गायत्री के पाँच-रत्न

गायत्री संहिता

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आदि शक्तिरिति विष्णोस्तामहं प्रणमामि हि ।
सर्गः स्थितिविनाशश्च जायन्ते जगतोऽनया ।।1।।

यह गायत्री ही परमात्मा की आदि शक्ति है उसको मैं प्रणाम करता हूं, इसी शक्ति से संसार का निर्माण, पालन और विनाश होता है।

नाभि पद्म भुवा विण्णेर्ब्रह्मणा निर्मितं जगत् ।
स्थावर जंगमं शक्त्या गायत्र्या एतद् वै ध्रुवम् ।।2।।

विष्णु की नाभि-कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा ने गायत्री की शक्ति से जड़ तथा चेतन संसार भी बनाया।

चन्द्रशेखर केशोभ्यो निर्गता हि सुरापगा ।
भागीरथं ततारैव परिवारसमं यथा ।।3।।
जगद्धात्री समुद्भूत्य या हृन्मानसरोवरे ।
गायत्री सकुलं पारं तथा नयति साधकम् ।।4।।
सास्ति गंगैव ज्ञानाख्यसुनीरेण समाकुला ।
ज्ञाना गंगा तु तां भक्त्या बारं-बार नमाम्यहम् ।।5।।

जिस प्रकार शिव के केशों से निकलने वाली गंगा ने परिवार सहित भागीरथ को पार कर दिया उसी प्रकार संसार का पालन करने वाली गायत्री, हृदयरूपी मानसरोवर से प्रकट होकर सपरिवार साधक को भवसागर से पार ले जाती है। वही गायत्री ज्ञानरूपी जल से परिपूर्ण गंगा है। उस गंगा को मैं भक्ति से बार-बार नमस्कार करता हूं।

ऋषयो वेद शास्त्राणि सर्वे चैव महार्षयः ।
श्रद्धया हृदि गायत्रीं धारयन्ति स्तुवन्ति च ।।6।।

ऋषि लोग, वेद-शास्त्र और समस्त महर्षि गायत्री को श्रद्धा से हृदय में धारण करते और उसकी स्तुति करते हैं।

ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रूपेभ्यस्त्रिभ्यो हि लोकपालिनी ।
भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका ।।7।।

ह्रीं, श्रीं, क्लीं, इन तीनों रूपों से संसार का पालन करने वाली त्रिगुणात्मक-गायत्री संसार में निरन्तर प्रकाशित होती है।

गायत्र्येव मता माता वेदानां शास्त्रसम्पदाम् ।
चवत्वारोऽपि समुत्पन्ना वेदास्तस्या असंशयम् ।।8।।

शास्त्रों की सम्पत्ति रूप वेदों की माता गायत्री ही मानी जाती है। निश्चय से चारों ही वेद इस गायत्री से उत्पन्न हुए हैं।

परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते ।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते ।।9।।

संसार में परमात्मा की जो सूक्ष्म और सात्विक ब्रह्मशक्ति विद्यमान है वह ही गायत्री कही जाती है।

प्रभावादेव गायत्र्या भूतानामभिजायते ।
अन्तःकरणेषु दैवानां तत्वानां हि समुद्भवः ।।10।।

प्राणियों के अन्तःकरण में दैवी तत्त्वों का प्रादुर्भाव गायत्री के प्रभाव से ही होता है।

गायत्र्युपासकरणादात्मशक्तिर्विवधते ।
प्राप्यते क्रमशोऽज्जस्य सामीप्यं परमात्मनः ।।11।।

गायत्री की उपासना करने से आत्मबल बढ़ता है। धीरे-धीरे जन्म बन्धन रहित परमात्मा की समीपता प्राप्त होती है।

शौचं शान्तिर्विवेकश्चैतल्लाभं त्रयमात्मकम् ।
पश्चादवाप्यते नूनं सुस्थिरं तदुपासकम् ।।12।।

मन को वश में रखने वाली उस गायत्री के उपासक को पश्चात् पवित्रता, शान्ति और विवेक—ये तीन आत्मिक लाभ निश्चय ही प्राप्त होते हैं।

