गायत्री के पाँच-रत्न

गायत्री पंचरत्न

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आद्य शक्ति गायत्री के गुणगान एवं तत्वदर्शन से भारतीय आर्य ग्रंथ भरे पड़े हैं। भावनात्मक, भक्तिपरक, दार्शनिक विचार परक एवं व्यवहारिक क्रिया परक, सभी तरह के शास्त्रों में इस मूलधारा का उल्लेख, विवेचन, स्तवन अपने-अपने ढंग से किया है। उनसे इस महाशक्ति का स्वरूप एवं महत्व प्रकट होता है और उसका लाभ उठाने की दृष्टि प्राप्त होती है। शास्त्रों के समुद्र में से यहां अतीव उपयोगी पांच प्रसंग बहुमूल्य पंच रत्नों के रूप में इस पुस्तक में जिज्ञासुओं के लिए दिए गये हैं। वे हैं (1) गायत्री पंजर, (2) गायत्री गीता, (3) गायत्री स्मृति, (4) गायत्री संहिता तथा (5) गायत्री स्तोत्र। इन पांचों के मुख्य विषय इस प्रकार हैं—

(1) गायत्री पंजर
— इसमें महाशक्ति गायत्री के विराट् स्वरूप का वर्णन है। अनादि, अनन्त, अविनाशी परमात्मा को विभिन्न अवतारों एवं देव स्वरूपों से पहचाना जाता है, किन्तु वह उसी रूप तक सीमा बन जाती है। उसके सर्वव्यापी, सर्वसमर्थ स्वरूप का बोध उसके विराट दर्शन से ही होता है। साधक को जब प्रभु-कृपा से दिव्य चक्षु प्राप्त होते हैं तो उसे इष्ट के विराट स्वरूप का बोध होता है। इस विराट् दर्शन से मनुष्य पापों से सहज ही दूर हो जाता है और अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द से अपने आपको जुड़ा हुआ अनुभव करता है।

आद्य शक्ति गायत्री के प्रति शरीरधारी मां जैसा ममत्व होना भी अच्छी बात है, किन्तु उसके सर्वव्यापी स्वरूप का भान रहना भी आवश्यक है। पंजर का अर्थ होता है ढांचा। वेदमाता गायत्री का ढांचा सम्पूर्ण विश्व है, ऐसा इस स्तोत्र में वर्णन किया गया है। इस तथ्य को हृदयंगम करने वाला साधक सर्वत्र ही मां की सत्ता देखता है। वह सदैव अपने आपको मां की गोद में बैठा अनुभव करता है। इस स्थिति में आत्महीनता, भय, संकीर्णता, पापवृत्ति सभी निकृष्टताओं के प्रमाण से बच जाता है। साथ ही कृतज्ञता, स्नेह, सद्भाव, उल्लास आदि से उसका रोम-रोम पुलकित होता रहता है। अन्य मनुष्यों एवं प्राणिमात्र के प्रति द्वेष दुर्भाव समाप्त होकर अखण्ड आत्मीयता के भाव का विकास होने लगता है।

(2) गायत्री गीता— ‘गीता’ सम्बोधन किसी विषय के मर्म की व्याख्या के संदर्भ में प्रयुक्त होने लगा है। गायत्री का संदेश आध्यात्मिक एवं सांसारिक दोनों दृष्टियों से अत्यधिक अर्थपूर्ण एवं उपयोगी है। गायत्री गीता में प्रणव ‘ॐ’ व्याहृतियों-भूर्भुवः स्वः सहित गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित मर्म प्रकट करने का प्रयास किया गया है। यह ज्ञान इतना परिमार्जित एवं महत्वपूर्ण है कि यदि मनुष्य इसे भली प्रकार समझ ले और जीवन-व्यवहार में उतार ले तो लोक-परलोक दोनों में सुख-शान्ति का लाभ पा सकता है।

(3) गायत्री स्मृति
— इसके अन्तर्गत गायत्री साधकों के लिए या गायत्री के संदेश-निर्देशों का उल्लेख है। गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में से प्रत्येक अक्षर एक विशेष निर्देश, विशेष शिक्षा देता है। वह विस्मरण में उपेक्षा के गर्त में न डाल दिया जाय, स्मृति में सदैव बना रहे तभी कल्याण पथ पर प्रगति सम्भव है। गायत्री स्मृति में साधकों के लिए उन्हीं महत्वपूर्ण सूत्रों को स्पष्ट किया गया है।

