ब्रह्मज्ञान का प्रकाश

ईश्वर का भजन कैसे किया जाए ?

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साधारण रीति से सभी भगवान का नाम लेते हैं, पर जब तक उसके साथ भगवान के आदेशों के पालन का ध्यान न रखा जाए, तब तक विशेष फल प्राप्त नहीं हो सकता । भगवान का नाम जप करने के साथ दसों इंद्रियों की कुवासनाओं को त्यागकर चित्त को सदाचारी और सात्विक बनाकर जब परमात्मा का स्मरण किया जाता है तभी उसमें सच्चा लाभ प्राप्त होता है । नाम जप करने वाले के लिए शास्त्रोकारों ने दस नामापराध बताए हैं और उनसे बचे रहने का कठोर आदेश किया है । जैसे औषधि सेवन के साथ-साथ परहेज से रहना भी आवश्यक हैं, उसी प्रकार नामजप करने वालों को दस नामापराधों से बचना भी आवश्यक है । परहेज बिगाड़ने से, कृपथ्य करने से, अच्छी औषधि का सेवन भी निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार नामापराध करने से नामजप भी निष्फल चला जाता है । दस ऋतों से, दस नामापराधों से बचकर राम नाम जपने से कोटि यज्ञों का फल प्राप्त होता है । दस ऋतु ये हैं-

सान्निन्दासति नामवैभव कथा श्रीशेशयोर्भेदधीर- श्रद्धा गुरु शास्त्र वेद वचने नाम्न्यर्थवादभ्रम: । नामास्तीतिनिषिद्ध वृत्ति विहित त्यागौहि धर्मान्तरै: साम्यं नाम जपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश ॥

(१) सन्निंदा (२) असति नाम वैभव कथा (३) श्रीशेशयोर्भेदधी: (४) अश्रद्धा गुरुवचने (५) शास्त्रवचने (६) वेदवचने (७) नाम्न्यर्थवाद भ्रम: (८) नामस्तीति निषिद्ध वृत्ति (९) विहित त्याग ( १०) धर्मान्तरे साम्यम्-ये दस नामापराध या ऋतु हैं, इनको त्यागने से नामजप का कोटि यज्ञ फल प्राप्त होता है । इन दसों का खुलासा नीचे किया जाता है-

(१) सन्निंदा-सत् पुरुषों की, सज्जनों की, सत्य की, सच्चे कार्यों की, सत्य सिद्धांतों की किसी स्वार्थ भाव से प्रेरित होकर निंदा करना । सत्य पर चलने की, सत् सिद्धांतों को अपनाने का किसी लाभ या भय से साहस न होता हो तो लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए सत्य बातों का या सत् पुरुषों का ही किसी मिथ्या आधार पर विरोध करने लगते हैं, यह 'सन्निंदा' है । शत्रु में भी सत्यता हो तो उस सत्यता की तो प्रशंसा ही करनी चाहिए ।

(२) असति नाम वैभव कथा-असत्य के आधार पर बड़े हुए व्यक्तियों या सिद्धांतों के नाम या वैभव की प्रशंसा करना । कितने ही झूठे, पाखंडी, अत्याचारी व्यक्ति अपनी धूर्तता के आधार पर बड़े कहलाने लगते हैं । उनकी चमक-दमक से आकर्षित होकर उनकी प्रशंसा करना या उनके वैभव का लुभावना वर्णन करना त्याज्य है । असत्य की सदा निंदा ही की जानी चाहिए । झूठे आधार पर मिली हुई सफलताओं को इस प्रकार समझना या समझाना कि उसका अनुकरण करने का लोभ पैदा हो, नामापराध है ।

(३) श्रीशेशयोर्भेदधी:-विष्णु, महादेव और देवताओं में भेद-बुद्धि रखना, उन्हें अलग-अलग मानना । एक ही सर्वव्यापक सत्ता की विभिन्न शक्तियों के नाम ही देवता कहलाते हैं । वस्तुत: परमात्मा ही एक देव है । अनेक देवों के अस्तित्व के भ्रम में पड़ना-नामजप करने वाले के लिए उद्वचित नहीं ।

(४) अश्रद्धा गुरुवचने- सद्गुरु, धर्मावद तत्त्वदर्शी, निस्पृह, आप्तपुरुषों के सद्वचनों में अश्रद्धा रखना । विरोध न करते हुए भी उदासीन रहना अश्रद्धा कहलाती है । सद्गुरुओं के लोकहितकारी सद्वचनों में श्रद्धा रखनी चाहिए ।

(५) अश्रद्धा शास्त्रवचने- शास्त्र के वचनों में अश्रद्धा रखना यों तो कितनी ही पुस्तकें सांप्रदायिक परस्पर विरोधी और असंगत बातों से भरी रहने पर भी शास्त्र कहलाती हैं, पर वास्तविक शास्त्र वह हैं जो सत्यता, लोकहित, कर्त्तव्यपरायणता और सदाचार का समर्थन करता हो । इस कसौटी पर जो ज्ञान खरे सोने के समान ठीक उतरता हो, वह शास्त्र है । ऐसे शास्त्रों के वचनों पर अश्रद्धा नहीं करनी चाहिए ।