कार्येषु साहसः स्थैर्यं कर्मनिष्ठा तथैव च ।
एते लाभाश्च वै तस्माज्जायन्ते मानसास्त्रयः ।।13।।

कार्यों में साहस, स्थिरता और वैसे ही कर्त्तव्यनिष्ठा ये तीन मन सम्बन्धी लाभ उनको प्राप्त होते हैं।

पुष्पकला धन संसिद्धिः सहयोगश्श्च सर्वतः ।
स्वास्थ्यं वा त्रय एते स्युस्तस्माल्लाभाश्च लौकिकाः ।।14।।

सन्तोषजनक धन की वृद्धि, सब ओर से सहयोग और स्वस्थता ये तीन सांसारिक लाभ उससे होते हैं।

काठिन्यं विविधं घोरं ह्यापदां संहतिस्तथा ।
शीघ्रं विनाशतां यांति विविधा विघ्नराशयः ।।15।।

नाना प्रकार की घोर कठिनाई और विपत्तियों का समूह, नाना प्रकार के विघ्नों के समूह इससे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

विनाशादुक्त शत्रूणामन्तः शक्तिर्बिवर्धते ।
संकटानामनायासं पारं याति तथा नरः ।।16।।

उपर्युक्त शत्रुओं के विनाश से आन्तरिक शक्ति बढ़ती है। आन्तरिक शक्ति से मनुष्य सहज ही संकटों से पार हो जाता है।

गायत्र्युपासकस्वान्ते सत्कामा उद्भन्ति हि ।
तत्पूर्तयेऽभिजायन्ते सहज साधनान्यपि ।।17।।

निश्चय ही गायत्री के उपासक के हृदय में सदिच्छाएं पैदा होती हैं। उनकी पूर्ति के लिए सहज में साधन भी मिल जाते हैं।

त्रुटयः सर्वथा दोषा विघ्ना यान्ति यदान्तताम् ।
मानवो निर्भयं याति पूर्णोन्नति पथं तथा ।।18।।

जब सर्व प्रकार के दोष, भूलें और विघ्न विनाश को प्राप्त हो जाते हैं तब मनुष्य निर्भय होकर पूर्ण उन्नति के मार्ग पर चलता है।

वाह्यंचाभ्यन्तरं त्वस्य नित्यं सन्मार्गगामिनः ।
उन्नतेरुभयं द्वार यात्युन्मुक्तकपाटताम् ।।19।।

सर्वदा सन्मार्ग पर चलने वाले इस व्यक्ति के बाह्य और भीतरी दोनों उन्नति के द्वार खुल जाते हैं।

अतः स्वस्थेन चित्तेन श्रद्धया निष्ठया तथा ।
कर्त्तव्याविरतं काले गायत्र्या समुपासना ।।20।।

इसलिये श्रद्धा से, निष्ठा से तथा स्वस्थ चित्त से प्रतिदिन निरन्तर ठीक समय पर गायत्री की उपासना करनी चाहिए।

दयालुः शक्ति सम्पन्ना माता बुद्धिमती यथा ।
कल्याणं कुरुते ह्येव प्रेम्णा बालस्य चात्मनः ।।21।।
तथैव माता लोकानां गायत्री भक्तवत्सला ।
बिदधाति हितं नित्यं भक्तानां ध्रुवमात्मनः ।।22।।

जैसे दयालु, शक्तिशालिनी और बुद्धियुक्त माता प्रेम से अपने बालक का कल्याण ही करती है, उसी प्रकार भक्तों पर प्यार करने वाली गायत्री संसार की माता है, वह अपने भक्तों का सर्वदा कल्याण ही करती है।

कुर्वन्नाति त्रृटीर्लोके बालको मातरं प्रति ।
यथा भवति कश्चिन्न तस्या अप्रीतिभाजनः ।।23।।

कुर्वन्नपि त्रुटीर्भक्तः क्वचित् गायत्र्युपासने ।
न तथा फलमाप्नोति विपरीतं कदाचन ।।24।।

जिस प्रकार संसार में माता के प्रति भूलें करता हुआ भी कोई बालक उस माता का शत्रु नहीं होता, उसी प्रकार गायत्री की उपासना करने में भूल करने पर कोई भक्त कभी विपरीत फल को नहीं प्राप्त होता।

