धर्म की सुदृढ़ धारणा

धर्मात्मा के लक्षण

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जिस प्रकार सूर्य उदय हुआ है या नहीं यह बात किसी को बतानी नहीं पड़ती उससे उत्पन्न होने वाली गर्मी और प्रकाश स्वयं इस बात का परिचय दे देते हैं कि सूर्योदय हो गया है । इसी तरह किसी धर्मात्मा मनुष्य का परिचय यह कहकर नहीं दिया जाता कि वह मनुष्य धर्मात्मा है क्योंकि उसने सौ मालायें राम नाम की जपी हैं, या वह नित्य वेद, पुराण का पाठ करता है । कोई मनुष्य धर्मात्मा है या नहीं इसका पता उसके आस पास रहने वालों के प्रति उसके व्यवहार से अपने आप लग जाता है । अगर उसका प्रभाव अपने चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों पर सुखदायक पड़ता है और उसके कारण उनके दुःखों का मोचन होता है तो उसका धर्मात्मा होना स्वयं ही सिद्ध हो जाता है । किसी भी व्यक्ति का धर्मात्मा होना जप-तप और पूजा-पाठ से नहीं नापा जा सकता । लैम्प में प्रकाश है या नहीं इसकी परीक्षा हम इस बात से नहीं कर सकते कि उसमें तेल है या नहीं । लैम्प के प्रकाश का माप केवल इस बात से हो सकता है कि उसके चारों ओर का अन्धकार दूर हुआ या नहीं । सूर्य, बिना तेल बत्ती के भी प्रकाशमान है, और बुझा हुआ दीपक तेल बत्ती के होते हुए भी प्रकाश हीन है । इसी तरह कुछ मनुष्य पूजा पाठ के बिना भी धर्मात्मा हैं वे सूर्यवत् हैं और अन्य कितने ही मनुष्य पूजा पाठ करते रहने पर भी धर्महीन है वे पाखण्डी हैं ।

परन्तु साधारण मनुष्यों को लैम्प के समान प्रकाश उत्पन्न करने के लिये पूजा पाठ रूपी तेल बत्ती की आवश्यकता रहती है । जो मनुष्य साधारण होते हुए भी पूजा पाठ तथा सत्संग से हीन है उनका दिया भी बुझा रहता है । जिस मुहल्ले में तुम रहते हो यदि उसकी नालियाँ दुर्गन्ध युक्त हैं और चारों ओर कीचड़ सड़ रहा है मच्छरों के झुण्ड उड़ते रहते है लोग मैले-कुचैले अनपढ़, रोगों के मारे और निर्धनता के सताये हुए हैं और तुम इन अवस्थाओं के सुधार के लिये कुछ नहीं कर रहे हो, तो तुमको धर्मात्मा कहलाने का कोई अधिकार नहीं है । फिर चाहे तुम कितनी ही लम्बी समाधि लगाते हो कितना भी भजन कीर्तन करते हो कितने भी घण्टे घड़ियाल बजाते हो और कितनी भी सामग्री हवन में फूँक देते हो, तो भी तुम धर्मात्मा नहीं हो | संसार में आज तक जितने भी महात्मा प्रचार करने आये वह इसी संवेदना-भाई चारे की भावना का प्रकाश तुम्हारे दिये बत्ती में जलाने आये थे |

पादरी लोग जब ईसामसीह के सम्बन्ध में कहते हैं कि उसने अन्धों को आँखें दी, बहरों को कान दिये, लूले लँगड़ों को हाथ-पैर दिये तो वह उस महात्मा के कारनामों का ठीक रूप में वर्णन नहीं करते । हम कहते हैं कि संसार के सभी महात्माओं ने अन्धों को आँखे दीं, बहरों को कान दिये, लूले लँगड़ों को हाथ-पैर दिये पर इस अभागे संसार ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य, प्रमाद, आदि के घोर विष से अपने आपको अन्धा, बहरा, लूला, लँगड़ा बना डाला । जिस समय हम इन महात्मा लोगों की प्रेरणा से अपने चारों ओर बसे मनुष्यों के प्रति संवेदना अनुभव करते हैं और उनकी बिगड़ी हुई हालत को सुधारने के लिये भरसक चेष्टा करते हैं, उस समय हमारी खोई हुई आँखें वापिस मिल जाती हैं, हमारे बहरे कान सुनने लग जाते है और हमारे कटे हुए हाथ पैर फिर से हरे हो जाते हैं । बस जहाँ अपने चारों ओर की शोचनीय अवस्था को सुखमय दशा में परिवर्तन करने की भावना मौजूद है, वहीं धर्मं का सच्चा स्वरूप है ।
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