धर्म का एक मुख्य अंग सामूहिकता की भावना है । हमारे देश में अनेक लोगों ने इस भ्रमपूर्ण धारण को अपना रखा है कि धर्म तो एक निजी चीज है । इसके लिये अन्य लोगों से जितना पृथक रहा जाय उतना ही अच्छा है । इस विचार धारा को लोगों ने यहाँ तक आगे बढ़ाया है कि वे उन्हीं लोगों को सबसे बड़े महात्मा और साधु मानते हैं जो जन समूह को त्याग कर किसी पहाड़ की गुफा या अगम्य वन में जा बैठते है और संसार का ध्यान छोड़कर मोक्ष साधन के उद्देश्य से तपस्या में लीन हो जाते हैं । यद्यपि हम नहीं कह सकते कि इस प्रकार एकांत में रहकर तपस्या करने वाले महात्माओं का वास्तविक लक्ष्य क्या होता है, पर कम से कम साधारण लोगों पर तो ऐसी बातों का प्रभाव हानि कारक ही पड़ता है और वे समाज के प्रति अपने कर्तव्य पालन से उदासीन हो जाते हैं ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है । उसने अन्य जीवों की अपेक्षा जो उन्नति की है उसका प्रधान कारण उसकी सामाजिक सामूहिक मनोवृत्ति है । मिल जल कर काम करने और एक दूसरे की सहायता करने के स्वभाव ने ही शिक्षाएँ स्वास्थ्य संस्कृति विज्ञान शिल्प आदि अनेक दिशाओं में मनुष्य को बढ़ाया है । विवाह, कुटुम्ब, जाति, संप्रदाय, राष्ट्र, सभा, सम्मेलन, संगठन आदि इसी मनोवृत्ति के आधार पर बने हैं ।
मनुष्य ने यह भली प्रकार जान लिया है वह एक दूसरे से अलग-अलग होकर नहीं मिलजुल कर एक दूसरे को सहयोग देकर ही आगे बढ़ सकता है । अपनी कठिनाइयों कमियों को दूर कर सकता है क्योंकि इस भावना को बढ़ाने में त्याग, संयम, सेवा, प्रेम, उपकार आदि गुणों को आवश्यकता पड़ती है । इसके विपरीत एक और मनोवृत्ति मनुष्य में काम करती है जिसे 'स्वार्थपरता कहना चाहिए । इसकी प्रेरणा से दूसरों से अपने लिये अधिकाधिक लाभ लेना, और बदले में कम से कम देने की इच्छा प्रबल होती है । फलस्वरूप बेईमानी, छल, शोषण, अन्याय, संग्रह, विलासिता आदि की वृद्धि होती है । इस मनोवृत्ति को 'असुर' तत्व कहते हैं । यह दोनों ही देव, असुर मनोवृत्तियाँ परस्पर निरन्तर संघर्ष करती रहती हैं । गीताकार ने तत्वत: इसी देवासुर संग्राम का वर्णन किया है और अर्जुन को निमित्त बनाकर जन साधरण की, असुरता स्वार्थपरता को पराजित करने और केवल लोक हित को विजयी बनाने के लिये आन्तरिक संघर्ष करते रहने का निर्देश किया है ।
इन दोनों प्रकार की भावनाओं में संघर्ष चलता रहता है । परिस्थितियों के कारण कभी देवत्व प्रबल हो जाता है तो कभी असुरता को चढ़ बनती है । व्यक्तिगत जीवन की भाँति सामूहिक जीवन में भी यह उतार चढ़ाव आते रहते हैं । कोई काल सज्जनों की अधिकता का होता है तो किसी में दुर्जनों की भरमार रहती है । सतयुग, कलियुग, आदि का यही आधार है । बात यह है कि मनुष्य के अन्दर असुरता, पाशविकता, स्वार्थपरता की मात्रा अधिक रहती है । निम्नगामी मनोवृत्तियाँ सरल और प्रबल होती हैं उन्हें बढ़ते देर नहीं लगती । ऊर्ध्वगामी देवत्व प्रधान प्रवृत्तियाँ कठिन और परिणाम में मन्द सौम्य एवं साधारण होती हैं जिनके कारण भौतिक दृष्टि से अधिक लाभ मिलते नहीं दीखते इसलिये उनमें उतना आकर्षण नहीं होता जितना असुरता के सिद्धांतों में । इसलिये बहुधा मन की प्रवृत्ति व्यक्तिगत स्वार्थ साधन की ओर ही अधिक रहती है । पानी को फैलाया जाय तो बह नीचे को ओर बिना किसी प्रयत्न के बह निकलेगा किन्तु यदि पानी को ऊपर चढ़ाना हो तो उसके लिये अनेक प्रकार के साधन जुटाने पड़ते है तब कहीं धीरे-धीरे थोड़ी सफलता मिलती है ।
