सुनसान के सहचर

हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

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अपनी अध्यात्म साधना की दो मंजिलें २४ वर्ष मे पूरी हुई। मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् के आदर्शों में व्यतिक्रम प्रायः युवावस्था मे ही होता है। काम और लोभ की प्रबलता के वही दिन हैं,सो पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर २४ वर्षों मे ४० तक पहुँचते- पहुँचते वह उफान ढल गया। कामनाएँ, वासनाएँ, महत्त्वाकाँक्षाएँ प्रायः इसी आयु में आकाश्- पाताल के कुलावे मिलाती है। यह अवधि स्वाध्याय, मनन, चिन्तन से लेकर आत्मसंयम और जप्- ध्यान की साधना मे लग गई, इसी आयु मे बहुत करके मनोविकार प्रबल रहते हैं सो आमतौर से परमार्थ प्रयोजनों के लिए ढलती आयु के व्यक्तियों को ही प्रयुक्त किया जाता है। 
  
उठती उम्र के लोग अर्थ व्यवस्था से लेकर सैन्य संचालन तक अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाते है और उन्हें उठाने चाहिए। महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए इन क्षेत्रों में बहुत अवसर रहता है। सेवा कार्यों मे योगदन भी नवयुवक बहुत दे सकते है, पर लोकमंगल के लिए नेतृत्व करने की वह अवधि नहीं हैं। शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द्, रामदास, मीरा, निवेदिता जैसे थोड़े ही अपवाद ऐसे है जिन्होंने उठती उम्र मे ही लोकमंगल के नेतृत्व क भार कन्धों पर सफलतापूर्वक वहन किया हो। आमतौर से कच्ची उम्र गड़बड़ी ही फैलाती है। यश- पद की इच्छा का प्रलोभन, वासनात्मक आकर्षण के बने रहते जो सार्वजनिक क्षेत्र मे प्रवेश करते हैं वे उल्टी विकृति पैदा करते है। अच्छी संस्थाओं का भी सर्वनाश इसी स्तर के लोगों द्वारा होता रहता है। यो बुराई किसी आयु विशेष से बँधी नहीं रहती,पर प्रकृति की परम्परा कुछ ऐसी ही चली आती है जिसके कारण युवावस्था महत्त्वाकांक्षाओं की अवधि मानी गई है। ढलती उम्र के साथ- साथ स्वभावतः आदमी कुछ ढीला पड़ जाता है,तब उसकी भौतिक लालसाएँ भी ढीला पड़  जाता हैं। मरने की बात याद आने से लोक- परलोक,धर्म भी रुचता हैं, इसलिए तत्त्ववेत्ताओं ने वानप्रस्थ और संन्यास के लिए उपयुक्त समय आयु के उत्तरार्द्ध को ही माना है। 
  
न जाने क्या रहस्य था कि हमें हमारे मार्गदर्शन ने उठाती आयु मे तपश्चर्या के कठोर प्रयोजन में ४० साल की उम्र पूरी हुई। हो सकता है वर्चस्व और नेतृत्व के अहंकार का महत्त्वाकाँक्षाओं और और प्रलोभनों मे ,, बह जाने का खतरा समझा गया हो। हो सकता है आन्तरिक अपरिपक्वता- आत्मिक बलिष्ठता पाये बिना कुछ बड़ा काम न बन पड़ने की आशंका की गई हो। हो सकता है महान कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक संकल्प बल, धैर्य, साहस और सन्तुलन न रखा गया हो। जो हो अपनी उठती आयु उस साधना क्रम में बीत गई जिसकी चर्चा कई बार कर चुके थे। 
  
