सुनसान के सहचर

विश्व समाज की सदस्यता

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
नित्य की तरह आज भी तीसरे पहर उस सुरम्य वन श्री के अवलोकन के लिए निकला। भ्रमण में जहाँ स्वास्थ्य सन्तुलन कीं, व्यायाम की दृष्टि रहती है, वहाँ सूनेपन के सहचर से इस निर्जन वन मे निवास करने वाले परिजनों से कुशल क्षेम पूछने और उनसे मिलकर आनन्द लाभ करने की भावना भी रहती है। अपने आपको मात्र मनुष्य जाति का सदस्य मानने की संकुचित दृष्टि जब विस्तीर्ण होने लगी, तो वृक्ष वनस्पति, पशु- पक्षी, कीट- पतंगों के प्रति ममता और आत्मीयता उमड़ी। ये परिजन मनुष्य की बोली नहीं बोलते और न उनकी सामाजिक प्रक्रिया ही मनुष्य जैसी है, फिर भी अपनी विचित्रताओं और विशेषताओं के कारण इन मनुष्येतर प्राणियों की दुनियाँ भी अपने स्थान पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार धर्म, जाति, रंग, प्रान्त, देश, भाषा, भेद आदि के आधार पर मनुष्यों- मनुष्यों के बीच संकुचित साम्प्रदायिकता फैली हुई है, वैसी ही एक संकीर्णता यह भी है कि आत्मा अपने आपको केवल मनुष्य जाति का सदस्य माने। अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न जाति का समझे या उन्हें अपने उपयोग को, शोषण का वस्तु समझे। प्रकृति के अगणित पुत्रों में से मनुष्य भी एक है। माना कि उसमें कुछ अपने ढंग की विशेषताएँ है; पर अन्य प्रकार की अगणित विशेषताएँ सृष्टि के अन्य जीव- जन्तुओं में भी मौजूद हैं और वे भी इतनी बड़ी हैं कि मनुष्य उन्हें देखते हुए अपने आपको पिछड़ा हुआ ही मानेगा। 

आज भ्रमण करते समय यही विचार मन में उठ रहे थे। आरम्भ में इस निर्जन के जो सदस्य जीव- जन्तु और वृक्ष- वनस्पति तुच्छ लगते थे, अब अनुपयोगी प्रतीत होते थे, अब ध्यानपूर्वक देखने से वे भी महान् लगने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि भले ही मनुष्य को प्रकृति ने बुद्धि अधिक दे दी हो; पर अन्य अनेकों उपहार उसने अपने इन निर्बुद्धि माने जाने वाले पुत्रों को भी दिये हैं। उन उपहारों को पाकर वे चाहें तो मनुष्य की अपेक्षा अपने आप पर कहीं अधिक गर्व कर सकते हैं। 

इस प्रदेश में कितने प्रकार की चिड़ियाएँ हैं जो प्रसन्नतापूर्वक दूर- दूर देशों तक उड़कर जाती हैं। पर्वतों को लाँघती हैं। ऋतुओं के अनुसार अपने प्रदेश पंखों से उड़कर बदल लेती हैं। क्या मनुष्य को यह उड़ने की विभूति प्राप्त हो सकी है। हवाई जहाज बनाकर उसने थोड़ा- सा प्रयत्न किया तो है, पर चिड़ियों के पंखों से उसकी तुलना क्या हो सकती है? अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए सजावट की रंग- बिरंगी वस्तुएँ उसने  आविष्कृत की है, पर चित्र- विचित्र पंखों वाली, स्वर्ग की अप्सराओं जैसी चिड़िया और तितलियों जैसी रूप- सज्जा कहाँ प्राप्त हुई है। 

