धर्म की सुदृढ़ धारणा

धर्म के हो स्वरूप

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धर्म की आवश्यकता तो सभी समझदार लोग स्वीकार करते हैं, पर धार्मिक सिद्धाँतों के विषय में प्रायः मनुष्यों में मतभेद पाया जाता है । विभिन्न मजहवों में पाये जाने वाले अन्तर को तो छोड़ दीजिये एक ही मजहब के पृथक-पृथक सम्प्रदायों के सिद्धान्तों में घोर वैषम्य दिखाई देता हैं । हिन्दू धर्म इस दृष्टि से सबसे अधिक मतभेद रखने वाला है और उसमें अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रखने वाले सम्प्रदायों की संख्या सैकड़ों से भी अधिक है । इनमें कितने हो सिद्धान्त तो एक दूसरे के सर्वथा विपरीत मिलते हैं । पर इस प्रकार के मत भेदों में धर्म का ठोस अंश बहुत कम होता है । अधिकांश अवस्थाओं में तो मतभेदों का कारण ऊपरी रस्म रिवाज या स्थानीय विशेषतायें ही होतीं हैं ।

यथार्थ में धर्म के दो अंग होते हैं । एक तो नित्य अथवा अपरिवर्तनशील और दूसरा अनित्य अथवा परिवर्तनशील । सदाचार या सद्गुण तो नित्य या अपरिवर्तनशील धर्म हैं । उन सद्गुणों के अनुसार बर्ताव करने इन गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न करने और आपस में व्यवहार करने की विधायाँ समय-समय पर बदलतीं रहतीं हैं । जैसे-जैसे मनुष्य का मानसिक विकास होता है ये विधियाँ पहले से अच्छी निकल आतीं हैं । नये-नये धर्म प्रवर्तकों का कार्य पहले से अधिक श्रेयस्कर अथवा बदली हुई परिस्थिति के अनुकूल विधियाँ बनाने का होता है ।

उदाहरण के लिये देखिये कि सत्य, दया, न्यायप्रियता, उदारता आदि सद्गुण अपरिवर्तनशील हैं । कोई धर्म इनको कभी बुरा न कहेगा । ये प्राय: सभी धर्मों में पाये जायेंगे । कोई धर्म-प्रवर्तक इनका निषेध न करेगा । इसलिये ये नित्यधर्म है । लेकिन सत्य, दया, उदारता आदि के सूक्ष्म रुप, जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि तीब्र होती जायेगी वैसे-वैसे प्रकट होगे । जैसे कोई तो झूँठ बोलने को ही सत्य का उल्लंघन समझे । दूसरा ऐसे सभी कार्यों को झूँठ समझे जिनको उसे छिपाना पड़े या मन में किसी अनुचित इच्छा को लाना भी सत्य का उल्लंघन समझे । यह उस मनुष्य के विचारों की सूक्ष्मता पर निर्भर है । इस प्रकार सत्य-धर्म मे तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ, पर उसके प्रयोग में विकास अथवा उन्नति अवश्य हुई ।

सद्गुणों की वृद्धि करने वाली क्रियाऐं जैसे-उपासना, सद्ग्रन्थों का अध्ययन, दान, तीर्थाटन आदि भिन्न-भिन्न जातियों, देशों व समयों में भिन्न- भिन्न होती हैं । यह सब धर्म का अंग होते हुए भी परिवर्तनशील हैं । उनका उद्देश्य सदैव एक ही होता है, परंतु एक ही उद्देश्य से कार्य करने वाले मनुष्यों की कार्य प्रणाली पृथक-पृथक होती है । इसी प्रकार जन समुदायों अथवा सम्प्रदायों की धार्मिक शैलियाँ भिन्न हो सकती हैं और एक ही जाति के महापुरुष नई-नई शैलियों का आविष्कार कर सकते हैं | इसी प्रकार धार्मिक संस्कार पृथक-पृथक और परिवर्तनशील होते हैं तो सभी जातियों, सभी देशों, सभी समयों में मनुष्य जब प्राकृतिक शक्तियों को अपने से बहुत अधिक प्रबल देख कर उनमें देवताओं की कल्पना करता है तो उन शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए पूजा करना, उनको भेंट चढ़ाना, बलिदान करना, आवाहन करना स्वाभाविक ही है जिससे वे प्रसन्न होकर मनुष्यों का अनहित न करें और उसके लिये सुखकारी सिद्ध हो । यही धार्मिक संस्कारों का मूल है । पर देश काल के अनुसार हमारी प्रणाली बदल रही है और आगे भी बदलती रहेगी । उदाहरणार्थ किसी विधि में किसी ठण्डे देश में ऊनी-वस्त्र पहिने जाते हैं और फिर यदि वे ही लोग किसी गर्म देश में आ बसें तो ऊनी वस्त्रों के स्थान में सूती वस्त्र पहिनने लगेंगे | अथवा यदि किसी समय किसी पूजा में मिट्टी की साधारण सी मूर्ति बना कर रखने की प्रथा हो और फिर वे मूर्तियाँ सुन्दर पत्थर की बनने लगें तो मिट्टी की मूर्ति को जगह पत्थर की मूर्तियों का प्रचलन हो जायगा । लगभग पचास साठ वर्ष पहले ही महाराष्ट्र में गणपति पूजन के अवसर पर शास्त्रानुसार वेषभूषा की मूर्तियाँ बनती थीं पर अब दिन पर दिन वे मूर्तियाँ सरकारी फौजी अफसरों के भेष में, राष्ट्रीय नेता के भेष में, फैशनेविल जैंटिलमैनों के भेष में बनाई जाने लगीं हैं ।