(4) गायत्री संहिता— संहिता में विषय से सम्बन्धित सिद्धान्तों, मर्यादाओं एवं नियमों का समावेश होता है। गायत्री संहिता में आद्यशक्ति के प्रभाव का वर्णन करते हुए गायत्री साधना को सफल एवं अधिक प्रभावशाली बनाने के सूत्रों का उल्लेख किया गया है। तत्सम्बन्धी अनेक भ्रान्तियों का निवारण भी किया गया है। इसे पढ़-समझकर साधक मोह-बुद्धि से मुक्त होकर साधना-पथ आरूढ़ होने में सक्षम हो जाते हैं।

(5) गायत्री स्तोत्र— यह मां की भाव भरी वंदना है। मां गायत्री के व्यापक स्वरूप और उनके अनन्त वैभव का स्मरण करते हुए उनके चरणों में पुनः पुनः नमन किया गया है। इस वंदना के आठ पद हैं इसलिए इसे गायत्री अष्टक भी कहते हैं।

यह सभी स्तोत्र नियमित पाठ करने योग्य हैं। पाठ दो दृष्टियों से किया जाता है। एक माता के सही स्वरूप एवं उससे सम्बन्धित तत्वदर्शन को हृदयंगम करने के लिए। दूसरे मां के प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था व्यक्त करने तथा उसे अधिक पुष्ट बनाने और उनकी कृपा एवं पुण्य प्राप्त करने के लिए। दोनों ही दृष्टियों से इन पंचरत्नों का पाठ परम लाभप्रद सिद्ध होता है।

।। गायत्री पंजरम् ।।

भूर्भुवः स्वः खल्वित्येतैर्निजमत्व प्रकाशिकाम् । 
महर्जनस्तपः सत्य लोकोपरि संस्थिताम् ।।1।।

भूः भुवः स्वः द्वारा निजत्व का प्रकाश करती है, महः, जनः, तपः, सत्यः इन लोकों से ऊपर स्थित है।

गानादिना विनोदादि कथालापेषु तत्परम् ।
तादित्यवाङ् मनोगम्य तेजोरूपधरां पराम् ।।2।।

गान आदि से विनोद और कथा आदि में तत्पर वह वाणी और मन से अगम्य होने पर भी जो तेज रूप धारण किये हुए है।

जगतः प्रसवित्रीं तां सवितुः सृष्टिकारिणीम् ।
वरेण्यमित्यन्नमयी पुरुषार्थ फल प्रदाम् ।।3।।

जगत् का प्रसव करने वाली को सविता की सृष्टिकर्त्री कहा है वरेण्य का अर्थ अन्नमयी है वह पुरुषार्थ का फल देती है।

अविद्या वर्ण वर्ण्या च तेजोवद्गर्भसंज्ञताम् ।
देवस्य सच्चिदानन्द परब्रह्म रसात्मिकाम् ।।4।।

वह अविद्या है, वर्ण सविता है, तेजयुक्त है, गर्भ संज्ञा वाली है तथा सच्चिदानन्द परब्रह्म देव की रसमयी है।

यद्वयं धीमहि सा वै ब्रह्माद्व तस्वरूपिणीम् ।
धियो योनस्तु सविता प्रचोदयादुपासिताम् ।।5।।

हम ध्यान करते हैं कि वह अद्वैत ब्रह्म स्वरूपिणी है, सविता स्वरूपा हमारी बुद्धि को उपासना के लिए प्रेरणा देती है।

तादृगस्या विराट् रूपं किरीटवरराजिताम् ।
व्योमकेशालकाकाशा रहस्य प्रवदाम्यहम् ।।6।।

इस प्रकार विराट् रूप वाली है, वह सुन्दर किरीट धारण करती है। व्योम केश हैं, आकाश अलकें हैं, इस प्रकार इसका रहस्य कहा जाता है।

मेघ भ्रकुटिकाक्रान्तां विधिविष्णुशिवार्चिताम् ।
गुरु भर्गवकर्णां ता सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।।7।।

भोंहों से आक्रान्त मेघ हैं ब्रह्मा, विष्णु और शिव से जो अर्चित है, गुरु, शुक्र जिसके कान हैं, सोम, सूर्य, अग्नि जिसके नेत्र हैं।

