लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत

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    (युगतीर्थ शान्तिकुञ्ज के माध्यम से नवसृजन अभियान को अधिक गतिशील एवं प्रभावी बनाने के क्रम में पूज्य गुरुदेव द्वारा कार्यकर्ताओं को अपने व्यक्तित्व में आवश्यक गुणों के विकास हेतु प्रेरणा दी गयी थी। उसी क्रम में उन्होंने यह निर्देश पत्रक जारी किया था।)   

    प्रज्ञा परिजनों को आत्म कल्याण और लोक मंगल का दुहरा उत्तरदायित्व संभालना है, इसमें उन्हें अपना व्यक्तित्व अपेक्षाकृत अधिक पवित्र, प्रखर एवं व्यवस्थित बनाना है इसके लिए कुछ विशेष सद्गुणों को बढ़ाने के लिए अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। जो समझना, अपनाना और बढ़ाना है वह इस प्रकार हैं-

    (१)   लक्ष्य और चिंतन-

    जीवन को ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि उपहार समझें और उसका उद्देश्य स्रष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत सुसंस्कृत बनाना मानें। इस प्रयास में आत्म कल्याण और विश्व कल्याण के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं ।    
    बड़प्पन की महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाये। महानता प्राप्ति की उत्कंठा उभारें। वासना- तृष्णा के, लोभ- मोह के भव बंधनों में न जकड़े। सदुद्देश्यों के आकाश में सत्प्रवृत्तियों के पंख पसारे और जीवन मुक्तकों की तरह परम लक्ष्य की उपलब्धि के लिए उड़ चलें। पीछे मुड़कर न देखें। वर्तमान को सँभालें, भविष्य की सोचें ।   
    ज्ञान योगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें, भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें और उसे पतन- पराभव के निराकरण में नियोजित रखें ।  
    प्रातः उठते ही एक दिन का जन्म, सोते ही एक रात का मरण सोचें और अवसर के श्रेष्ठतम सदुपयोग का भाव- भरा निर्धारण करें। महाप्रज्ञा के अवतरण में सहकर्मी बनें। प्रज्ञा अभियान में सम्मिलित रहें। हर दिन गायत्री मंत्र की न्यूनतम तीन माला का जप तथा सविता की ध्यान- धारणा श्रद्धापूर्वक चलायें, उसमें व्यतिरेक न करें।

    (२)   श्रमशीलता- 

    समय ही जीवन है। जिसने समय का जितना सदुपयोग किया वह उतना ही जी लिया, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक- एक क्षण को सुनियोजित विधि व्यवस्था में श्रम निरत रखें। आलस्य- प्रमाद को पक्के शत्रु समझें और उन्हें पास न फटकने दें। इस सम्बन्ध में अपनी अभ्यस्त आदत को स्वयं सुधारें। पैनी नजर से देखें कि काम उदास मन से, उपेक्षापूर्वक, मंदगति से तो नहीं हो रहा है? समुचित तत्परता और स्फूर्ति बरती गयी या नहीं? समय श्रम और परिपूर्ण मनोयोग से ही काम का स्वरूप निखरता और प्रयोजन पूर्ण होता है ।   
    किसी काम को छोटा न मानें। हाथ में आये काम को ठीक समय पर, सही रीति से, समूची योग्यता लगाकर करने को प्रतिष्ठा का प्रश्र मानकर चलें। खाली समय होने पर दूसरों द्वारा बताये जाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं अपने लिए काम की तलाश करें। निजी या समीपवर्ती क्षेत्र से अव्यवस्था हटाने के रूप में वह कहीं भी प्रचुर मात्रा में मिल सकता है। प्रगति का एक ही मापदण्ड है- किसने अपने कार्यों में कितना उत्साह दिखाया और उछलकर आगे आया।