सर्दी से बचने के लिए लोग कितने ही तरह के वस्त्रों का प्रयोग करते हैं; पर रोज ही आँखों के सामने गुजरने वाले बरड (जंगली भेड़) और रीछ के शरीर पर जमे हुए बालों जैसे गरम ऊनी कोट शायद अब तक किसी मनुष्य को उपलब्ध नहीं हुए। हर छिद्र से हर घड़ी दुर्गन्ध निकालने वाले मनुष्य को हर घड़ी अपने पुष्पों से सुगन्ध बिखेरने वाले लता, गुल्मों से क्या तुलना हो सकती है। साठ- सत्तर वर्ष में जीर्ण- शीर्ण होकर मर खप जाने वाले मनुष्य की इन अजगरों से क्या तुलना की जाए जो चार सौ वर्ष की आयु को हँसी- खुशी पूरा कर लेते हैं। वट और पीपल के वृक्ष भी हजार वर्ष तक जीवित हैं। 

कस्तूरी मृग जो सामने वाले पठार पर छलाँग मारते हैं किसी भी मनुष्य को दौड़कर परास्त कर सकते हैं। भूरे बाल वालों से मल्ल युद्ध में क्या कोई मनुष्य जीत सकता है। चींटी की तरह अधिक परिश्रम करने की सामर्थ्य भला किस आदमी में होगी। शहद की मक्खी की तरह फूलों में से कौन मधु संचय कर सकता है। बिल्ली की तरह रात के घोर अन्धकार में देख सकने वाली दृष्टि किसे प्राप्त है। कुत्तों की तरह घ्राण- शक्ति के आधार पर बहुत कुछ पहचान लेने की क्षमता भला किसमें होगी। मछली की तरह निरन्तर जल में कौन रह सकता है। हंस के समान नीर- क्षीर विवेक किसे होगा ! हाथी के समान बल किस व्यक्ति में है !  इन विशेषताओं से युक्त प्राणियों को देखते हुए मनुष्य का यह गर्व करना मिथ्या मालूम पड़ता है, कि वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। 
आज के भ्रमण में यही विचार मन में घूमते रहे कि मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। सर्वश्रेष्ठ भी नहीं है, सबका नेता भी नहीं है। उसे बुद्धि बल मिला सही। उनके आधार पर उसने अपने सुख- साधन बढ़ाये हैं यह भी सही  है, पर साथ ही यह भी सही है कि इसे पाकर उसने अनर्थ ही किया। सृष्टि के अन्य प्राणी जो उसके भाई थे, यह धरती उनकी भी माता ही थी, उस पर जीवित रहने फलने और स्वाधीन रहने का उन्हें भी अधिकार था पर मनुष्य ने सबको पराधीन बना डाला सबकी सुविधा और स्वतन्त्रता को बुरी तरह पद- दलित कर डाला। पशुओं को जंजीर से कसकर उससे अत्यधिक श्रम लेने के लिए पैशाचिक उत्पीड़न किया, उनके बच्चों के हक का दूध छीनकर स्वयं पीने लगा, निर्दयतापूर्वक वध करके मांस खाने लगा, पक्षियों और जलचरों के जीवन को भी उसने अपनी स्वाद प्रियता और विलासिता के लिए बुरी तरह नष्ट किया। मांस के लिए, दवाओं के लिए, फैशन के लिए, विनोद के लिए, उनके साथ कैसा नृशंस व्यवहार किया उस पर विचार करने से दम्भी मनुष्य की सारी नैतिकता मिथ्या ही प्रतीत होती है। 

जिस प्रदेश में अपनी निर्जन कुटिया है उसमें पेड़- पौधों के अतिरिक्त जलचर, थलचर, नभचर जीव जन्तुओं की भी बहुतायत है। जब भ्रमण को निकलते हैं तो अनायास ही उनसे भेंट करने का अवसर मिलता है। आरम्भ के दिनों मे वे डरते थे; पर अब तो पहचान गये हैं। मुझे अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मान लिया है। अब न वे मुझसे डरते हैं और न अपने को ही उनसे डर लगता है। दिन- दिन समीपता और घनिष्ठता बढ़ती जाती है। लगता है इस पृथ्वी पर ही एक महान् विश्व मौजूद है। उस विश्व में प्रेम, करुणा, मैत्री सहयोग सौजन्य, सौन्दर्य, शान्ति, सन्तोष आदि स्वर्ग के सभी चिह्न मौजूद है। उससे मनुष्य दूर है। उसने अपनी एक छोटी- सी दुनियाँ अलग बना रखी है- मनुष्यों की दुनियाँ। इस अहंकारी और दुष्ट प्राणी ने भौतिक विज्ञान की लम्बी- चौड़ी बातें बहुत की हैं। महानता और श्रेष्ठता के शिक्षा और नैतिकता के लम्बे- चौड़े  विवेचन किए हैं; पर सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ उसने जो दुर्व्यवहार किया है, उससे उस सारे पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है, जो वह अपनी श्रेष्ठता अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता को बखानते हुए प्रतिपादित किया करता है। 