अक्षराणां तु गायत्र्या गुम्फनं ह्यस्ति तद्विधम् ।
भवन्ति जागृता येन सर्वा गुह्यास्तु ग्रन्थयः ।।25।।

गायत्री के अक्षरों का गुम्फन इस प्रकार हुआ है कि जिससे समस्त गुह्य ग्रन्थियां जागृत हो जाती हैं।

जागृता ग्रंथयस्त्वेताः सूक्ष्माः साधकमानसे ।
दिव्यशक्तिसमुद्भूतिं क्षिप्र कुर्वन्त्यसंशयम् ।।26।।

जागृत हुई ये सूक्ष्म यौगिक ग्रन्थियां साधक के मन से निःसंदेह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं।

जनयन्ति कृते पुंसामेता वै दिव्यशक्तयः ।
विविधान् वै परिणामान् भव्यान् मंगलपूरितान् ।।27।।

ये दिव्य शक्तियां मनुष्यों के लिए नाना प्रकार के मंगलमय परिणामों को उत्पन्न करती हैं।

मन्त्रस्योच्चारणं कार्य शुद्धमेवाप्रमादतः ।
तदशक्तो जपेन्नित्यं सप्रणवास्तु व्याहृतीः ।।28।।

आलस्य रहित होकर गायत्री मन्त्र का शुद्ध ही उच्चारण करना चाहिए। जो ऐसा करने में असमर्थ हो वह केवल प्रणव (ॐ) सहित व्याहृतियों का जप करे।

ओमिति प्रणवः पूर्व भूर्भुवः स्वस्तदुत्तरम् ।
एषोक्ता लघु गायत्री विद्वद्भिर्वेद पण्डितैः ।।29।।

पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करना चाहिए, तत्पश्चात् भूर्भुवः स्वः का यह पंचाक्षरी मन्त्र (ॐ भूर्भुवः स्वः) वेदज्ञ विद्वानों ने लघु गायत्री कहा।

शुद्ध परिधानमाधाय शुद्धै व वायुमण्डले ।
शुद्ध देहमनोभ्यां वै कार्य गायत्र्युपासना ।।30।।

शुद्ध वस्त्रों को धारण करके, शुद्ध वायुमण्डल में देह एवं मन को शुद्ध करके गायत्री की उपासना करनी चाहिए।

दीक्षामादाय गायत्र्या ब्रह्मनिष्ठाग्रजन्मनः ।
आरभ्यतां ततः सम्यग्विधिनोपासना सता ।।31।।

किसी ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण से गायत्री की दीक्षा लेकर तब विधिपूर्वक उपासना आरम्भ करनी चाहिए।

गायत्र्युपासनामुक्त्वा नित्यावश्यककर्मसु ।
उक्तस्तत्र द्विजातीनां दानाध्यायो विचक्षणः ।।32।।

गायत्री उपासना को विद्वानों ने द्विजों के लिए अनिवार्य किसी भी दिन न छोड़ने योग्य, नित्य कर्म बताया है।

आराधयन्ति गायत्रीं न नित्यं ये द्विजन्मनः ।
जायंते हि स्वकर्मभ्यस्ते च्युता नात्र संशयः ।।33।।

जो द्विज गायत्री की नित्य-प्रति उपासना नहीं करते वे अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है।

शूद्रास्तु जन्मना सर्वे पश्चाद्मांति द्विजन्मताम् ।
गायत्र्यैव जनाः सर्वेह्युपवीतस्य धारणात् ।।34।।

जन्म से सभी शूद्र होते हैं, तत्पश्चात् मनुष्य गायत्री के सहित यज्ञोपवीत धारण करने से द्विजत्व को प्राप्त होता है।

उच्चता पतितानां च पापिनां पापनाशनम् ।
जायते कृपयैवास्याः वेदमातुरनन्तया ।।35।।

पतितों को उच्चता और पापियों को उनके पापों का विनाश ये दोनों कार्य वेदों की माता इस गायत्री की अनन्त कृपा से ही होते हैं।

गायत्र्या या युता संध्या ब्रह्मसंध्या तु सा मता ।
कीर्तितं सर्वत्र श्रेष्ठं तस्यानुष्ठानमागमैः ।।36।।