धार्मिक संस्कारों का मूल चाहे कुछ हो परंतु उनका प्रभाव विशेष रुप से पड़ता ही है । उस अवसर का महत्त्व संस्कार करने वाले के मन पर अंकित हो जाता है । संस्कार के साथ जिस क्रिया को मनुष्य करता है उसे बिना सोचे समझे, हँसी खेल के समान नहीं करता वरन् उसकी महानता उसके हृदय पर जम जाती है| इस प्रकार अनेक धार्मिक संस्कार धार्मिक भावों अथवा सद्गुणों की बढ़ती करने वाले होते हैं । पर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है परिवर्तित परिस्थितियों के प्रभाव से धार्मिक संस्कारों तथा अन्य धार्मिक क्रिया काण्डों की विधि कोरा दिखावा या आडम्बर मात्र रह जाती है । जिन सद्गुणों को उनके द्वारा बढ़ाना अभीष्ट होता है उसके विपरीत उसके कारण दुर्गुण की वृद्धि होने लगती है । लोग उसके सार को भूल कर बाहरी स्वरूप पर ही जोर देने लगते हैं । कभी-कभी वह विधि इतनी पेचीदा और लम्बी चौड़ी होती है कि साधारण मनुष्य न तो उसे समझ सकता है न याद रख सकता है । ऐसी अवस्था में पंडितों या पुजारियों की एक श्रेणी बन जाती है जो उसे कराने के अधिकारी समझे जाते हैं । ये पुजारी जब अपने अपने अधिकार को दृढ़ता के साथ स्थापित देखते है तो वे भी उस विधि के पूर्ण अध्ययन की चिन्ता नहीं करते वरन् उसके द्वारा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने को हीं अपना लक्ष्य बना लेते है । परिणाम यह होता है कि जो धार्मिक कृत्य मानव कल्याण के लिये प्रचिलित किये गये थे वे ही फिर स्वार्थसाधन अभिमान, द्वेष आदि की उत्पत्ति करने वाले बन जाते हैं । संसार में धर्म के नाम पर जो अनर्थ हुये हैं उनका मूल कारण यही है ।

ऐसी अवस्था देख कर किसी महापुरुष का हृदय सहानुभूति और करुणा से द्रवित हो जाता है । वह ऐसे पुजारियों और ऐसे आडम्बर का विरोध करने लगता है । जब किसी धार्मिक कृत्य से सद्गुणों के बदले दुर्गुण बढ़ने लगें तो वह त्याज्य हो जाता है । इसलिये फिर से सार धर्म के उपदेश और नवीन धार्मिक विधियों के प्रचार की आवश्यकता होती है । कभी-कभी पुजारियों का गुरुडम मिटाने को धार्मिक कृत्यों को पेचीदा विधियों को दूर करके साधारण व्यक्तियों के समझने और आचरण कर सकने योग्य रास्ता बताना आवश्यक होता है । इस प्रकार धार्मिक व्यवस्था में महान परिवर्तन हो जाता है । परन्तु धर्म का सार रूप सद्गुणों का आचरण अब भी वैसा ही महत्वपूर्ण रहता है जैसा कि पहले था । अथवा यह कहना चाहिए कि वह पहले से भी अधिक आवश्यक हो जाता है क्योंकि उस की रक्षा के लिए बाहरी विधियों और क्रियाओं में परिवर्तन किया जाता है । इस प्रकार नित्य धर्म की रक्षा के लिये ही महापुरुषों द्वारा धर्म के ऊपरी रूप में परिवर्तन किया जाता है जिसे सामान्य व्यक्ति नवीन धर्म अथवा साम्प्रदाय की स्थापना का रुप दे देते है।

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