आज विचार बहुत गहरे उतर गये, रास्ता भूल गया कितने ही पशु- पक्षियों को आँखें भर- भरकर देर तक देखता रहा। वे भी खड़े होकर मेरी विचारधारा का समर्थन करते रहे। मनुष्य ही इस कारण सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी नहीं माना जा सकता कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा बुद्धिबल अधिक है। यदि बल ही बड़प्पन का चिह्न हो तो दस्यु, सामन्त, असुर, पिशाच, बेताल, ब्रह्मराक्षस, आदि की श्रेष्ठता को मस्तक नवाना पड़ेगा। श्रेष्ठता के चिह्न हैं सत्य, प्रेम, न्याय, शील, संयम, उदारता, त्याग, सौजन्य, विवेक, सौहार्द। यदि इनका अभाव रहा तो बुद्धि का शस्त्र धारण किये हुए नर- पशु विकराल नख और दाँतों वाले हिंसक पशुओं से कहीं अधिक भयंकर हैं। हिंसक पशु भूखे होने पर आक्रमण करते हैं पर यह बुद्धिमान् नर- पशु तो तृष्णा और अहंकार के लिए भी भारी दुष्टता और क्रूरता का निरन्तर अभियान करता रहता है। 

देर बहुत हो गयी थी। कुटी पर लौटते- लौटते अन्धेरा हो गया। उस अन्धेरे में बहुत रात गए तक सोचता रहा कि मनुष्य की ही भलाई की उसी की सेवा की, उसी का सान्निध्य किया उसी की उन्नति की बात '' जो हम सोचते रहते हैं क्या इसमें जातिगत पक्षपात भरा नहीं है? क्या यह संकुचित दृष्टिकोण नहीं हैं? सद्गुणों के आधार पर ही मनुष्य को श्रेष्ठ माना जा सकता है, अन्यथा वह वन्य जीवधारियों की तुलना में अधिक दुष्ट ही है। हमारा दृष्टिकोण मनुष्य की समस्याओं तक ही क्यों न सीमित रहे? हमारा विवेक मनुष्येतर प्राणियों के साथ आत्मीयता बढ़ाने, उनके सुख- दुःख में सम्मिलित होने के लिए अग्रसर क्यों न हो ?? हम अपने को मानव समाज की अपेक्षा विश्व समाज का एक सदस्य क्यों न मानें? '' 

इन्हीं विचारों में रात बहुत बीत गई। विचारों के तीव्र दबाव में नींद बार- बार खुलती रही। सपने बहुत दीखे। हर स्वप्न में विभिन्न जीव- जन्तुओं के साथ क्रीड़ा विनोद स्नेह- संलाप करने के दृश्य दिखाई देते रहे। उन सबके निष्कर्ष यही थे कि अपनी चेतना विभिन्न प्राणियों के साथ स्वजन सम्बन्धियों जैसी घनिष्ठता अनुभव कर रही है। आज के सपने बड़े ही आनन्ददायक थे। लगता रहा जैसे एक छोटे क्षेत्र से आगे बढ़कर  आत्मा विशाल विस्तृत क्षेत्र को अपना क्रीड़ांगन बनाने के लिए अग्रसर हो रहा है। कुछ दिन पहले इस प्रदेश का सुनसान अखरता था, पर अब तो सुनसान जैसी कोई जगह ही दिखाई नहीं पड़ती। सभी जगह विनोद करने वाले सहचर मौजूद हैं। वे मनुष्य की तरह भले ही न बोलते हों, उनकी परम्पराएँ मानव समाज जैसी भले ही न हों, पर इन सहचरों की भावनाएँ मनुष्य की अपेक्षा हर दृष्टि से उत्कृष्ट ही हैं। ऐसे क्षेत्र में रहते हुए तो ऊबने का अब कोई कारण प्रतीत नहीं होता।
लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा 