(६) अश्रद्धा वेदवचने-अर्थात वेद वाक्य में अश्रद्धा रखना । वेद ज्ञान को कहते हैं । ज्ञानपूर्ण, सद्बुद्धिसम्मत वचनों में अश्रद्धा नहीं करनी चाहिए । वेद, सत्य ज्ञान के आधार होने के कारण श्रद्धा करने योग्य हैं ।

(७) नाम्न्यर्थवाद भ्रम- नाम के अर्थवाद में भ्रम करना । ईश्वर के अनेक नामों के अर्थ में जो भिन्नता है, उसके कारण भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए । गोपाल, मुरलीधर, यशोदानंदन, राम, रघुनाथ, दीनबंधु, अल्लाह, गौड़ आदि नामों के शब्दार्थ पृथक-पृथक हैं । इन अर्थों से तत्त्व के अलग-अलग होने का भ्रम होता है, यह ठीक नहीं । सब नाम उस एक परमात्मा के हैं । इसलिए परमात्मा के संबंध में किसी पृथकता के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए ।

(८) नामास्तीति निषिद्ध वृत्ति- नाम तो है ही फिर अन्य बातों की क्या जरूरत, ऐसी निषिद्ध वृत्ति । ईश्वर का नाम उच्चारण करने मात्र से सब पाप कट जावेंगे, इसलिए पाप करने में कुछ हर्ज नहीं, ऐसा कितने ही लोग सोचते हैं । दिन-रात कुविचारों में और कुकर्मों में लगे रहते हैं, उनके फल से बचने का सहज नुसखा खोजते हैं, कि दो-चार बार रामनाम जवान से कह दिया बस बेड़ा पार हो गया । सारे पाप नष्ट हो गए । यह भारी अज्ञान है । परमात्मा निष्पक्ष, सच्चा न्यायाधीश है । वह खुशामद करने वाले के न तो पाप माफ करता है और न बिना खुशामद करने वाले के पुण्यों को रद्द करता है । कर्मों का यथायोग्य फल देना उसका सुदृढ़ नियम है । इसलिए आत्मबल वृद्धि के लिए नाम-स्मरण करते हुए भी यही आशा करनी चाहिए कि परमात्मा हमारे भले-बुरे कर्मों का यथायोग्य फल अवश्य देगा । जो पाप-नाश की आशा लगाए बैठे रहते हैं और कुमार्ग को छोड़कर सन्मार्ग पर चलने का प्रयत्न नहीं करते वे नामापराध करते हैं ।

(९) विहित त्याग-विहित कर्मों का त्याग, उत्तरदायित्व का छोड़ना, कर्त्तव्य धर्म से मुँह मोड़ना नामापराध है । कितने ही मनुष्य 'संसार मिथ्या है, दुनियाँ झूँठी है ।" आदि महावाक्यों का सच्चा रहस्यमय अर्थ न समझकर अपने कर्त्तव्य, धर्म एवं उत्तरदायित्व को छोड़कर घर से भाग जाते हैं, इधर-उधर आवारागर्दी में, दुर्व्यसनियों के कुसंग में मारे-मारे फिरते हैं; यह अनुचित है । ईश्वरप्रदत्त उत्तरदायित्वों और कर्त्तव्य धर्मों को पूरी सावधानी और ईमानदारी से पूरा करते हुए भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए ।

(१०) धर्मन्तरै: साम्यम्-धर्म से इतर, धर्मविरुद्ध बातों को भी धर्म की समता में रखना । अनेक सामाजिक कुरीतियाँ ऐसी हैं जो धर्म विरुद्ध होते हुए भी धर्म में स्थान पाती हैं । जैसे पशुबलि एवं स्त्री और शूद्रों के साथ होने वाली असमानता तथा अन्याय के व्यवहार धर्म के नाम पर प्रचलित हैं, पर वास्तव में अधर्म हैं । ऐसे अधर्मों को धर्म से जोड़ना, धर्म कहलाते हैं । अकर्त्तव्यों को रूढ़िवाद के कारण धर्म-साम्य नहीं बनाना चाहिए ।

इन दस ऋतों से शुद्ध होकर, इन्हें त्यागकर, दसों इंद्रियों को संयम में रखकर, सत्य और धर्म से जीवन को ओत-प्रोत बनाते हुए जो लोग नामजप करते हैं, भगवान का मंत्रोच्चार करते हैं उन्हीं की आत्मा पवित्र होती है और वे ही कोटि यज्ञफल के भागी होते है । वैसे तो तोते भी राम-राम रटते रहते हैं, पर इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । पाठकों को दस ऋतु होकर ही नाम जप करना चाहिए और याद रखना चाहिए कि-

राम नाम सब कोई कहे, दशऋत कहे न कोय । एक बार दशऋत कहे, कोटि यज्ञ फल होय ॥
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