उस अवधि में सब कुछ सामान्य चला, असामान्य एक ही था हमारा गौ घृत से अहर्निश जलने वाला अखण्ड दीपक। पूजा की कोठरी में वह निरंतर जलता रहता। इस वैज्ञानिक या आध्यात्मिक रहस्य क्या था?कुछ ठिक से नहीं कर सकते। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश, अनुशासन सो अनुशासन, समर्पण सो समर्पण। एक बार जब ठोक- बजा लिया और समझ लिया की इसकी नाव पर बैठने पर डुबने का खतरा नहीं हैं तो  फिर आँख मुँदकर बैठ ही गये। फौजी सैनिक को अनुशासन प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। अपनी अन्धश्रद्धा कहिए या अनुशासन प्रियता या जीवन की दिशा निर्धारित कर दी गई,कार्य पद्धति जो बता दी गई उसे सर्वस्व मानकर पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ करते चले गये। अखण्ड दीपक की साधना- कक्ष में स्थापना भी इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आती है। मार्गदर्शक पर विश्वास किया, उसे अपने आपको सौंप दिया, तो उखाड़- पछाड़ ,क्रिया- तर्क में सन्देह क्यों? वह अपने से बन नहीं पड़ा। जो साधना हमें बताई गई उसमें अखण्ड दीपक का महत्त्व है, इतना बता देने पर उसकी स्थापना कर ली गई और पुरश्चरणों की पूरी अवधि तक उसे ठीक तरह जलाये रखा गया। पीछे तो यह प्राणप्रिय बन गया। २४ वर्ष बीत जाने पर उसे बुझाया जा सकता था,पर यह कल्पना भी ऐसी लगती है कि हमारा प्राण ही बुझ जायेगा सो उसे आजीवन चालू रखा जायेगा। हम अज्ञातवास गए थे, अब अब फिर जा रहे है तो उसे धर्मपत्नी सँजोए रखेगी। यदि एकाकी रहे होते,पत्नी न होती तो और कुछ साधना न बन सकती थी। अखण्ड दीपक सँजोए रखना  कठिन था कर्मचारी, शिष्य या दूसरे श्रद्धालु एवं आन्तरिक दृष्टि से दुर्बल लोग ऐसी दिव्य अग्नि को सँजोए नहीं रह सकते। अखण्ड दीपक स्थापित करने वालो में से अनेकों के जलते- बुझते रहते हैं,वे नाममात्र के ही अखण्ड है। अपनी ज्योति अखण्ड बनी रहे- इसका करण बाह्य सतर्कता नहीं, अन्तर्निष्ठा ही समझी जानी चाहिए, जिसे अक्षुण्य रखने में हमारी धर्मपत्नी ने असाधारण योगदान दिया है। 
  
हो सकता है अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का स्वरूप हो। धूपबत्तियों का जलना, हवन सामग्री की, जप मन्त्रोच्चारण की और दीपक, घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन करने की कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे क्लश और स्थापना मे कोई अग्नि जल का संयोग रेल इंजन जैसा भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करता हो। हो सकता है अन्तर्ज्योति जगाने में इस बाह्य ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो,जो हो अपने को इस अखण्ड ज्योति में भावनात्मक प्रकाश,अनुपम आनन्द,उल्लास से भर- पुल मिलता रहा। बाहर चौकी पर रखा हुआ दीपक कुछ दिन तो बाहर- बाहर जलता दिखा,पीछे अनुभूति बदली और लगा कि हमारे अपने अन्तःकरण में यहि प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है और जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित वैसे ही अपना समस्त अन्तरन्ग इससे ज्योतिर्मय हो रहा है। शरीर,मन और आत्मा मे स्थूल−सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे हैं, सम्भवतः वह उस अखण्ड दीपक की ही प्रतिक्रिया रही होगी। उपसना की सारी अवधि में भावना क्षेत्र वैसे ही प्रकाश बिखेरता है। अपना सब कुछ प्रकाशमय है, अन्धकार के आवरण हट गये, अन्ध तमिस्रा की मोहग्रस्तता गई,प्रकाश पूर्ण भावनाएँ- विचारणाएँ और गतिविधियाँ शरीर और मन पर आच्छादित हैं।सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति सरोवर में क्रीड़ा- कल्लोल करते, विचरण करते हैं। इन अनुभूतियों ने आत्म- बल,दिव्य और उल्लास को विकासमान् बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई कि जिसका कुछ उल्लेख नही किया जा सकता। हो सकता है यह कल्पना ही हो, पर सोचते जरूर हैं कि यदि यह अखण्ड ज्योति जलाई न गई होती तो पूजा  की कोठरी के धुँधलापन की तरह शायद अन्तरंग भी धुधँला बना होता- अब तो वह दीपक दीपावली के दीप पर्व की तरह अपनी नस- नाड़ियों में जगमगाता दीखता है। अपनी भावभरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब ३३ वर्ष पूर्व पत्रिका आरम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगता था- पसन्द आता था- '' अखण्ड ज्योति'' रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार  में मंगलमय प्रगति की, प्रकाश की किरणें बिखेरने में समर्थ और सफल हो सका।

साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते हुए- ''आत्मवत सर्वभूतेषु'' की किरणें फूट पड़ीं। मातृवत पर दारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत की साधना अपने काय कलेवर तक सीमित थी। दो आँखों में पाप आया तो तीसरी विवेक की आँखे खोलकर उसे डराकर भगा दिया। शरीर पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये और वैसी परिस्थितियाँ बनने की जिनमें आशंका रहती है उनकी जड़ काट दी, तो दुष्ट व्यवहार असम्भव हो गया। मातृवत परदारेषु की साधना बिना अड़चन के सध गई। मन ने सिर्फ आरम्भिक दिनों में ही हैरान किया। शरीर ने सदा हमारा साथ दिया। मन ने जब हार स्वीकार कर ली तो वह हताश होकर हरकतों से बाज आ गया। पीछे तो वह अपना पूरा मित्र और सहयोगी ही बन गया। स्वेच्छा से गरीबी कर लेने- आवश्यकताएँ घटाकर अन्तिम बिन्दु तक ले जाने और संग्रह की भावना छोड़ने से ''परद्रव्य'' का आकर्षण चला गया। पेट भरने के लिए, तन ढकने के लिए जब स्व- उपार्जन ही पर्याप्त था तो ''परद्रव्य'' के अपहरण की बात क्यों सोची जाय ?? जो बचा, जो मिला- सो देते बाँटते ही रहे। बाटने और देने की चस्का जिसे लग जाता है, जो उस अनुभूति का आनन्द लेने लगता है उसे संग्रह करते बन नहीं पड़ता। फिर किस प्रयोजन के लिए परद्रव्य का पाप कमाया जाय ?? गरीबी का, सादगी का अपरिग्रही ब्राह्मण जीवन अपने भीतर एक असाधारण आनन्द, सन्तोष और उल्लास भरे बैठा है। इतनी अनुभूति यदि लोगों को हो सकी होती तो शायद ही किसी का मन परद्रव्य की पाप पोटली सिर पर लादने को करता। अपरिग्रही कहने भर से नहीं वरन उसका अनुदान देने की प्रतिक्रिया अन्त:करण पर कैसी अनोखी होती है, उसे कोई कहाँ जानता है ?? पर अपने को तो यह दिव्य विभूतियों का भण्डार अनायास ही हाथ लग गया। 
  
अगले कदम बढ़ने पर तीसरी मंजिल आती है- आत्मवत सर्व भूतेषु। अपने समान सबको देखना। कहने- सुनने में यह शब्द मामूली से लगते हैं और सामान्यत: नागरिक कर्तव्य का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार    की सीमा तक पहुँच कर बात पूरी हो गई दीखती है, पर वस्तुत: इस तत्त्व ज्ञान की सीमा अति विस्तृत है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। साधना के लिए दूसरे के अन्तरंग के साथ अपना अन्तरंग जोड़ना पड़ता है और उसकी सम्वेदनाओं को अपनी सम्वेदना समझना पड़ता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता का यही मूर्त रूप है कि हम हर किसी को अपना मानें, अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ- घुला हुआ अनुभव करें। इस अनुभूति की प्रतिक्रिया यह होती है कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दु:ख में अपना दु:ख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता, स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दु:ख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिलकुल ऐसे लगते हैं, मानों यह सब अपने यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा है। 
  