जो सन्ध्या गायत्री से युक्त होती है वे ब्रह्म सन्ध्या कहलाती है। शास्त्रों ने उसका उपयोग सबसे श्रेष्ठ बताया है।

आचमनं शिखाबंधः प्राणायामोऽघमर्षणम् ।
न्यासंचोपासनायां तु पंच कोषा मता बुधैः ।।37।।

आचमन, चोटी बांधना, प्राणायाम, अघमर्षण और न्यास, ये पांच कोष विद्वानों ने गायत्री संध्या की उपासना में स्वीकार किये हैं।

ध्यानतस्तु ततः पश्चात् सावधानेन चेतसा ।
ज्येतं सततं तुलसी मालया च मुहूर्मुहुः ।।38।।

सावधान चित्त से ध्यानपूर्वक गायत्री मन्त्र को सात्त्विक प्रयोजन के लिए तुलसी की माला पर जपना चाहिए।

एक बारं प्रतिदिनं न्यूनतो न्यूनसङ्ख्यकम् ।
धीमन्मन्त्र शतं नूनं नित्यमष्टोत्तरं जपेत् ।।39।।

प्रतिदिन कम से कम एक माला (108 मन्त्रों) का जप अवश्य ही करना चाहिए।

ब्राह्मे मुहूर्ते प्राङमुखो मेरु दण्डं प्रयम्य हि ।
पद्मासन समासीनः संध्यावंदनमाचरेत् ।।40।।

ब्रह्म मुहूर्त में पूर्वाभिमुख होकर मेरुदण्ड को सीधा कर पद्मासन पर बैठकर सन्ध्या वन्दन करे।

दैन्यरुक् शोक चिंतानां विरोधाक्रमणापदाम् ।
कार्यं गायत्र्यनुष्ठानं भयानां वारणाय च ।।41।।


दीनता, रोग, शोक, विरोध, आक्रमण, आपत्तियां और भय इनके निवारण के लिए गायत्री का अनुष्ठान करना चाहिए।

जायते सं स्थितिरस्मान्मनोऽभिलाषयान्विताः ।
यतः सर्वेऽभिजायन्ते यथा काल हि पूर्णताम् ।।42।।

इन अनुष्ठान से वह स्थिति पैदा होती है जिससे समस्त मनोवांछित अभिलाषायें यथा समय पूर्णता को प्राप्त होती हैं।

अनुष्ठानात्तु वै तस्मात् गुप्ताध्यात्मिक शक्तयः ।
चमत्कारमयां लोके प्राप्यन्तेऽनेकधा बुधः ।।43।।

इस अनुष्ठान से साधकों को संसार में चमत्कार से पूर्ण अनेक प्रकार की गुप्त आध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त होती हैं।

सपादलक्ष मंत्राणां गायत्र्या जपनं तु वै ।
ध्यानेन विधिना चैव अनुष्ठानं प्रचक्षते ।।44।।

विधि एवं ध्यानपूर्वक गायत्री के सवा लाख मन्त्रों का जप करना ही अनुष्ठान कहलाता है।

पंचभ्यां पूर्णिमायां वा चैकादश्यां तथैव हि ।
अनुष्ठानस्य कर्त्तव्य आरम्भः फल प्राप्तये ।।45।।

पंचमी, पूर्णमासी और एकादशी के दिन अनुष्ठान का आरम्भ करना शुभ होता है।

मासद्वयेऽविरामं तु चत्वारिंशद् दिनेषु वा ।
पूरयेत्तदनुष्ठाणं तुल्यसंख्यासु वै जपन् ।।46।।


दो महीने में अथवा चालीस दिनों में बिना नागा किये तथा नित्य समान संख्याओं में जप करता हुआ उस अनुष्ठान को पूर्ण करे।

तस्याः प्रतिमां सु संस्थाप्य प्रेम्णा शोभन आसने ।
गायत्र्यास्तत्र कर्त्तव्या सत्प्रतिष्ठा विधानतः ।।47।।

प्रेम से सुन्दर और ऊंचे आसन पर गायत्री की प्रतिमा स्थापित करके उसकी भली प्रकार प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

तद्विधाय ततो दीप धूप नैवेद्य चन्दनः ।
नमस्कृत्याक्षतेनापि तस्याः पूजनमाचरेत् ।।48।।