आहार हल्का हो जाने से नींद भी कम हो जाती है। फल अब तो दुर्लभ हैं; पर शाकों से भी फलों वाली सात्विकता प्राप्त हो सकती है। यदि शाकाहार पर रहा जाए तो साधक के लिए चार- पाँच घंटे की नीदं पर्याप्त हो जाती है। 

जाड़े की रात लम्बी होती है। नींद जल्दी ही पूरी हो गयी। आज चित्त कुछ चंचल था। यह साधना कब तक पूरी होगी? लक्ष्य कब तक प्राप्त होगा ?? सफलता कब तक मिलेगी ?? ऐसे- ऐसे विचार उठ रहे थे। विचारों  की उलझन भी कैसी विचित्र है, जब उनका जंजाल उमड़ पड़ता है, तो शान्ति की नाव डगमगाने लगती है। इस विचार प्रवाह में न भजन बन पड़ रहा था न ध्यान लग रहा था। चित्त ऊबने लगा। इस ऊब को मिटाने के लिए कुटिया से निकला और बाहर टहलने लगा। आगे बढ़ने की इच्छा हुई। पैर चल पड़े। शीत तो अधिक थी, पर गंगा माता की गोद में बैठने का आकर्षण भी कौन कम मधुर है, जिसके सामने शीत की परवाह हो। तट से लगी हुई एक शिला जल राशि के काफी भीतर तक धँसी पड़ी थी। अपने बैठने का वही प्रिय स्थान था। कम्बल ओढ़कर उसी पर जा बैठा। आकाश की ओर देखा तो तारों ने बताया कि अभी दो बजे हैं। 

देर तक बैठा तो झपकी आने लगी। गंगा का कल- कल, हर- हर शब्द भी मन को एकाग्र करने के लिए ऐसा ही है जैसा शरीर के लिए झूला- पालना। बच्चे को झूला- पालने में डाल दिया जाए तो शरीर के साथ ही नींद आने लगती हें। जिस प्रदेश में इन दिनों यह शरीर है, वहाँ का वातावरण इतना सौम्य है कि वह जलधारा का दिव्य कलरव ऐसा लगता है, मानों वात्सल्यमयी माता लोरी गा रही हो। चित्त एकाग्र होने के लिए यह ध्वनि लहरी कलरव नादानुसंधान से किसी भी प्रकार कम नहीं है। मन को विश्राम मिला। शान्त हो गया। झपकी आने लगी। लेटने को जी चाहा। पेट में घुटने लगाये। कम्बल ने ओढ़ने- बिछाने के दोनों का काम साध लिया। नींद के हलके झोंके आने आरम्भ हो गये। लगा कि नीचे पड़ी शिला की आत्मा बोल रही है। उसकी वाणी कम्बल को चीरते हुए कानों से लेकर हृदय तक प्रवेश करने लगी। मन तन्द्रित अवस्था में भी ध्यानपूर्वक सुनने लगा। 

