गायत्री मंत्र का प्रथम अक्षर 'तत्' ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति और उसके प्रचार
की शिक्षा देता है-
तत्वज्ञास्तु विद्वान्सो ब्राह्मण: स्व तपोबलै: ।
अन्धकरमपाकुर्य: लोकादज्ञान संभवम् ॥
अर्थात "तत्त्वदर्शी, विद्वान ब्राह्मण अपने तप द्वारा संसार के अज्ञानजन्य
अंधकार को दूर करे ।"
अंधकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं । दुष्ट
तत्त्वों की घात अंधकार में ही लगती है । अविद्या को अंधकार कहा गया है ।
अविद्या का अर्थ "अक्षरज्ञान की जानकारी का अभाव" नहीं है, वरन "जीवन
की लक्ष्यभ्रष्टता" है । इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भ्रांति, पशुता आदि
नामों से पुकारते हैं । इस बौद्धिक अंधकार में, आध्यात्मिक निशा में विचरण
करने वाला जीव भ्रम-पतित होकर ईश्वर द्वारा निर्धारित धर्म, नीति, लक्ष्य,
आचरण और कर्त्तव्य से विमुख होकर ऐसी गतिविधि अपनाता है जो उसके लिए
नाना प्रकार के दुःख उत्पन्न करती है ।
उपर्युक्त श्लोक में 'ज्ञानी ब्राह्मण' को यह आदेश दिया गया है कि वह
तपश्चर्या द्वारा संसार के समस्त दुःखों के मूल करण अज्ञानांधकार को दूर करे ।
यहाँ 'ब्राह्मण' शब्द किसी वर्ग विशेष के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है । आत्मा का
सर्वप्रधान गुण ब्रह्मनिष्ठा और आध्यात्मिकता है । यह गुण जिसमें जितना न्यूनाधिक
है, वह उतने ही न्यूनाधिक अंश में ब्राह्मण है । जिसकी आत्मा में जितना
ब्राह्मणत्व है, वह उतना ही तपस्वी, दूरदर्शी और तत्त्वज्ञानी होता है । इसी
ब्राह्मणत्व को गायत्री ने सबसे पहली चुनौती दी है, ललकारा है कि अपने व
दूसरों के कल्याण के लिए ब्रह्मज्ञान का प्रकाश फैलाकर व्यापक अंधकार को
हटाना तेरा परम पवित्र कर्त्तव्य है ।
दीपक जब स्वयं जलता है तो उसका प्रकाश चारों ओर फैलता है और
उससे दूर तक का अंधकार नष्ट होता है । तप, दूरदर्शिता और तत्त्वज्ञान का
दृष्टिकोण अपनाने से जो अंतज्योर्ति उत्पन्न होती है, उसी से जनता के अंतःकरणों
में सत्य का प्रकाश प्रज्वलित होता है । लोक-कल्याण स्वैर आत्मोद्धार का इससे
अच्छा मार्ग और कोई नहीं हो सकता । ब्रह्मज्ञान ही संसार का सबसे बड़ा
दान है ।