इस प्रकार से गायत्री की स्थापना करके, तदनन्तर उसे नमस्कार करके दीपक, धूप, नैवेद्य और चन्दन तथा अक्षत इन सबसे पूजन करे।

पूजनानन्तरं विज्ञः भक्त्या तज्जपमारभेत् ।
जपकाले तु मनः कार्य श्रद्धान्वितमचंचलम् ।।49।।


बुद्धिमानों को चाहिए कि वह पूजा के अनन्तर भक्ति से गायत्री का जप आरम्भ करे। जप के समय मन को श्रद्धा से युक्त और स्थिर कर लेना चाहिए।

कार्यतो यदि चोत्तिष्ठेन्मध्य एव ततः पुनः ।
कर-प्रक्षलनं कृत्वा शुद्धै रंगैरुपाविशेत् ।।50।।

और यदि किसी काम से साधन के समय बीच में ही उठना पड़े तो फिर पानी से हाथ मुंह धोकर बैठे।

आद्यशक्तिर्वेदमाता गायत्री तु मदन्तरे ।
शक्तिकल्लोलसंदोहान् ज्ञानज्योतिश्च संततम् ।।51।।

उत्तरोत्तरमाकीर्य प्रेरयन्ती विराजते ।
इत्येवाविरतं ध्यायन् ध्यानमग्नस्तुतां जपेत् ।।52।।

आद्यशक्ति, वेदों की माता स्वरूप गायत्री मेरे भीतर लगातार शक्ति की लहरों के समूहों को और ज्ञान के प्रकाशों को उत्तरोत्तर फैलाकर प्रेरित करती हुई विद्यमान है इस प्रकार से निरन्तर ध्यान करता हुआ निमग्न होकर उसका जाप करे।

चतुर्विंशतिलक्षाणां सततं तदुपासकः ।
गायत्रीणामनुष्ठानाद् गायत्र्याः सिद्धिमाप्नुते ।।53।।

गायत्री का उपासक निरन्तर चौबीस लाख गायत्री के मन्त्र जप का अनुष्ठान करने से गायत्री की सिद्धि को प्राप्त करता है।

साधनाय तु गायत्र्या निश्छलेन हि चेतसा ।
वरणीयः सदाचार्यः साधकेन सुभाजनः ।।54।।

गायत्री की साधना के लिए साधक को चाहिए कि वह श्रद्धा भक्ति के साथ योग्य श्रेष्ठ आचार्य को गुरु चरण करे और गायत्री की दीक्षा लेकर साधना आरम्भ करे।

लध्वानृष्ठानतो वापि महानुष्ठानतोऽथवा ।
सिद्धिं विन्दति वै नून साधकः सानपातकाम् ।।55।।

लघु अनुष्ठान करने से अथवा वृहद् अनुष्ठान करने से साधक साधना में किये श्रम के अनुपात के अनुसार सिद्धि को प्राप्त करता है।

एक एव तु संसिद्धिः गायत्री मन्त्र आदिशत् ।
समस्तलोक मन्त्राणां कार्य सिद्धेस्तु पूरकः ।।56।।

सिद्ध हुआ अकेला ही गायत्री मन्त्र संसार के समस्त मन्त्रों द्वारा हो सकने वाले कार्यों को सिद्ध करने वाला माना गया है।

अनुष्ठानावसाने तु अग्निहोत्रो विधीयताम् ।
यथाशक्ति ततो दान ब्रह्मभोजस्ततः खलु ।।57।।

अनुष्ठान के अनन्तर हवन करना चाहिए, तदनन्तर शक्ति के अनुसार दान और ब्रह्मभोज करना चाहिए।

महामन्त्रस्य चाप्यस्य स्थाने पदे पदे ।
गूढ़ानन्तोपदेशानां रहस्यं तत्र वर्त्तते ।।58।।


इस महामन्त्र के अक्षर-अक्षर और पद-पद में रहस्य भरा हुआ है और अनन्त उपदेशों का समूह इस महामन्त्र में छिपा हुआ अन्तर्हित है।