''शिला की आत्मा बोली''- साधक क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता है? भगवान् के दर्शन से क्या भक्तीभावना में कम रस है ?? लक्ष्य प्राप्ति से क्या यात्रा- मंजिल कम आनन्ददायक है  ?? फल से क्या कर्म का माधुर्य फीका है ?? मिलन से क्या विरह में कम गुद- गुदी है ?? तू इस तथ्य को समझ। भगवान् तो भक्त से ओत- प्रोत ही है। उसे मिलने में देरी ही क्या है? जीव को साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया है और झाँक- झाँक कर देखता रहता है कि भक्त, भक्ति के आनन्द में सरावोर हो रहा है या नहीं ?? जब वह रस में निमग्न हो जाता है तो भगवान् भी आकर उसके साथ रस- नृत्य करने लगता है। सिद्धि वह है जब भक्त कहता है- मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिए। मुझे मिलन ही नहीं विरह की अभिलाषा है। मुझे सफलता में नहीं कर्म में आनन्द है। मुझे वस्तु नहीं भाव चाहिए। 

शिला की आत्मा आगे भी कहती ही गई। उसने और भी कहा- साधक सामने देख, गंगा अपने प्रियतम से मिलने के लिए कितनी आतुरतापूर्वक दौड़ी चली जा रही है। उसे इस दौड़ में कितना आनन्द आता है। समुद्र  से मिलन तो उसका कब का हो चुका; पर उसमें रस कहाँ पाया ?? जो आनन्द प्रयत्न में है, भावना में है, वह मिलन में कहाँ ?? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन प्रयत्न को अनन्त काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है, फिर अधीर साधक तू ही क्यों उतावली करता है। तेरा लक्ष्य महान है, तेरा पथ महान है, तू महान् है, तेरा कार्य भी महान् है। महान उद्देश्य के लिए महान् धैर्य चाहिए। बालकों जैसी उतावली का यहाँ क्या प्रयोजन ?? सिद्धि कब तक मिलेगी यह सोचने में मन लगाने से क्या लाभ ?? 

शिला की आत्मा बिना रुके कहती रही। उसने आत्म विश्वास पूर्वक कहा- मुझे देख। मैं भी अपनी हस्ती को उस बड़ी हस्ती में मिला देने के लिए यहाँ पड़ी हूँ। अपने इस स्थूल शरीर को विशाल शिला खण्ड को- सूक्ष्म अणु बनाकर उस महासागर में मिला देने की साधना कर रही हूँ। जल की प्रत्येक लहर से टकराकर मेरे शरीर के कुछ कण टूटते हैं और वे रज कण बनकर समुद्र की ओर बह जाते हैं। इस तरह मिलन की बूँद- बूँद से स्वाद ले रही हूँ तिल तिल अपने को घिस रही हूँ इस प्रकार प्रेमी आत्मदान का आनन्द कितने अधिक दिन तक लेने का रस ले रही हूँ यदि उतावले अन्य पत्थरों की तरह बीच जल धारा में पड़कर लुढ़कने लगती तो सम्भवत: कब की मैं लक्ष्य तक पहुँच जाती। फिर यह तिल- तिल अपने प्रेमी के लिए घिसने का जो आनन्द है उससे तो वंचित ही रह गई होती। 

उतावली न कर, उतावली में जलन है, खीझ है, निराशा है, अस्थिरता है, निष्ठा की कमी है, क्षुद्रता है। इन दुर्गुणों के रहते कौन महान् बना है? साधक का पहला लक्षण है- धैर्य! धैर्य की रक्षा ही भक्ति की परीक्षा है। जो अधीर हो गया सो असफल हुआ। लोभ और भय के निराशा और आवेश के जो अवसर साधक के सामने आते हैं उनमें और कुछ नहीं केवल धैर्य परखा जाता है। तू कैसा साधक है, जो अभी इस पहले पाठ को भी नहीं पढ़ा। '' 

शिला की आत्मा ने बोलना बन्द कर दिया। मेरी तन्द्रा टूटी। इस उपालम्भ ने अन्तःकरण को झकझोर डाला '' पहला पाठ भी कभी नहीं पढ़ा, और लगा है बड़ा साधक बनने। '' लज्जा और संकोच से सिर नीचा हो गया, अपने को समझाता और धिक्कारता रहा। सिर उठाया तो देखा ऊषा की लाली उदय हो रही है। उठा और नित्य कर्म की तैयारी करने लगा। 
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: