ब्रह्मज्ञान का प्रकाश

ब्रह्मज्ञान और आस्तिकता

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ब्रह्मज्ञान का पहला लक्षण सच्ची आस्तिकता है । परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, इस सत्य को जानते तो अनेक लोग हैं, पर उसे मानते नहीं । व्यवहार में नहीं लाते । जो परमात्मा को सर्वव्यापी, घट-घटवासी मानेगा, उसका जीवन उसी क्षण पूर्ण पवित्र, निष्प्राण और कषाय-कल्मषों से रहित हो जाएगा । गीता में भगवान ने कहा है कि जो मेरी शरण में आता है, जो मुझे अनन्य भाव से भजता है । वह तुरंत ही पापों से छूट जाता है । निस्संदेह बात ऐसी ही है । भगवान की शरण में जाने वाला, उस पर सच्चा विश्वास करने वाला, उस पर पूर्ण आस्था रखने वाला, एक प्रकार से जीवनमुक्त ही हो जाता है ।

ईश्वरु का विश्वास और सच्चा जीवन एक ही वस्तु के दो नाम हैं । जो भगवान का भक्त है, जिसने सब छोड़कर प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया है ,जो परमात्मा की उपासना करता है, उसे जगत्पिता की सर्वव्यापकता पर आस्था जरूर होनी चाहिए । यदि यह विश्वास दृढ़ हो जाए कि भगवान जर्रे-जर्रे में समाया हुआ है, हर जगह मौजूद है तो पाप कर्म करने का साहस ही नहीं हो सकता । ऐसा कौन सा चोर है जो सावधान खड़ी हुई सशस्त्र पुलिस के सामने चोरी का साहस करे । चोरी, व्यभिचार, ठगी, धूर्तता, दंभ, असत्य, हिंसा आदि के लिए आड़ की, परदे की, दुराव की जरूरत पड़ती है । जहाँ मौका होता है, इन बुरे कामों को पकड़ने वाला नहीं होता, वहीं इनका किया जाना संभव है । जहाँ धूर्तता को भली प्रकार समझने वालों, देखने वालों और पकड़ने वाले लोगों की मजबूत ताकत सामने खड़ी होती है, वहाँ पाप कर्मों का हो सकना सभव नहीं । इसी प्रकार जो इस बात पर सच्चे मन से विश्वास करता है कि परमात्मा सब जगह मौजूद है, वह किसी भी दुष्कर्म के करने का साहस नहीं कर सकता ।

बुरा काम करने वाला पहले यह भली प्रकार देखता है कि मुझे देखने वाला या पकड़ने वाला कोई यहाँ नहीं है । जब वह भलीभाँति विश्वास कर लेता है कि उसका पाप कर्म किसी भी दृष्टि या पकड़ में नहीं आ रहा है, तभी वह अपने काम में हाथ डालता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने को परमात्मा की दृष्टि या पकड़ से बाहर मानते हैं, वे ही दुष्कर्म करने को उद्यत हो सकते हैं । पाप कर्म करने का स्पष्ट अर्थ यह है कि व्यक्ति ईश्वर को मानने का दंभ भले ही करता हो, पर वास्तव में वह परमात्मा के अस्तित्व से इनकार करता है । उसके मन को इस बात पर भरोसा नहीं है कि परमात्मा यहाँ मौजूद है । यदि विश्वास होता तो इतने बड़े हाकिम के सामने किस प्रकार उसके कानूनों को तोड़ने का साहस करता, जो व्यक्ति एक पुलिस के चपरासी को देखकर भय से थर-थर कांपा करते हैं, वे लोग इतने दुस्साहसी नहीं हो सकते कि परमात्मा जैसे सृष्टि के सर्वोच्च अफसर की आँखों के आगे न करने योग्य काम करें, उसके कानून को तोड़े, उसको क्रुद्ध बनावें, उसका अपमान करें । ऐसा दुस्साहस तो सिर्फ वही कर सकता है, जो यह समझता हो कि 'परमात्मा' कहने-सुनने भर की चीज है । वह पोथी-पत्रों में, मंदिर-मठों में, नदी-तालाबों में या कहीं स्वर्ग-नरक में भले ही रहता होगा, पर हर जगह वह नहीं है । उसकी दृष्टि और पकड़ से मैं बाहर हूँ।

जो लोग परमात्मा की सर्वव्यापकता पर विश्वास नहीं करते, वे ही नास्तिक हैं । जो प्रकट या अप्रकट रूप से दुष्कर्म करने का साहस कर सकते हैं, वे ही नास्तिक हैं । इन नास्तिकों में कुछ तो भजन-पूजा बिलकुल नहीं करते, कुछ करते हैं । जो नहीं करते वे सोचते हैं कि व्यर्थ का झंझट मोल लेकर उसमें समय गँवाने से क्या फायदा ? जो पूजन-भजन करते हैं, वे भीतर से तो न करने वालों के समान ही होते हैं, पर व्यापार-बुद्धि से रोजगार के रूप में ईश्वर की खाल ओढ़ लेते हैं । कितने ही लोग ईश्वर के नाम के बहाने ही अपनी जीविका चलाते हैं । हमारे देश में करीब ५६ लाख आदमी ऐसे हैं जिनकी कमाई, पेशा, रोजगार ईश्वर के नाम पर है । यदि वे यह प्रकट करें कि हम ईश्वर को नहीं मानते तो उसी दिन उनकी ऐश-आराम देने वाली, बिना परिश्रम की कमाई हाथ से चली जाएगी । इसलिए उन्हें ईश्वर को उसी प्रकार ओढ़े रहना पड़ता है, जैसे जाड़े से बचने के लिए गरमी देने वाले कंबल को ओढ़े रहना पड़ता है, जैसे ही यह जरूरत पूरी हुई वैसे ही कंबल को एक कोने में पटक देते हैं । यह तिजारती लोग जनता के समक्ष अपनी ईश्वर भक्ति का बड़ा भारी घटाटोप बाँधते हैं क्योंकि जितना बड़ा घटाटोप बाँध सकेंगे उतनी ही अधिक कमाई होगी । तिजारती उद्देश्य पूरा होते ही वे अपने असली रूप में आ जाते हैं । पापों से खुलकर खेलते हुए एकांत में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती ।

एक तीसरी किस्म के नास्तिक और हैं । वह प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर के नाम से रोजी नहीं चलाते, बल्कि उलटा उसके नाम पर कुछ खरच करते हैं । ईश्वर का आडंबर उनके द्वारा आएदिन रचा जाता रहता है । शरीर पर ईश्वर भक्ति के चिन्ह धारण किए रहते हैं, घर में ईश्वर के प्रतीक मौजूद होते हैं, ईश्वर के निमित्त कहे जाने वाले कर्मकांडों का आयोजन होता रहता है । ईश्वर भक्त कहलाने वालों का स्वागत-सत्कार, भेंट-पूजा होती रहती है । यह सब इसलिए होता है कि लोग उनके संबंध में अच्छे ख्याल रखें, उनका आदर करें, उन्हें धर्मात्मा समझें, उनके जीवन भर के कुकर्मों की कलई न खोलें और आज भी जो उनके दुष्कर्म चल रहे हैं, वे छिपे रहें ।

चौथे प्रकार के नास्तिक वे हैं जो पाप छिपाने या धन कमाने के लिए नहीं किंतु अपने को पुजवाने के लिए, यश और श्रद्धा प्राप्त करने के लिए ईश्वर भक्त बनते हैं, इसके लिए कुछ त्याग और कष्ट भी उठाते हैं, पर भीतर से उन्हें प्रभु की सर्वव्यापकता पर आस्था नहीं होती । कुछ लोग रिश्वत के रूप में ईश्वर भक्ति को साधते हैं, अमुक भोग-ऐश्वर्य की लालसा उन्हें उसी मार्ग पर ले जाती है, जिस प्रकार आजकल घूँसखोर हाकिमों को एक मोटी रकम झुकाकर लोग मनमाना काम करवा लेते हैं और थैली खरच करके थैला भरने में सफल हो जाते हैं । कुछ लोग तथाकथित ऋद्धि-सिद्धियाँ और न जाने किन-किन अप्रत्यक्ष वैभवों के मनसूबे बाँधकर उसे प्राप्त करने की फिकर में ईश्वर के दरवाजे खटखटाते रहते हैं ।

इस प्रकार प्रत्यक्षत: ईश्वर भक्त दिखाई देने वालों में भी असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं, जिनकी भीतरी मनोभूमि परमात्मा से कोसों दूर है । उनका निजी जीवन, घरेलू आचरण, व्यक्तिगत व्यवहार ऐसा नहीं होता, जिससे यह प्रतीत हो कि यह ईश्वर को हाजिर-नाजिर समझकर अपने को बुराइयों से बचाते हैं । ऐसे लोगों को किस प्रकार आस्तिक कहा जाए ? जो पापों में जितना ही अधिक लिप्त हैं, जिसका व्यक्तिगत जीवन जितना ही दूषित है, वह उतना ही बड़ा नास्तिक है । लोगों को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधना, छल, प्रपंच, माया, दंभ, भय, अत्याचार, कपट और धूर्तता से दूसरों के अधिकारों को अपहरण कर स्वयं संपन्न बनना नास्तिकता का स्पष्ट प्रमाण है । जो पाप करने का दुस्साहस करता है, वह आस्तिक नहीं हो सकता, भले ही वह आस्तिकता का कितना ही बडा प्रदर्शन क्यों न करता हो !

ईश्वरभक्ति का जितना ही अंश जिसमें होगा वह उतने ही दृढ़ विश्वास के साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता पर विश्वास करेगा, सबमें प्रभु को समाया हुआ देखेगा । आस्तिकता का दृष्टिकोण बनते ही मनुष्य भीतर और बाहर से निष्पाप होने लगता है । अपने प्रियतम को घट-घट में बैठा देखकर वह॑ सबसे नम्रता का, मधुरता का, स्नेह का, आदर का, सेवा का, सरलता, शुद्धता और निष्कपटता में भरा हुआ व्यवहार करता है । भक्त अपने भगवान के लिए व्रत, उपवास, तप, तीर्थयात्रा आदि द्वारा स्वयं कष्ट उठाता है और अपने प्राणवल्लभ के लिए नैवेद्य, अक्षत, पुप्प, धूप, दीप, भोग, प्रसाद आदि कुछ न कुछ अर्पित किया ही करता है । 'स्वयं कष्ट सहकर भगवान को कुछ समर्पण करना' पूजा की संपूर्ण विधि-व्यवस्थाओं का यही तथ्य है । भगवान को घट-घटवासी मानने वाले भक्त अपनी पूजा विधि को इसी आधार पर अपने व्यावहारिक जीवन में उतारते हैं । वे अपने स्वार्थों की उतनी परवाह नहीं करते, खुद कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो उठाते हैं, पर जनता-जनार्दन को, नर-नारायण को अधिक सुखी बनाने में वे दत्तचित्त रहते हैं, लोकसेवा का व्रत लेकर वे घट-घटवासी परमात्मा की व्यावहारिक रूप से पूजा करते हैं । ऐसे भक्तों का जीवन-व्यवहार बड़ा निर्मल, पवित्र, मधुर और उदार होता है । आस्तिकता का यही तो प्रत्यक्ष लक्षण है ।

पूजा के समस्त कर्मकांड इसलिए हैं कि मनुष्य परमात्मा को स्मरण रखे, उसके अस्तित्व को अपने चारों और देखे और मनुष्योचित कर्म करें । पूजा, अर्चना, वंदना, कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, तीर्थ आदि सबका प्रयोजन मनुष्य की इस चेतना को जाग्रत करना है कि परमात्मा की निकटता का स्मरण रहे और ईश्वर के प्रेम एवं श्रद्धा द्वारा लोकसेवा का व्रत रखे और ईश्वर के क्रोध से डरकर पापों से बचे । जिस पूजा-उपासना से यह उद्देश्य सिद्ध न होता हो, वह व्यर्थ है । जिस उपाय से भी "पाप से बचने और पुण्य में प्रवृत्त होने" का भाव जाग उठे, वह उपाय ईश्वर भक्ति की साधना ही है ।
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