यो दधाति नरश्चैतानुपदेशांस्तु मानसे ।
जायते ह्यभयं तस्य लोकमानन्दसंकुलम् ।।59।।

जो मनुष्य इन उपदेशों को मन में धारण करता है उसके दोनों लोक आनन्द से व्याप्त हो जाते हैं।

समग्रामपि सामग्रीमनुष्ठानस्य पूजिताम् ।
स्थाने पवित्र एवैतां कुत्रचिद्धि विसर्ययेत् ।।60।।

अनुष्ठान की समस्त पूजित सामग्री को कहीं पवित्र स्थान पर ही विसर्जित करना उचित है।

सत्पात्रो यदि वाचार्यो न चेत्सं प्राप्यते तदा ।
नारिकेलं तु संवृत्वाचार्य-भावेन चासने ।।61।।

अगर श्रेष्ठ एवं योग्य आचार्य न प्राप्त हो तो पवित्र नारियल को आचार्य भाव से वरण करके आसन पर स्थापित करे।

प्रायश्चित्तं मतं श्रेष्ठं त्रुटीनां पापकर्मणाम् ।
तपश्चर्यैव गायत्र्याः नातोऽन्यद् दृश्यते क्वचित् ।।62।।

विभिन्न प्रकार की भूलों एवं पाप-कर्मों के प्रायश्चित्त के लिए गायत्री की तपश्चर्या सबसे श्रेष्ठ मानी गई है।

सेव्यः स्वात्मसमृद्ध्यर्थ पदार्थाः सात्त्विकाः सदा ।
राजसाश्च प्रयोक्तव्याः मनोवांछित पूर्तये ।।63।।

आत्मा की उन्नति के सतोगुणी पदार्थों का उपयोग करना चाहिए और मनोभिलाषाओं की पूर्ति के लिए रजोगुणी पदार्थ का उपयोग करना चाहिए।

प्रादुर्भावस्तु भावानां तामसानां विजायते ।
तमोगुणांनामर्थानां सेवनादिति निश्चयः ।।64।।

तमोगुणी पदार्थों के उपयोग करने से तमोगुणी भावों की उत्पत्ति होना निश्चय है।

मालासन समिध्यज्ञ सामग्रयर्चन संग्रहः ।
गुणत्रयानुसारं हि सर्वे वै प्रददते फलम् ।।65।।

माला आसन, हवन, सामग्री पूजा के पदार्थ जिस तत्व की प्रधानता वाले लिए जायेंगे वे वैसे ही अपने गुणों के अनुसार फल को देते हैं।

प्रादुर्यवन्ति वे सूक्ष्माश्चतुर्विशति शक्तयः ।
अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्या मानवानां ह मानसे ।।66।।

मनुष्य के अन्तःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्म शक्तियां प्रकट होती हैं।

मुहूर्त्ता योग-दोषा वा येऽप्यमंगलकाररिणः
भस्मतां यान्ति ते सर्वे गायत्र्यास्तीब्रतेजसा ।।67।।

अमंगल को करने वाले जो मुहूर्त अथवा योग दोष हैं वे सब गायत्री के प्रचण्ड तेज से भस्म हो जाते हैं।

एतस्मात्तुं जपान्नूनं ध्यानामग्नस्य चेतसा ।
जायते क्रमशश्चैव षट् चक्राणां तु जागृतिः ।।68।।

निश्चय ही ध्यान में रत चित्त के द्वारा इस जप को करने से धीरे-धीरे षट्-चक्र जागृत हो जाते हैं।

षट् चक्राणि यदैतानि जागृतानि भवन्ति हि ।
षट् सिद्धयोऽभिजायन्ते चक्रैरेतैर्नरस्य वै ।।69।।

जब ये षट्-चक्र जागृत हो जाते हैं तब मनुष्य को इन चक्रों के द्वारा छह सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।

अग्निहोत्रं तु गायत्री मन्त्रेण विधवत् कृतम् ।
सर्वेष्ववसरेष्वेव शुभमेव मतं बुधैः ।।70।।

गायत्री मन्त्र से विधिपूर्वक किया गया अग्निहोत्र सभी अवसरों पर विद्वानों ने शुभ माना है।

यदावस्थासु स्याल्लोके विपन्नासु तदा तु सः ।
मौनं मानसिकं चैव गायत्री-जपमाचरेत् ।।71।।

जब कोई मनुष्य विपन्न (सूतक, रोग, अशौच आदि) अवस्थाओं में हो तब तक मौन मानसिक गायत्री जप करे।

तदनुष्ठान काले-तु स्वशक्ति नियमेज्जनः ।
निम्नकर्मसुं ताः धीमान् न व्ययेद्धि कदाचन ।।72।।

मनुष्य को चाहिए कि वह गायत्री साधना से प्राप्त हुई अपनी शक्ति को संचित रखे। बुद्धिमान मनुष्य कभी उन शक्तियों को छोटे कार्यों में खर्च नहीं करते।

नैवानावश्यकं कार्यमात्मोद्धार-स्थितेन च।
आत्मशक्तेस्तु प्राप्तायाः यत्र-तत्र प्रदर्शनम् ।।73।।

आत्मोद्धार के अभिलाषी मनुष्य को प्राप्त हुई अपनी शक्ति का जहां-तहां अनावश्यक प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।

आहारे व्यवहार च मस्तिष्केऽपि तथैव हि ।
सात्त्विकेन सदा भाव्यं साधकेन मनीषिणा ।।74।।

आहार में, व्यवहार में, और उसी प्रकार मस्तिष्क में भी बुद्धिमान साधक को सात्त्विक होना चाहिए।

कर्त्तव्यधर्मतः कर्म विपरीत तु यद् भवेत् ।
तत्साधकस्तु मतिमानाचरेन्न कदाचन ।।75।।

जो काम कर्त्तव्य-कर्म से विपरीत हो वह कर्म बुद्धिमान साधक कभी नहीं करे।

पृष्ठतोऽस्याः साधनाया राजतेऽतितरां सदा ।
मनस्विसाधकानां हि बहूनां साधनाबलम् ।।76।।

इस साधना के पीछे आदि काल से लेकर अब तक असंख्य मनस्वी साधकों का साधन बल शोभित है।

अल्पीयस्या जगत्येव साधनया तु साधकः ।
भगवत्याश्च गायत्र्याः कृपां प्राप्नोत्यसंशयम् ।।77।।

थोड़ी ही श्रम साधना से जगत् में ही साधक भगवती गायत्री माता की कृपा को प्राप्त कर लेता है।

प्राणायामे जपन् लोकः गायत्रीं ध्रुवमाप्नुते ।
निग्रहं मनसश्चव चेन्द्रियाणां हि सम्पदाम् ।।78।।


मनुष्य निश्चय से प्राणायाम में गायत्री को जपता हुआ मन का निग्रह और इन्द्रियों की सम्पत्ति को प्राप्त करता है।

मन्त्रं विभज्य भागेषु चतुर्षु सुवुधस्तदा ।
रेचकं कुम्भकं बाह्यं पूरकं कुम्भकं चरेत् ।।79।।

बुद्धिमान् व्यक्ति मन्त्र को चारों भागों में भी विभक्त करके तब रेचक, कुम्भक, पूरक और बाह्य कुम्भक को करे।

यथां पूर्वस्थितिंचैव न द्रव्यं कार्य-साधकम् ।
महासाधनतोऽप्यस्मान्नाज्ञो लाभं तथाप्नुते ।।80।।

जिस प्रकार धन पास में रहने से ही कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, उसी प्रकार से मूर्ख मनुष्य इस महासाधन से लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

साधकः कुरुते यस्तु तन्त्रशक्तेरपव्ययः ।
तं विनाशयति सैव समूलं नात्र संशयः ।।81।।

जो साधक मन्त्र-शक्ति का दुरुपयोग करता है उसको वह शक्ति समूल नष्ट कर देती है।

सततं साधनाभिर्यो याति साधकतां नरः ।
स्वप्नावस्थासु जायन्ते यस्य दिव्यानुभूतयः ।।82।।

जो मनुष्य निरन्तर साधना करने से साधकत्व को प्राप्त हो जाता है उस व्यक्ति को स्वप्नावस्था में दिव्य अनुभव होते हैं।

सफलः साधको लोके प्राप्नुतेऽनुभवान् नवान् ।
विचित्रान् विविधांश्चैव साधनसिद्ध, यनन्तरम् ।।83।।