संसार में अगणित व्यक्ति पुण्यात्मा और सुखी हैं, सन्मार्ग पर चलते और मानव जीवन को धन्य बनाते हुए अपना व पराया कल्याण करते हैं। यह देख- सोचकर जी को बड़ी सान्त्वना होती है और लगता है सचमुच यह दुनियाँ ईश्वर ने पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई। यहाँ पुण्य और ज्ञान मौजूद है। जिसका सहारा लेकर कोई भी आनन्द- उल्लास की, शांति और सन्तोष की दिव्य उपलब्धियाँ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकता है। पुण्यात्मा, परोपकारी और आत्मावलम्बी व्यक्तियों का अभाव यहाँ नहीं है। वे संख्या में कम भले ही हों अपना प्रकाश तो फैलाते ही हैं और उसे चाहे थोड़े से प्रयत्न से सजीव एवं सक्रिय कर सकता है। धरती वीर विहीन नहीं, यहाँ नर- नारायण का अस्तित्व विद्यमान है। परमात्मा कितना महान उदार और दिव्य हो सकता है, इसका परिचय उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है जिन्होंने श्रेय पथ का अवलम्बन किया और काँटों को तलवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ बढ़ते चले गये। मनुष्य को गौरवान्वित करने में इन महामानवों का अस्तित्व ही इस जगती को इस योग्य बनाये हुए है कि भगवान बार- बार नर तन धारण करके अवतार लेने के लिए ललचायें। आदर्शों की दुनियाँ में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले महामानव बहिरंग में अभाग्रस्त दीखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं- यह देखकर अपना चित्त भी पुलकित होने लगा। उसकी शान्ति अपने अन्त:करण को छूने लगी। महाभारत की वह कथा अक्सर याद आती रही, जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक में जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द में विभोर हो गये थे। लगता था- जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को इतना सन्तोष और प्रकाश मिलता है तो वे जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होंगे। 
  
इस कुरूप दुनियाँ में जो कुछ सौन्दर्य है वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है। असीम स्थिरता से निरन्तर प्रेत- पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु- परमाणुओं से बनी- भरी इस दुनियाँ में जो स्थिरता और शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं के द्वारा ही उत्पन्न की गई है। सर्वत्र भरे बिखरे जड़- पंचतत्त्वों में सरसता और शोभा दीखती है, उसके पीछे इन सत्पथ गामियों का प्रयत्न और पुरूषार्थ ही झाँक रहा है।

 प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बन्धन काटकर जिसने सृष्टि को सुरक्षित और शोभायमान बनाने की ठानी, उनकी श्रद्धा ही धरती को धन्य बनाती रही। जिनके पुण्य प्रयास लोक- मंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही, इन नर नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्य फल पाया जाय। इच्छा होती रही, इनकी चरणरज मस्तक पर रखकर अपने को धन्य बनाया जाय। जिनने आत्मा को परमात्मा बना लिया- उन पुरूषोत्तमों में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा, अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते विचरते दीख पड़ते हैं। अपने चारों ओर इतना पुण्य परमार्थ विद्यमान दिखाई  पड़ते रहना बहुत कुछ सन्तोष देता रहा और यहाँ अनन्त काल तक रहने के लिए मन करता रहा। इन पुण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग, मुक्ति आदि का सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है। इस सच्चाई को अनुभवों ने हस्तामलकवत् स्वयं सिद्ध करके सामने रख दिया और कठिनाइयों से भरे जीवन क्रम के बीच इसी विश्व सौन्दर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका। 
  
आत्मवत सर्व भूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकाकी न रही। उसका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा रहा। संसार में दु:ख कम नहीं। कष्ट और क्लेश- शोक और सन्तोष- अभाव और दारिद्र्य से अगणित व्यक्ति- नारकीय यातनाएँ भोग रहे हैं। समस्याएँ, चिन्ताएँ और उलझनें लोगों को खाये जा रही हैं। अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिलाना पड़ रहा है। दुर्बुद्धि ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है। अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चिल्लाते, चीत्कार करते लोगों की यातनाएँ ऐसी हैं जिससे देखने वालों को रोमांच हो जाता है, फिर जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका तो कहना ही क्या ?? सुख सुविधाओं की साधन सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दु:ख और दैन्य के अतिरिक्त कहीं कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे, प्रगति और समृद्धि की सम्भावना प्रस्तुत कर सकते थे, पर किया क्या जाये। जब मनोभूमि विकृत हो गयी, सब उल्टा सोचा और अनुचित किया जाने लगा, तो विष वृक्ष बोकर अमृत फल पाने की आशा कैसे सफल  होती ?? 
  
सर्वत्र फैला दु:ख दारिद्र्य, शोक, सन्ताप किस प्रकार समस्त मानव प्राणियों को कितना कष्टकर हो रहा है। पतन और पाप के गर्त में लोग किस शान और तेजी से गिरते- मरते चले जा रहे हैं। यह दयनीय दृश्य देखे, सुने तो अन्तरात्मा रोने लगी। मनुष्य अपने ईश्वरीय अंश- अस्तित्व को क्यों भूल गया ?? उसने अपना स्वरूप और स्तर इतना क्यों गिरा दिया ?? यह प्रश्न निरन्तर मन में उठे पर; उत्तर कुछ न दिया। बुद्धिमानी, चतुरता, समय कुछ भी तो यहाँ कम नहीं है। लोग एक से एक बढ़कर कला- कौशल उपस्थित करते हैं और एक से एक बढ़कर चातुर्य चमत्कार का परिचय देते है; पर इतना क्यों नहीं समझ पाते कि दुष्टता का पल्ला पकड़कर वे जो पाने की आशा करते हैं वह मृग तृष्णा ही बनकर रह जायेगा ?? केवल पतन और सन्ताप ही हाथ लगेगा। मानवीय बुद्धिमत्ता में यदि एक कड़ी और जुड़ गई होती, समझदारी ने इतना निर्देश किया होता कि ईमान को साबित और सौजन्य को विकसित किए रहना मानवीय गौरव के अनुरूप और प्रगति के लिए आवश्यक है, तो इस संसार की स्थिति कुछ दूसरी ही होती। सभी सुख- शान्ति का जीवन जी रहे होते। किसी को किसी पर अविश्वास सन्देह न करना पड़ता और किसी द्वारा ठगा, सताया न जाता। तब यहाँ दु:ख दारिद्र्य का अता- पता भी न मिलता। सर्वत्र सुख- शान्ति की सुरभि फैली अनुभव होती। 
  
समझदार मनुष्य इतना नासमझ क्यों ?? जो पाप का फल दु:ख और नहीं होता। इतिहास और अनुभव का प्रत्येक अंकन अपने गर्भ में यह छिपाये बैठा है कि अनीति अपनाकर, स्वार्थ संकीर्णता में आबद्ध रहकर, हर किसी को पतन और सन्ताप ही हाथ लगा है। उदात्त और निर्मल हुए बिना किसी को भी आदर्शवादी रीति- नीति अपनाये बिना नहीं मिली है। कुटिलता सात पर्दे भेद कर अपनी पोल आप खोलती है। यह हम पग- पग पर देखते हैं, फिर भी न जाने क्यों यही सोचते रहते हैं कि हम संसार की आंखों में धूल झोंक कर अपनी धूर्तता को छिपाये रहेंगे। कोई हमारी दुरभि सन्धियों की गन्ध न पा सकेगौर लुक- छिपकर आँख मिचौनी का खेल सदा खेला जाता रहेगा। यह सोचने वाले लोग क्यों भूल जाते हैं कि हजारों आँख से देखने, हजारों कानों से सुनने और हजारों पकड़ से पकड़ने वाला विश्वात्मा किसी की धूर्तता पर पर्दा नहीं पड़ा रहने देता, वस्तु स्थिति प्रकट होकर रहती है और दुष्टता छत पर चढ़कर अपनी कलई आप खोलती और अपनी दुरभि सन्धि आप बखानती है। सनातन सत्य और पुरातन तथ्य लोग समझ सके होते और अशुभ का अवलम्बन करने पर जो दुर्गति होती है उसे अनुभव कर सके होते, तो क्यों सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर कंटकाकीर्ण कुमार्ग पर भटकते ?? क्यों रोते- बिलखते इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को सड़ी हुई लाश की तरह ढोते, घसीटते ?? 
  
दुर्बुद्धि का कैसा जाल- जंजाल बिखरा पड़ा है और उसमें कितने निरीह प्राणी करुण चीत्कार करते हुए फँसे हुए जकड़े पड़े हैं, यह दयनीय दुर्दशा अपने लिए मर्मान्तक पीड़ा का कारण बन गयी। आत्मवत सर्व भूतेषु की साधना ने विश्व मानव की पीड़ा बना दिया। लगने लगा- मानों अपने ही पाँवों को कोई ऐंठ- मरोड़ और गला रहा हो। ''सब में अपनी आत्मा पिरोई हुई है और सब अपनी आत्मा में पिरोये हुए हैं। ''गीता का यह वाक्य जहाँ तक पढ़ने- सुनने से सम्बन्धित रहे वहाँ तक कुछ हर्ज नहीं, पर जब वह अनुभूति की भूमिका में उतरे और अन्त:करण में प्रवेश प्राप्त करे तो स्थिति दूसरी हो जाती है। अपने अंग अवयवों का कष्ट अपने को जैसा व्यथित बेचैन करता है, ठीक वैसे ही आत्म- विस्तार की दिशा में बढ़ चलने पर लगता है कि विश्वव्यापी दु:ख अपना दु:ख है और व्यथित पीड़ित की वेदना अपने को नोचती है। 
  
पीड़ित मानवता की- विश्वात्मा की, व्यक्ति और समाज की व्यथा वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, डाढ़ और पेट के दर्द में बेचैन मनुष्य व्याकुल फिर रहा है कि किस प्रकार, किस उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाये ?? क्या किया जाये ?? कहाँ जाया जाये ?? की हल -चल मन में उठती है और जो सम्भव है उसे करने के लिए क्षण भर का विलम्ब न करने की आतुरता व्यग्र होती है। अपना मन भी ठीक ऐसा ही बना रहा। दुर्घटना में हाथ -पैर टूटे बच्चे को अस्पताल ले दौड़ने की आतुरता में माँ अपने बुखार -जुकाम को भूल जाती है और बच्चे को संकट से बचाने के लिए बेचैन हो उठती है। लगभग अपनी मनोदशा ऐसी ही तब से लेकर अद्यावधि- चली आती है। अपने सुख- साधन जुटाने की फुरसत कहाँ है ?? विलासिता की सामग्री जहर- सी लगती है। विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आयी तो आत्म- ग्लानि ने उस क्षुद्रता को धिक्कारा, जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के लिए एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बिखेरने के लिए ललचाती हैं। भूख से तड़पते प्राण त्यागने की स्थिति में हुए बालकों के मुख में जाने वाला ग्रास छीनकर माता कैसे अपना भरा पेट और भरे ?? दर्द से कराहते बालक से मुँह मोड़कर पिता ताश शतरंज का साज कैसे सजाए ?? ऐसा कोई निष्ठुर ही कर सकता है। आत्मवत् सर्व भूतेषु की सम्वेदना जैसे ही प्रखर हुई, निष्ठुरता उसी क्षण गल जलकर नष्ट हो गयी। जी में केवल करूणा ही शेष रही, वही अब तक जीवन के इस अन्तिम अध्याय तक यथावत बनी हुई है। उसमें कमी रत्ती भर नहीं, वरन दिन- दिन बढ़ोत्तरी ही होती गयी।

सुना है कि आत्मज्ञानी सुखी रहते हैं और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्म- ज्ञान अभी तक दुर्लभ ही बना हुआ है। ऐसा आत्मज्ञान कभी मिल भी सकेगा या नहीं इसमें पूरा- पूरा सन्देह है। जब तक व्यथा वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा नहीं। जब भी प्रार्थना का समय आया, तब भगवान से निवेदन यही किया- हमें चैन नहीं, वह करूणा चाहिए, जो पीड़ितों की व्यथा वेदना अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके। हमें समृद्धि नहीं, वह शक्ति चाहिए, जो आँखों से आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके। बस इतना ही अनुदान वरदान भगवान से माँगा और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र देकर उसकी लज्जा बचाने वाले भगवान हमें करूणा की अनन्त सम्वेदनाओं से ओत- प्रोत करते चले जाते हैं। अपने को क्या सुख साधन चाहिए इसका ध्यान ही कब आया ?? केवल पीड़ित मानवता की व्यथा -वेदना ही रोम- रोम में समाई रही यही सोचते रहे कि अपने विश्वव्यापी कलेवर परिवार को सुखी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है। जो पाया उसका एक- एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खर्च किया, जिससे शोक- सन्ताप की व्यापकता हटाने और सन्तोष की साँस ले सकने की स्थिति उत्पन्न करने में थोड़ा योगदान मिल सके। 
  