पिंगलेडाद्वयं नूनं वायुनासापुटान्विताम् ।
सन्ध्यौभयाष्ठपुटितां लसद्वागुपजिह्वकाम् ।।8।।

इडा, पिंगला दोनों नासापुट हैं। दोनों संध्या, दोनों ओष्ठ हैं, उपजिह्वा ही वाणी है।

संध्याद्यु मणिकण्ठा च लसद्वाहुसमन्विताम् ।
पर्जन्य हृदयासक्तं वसुस्तनमण्डलाम् ।।9।।

उस सन्ध्यारूपी द्युमणि से कण्ठ शोभित है। बाहु शोभायुक्त है तथा पर्जन्य हृदय है और स्तनमण्डल वसु है।

वितताकाशमुदरं सुनाम्यन्तरदर्शकाम् ।
प्रजापत्याख्यजघनां कटीन्द्राणीतिसंज्ञिकाम् ।।10।।

आकाश उदर है, अन्तरदेश नाभि है। जघन प्रजापति है, कटि इन्द्राणि है।

उरू मलय मेरुभ्यां सन्ति यत्रासुरद्विषः ।
जानुनी जन्हु कृषिकौ वैश्वदेवसदाभुजाम् ।।11।।

उरू मलय मेरु है, जहां असुर द्वेषी देव निवास करते हैं। जानु में जन्हु कुशिक है, भुजायें वैश्वदेव हैं।

अयनद्वयं जंघाद्यं खुरादि पितृसंज्ञिकाम् ।
पदांघ्रि नख रोमादि भूतलद्रुमलांछितम् ।।12।।

जंघाओं के दोनों आदि स्थान अयन हैं, खुर आदि पितृ हैं, पद, अंघ्रि, नख, रोम आदि, पृथ्वी तल के पेड़ आदि कहे हैं।

ग्रहराशिदेवर्षयो मूर्ति च परसंज्ञिकाम् ।
तिथिमासस्तुर्वर्षाख्यं सुकेतुनिमिषात्मिकाम् ।। 13 ।।

ग्रह, राधि, देव, ऋषि, परसंज्ञाक शशि की मूर्तियां हैं। तिथि, मास, ऋतु, वर्ष तथा सुकेतु आदि निमेष हैं। माया से रचित विचित्रता वाली तथा सन्ध्या के आवरण से युक्त है।

ज्वलत्कालानलप्रभां तड़ित्कोटिसमप्रभाम् ।
कोटिसूर्य प्रतीकांशा चन्द्रकोटि सुशीतलाम् ।।14।।

कालाग्नि की तरह ज्वलन है, करोड़ों बिजलियों के समान प्रभायुक्त है, करोड़ों सूर्य की तरह प्रकाशवान् और करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतल हैं।

सुधामण्डलमध्यस्थां सान्द्रानन्दाऽमृतात्मिकाम् ।
प्रागतीतां मनोरम्यां वरदां वेदमातरम् ।।15।।

सुधा मण्डल के मध्य में आनन्द और अमृतयुक्त है, प्राक् है, अतीत है, मनोहर है, वरदा है और वेदमाता है।

षडंगा वर्णिता सा च तरेव व्यापकत्रयम् ।
पूर्वोक्त देवतां ध्यायेन्साकारगुणसंयुताम् ।।16।।

इसके छह अंग हैं, यह तीनों भुवनों में व्यापक हैं। इन पूर्वोक्त गुणों से संयुक्त देवता को ध्यान करना चाहिए।

पचवक्त्रां दशभुजां त्रिपंचनयनैर्युताम् ।
मुक्ताविद्रु मसौवर्णां स्वच्छशुभ्रसमाननाम् ।।17।।

पांच मुंह हैं, दश भुजा हैं, पन्द्रह नेत्र हैं और मुक्ता, विद्रुम के तुल्य सुवर्ण, सफेद तथा शुभ्र आनन हैं।

आदित्य मार्गगमनां स्मरेद् ब्रह्मस्वरूपिणीम् ।
विचित्र मंत्र जननीं स्मरेद्विद्या सरस्वतीम् ।।18।।

वह सूर्य मार्ग से गमन करती है, उस स्वरूपिणी का स्मरण करना चाहिए। उन विचित्र मन्त्रों की जननी विद्या सरस्वती का स्मरण करना चाहिए।