    (३)  सुव्यवस्था-   

    सौंदर्य उपासक बनें। स्वच्छता, सादगी और सुरुचि का समावेश ही सौंदर्य है। अपने शरीर, वस्त्र, बिस्तर, निवास एवं कार्य क्षेत्र पर इस सन्दर्भ में पैनी दृष्टि रखें कि कहीं गन्दगी, कुरूपता, अस्त- व्यस्तता तो दिखाई नहीं पड़ रही है। जहाँ दीखे वहाँ फिर कभी के लिए टालने की अपेक्षा तुरन्त सुधारने का प्रयत्न करें ।   
    निजी कार्यक्षेत्र को सुन्दर, सुव्यवस्थित बनाने के अतिरिक्त साथियों को भी अपना मानें और उस परिकर को भी अधिक सुव्यवस्थित बनाने की बात सोचें। जो समझ में न आये उसे विनय एवं सद्भावना पूर्वक करायें भी, भूल बताने, दोष लगाने, व्यंग्य- उपहास करने पर तो सेवा सहायता भी कटुता उत्पन्न करती है, यह ध्यान में रखकर ही साथियों से सुव्यवस्था में योगदान लें ।
      रात को जल्दी सोयें, प्रातः जल्दी उठें, डायरी लिखें। अपने समय, श्रम, चिन्तन, धन एवं प्रभाव का समय के अनुपयोग, दुरुपयोग एवं सदुपयोग का लेखा- जोखा रखें। अव्यवस्था ढूँढ़े और उसे साहस पूर्वक सुधारें। अभ्यस्त ढर्रे की समीक्षा करें और उसमें अधिकाधिक प्रगतिशीलता का समावेश करने के लिए प्रयत्नशील रहें। ध्यान रखें ! योजनाबद्ध काम करने, प्रसंगों के हर पहलू पर विचार करने, परिवर्तन सोचने, साधन जुटाने, सहयोग पाने की व्यवस्था बुद्धि ही स्तर उठाती, सम्मान दिलाती एवं सफल बनाती है।

(४) शिष्टता-

    दूसरों को सम्मान और अपना विनय वचन, व्यवहार में समन्वित रखने को शिष्टता कहते हैं। उस सत्प्रवृत्ति को अपने स्वभाव का अंग बनायें, उच्छृंखलता न बरतें, उसे अपनी गिरावट और दूसरों की अवहेलना द्वारा दुःखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाली निकृष्टता समझें। यह दोष स्वभाव में घुस गया हो, तो उसे कड़ी आत्म समीक्षा करके खोजें और निरस्त करने के लिए संकल्प पूर्वक प्रयत्न करें। अभाग्यवश जब भी ऐसे प्रसंग बन पड़ें, कान पकड़ने जैसी छोटी आत्म प्रताड़ना देकर प्रायश्चित करें।
    मिलन और विदाई का शिष्टाचार न भूलें। चित्त प्रसन्न रखें और मंद मुस्कान बनाये रहने की आदत डालें। न थकान प्रकट होने दें, न उदासी। कहें कम, सुनें अधिक। शेखी न बघारें। मैं के स्थान पर ‘‘ हम लोग " शब्द का प्रयोग करें। चापलूसी न करें। पर सज्जनोचित सद्व्यवहार में कमी न पड़ने दें। आवेश, उत्तेजना, कर्कशता, खीझ, झल्लाहट से दूर रहें। जो कहना है, शान्तचित्त और शालीन शब्दावली में कहें। गाली- गलौज तक न उतरें। रोष प्रकट न करने, सुधारने, दबाने के ऐसे भी तरीके हैं, जिनमें अपनी शालीनता न गँवानी पड़े। उतावली में किसी निष्कर्ष पर न पहुँचे। तथ्य समझने का प्रयत्न करें और पक्ष- विपक्ष की स्थिति को समझते हुए निर्णय पर पहुँचें।
    नागरिक कर्तव्यों का पालन करें। सामाजिक नीति- मर्यादा का ध्यान रखें। आलोचना से बचें, व्यंग्य- उपहास, निन्दा- चुगली के दुर्गुण न अपनायें। जहाँ सुधार की आवश्यकता है वहाँ आत्मीयता का समावेश रखते हुए हानि- लाभ के पक्ष रखें और अनुरोध युक्त सुझाव भर प्रस्तुत करें।