संसार में सफल साधक नवीन और विचित्र प्रकार के विविध अनुभवों को साधना की सिद्धि के पश्चात् प्राप्त करता है।

भिन्नाभिर्विधिभि र्बुद्धया भिन्नासु कार्यपंक्तिषु ।
गायत्र्याः सिद्ध मन्त्रस्य प्रयोगः क्रियते बुधैः ।।84।।

बुद्धिमान् पुरुष भिन्न-भिन्न कार्यों में गायत्री के सिद्ध हुए मन्त्र का प्रयोग भिन्न-भिन्न विधि से विवेकपूर्वक करता है।

चतुर्विंशतिवर्णैर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतौ ।
रहस्यमुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः ।।85।।


वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूंथी गई है, विद्वान् लोग इन चौबीस अक्षरों के गूंथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं।

रहस्यमुपवीतस्य गुह्याद् गुह्यतरं हि यत् ।
अन्तर्हितं तु तत्सर्व गायत्र्यां विश्वमातरि ।।86।।

यज्ञोपवीत का जो गुह्य से गुह्य रहस्य है, वह सब विश्व-माता गायत्री में अन्तर्हित है।

अयमेव गुरोर्मत्रः यः सर्वोपरि राजते ।
बिन्दौ सिंधुरिवास्मिन्तु ज्ञानविज्ञानमाश्रितम् ।।87।।

यह गायत्री ही गुरु-मन्त्र है, जो सर्वोपरि विराजमान है। एक बिन्दु के सागर के समान इस मन्त्र में समस्त ज्ञान और विज्ञान आश्रित हैं।

अभ्यन्तरे तु गायत्र्या अनेके योगसंचयाः ।
अन्तर्हिता विराजन्ते कश्चिदत्र न संशयः ।।88।।

गायत्री के अन्तर्गत अनेक योग समूह छिपे हुए रहते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।

धारयन् हृदि गायत्रीं साधको धौतकिल्विषः ।
शक्तिरनुभवत्युग्राः स्वमिन्ने वात्यलौकिकाः ।।89।।

पाप-रहित साधक हृदय में गायत्री को धारण करता हुआ अपनी आत्मा में अलौकिक तीव्र शक्तियों का अनुभव करता है।

एतादृश्यस्तस्य वार्ता भसन्तेऽल्प्रयासतः ।
यास्तु साधारणो लोको ज्ञातुमर्हति नैव हि ।।90।।

उसको थोड़े ही प्रयास से ऐसी-ऐसी बातें विदित हो जाती हैं, जिन बातों को सामान्य लोग जानने को समर्थ नहीं होते।

एतादृश्यस्तु जायन्ते ता मनस्यनुभूतयः ।
यादृश्यो न हि दृश्यन्ते मानवेषु कदाचन ।।91।।

उसके मन में इस प्रकार के अनुभव होते हैं, जैसे अनुभव साधारण मनुष्यों में कभी भी देखे नहीं जाते।

प्रसादं ब्रह्मज्ञानस्य येऽन्येभ्यो वितरंत्यपि ।
आसादयन्ति ते नूनं मानवाःपुन्यमक्षयम् ।।92।।

ब्रह्मज्ञान के प्रसाद को जो लोग दूसरों को भी बांटते हैं, वे मनुष्य निश्चय ही अक्षय पुण्य को प्राप्त करते हैं।

गायत्री संहिता ह्येषा परमानन्ददायिनी ।
मर्वेषामेव कष्टानां वारणास्त्यलं भुवि ।।93।।

यह ‘गायत्री-संहिता’ परम आनन्द को देने वाली है। समस्त कष्टों के निवारण के लिए पृथ्वी पर यह अकेली ही पर्याप्त है।

श्रद्धया ये पठन्त्येनां चिंतयन्ति च चेतसा ।
आचरंत्यानुकूल्येन भववाधा तरन्ति ते ।।94।।

जो लोग इसको श्रद्धा से पढ़ते हैं और ध्यानपूर्वक इसका चिंतन, मनन करते हैं और अपने विचार एवं कार्यों को इसके अनुकूल बना लेते हैं, वे लोग भव बाधाओं से तर जाते हैं।








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