आसुरी तत्वों की प्रबलता और देवतत्व में सौम्यता के कारण बार-बार ऐसे अवसर आ जाते हैं कि व्यक्तियों में तथा समाज में सामूहिकता की प्रवृत्ति घट जाती है और स्वार्थपरता बढ़ जाती है । उस असंतुलन को स्थिति को सँभाल कर संतुलन कायम करने के लिये कोई महापुरुष, देवदूत अवतार आते हैं और बुराइयों को घटाने अच्छाइयों को बढ़ाने के अपने उद्देश्य को पूरा करके चले जाते हैं । यह तो हुई विशेष परिस्थितियों को, विशेष रूप से समाधान करने वाले विशेष महापुरुषों की बात। पर साधारण समय में भी असुरता को, असामाजिकता को नियन्त्रित करने और देवत्व को प्रोत्साहन देने के लिये कुछ आत्माओं को प्रयत्न करते रहना होता है । यदि प्रयत्न न हो तो भ्रष्टाचार अत्यन्त तीव्र गति से फैलता है और जन मन की स्थिति असुरता से आछन्न हो जाती है ।
हर वस्तु से मैल निकलता है । समय-समय पर उसकी सफाई करते रहना पड़ता है । यदि वह सफाई न की जावे तो गन्दगी और बीमारी फैलती है। बर्तन, कपड़ा, मकान, शरीर आदि किसी भी वस्तु को ले लें उन पर मैल जमने की प्रक्रिया होती रहती है । मिट्टी, साबुन, बुहारी, जल आदि वस्तुओं से उनकी जल्दी-जल्दी सफाई करनी पड़ती है । यदि सफाई की यह क्रिया बन्द कर दी जावे तो ये वस्तुऐं मलीनता से भर जाती है । मानवीय मन तथा समाज की भी यही स्थिति, है । मन में भी एक प्रकार की गंदगी और मलीनता उत्पन्न होती रहती है जिसे स्वर्थपरता वासना, तृष्णा आदि नाम दिये जाते हैं । इसकी सफाई जल्दी-जल्दी न की जाती रहे तो मन की यह गंदगी बहुत बढ़ जाती है और कुछ ही दिनों में बह बढ़ी हुई मानसिक मलीनता वाला व्यक्ति एक प्रकार से बिषाक्त रक्त वाले छूत के रोगी की तरह अपने लिये हो नहीं निकटवर्ती अन्य लोगों के लिये भी हानि-कारक बन जाता है । उसकी बुरी नीयत, बुरी आदत, बुरी भावना, बुरी बिचार धारा उससे इस प्रकार के कार्य बलात् कराती रहती है जो दूसरों के लिये, समस्त समाज के लिये कष्टकारक होते हैं । अपने भौतिक लाभ को बात सोचते रहने से मनुष्य के स्वभाव में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, असत्य, दंभ, आलस्य, चोरी, अनीति, निष्ठुरता आदि अनेकों बुराइयाँ पैदा हो जाती है और वे बुराइयाँ जब मन: क्षेत्र से बाहर निकल कर वाणी तथा किया में प्रकट होती हैं तो वे कलह एवं कुकर्म के रूप में ही सामने आती हैं ।
यह प्रवृत्ति एवं प्रक्रिया जब अधिक लोगों में, अधिक मात्रा में बढ़ जाती है तब प्लेग, हैजा, चेचक आदि महामारियों की तरह ''सामाजिक अनाचार'' का रोग फैल जाता है और उसकी कष्ट कारक परिणति से सभी लोग नाना प्रकार के दुःख पाते हैं । चोरी, बेईमानी, अनीति, हत्या, लूट, व्यभिचार, उद्दंडता, आलस्य, शोषण, विलासिता, संघर्ष, द्वेष आदि की अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ अनेक रूपों में फूट पड़तीं है । जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सर्वत्र अशान्ति दीख पड़ती है । घर, परिवार, मुहल्ले, ग्राम, देश, राष्ट्र, समाज अनेक छोटी-मोटी घटनाओं एवं परिस्थितियों को लेकर आपस में टकराते, घायल होते, दुःख पाते और बर्बाद होते हैं ।