ओमित्येव सुनामधेयमनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः ।
सर्वेष्वेव हि तस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम् ।।

यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम् ।
लोकेश समवर्शिन नियमनं चाकारहीनं प्रभुम् ।।1।।

अर्थ—जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द, सर्वेश्वर, समदर्शी, नियामक, प्रभु और निराकार कहते हैं, जो विश्व में आत्मा रूप से उस ब्रह्म के समस्त नामों में श्रेष्ठ नाम, पाप-रहित, पवित्र और ध्यान रखने योग्य है वह ‘‘ॐ’’ ही मुख्य नाम माना गया है।

भावार्थ—‘‘परमात्मा को प्राप्त करने और प्रसन्न करने का मार्ग उसके नियमों पर चलना है। वह निन्दा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता, वरन् कर्मों के अनुसार फल देता है। परमात्मा को सर्वत्र व्यापक समझकर गुप्त रूप से भी पाप न करना चाहिए। प्राणियों की सेवा करना परमात्मा की ही पूजा करना है। परमात्मा को अपने अन्तर में अनुभव करने से आत्मा पवित्र होती है और सत्, चेतनता तथा आनन्द की अनुभूति होती है।

भूव प्राण इति ब्रुवन्ति मुनयो वेदान्तषारं गताः ।
प्राणः सर्व विचेतनेषु प्रसृतः सामान्य रूपेण सः ।।
एतेनैव विसिद्धयते हि सकलं नूनं सम्मानं जगत् ।
दृष्टव्यः सकलेषु जन्तुषु जनर्नित्यं ह्यसुश्चात्मवत् ।।2।।

अर्थ—मुनि लोग प्राण को ‘भूः’ कहते हैं। यह प्राण समस्त प्राणियों में सामान्य रूप से फैला हुआ है। इससे सिद्ध है कि यहां सब समान हैं। अतएव सब मनुष्य और प्राणियों को अपने समान ही देखना चाहिए।

भावार्थ—अपने समान सबको कष्ट होता है, इसलिए किसी को सताना न चाहिए। दूसरों से वही व्यवहार करना चाहिए, जो हम दूसरों से अपने लिये चाहते हैं, सबमें समत्व की दृष्टि रखनी चाहिए। कुल, वंश, वेष जाति समुदाय, सत्री, पुरुष आदि भेदों के कारण किसी को नीच-ऊंच, छोटा-बड़ा, नहीं समझना चाहिए। उच्चता और नीचता का कारण तो भले-बुरे कर्म ही हो सकते हैं।

भुवो नाशो लोके सकल विपदां व निगदितः ।
कृतं कार्यं कर्त्तव्यमिति मनसा चास्य करणम् ।।
फलाशां मर्त्या स्ते विदधति न वै कर्मनिरताः ।
लभन्ते नित्यं ते जगति हि प्रसादं सुमनसाम् ।।3।।

अर्थ—संसार में समस्त दुःखों का नाश ही ‘भुवः’ कहलाता है। कर्त्तव्य भावना से किया गया कार्य ही कर्म कहलाता है। परिणाम में सुख की अभिलाषा को छोड़कर जो कार्य करते हैं वे मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं।

भावार्थ—मनुष्य का अधिकार कार्य करना है, फल देने वाला ईश्वर है। अमुक वस्तु प्राप्त होने पर ही सुख माना जाय, ऐसा सोचने के बजाय ऐसा सोचना चाहिए कि कर्त्तव्य-पालन ही हमारे लिए आनन्द का सर्वोत्तम केन्द्र है। जो अपने कर्त्तव्य कर्म को ही लक्ष्य मान लेता है, वह कर्मयोगी हर घड़ी सुखी रहता है। जो इच्छित फल की आशा के लिए लटका रहता है, उस तृष्णावान को सदा सत्कर्म करते रहना चाहिए, गीता के कर्मयोग का यही तत्व है।

स्वरेषो व शब्दो निगदति मनः स्थैर्य-करणम ।
तथा सौख्यं स्वास्थ्यं ह्यु पादशति चित्तस्य नियतम् ।
निमग्नत्वं सत्यव्रतसरसि चाचक्षति उत ।
त्रिधा शांति ह्येतां भुवि च लभते संयमरतः ।।4।।

अर्थ—‘स्वः’ यह शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है। चंचल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रक्खो, यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शान्ति को प्राप्त करते हैं।

भावार्थ—अनिश्चित परिस्थिति प्राप्त होने पर प्रायः मनुष्य शोक, दुःख, क्रोध, द्वेष, दीनता, निराशा, चिन्ता, भय, बेचैनी आदि से उद्विग्न होकर अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर अहंकार, मद, उद्दण्डता, सूखी में फूलकर अस्वाभाविक आचरण करना, इतराना, अपव्यय, शेखी आदि से ग्रस्त हो जाते हैं। ये दोनों ही स्थितियां एक प्रकार के नशे या ज्वर हैं। ये विवेक को अन्धा कर देते हैं जिससे विचार और कार्यों की उचित श्रृंखला नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और आदमी अन्धा तथा बावला बन जाता है। इन सत्यानाशी तूफानों से आत्मा की रक्षा करने के लिये मन को स्थिर, सन्तुलित, स्वस्थ एवं सत्य प्रेमी बनाना चाहिए, तभी मनुष्य को आत्मिक, बौद्धिक तथा शारीरिक शान्ति मिल सकती है।

ततो वै निष्पत्तिः स भवि मतिमान् पण्डितवरो।
विजान गुह्यं यो मरण जावनयोस्तदलिम् ।।
अनन्ते संसारे विचरति भयासक्तिरहित ।
स्तथा निर्माणं वै निजगतिविधीनां प्रकुरुते ।।5।।

अर्थ—‘तत्’ शब्द यह बतलाता है कि इस संसार में वही बुद्धिमान् है जो जीवन और मरण के रहस्य को जानता है। भय और आसक्ति रहित जीता है और अपनी गति-विधियों का निर्माण करता है।

भावार्थ—मृत्यु सदा सिर पर खड़ी नाचती रहती है। इस समय सांस चल रही है, अगले ही क्षण बन्द हो जाय, इसका क्या ठिकाना है? यह सोचकर इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिए पाप क्यों किये जावें जिससे चिरकाल तक दुःख भोगने पड़ें, ऐसा विचार करना चाहिए।

यदि विद्याध्ययन, समाज-सुधार, धर्म-प्रचार आदि श्रेष्ठ कार्य करने हों तो ऐसा सोचना चाहिए कि जीवन अखण्ड है। यदि इसी शरीर से वह कार्य पूरा न हो सका तो अगले जन्म में पूरा करेंगे। यह निर्विवाद है कि जो इस जीवन का सदुपयोग कर रहा है, उसे मृत्यु के पश्चात् आनन्द ही मिलेगा। परलोक, पुनर्जन्म आदि में सुख ही प्राप्त होगा पर जो इस जीवन क्षणों का दुरुपयोग कर रहा है, उसका भविष्य अन्धकारमय है। इसलिये जो बीत चुका है उसके लिये दुःख न करते हुए शेष जीवन का सदुपयोग करना चाहिए।

सवितुस्तु पदं वितनोति ध्रुवं,
मनुजो बलवान् सवितैव भवेत् ।
विषया अनुभूतिः परिस्थितयो
वै सदात्मन एव गणेदिति सः ।।6।।

अर्थ—‘सवितुः’ यह पद बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान् होना चाहिए और सभी विषय तथा अनुभूतियां अपने आत्मा से ही सम्बन्धित हैं, ऐसा विचारना चाहिए।

भावार्थ—सूर्य को वीर्य और पृथ्वी को रज कहा जाता है। सूर्य की शक्ति में संसार की सब क्रियायें होती हैं। इसी प्रकार आत्मा अपनी क्रियाशीलता द्वारा विविध प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न करती है। प्रारब्ध, भाग्य, दैव आदि भी अपने प्राचीन कर्मों का ही परिपाक मात्र है। इसलिए अपने लिये जैसी परिस्थिति अच्छी लगती है, उसी के योग्य अपने को बनाना चाहिए। अपना भाग्य-निर्माण करना हर मनुष्य के अपने हाथ में है। इसलिये आत्म-निर्माण की ओर ही सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। बाहर की सहायता भी अपनी अन्तरंग स्थिति के अनुकूल ही मिलती है।

मनुष्य को तेजस्वी, बलवान्, पुरुषार्थी बनना चाहिए। स्वास्थ्य, विद्या, धन, चतुरता, संगठन, यश, साहस और सत्य इन आठ बलों से अपने को सदैव बलवान् बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

वरेण्याञ्चैतद्वै प्रकटयति श्रेष्ठत्वमनिशम् ।
सदा पश्येच्छेष्ठं मननमपि रेष्ठस्य विदधेत् ।।
तथा लोके श्रेष्ठ सरलमनसा कर्म च भजेत् ।
तदित्थं श्रेष्ठत्वं व्रजति मनुजः शोभितगुणैः ।।7।।

अर्थ—‘वरेण्यं’ यह शब्द प्रकट करता है कि प्रत्येक को नित्य श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ चिन्तन करना, श्रेष्ठ विचारना, श्रेष्ठ कार्य करना, इस प्रकार से मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त होता है।

भावार्थ
—मनुष्य वैसा ही बनता है, जैसे कि उसके विचार होते हैं। विचार सांचा है और जीवन गीली मिट्टी है। जैसे विचारों में हम डूबते रहते हैं, हमारा जीवन उसी ढांचे में ढलता जाता है, वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही साथी मिलते हैं, उसी दिशा में जानकारी, रुचि तथा प्रेरणा मिलती है। इसलिए यदि अपने को श्रेष्ठ बनाना है तो सदा श्रेष्ठ मनुष्यों के सम्पर्क में रहना, श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ना, श्रेष्ठ बातें सोचना, श्रेष्ठ घटनायें देखना, श्रेष्ठ कार्य करना आवश्यक है। दूसरों में जो श्रेष्ठतायें हों उनकी कदर करना और उन्हें अपनाना, श्रेष्ठता में श्रद्धा रखना ये सब बातें उन लोगों के लिए बहुत आवश्यक हैं, जो अपने को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं।

भर्गो व्याहरतिपादं हि नितरां लोकः सुलोको भवेत् ।
पापे पाप-विनाशने त्वविरतं, दत्ता वधानो वसेत् ।।
दृष्ट्वा दुष्कृतिदुर्विपाक-निचय तेभ्यो जुगुप्सेद्धि च।
तन्नाशाय विधीयतां च सततं, संघर्षमेभिः सह ।।8।।

अर्थ—‘भर्गो’ यह पद बताता है कि मनुष्यों को निष्पाप बनना चाहिए। पापों से सावधान रहना चाहिए। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करे और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिए संघर्ष करता रहे।

भावार्थ—संसार में जितने दुःख हैं, पापों के कारण हैं। अस्पतालों में, जेलखानों में तथा अन्यत्र नाना प्रकार के कष्टों से पीड़ित मनुष्य अब के या पुराने पापों से ही दुःख भोगते हैं। नरक में भी पापी ही त्रास पाते हैं। सन्त और परोपकारी पुरुष दूसरों के पापों का बोझ अपने सिर लेकर दुःख उठाते हैं और उन्हें शुद्ध करते हैं। चाहे दूसरों का दुःख कोई संत सहे, चाहे पापी स्वयं सहे, हर हालत में दुःखों का कारण पाप ही है। इसलिये जिन्हें दुःख का भय है और सुख की इच्छा है, उन्हें चाहिए कि पापों से बचें और भूतकाल के पापों के लिये प्रायश्चित करें। पापों से सावधानी रखना और उन्हें भीतर-बाहर से नष्ट करने के लिए संघर्ष करना—यह बहुत बड़ा पुण्य-कार्य है, क्योंकि इससे अगणित प्राणी दुःखों से छुटकारा पाकर सुखी बनते हैं। निष्पापता में ही सच्चे आनन्द का निवास है।

देवस्यति तु व्याकरोत्यमरतां मर्त्योऽपि सप्राप्यते ।
वेवानामिव शुद्ध दृष्टि करणात् सेवोपचाराद् भुवि ।।
निःस्वार्थ परमार्थ कर्मं करणात् दीनाय दानात्तथा ।
बाह्याभ्यन्तरमस्य देव भुवनं संयुज्यते चैव हि ।।9।।

अर्थ—‘देवस्य’ यह पद बतलाता है कि मरणधर्मा मनुष्य भी अमरता अर्थात् देवत्व को प्राप्त कर सकता है। देवताओं के समान शुद्ध दृष्टि रखने से, प्राणियों की सेवा करने से, परमार्थ कर्म करने से, निर्बलों की सहायता करने से मनुष्य के भीतर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है।

