने बदले में किसी से किसी प्रकार की कामना नहीं करती । प्रतिफल की इच्छा रखने वाली उदारता सिद्धांत न होकर व्यापार मात्र रह जाती है ।

आत्म संयम जीवन का पाँचवां और अन्तिम सिद्धांत है । वह व्यवसायी अथवा अन्य कोई व्यक्ति जो शीघ्र नाराज हो जाता है और असंयत भाषा और भाव प्रदर्शित करने लगता है जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता । अपने मन को दुर्बलताओं का अधिकार करना समय और परिस्थिति के अनुकूल विवेक द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलना ही आत्म संयम है । ऐसा व्यक्ति सदैव कर्तव्यनिष्ठ चरित्रवान और मानव सुलभ सम्पूर्ण गुणों से सुशोभित होगा । आत्म संयमी व्यक्ति के लिए संसार में न तो कोई कार्य कठिन है और न उसके पथ पर कोई बाधा ही है ।

उपयुक्त पाँच सिद्धांत सफलता के पाँच मार्ग है जीवन के पथ पर प्रकाश की पाँच किरणें है । सम्भव है कि प्रारम्भ में इनका व्यवहारिक निरूपण कठिन हो, किन्तु अभ्यास हमें इन सिद्धांतों से अभिन्न रुप से जोड़ देगा । यदि हम इनकी उपयोगिता और महत्व को अच्छी तरह समझ ले तो हमें इन्हें अपनाने में तनिक भी कठिनाई न होगी।

यदि हम संसार के महानुभावों के जीवन का भली भांति विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि उनमें से प्रत्येक के ही जीवन में यह पांचों सिद्धांत किसी न किसी रूप में भली भांति विद्यमान हैं । इसमें मानो किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व का निचोड़ आ जाता है ।

महाप्रभु कोटिल्य ने ठीक ही कहा है ''तू सूर्य और चन्द को अपने पास नहीं उतार सका, इसका कारण उनकी दूरी नहीं तेरी दूरी की भावना है । तू संसार को बदल नहीं पाया इसका कारण संसार की अपरिवर्तन शीलता नहीं तेरे प्रयासों की शिथिलता है । जब तू यह कहता है कि मैं अपने में परिवर्तन नहीं कर सकता तो इसे स्थिति और विधाता कहकर न टालो वरन साफ-साफ अपनी कायरता और अकर्मण्यता कहो क्योंकि इच्छा की प्रबलता ही कार्य की सिद्धि है ।''
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