    (५) संयमशीलता-

    अपनी श्रम, समय, चिन्तन, धन एवं प्रतिभा के रूप में उपलब्ध क्षमताओं का महत्त्व समझें और उनके सुदपयोग से प्रगति- पथ पर अग्रसर होने की बात सोचें, इन विभूतियों का एक कण भी बर्बाद न होने दें। अपव्यय अपने ही उज्ज्वल भविष्य का विनाश है। इन्द्रिय संयम बरतें। चटोरेपन से बचें और कामुक चिन्तन की हानियाँ समझें। दिनचर्या बनायें और कठोरता पूर्वक पालन करें। न श्रम से जी चुराये न समय को प्रमाद में गँवायें । स्वाध्याय की आदत डालें। आत्म- निर्माण की योजना बनाने के चिन्तन- मनन में मन को लगायें। कुविचार आते ही उनके प्रतिपक्षी सुविचारों की सेना उनसे लड़ने के लिए खड़ी कर दें। नित्य हिसाब रखें, किन्तु सत्प्रयोजनों में कृपणता भी न बरतें। संग्रही न बनें पर आमदनी से खर्च कम रखें, कुछ बचत करें, उधार लेने की आदत न डालें। अपने प्रभाव का ऐसा उपयोग करें जिससे सम्पर्क क्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ घटें और सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण और परिपोषण उभरे। सादा जीवन उच्च विचार को हर समय ध्यान में रखें। विलासिता की मूर्खता और ठाठ- बाट की क्षुद्रता से इसलिए बचें कि उनसे अपना व्यक्तित्व गिरता है और अनुकरण करने वालों का पतन होता है।
    अभ्यस्त कुसंस्कारों को खोजें और उन्हें संकल्पपूर्वक बुहार फेकें । इस सम्बन्ध में कठोरता बरतने, मन मारने और प्रतिकूलता सहने को ही तप कहते हैं। तप, संयम से मनुष्य सच्चे अर्थों में शक्तिशाली बनता है।

    (६) उदार आत्मीयता-

    आत्म निर्माण की दृष्टि से अन्तर्मुखी तो बनें पर एकाकीपन का अभिशाप न अपनायें । हिलमिल कर रहें। मिल- जुलकर काम करें और बाँट- बाँट कर खायें। अपने को समाज का एक घटक भर मानें और सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझें। अन्यों की अपेक्षा अपनों के प्रति आपा- धापी की संकीर्ण स्वार्थपरता न अपनाए। चिन्तन और व्यवहार में पारिवारिकता के सिद्धान्तों का अधिकाधिक समावेश करें।
    सामूहिकता के साथ जुड़ी हुई शक्ति और प्रगति को गम्भीरतापूर्वक समझें और बिलगाव की अपेक्षा सम्मिलित सहयोग की व्यवस्था बनायें। पारस्परिक सहयोग का आदान- प्रदान जितना भी बन पड़े, करते रहें, किन्तु वह होना सदुद्देश्य के लिए ही चाहिए। कुचक्र रचना और षड्यंत्र करने वाले संगठन का सहयोग न अपनाए।
    आत्मीयता का क्षेत्र व्यापक करें। कुछ लोगों को ही अपना मानने और उन्हीं की फरमाइशें पूरी करने, उपहार लादते रहने के व्यामोह दल- दल में न फँसें । अपनी सामर्थ्य को सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में लगायें। देश, धर्म और समाज, संस्कृति को प्यार करें। आत्मीयता को व्यापक बनायें। सबको अपना और अपने को सबका समझें। इस आत्मविस्तार का व्यावहारिक स्वरूप लोकमंगल की सेवा साधना से ही निखरता है। उदारता बरतें और बदले में आत्म- संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की विभूतियाँ कमाएँ।

    (७) प्रगल्भता-
 
    दूरदर्शी, विवेकशीलता अपनाएँ और उसी आधार पर नीति निर्धारित करें। प्रचलित ढर्रे में से उतना ही स्वीकार करें जो उचित हो। लोक- मंगल का ध्यान रखें, किन्तु लोक मत पर ध्यान न दें। जन समूह का प्रचलित प्रवाह अवांछनीयता की ओर है उसके साथ न बहें। हर प्रसंग पर न्याय नीति अपनायें और कौन क्या कहता है, उसकी उपेक्षा कर सकने का साहस जुटायें। एक आँख प्यार की, दूसरी सुधार की रखें। औचित्य को समर्थन दें, साथ ही अनौचित्य से असहमत रहें और उसे सहयोग न दें, सम्भव हो तो विरोध भी करें और संघर्ष भी। यह नीति अपनों के साथ भी बरती जाय और दूसरों के साथ भी। मित्र या स्वजन होने पर भी उसकी अवांछनीयताओं में सहयोगी न बनें।
    इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता  अवांछनीयता और की भरमार है। उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ कसर उठा न रखें। आत्म- सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और सामाजिक परिवर्तन में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक दर्शक बन कर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्द्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।
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