हमारी कितनी रातें सिसकते बीती हैं, कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख- बिलख कर, फूट- फूटकर रोये हैं। इसे कोई कहाँ जानता हैं ?? लोग हमें सन्त, सिद्ध, ज्ञाने मानते हैं कोई लेखक, विद्वान्, वक्ता, नेता    समझते हैं, पर किसने हमारा अन्त:करण खोलकर पढ़ा समझा है। कोई उसे देख सका होता, तो मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करूण, कराह से हा- हाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हडिडयों के ढाँचे में बैठी बिलखती ही दिखाई पड़ती। कहाँ तथाकथित आत्मज्ञान की निश्चिन्तता, एकाग्रता और समाधि सुख दिला सके। हमसे बहुत दूर है शायद वह कभी मिले भी नहीं, क्योंकि इस दर्द में जो भगवान की झाँकी होती है। पीड़ितों के आँसू पोंछने में ही जब चैन अनुभव होता हो, तो उस निष्क्रिय मोक्ष और समाधि को प्राप्त करने के लिए कभी मन चलेगा ऐसा लगता नही। जिसकी इच्छा ही नहीं, वह मिला भी किसे है ?? 
  
पुण्य परोपकार की दृष्टि से कभी कुछ करते बन पड़ा हो सो याद नहीं आता। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई साधन बन पड़ा हो, ऐसा स्मरण नहीं। आत्मवत सर्व भूतेषु के आत्म- विस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टि दर्शन न रह गया। दूसरों की व्यथा वेदनाएँ भी देखी गयीं और वे इतनी अधिक चुभन, कसक पैदा करती रहीं कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा ही को प्रसन्न करके स्वर्ग, मुक्ति का आनन्द लेना आया किसे ?? विश्व -मानव की तड़पन बन रही थी, सो पहले उसी से जूझना था। अन्य बातें तो ऐसी थीं जिनके लिए अवकाश और अवसर की प्रतीक्षा की जा सकती थी। हमारे जीवन के क्रिया- कलापों के पीछे उसके प्रयोजन को कभी कोई ढूँढ़ना चाहे, तो उसे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि सन्त और सज्जनों की सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का जितने क्षण स्मरण दर्शन होता रहा उतने समय चैन की साँस ली और जब जन- मानव की व्यथा वेदनाओं को सामने खड़ा पाया, तो अपनी निज की पीड़ा से अधिक कष्ट अनुभव हुआ। लोक मंगल, परमार्थ, सुधार, सेवा आदि के प्रयास कुछ  यदि हमसे बन पड़े, तो उस सन्दर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हमारी विवशता भर थी। दर्द और जलन ने क्षण भर चैन से न बैठने दिया, तो हम करते भी क्या ?? जो दर्द से ऐंठा जा रहा है वह हाथ- पैर न पटके तो क्या करे ?? हमारे अब तक के समस्त प्रयत्नों को लोग कुछ भी नाम दें, किसी रंग में रंगें, असलियत धारण यह है कि विश्व की आन्तरिक अनुभूति ने करूणा और सम्वेदना का रूप कर लिया और हम विश्ववेदना को आत्म वेदना मानकर उससे छुटकारा पाने के लिए बेचैन घायल की तरह प्रयत्न करते रहे। भावनाएँ इतनी उग्र रहीं कि अपना आपा तो भूल ही गया। त्याग, संयम, सादगी अपरिग्रह आदि की दृष्टि से कोई हमारे कार्यों पर नजर डाले तो उसे उतना भर समझ लेना चाहिए कि जिस ढाँचे में अपना अन्त:करण ढल गया उसमें यह नितान्त स्वाभाविक था। अपनी समृद्धि, प्रगति, सुविंधा, वाहवाही हमें नापसन्द हो ऐसा कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, उन्हें हमने जानबूझ कर त्यागा, सो बात नहीं है। वस्तुत: विश्व- मानव की व्यथा अपनी वेदना बनकर इस बुरी तरह अन्त:करण पर छाई रही कि अपने बारे में कुछ सोचने करने की फुरसत ही न मिली। वह प्रसंग सर्वथा विस्मृत ही बना रहा। इस विस्मृति को कोई तपस्या, संयम कहे, तो उसकी मर्जी पर जब स्वपनों को अपनी जीवन पुस्तिका के सभी उपयोगी पृष्ठ खोलकर पढ़ा रहे हैं, तो वस्तु स्थिति बता ही देनी उचित है। 
  