भावार्थ
—परमात्मा की बनाई हुई इस पवित्र सृष्टि में जो कुछ है, पवित्र और आनन्दमय ही है। इस सृष्टि को, संसार को प्रसन्नता की दृष्टि से देखना, उसमें मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गई बुराइयों को दूर करना और ईश्वरीय श्रेष्ठताओं को विकसित करना, प्रचलित करना देवकर्म है। इस देव-दृष्टि को धारण करने से मनुष्य देवता बन सकता है। जो अपने को शरीर न समझकर आत्मा अनुभव करता है, वह अमर है। उसके पास से मृत्यु का भय दूर हो जाता है। प्राणियों को प्रेम और आत्मीयता की पवित्र दृष्टि से देखना, अपने आचरणों को पवित्र रखना, अपने से निर्बलों को ऊंचा उठाने के लिए अपनी शक्ति का दान करना यह देवत्व है। इन गुणवानों के लिए यह भूलोक भी देवलोक के समान आनन्दमय बन जाता है।

धीमहि भवेभ सब विधं शुचिं,
शक्तिचयं वयमित्युपदिटाः खलु ।
नो मनुजो लभते सौख्यशान्ति,
विनानेन वेदा निगदन्ति तथ्यम् ।।10।।

अर्थ—‘धीमहि’ का आशय है कि हम सब लोग हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें। वेद कहते हैं कि इसके बिना मनुष्य सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं होता।

भावार्थ—संसार में भौतिक शक्तियां अनेक हैं। धन, पद, वैभव, राज्य, शरीर-बल, संगठन, शस्त्र, विद्या, बुद्धि, चतुरता, कोई विशेष योग्यता आदि के बल पर लोग ऐश्वर्य और प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं, पर यह अस्थायी होती हैं। इनसे सुख मिल सकता है पर वह छोटे-मोटे आघात में ही नष्ट भी हो सकता है। स्थायी सुख आध्यात्मिक पवित्र गुणों में है, जिन्हें ‘दैवी सम्पदायें’ या ‘दिव्य शक्तियां’ भी कहते हैं। निर्भयता, विवेक, स्थिरता, उदारता, संयम, परमार्थ, स्वाध्याय, तपश्चर्या, दया, सत्य, अहिंसा, नम्रता, धैर्य, अद्रोह, प्रेम, न्यायशीलता, निरालस्य आदि दैवी गुणों के कारण जो सुख मिलता है उसकी तुलना किसी भी भौतिक सम्पदा से नहीं हो सकती। इसलिए अपने दैवी सम्पदाओं का कोष बढ़ाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

धियो मत्यामथ्यागमनिगमंत्रान् सुमतिमान् ।
विजानीयात्तत्वं विमल नवनीतं - परमिव ।।
यतोऽस्मिन् लोके हि संशयगत विचार-स्थलशते।
मतिः शुद्धै वाच्छा प्रकटयति सत्यं सुमनसे ।।11।।

अर्थ—‘धियो’ पद बतलाता है कि बुद्धिमान को चाहिए कि वह वेद-शास्त्रों को बुद्धि से मथकर मक्खन के समान उत्कृष्ट तत्व को जाने, क्योंकि शुद्ध बुद्धि से ही सत्य को जाना जाता है।

भावार्थ
—संसार में अनेक विचारधारायें हैं, उनमें से अनेकों आपस में टकराती भी हैं। एक शास्त्र के सिद्धान्त दूसरे शास्त्र के विपरीत भी बैठते हैं। इसी कारण एक विद्वान् या ऋषि के विचार दूसरे विद्वान् या ऋषि के विचारों से पूर्णतया मेल नहीं खाते। ऐसी स्थिति में विचलित न होना चाहिए। देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार जो बात एक समय बिल्कुल ठीक होती है, वही भिन्न परिस्थितियों में गलत भी हो सकती है। जाड़े के दिनों में जो कपड़े लाभदायक होते हैं, उनसे गर्मी में काम नहीं चल सकता। इसी प्रकार एक परिस्थिति में जो बात उचित है, वह दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो जाती है। इसलिए किसी ऋषि, विद्वान्, नेता व शास्त्र की निन्दा न करते हुए हमें उसमें से वही तत्व लेने चाहिए जो आज की स्थिति के अनुकूल हैं। इस उचित-अनुचित का निर्णय, तर्क, विवेक और न्याय के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।