यों नदी नालों में होकर असीम मात्रा में पानी बहकर व्यर्थ जाता रहता है । पर यदि उसका सदुपयोग करना होता हैं तो उस जल को काम में लाने के लिए अनेक व्यवस्थायें बनानी पड़ती है । घाट, बाँध, नहर, पम्प, नीव, जहाज आदि साधनों की सहायता से वह भयंकर जल धारा जिससे हानि को ही आशा की जाती थी, बदल कर बड़ी उपयोगी एवं लाभदायक बन जाती है । यदि यह उपाय न किये जायें तो नदी, नालों से लाभ मिलना तो दूर उलटे वे अनेक प्रकार से बाधक बनेंगे ।
यही बात मनुष्य की प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है । उसके भीतर से जो असुरता स्वार्थ परता हर घड़ी फूटती रहती है उसे नियन्त्रित करने के लिए घाट, बाँध, नहरें आदि की तरह नैतिक दैवी भावनाओं के नियंत्रण स्थापित करने पड़ते हैं । यह तंत्र जब तक मजबूत रहता है लोग दूसरे के प्रति अधिक उत्तम व्यवहार करते हैं, एक दूसरे के लिये त्याग और प्रेम का परिचय देते हैं । फलस्वरूप सबके मन प्रसन्न रहते हैं, सामाजिक सुव्यवस्था कायम रहती है और साथ हो भौतिक उन्नति के साधन भी बनते हैं । पर जब यह धर्मतंत्र शिथिल होने लगता है तब असुरता की प्रवृत्ति अन्तरात्मा के भीतर सौम्य गति से काम करने वाली दैवी वृत्ति को परास्त करके अपनी प्रभुता स्थापित कर लेती है, और इस पृथ्वी पर नरक के दृश्य उपस्थित हो जाते हैं । नर तन धारी ब्याघ्र हाट बजारों में, घर द्वारों में, खेत खलिहानों में, सभा संस्थाओं, मन्दिर मस्जिदों में, दफ्तर , राजद्वारों में घूमते दिखाई पड़ते हैं । अपनी कुटिलता को छुपाने के लिये बातें बढ़-चढ़ कर बनाते हैं पर उनके कार्यों पर बारीक निगाह डालते ही नाक को सड़ा देने बाली गन्दगी उड़ती दिखाई पड़ती है ।
जब धर्म तंत्र अधिक अस्त-व्यस्त हो जाता है तब उसकी मरम्मत करने के लिये बड़े देवदूतों, अवतारों, पैगम्बरों, महापुरुषों के रूप में अत्यन्त प्रभावशाली आत्माऐं आतीं है,. और अपने महान व्यक्तित्त्व प्रबल पुरुषार्थ एवं सत्पुरुषों के सहयोग से उस अव्यवस्था को रोक कर पुन: उस देवत्व को सामूहिकता को भावना को जन मन में प्रवाहित कर देने में सफलता प्राप्त करती हैं | पर यह तो उस समय की बात है जब दुर्घटना की घोर विपन्न स्थिति आ जाय । साधारण समय में अवतारों की नहीं ऋषियों की आवश्यकता रहती है । उन्हें ही ब्राह्मण भी कहते हैं । इस श्रेणी के व्यक्ति तप, त्याग, संयम, ज्ञान, उदारता एवं लोक हित जैसी प्रवृत्तियों को कूट कूटकर अपने अन्दर भरते है और एक मजबूत बाँध को तरह सुदृढ़ आधार पर खड़े होते हैं । फिर वे एक वज्र शिला की भाँति जन मानस की धारा को उचित दिशा में मोड़ने के लिये दृढ़ता पूर्वक अड़ जाते हैं । अपनी सीमित सामर्थ्य के अनुसार वे सीमित क्षेत्र चुनते हैं पर उसी क्षेत्र में अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व उच्च आदर्श एवं प्रचण्ड पुरुषार्थ द्वारा सहस्त्रों मनुष्यों के भीतर असुरता, स्वार्थपरता को घटाने एवं देवतत्व सामूहिकता को बढ़ाने में सफलता प्राप्त करते हैं | यह ब्राह्मण एवं ऋषि ही किसी जाति की सच्ची सम्पत्ति होते हैं । इनका मूल्य सोने की खानों और रत्न राशियों से असंख्य गुना अधिक होता है, जिस देश में, जिस समाज में सच्चे ब्राह्मण पैदा करते रहने की प्रसव शक्ति होती है उसकी विजय बैजयन्ती सदा दशों दिशाओं में फहराती रहती है ।
धर्म तन्त्र का कलेवर अत्यन्त विस्तृत है । वेद, शास्त्र, दर्शन, स्मृति, पुराण आदि के सहस्त्रों ग्रन्थ मौजूद है । जप, तप, संयम, ध्यान, साधन आदि के अनेक विधान हैं । तीर्थ यात्रा, ब्रह्मभोज, दान-पुण्य कथा कीर्तन, ब्रत, उपवास, त्यौहार, संस्कार, आदि अनेक कर्मकाण्ड हैं । इन सब का एक मात्र उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा में ऐसे विचार, विश्वास, भाव एवं संस्कार धारण करे जिनके द्वारा उसकी व्यक्तिगत स्वार्थपरता घटे और लघुता को महत्ता में आत्मा को महान आत्मा-परमात्मा में विकसित करने की प्रेरणा मिले। सबके अन्तःकरण में निवास करने वाली-प्राणिमात्र की एकता की सब के साथ आत्म भाव स्थापित करने की-विश्व मानव को उपासना ही ईश्वराराघन का तत्व ज्ञान है । इस दार्शनिक तथ्य को स्वाध्याय, सत्संग, साधन, कर्मकाण्ड दान-पुण्य आदि अनेक प्रकारों के माध्यम से हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाता है । परम्पराओं के अनुसार धर्म-तन्त्र के यह विधि-विधान तो चलते रहते हैं पर कालान्तर में उनके भीतर छिपे हुए सिद्धांतों आदर्शों और तथ्यों को लोग भूलने लगते हैं । ब्राह्मणों-ऋषियों का प्रधान कार्य इन उपचारों की सहायता से जन साधारण की अन्तरात्मा में देवत्व की मनोवृत्ति को प्रदीप्त करना होता है । साधारण जनता के उथले मानसिक स्तर को देखते हुए वे अनेक आयोजनों की व्यवस्था करते हैं, पर मूल लक्ष्य एक ही रहता है कि मनुष्य अपनी शक्तियों से केवल अपना ही लाभ न सोचे उसे अपनी क्षमता द्वारा दूसरों का हित करते रहने के महान तथ्य का भी ध्यान रहे, कम से कम दूसरों के अधिकारों का अनीति पूर्वक हनन तो न करे । मनुष्यों की यह मनोवृत्ति जितनी ही प्रबल होती जाती है उतनी ही सुख शान्ति की संभावना संसार में बढ़ती जाती है ।
हमें स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य की व्यक्तिगत और संसार की सामूहिक सुख शान्ति उनकी अन्तरात्मा में निवास करने वाली-सामूहिकता पर, एक दूसरे के लिये त्याग और सहयोग करने की भावना पर ही निर्भर है । पाशविक वृत्ति-स्वार्थपरता पर नियंत्रण स्थापित करना ही असंख्य प्रकार के कष्टों पर विजय प्राप्त करना है । चूँकि यह कार्य भौतिक नहीं आन्तरिक है इसलिये इसे राजदण्ड आदि किसी बाह्य उपाय से पूरा नहीं किया जा सकता । इसके लिये तो धर्म तत्व ही सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है । इसकी रक्षा के लिए सत्पुरुष अपना जीवन बलिदान करते हैं और इसी के लिये भगवान तक दौड़े आते हैं । हमें इस धर्म तन्त्र पर विचार करना होगा और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये मजबूत कदम उठाना होगा । तभी संसार की सुख शान्ति को स्थिर रखने वाली मनुष्य की एक मात्र दैवी प्रवृत्ति-सामाजिकता एवं सामूहिकता को सुव्यवस्थित रखा जा सकेगा ।