हमारी उपासना और साधना साथ- साथ मिलकर चली हैं। परमात्मा को हमने इसलिए पुकारा कि वह प्रकाश बनकर आत्मा में प्रवेश करे और तुच्छता को महानता में बदल दे। उसकी शरण में इसलिए पहुँचे कि उस महत्ता में अपनी क्षुद्रता विलीन हो जाये, वरदान केवल यह माँगा कि हमें अपनी सहृदयता और विशालता मिले, जिसके अनुसार अपने में सबको और सबमें अपने को अनुभव किया जा सकना सम्भव हो सके। १४ महा पुरश्चरणों का तप, ध्यान, संयम सभी इसी परिधि के इर्द- गिर्द घूमते रहे हैं। 
  
अपनी साधनात्मक अनुभूतियों और उस मंजिल पर चलते हुए, समक्ष आये उतार- चढ़ावों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि यदि किसी को आत्मिक प्रगति की दिशा में चलने का प्रयत्न करना हो, तो वर्तमान परिस्थितियों में रहने वालों के लिए यह सब कैसे सम्भव हो सका है ?? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ढूँढ़ना हो, तो हमारी जीवन यात्रा बहुत मार्गदर्शन कर सकती है। वस्तुत: हमने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए आन्तरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है और उसमें बिना भटके कैसे सफलता पाई जा सकती है, हम ऐसे तथ्य की खोज करते हैं और    उसी के प्रयोग में अपनी चिन्तन प्रक्रिया और शारीरिक गतिविधियाँ केन्द्रित करते रहे हैं। हमारे मार्गदर्शक का इस दिशा में पूरा- पूरा सहयोग रहा, सो अनावश्यक जाल- जंजालों में उलझे बिना सीधे रास्ते पर सही दिशा में चलते रहने की सरसता उपलब्ध होती रही है। उसी की चर्चा इन पंक्तियों में इस उद्देश्य से कर रहे हैं कि जिन्हें मार्ग पर चलने और सुनिश्चित सफलता प्राप्त करने का प्रत्यक्ष उदाहरण ढूँढने की आवश्यकता है उन्हें अनुकरण के लिए प्रमाणित आधार मिल सके। 

आत्मिक प्रगति के पथ पर एक सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध योजना के अनुसार चलते हुए 'हमने एक सीमा तक अपनी मंजिल पूरी कर ली हें और उतना आधार प्राप्त कर लिया है जिसके बल पर यह अनुभव किया जा सके कि परिश्रम निरर्थक नहीं गया, प्रयोग असफल नहीं रहा । क्या विभूतियाँ या उपलब्धियाँ प्राप्त हुई इसकी चर्चा हमारे मुँह शोभा नहीं देती । इसके जानने- सुनने और खोजने का अवसर हमारे चले जाने के बाद ही आना चाहिए ।। उसके इतने अधिक धक प्रमाण बिखरे पड़े मिलेंगे कि किसी अविश्वासी को भी यह विश्वास करने के लिए विवश किया जा सकेगा, कि न तो आत्म विद्या का विज्ञान गलत है और न उस मार्ग पर सही ढंग से चलने वाले के लिए आशाजनक सफलता प्राप्त करने में कोई कठिनाई है । इस मार्ग पर चलने वाले आत्म शान्ति आन्तरिक और दिव्य अनुभूति की परिधि में घूमने वाली अगणित उपलब्धियों से कैसे लाभान्वित हो सकते है? इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ढूँढ़ने के लिए भावी शोधकर्ताओं को हमारी जीवन- प्रक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी । समयानुसार ऐसे शोधकर्ता उन विशेषताओं और विभूतियों के अगणित प्रमाण- प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं ढूँढ़ निकालेंगे जो आत्मवादी- प्रभु जीवन मे हमारी तरह हर किसी को उपलब्ध हो सकना सम्भव है ।

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