योनो वास्ति तु शक्तिसाधनचयो न्यूनाधिकश्चाथवा ।
भागं न्यूनतमं हि तस्य विदधेमात्मप्रसादाय च ।।
यत्पश्चादंवशिष्टभागमखिलं त्यक्त्वा निनाशां हृदि ।
तदधीनेष्वभिलाषवस्तु वितर ये शक्तिहीनाः स्वयम् ।।12।।

अर्थ—‘योनः’ पद का तात्पर्य है कि हमारी जो भी शक्तियां एवं साधन हैं, चाहे वे न्यून हों अथवा अधिक हों, उनके न्यून से न्यून भाग को ही अपनी आवश्यकता के लिए प्रयोग में लावें और शेष को निःस्वार्थ भाव से अशक्त व्यक्तियों में बांट दें।

भावार्थ—भगवान् ने मनुष्य को ज्ञान, बल तथा वैभव एक अमानत के रूप में इसलिए दिये हैं कि इन विभूतियों से सुसज्जित होकर अपने को मान, यश, सुख तथा पुण्य का श्रेय प्राप्त करें। परन्तु इनका लाभ अधिक से अधिक मात्रा में दूसरों को उठाने दें। अपने ऐश, आराम, भोग, संचय या अहंकार की पूर्ति में इनका उपयोग नहीं होना चाहिए। वरन् लोकहित के लिए, अपने से निर्बल की सहायता के लिए इनका उपयोग किया जाना चाहिए। विद्वान्, बलवान् या धनवान् का गौरव इसी बात में है कि उनके द्वारा कम ज्ञान वालों को, निर्धनों को ऊंचा उठाने का प्रयत्न किया जाय। जैसे वृक्ष, कूप, तड़ाग, उपवन, पुष्प, अग्नि, जल, वायु, बिजली आदि श्रेष्ठ समझे जाने वाले पदार्थ अपनी महान् शक्तियों को लोकहित के लिए सदैव वितरित करते रहते हैं, वैसे ही हमें भी अपनी शक्तियों का जीवन-निर्वाह मात्र भाग अपने लिए रखकर शेष को जनहित के लिए समर्पित कर देना चाहिए।

प्रचोदयात् स्वयं त्वितरांश्च मानवान्,
नरः प्रयाणाय च सत्य वर्त्ममि ।
कृतं हि कर्माखिलमित्थमंगिन,
वदन्ति धर्म इति हि विपश्चितः ।।13।।

अर्थ—‘प्रचोदयात्’ पाद का अर्थ है कि मनुष्य अपने आपको तथा दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा दे। इस प्रकार किए हुए सब कामों को विद्वान् लोग धर्म कहते हैं।

भावार्थ—प्रेरणा संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसके बिना सारी साधना सामग्री बेकार है, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हों। प्रेरणा से उत्साहित और प्रवृत्त हुआ मनुष्य यदि कार्य आरम्भ कर देता है तो साधन अपने आप जुटा लेता है। उसे ईश्वरीय सहायताएं मिलती हैं और अनेक सहयोगी प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए अपने आपको सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा तथा प्रोत्साहन देना चाहिए तथा दूसरों को श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर करने के लिए उन्हें प्रेरित करना चाहिए। वस्तुयें देकर किसी का उतना उपकार नहीं किया जा सकता है। सत्कार्य के लिए प्रेरणा देना इतना बड़ा पुण्य-कार्य है कि उसकी तुलना में छोटी-मोटी पुण्य-क्रियाएं बहुत ही तुच्छ बैठती हैं।

गायत्री-गीता ह्येतां यो नरो वेत्ति तत्त्वतः ।
स मुक्त्वा सर्व दुखेम्यः सदानंदे निमज्जति ।।14।।

अर्थ—जो मनुष्य इस गायत्री-गीता को भली प्रकार जान लेता है। वह सब प्रकार के दुःखों से छूटकर सदा आनन्द मग्न रहता है।

गायत्री गीता के उपर्युक्त 14 श्लोक समस्त वेद-शास्त्रों में भरे हुए ज्ञान का निचोड़ है। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले थे। समस्त शास्त्रों के समुद्र का मंथन यह 14 श्लोक रूपी 14 रत्न हैं। जो व्यक्ति इन्हें भली प्रकार हृदयंगम कर लेता है, वह कभी भी दुःखी नहीं रह सकता, उसे सदा आनन्द रहेगा।





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