सुनसान के सहचर

पुस्तक परिचय

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इसे एक सौभाग्य, संयोग ही कहना चाहिये कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। जहां उस महान् मार्ग दर्शन ने जो भी आदेश दिये, वे ऐसे थे जिसमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल का महान् प्रयोजन भी जुड़ा रहा।
15 वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई। इधर से भी यह प्रयत्न हुए कि महान गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाय। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म-समर्पण ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएं उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गई। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य और कार्यान्वित किया गया। अपना यही क्रम अब तक चला रहा है। अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक कठपुतली की उछल-कूल कहा जाय तो उचित विश्लेषण ही होगा।

पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कार मिलन हुआ। उसे ही विलय भी कहा जा सकता है। आरम्भ में 24 वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप 24 गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिये प्रचार और संगठन, लेखन, भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। 4 हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ तन्त्र बनकर खड़ा हो गया, जिससे नवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊंची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिये फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिये, जहां अभी भी आत्म-चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था।

सन् 58 में एक वर्ष के लिये हिमालय तपश्चर्या के लिये प्रयाण हुआ। गंगोत्री में भागीरथ के तपस्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तपस्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई। भागीरथ की तपस्या गंगावरण को और परशुराम की तपस्या दिग्विजयी महापरशु प्रस्तुत कर सकी थी। नवनिर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धाबिन्दु काम आ सके तो वह उसे भी साधना की सफलता ही कहा जा सकेगा।

उस एक वर्षीय तप साधना के लिये गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठते रहे। जहां-जहां रहना हुआ, वहां-वहां भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। लिखने का व्यसन रहने से उन प्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं, जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठायें। उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेज दिया गया। छप गईं। अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं भी छपाई गई।

उन दिनों ‘साधक की डायरी के पृष्ठ’, ‘सुनसान के सहचर’ आदि शीर्षक। ये जो लेख ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका में छपे वे लोगों को बहुत रुचे। बात पुरानी हो गई पर अभी लगा, उन्हें पढ़ने के लिये उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत की है। घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया पर उन दिनों की जो विचार अनुभूतियां उठती रहीं, वे शाश्वत हैं, उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिये वे भावनाशील अन्तःकरणों को वे अनुभूतियां अभी भी हमारी ही तरह ही—स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है—‘हिमालय के हृदय का विवेचन विश्लेषण’। बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग 400 मील परिधि का वह स्थान है, जहां प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप-केन्द्र रहा है। इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग कथाओं से जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास, भूगोल से संगति मिलाई जाय तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं और उस बात से बहुत वजन मालूम पड़ता है जिसमें इन्द्र के शासन एवं आर्य सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बनाया गया है। अब वहां बर्फ बहुत पड़ने लगी है। ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह ‘हिमालय का हृदय’ असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहां आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवास-स्थान बना सके। इसलिये आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण गंगोत्री गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गई है।

‘हिमालय के हृदय’ क्षेत्र में जहां प्राचीन स्वर्ग की भी विशेषता विद्यमान है, वहां तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है। हमारे मार्ग दर्शक वहां रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्ति करते हैं। कुछ समय के लिये हमें भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये। सो उनका जितना दर्शन हो सका उसका वर्णन अखण्ड-ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है। उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे ‘आत्म-शक्ति का ध्रुव’ कहा जा सकता है। धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियां हैं। आध्यात्म शक्ति का एक ध्रुव हमारी अनुभव में आया है। जिसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियां भरी पड़ी हैं। सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्धपुरुषों की दृष्टि से भी।

इस दिव्य केन्द्र की ओर लोगों का ध्यान बना रहे इस दृष्टि से उसका परिचय तो रहना ही चाहिये, इस दृष्टि से उस जानकारी को मूल्यवान् ही कहा जा सकता है जो ‘हिमालय के हृदय’ लेख में प्रस्तुत की गई है।
—श्रीराम शर्मा आचार्य,

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