असीम पर निर्भर ससीम जीवन

असीम पर निर्भर—ससीम जीवन

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विश्व ब्रह्माण्ड कितना विराट, विस्तृत और असीम है इसे न तो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और न ही उसका पूर्णतः पता लगाया जा सकता है। आखिर इतने विराट ब्रह्माण्ड में इतने मानव का अस्तित्व इतना क्षुद्र हो भी तो उसकी सामर्थ्य और शक्ति विराट में भरे अर्थों को जान व समझ भी कैसे सकती है। समूचा विश्व ब्रह्माण्ड निर्धारित नियम व्यवस्था के अन्तर्गत सुचारू रूप से चल रहा है। उसमें कहीं भी कोई व्यतिक्रम नहीं है। इस बात को समझते हुए भी मनुष्य अपने स्वार्थ और हितों को इतनी संकीर्ण परिधि तक सीमित किये हुए है कि उस हत-बुद्धि को देख कर निराशा ही होती है।

छोटी और संकीर्ण परिधि में जीवनयापन करने की कल्पना अवास्तविक है। उस कल्पना को साकार नहीं किया जा सकता, साकार होने का भ्रम भर बनाया और पाले रहा जा सकता है। कोई सोचता भर रहे कि हम छोटे से घर-परिवार में रहकर दो-चार रोटी खाकर जरा-सी आवश्यकतायें पूरी करते हुए सरल-सा छोटा-सा स्वावलम्बी जीवन जीते हैं। पर यह मान्यता थोड़ी-सी अधिक गहराई में उतरकर विचार करने से गलत सिद्ध होती है। हम अत्यधिक विशाल परिवार के सदस्य हैं और हमारी आवश्यकताएं इतनी अधिक और इतनी मूल्यवान हैं कि उनके साधन जुटाने के लिये अति दूरवर्ती ग्रह-नक्षत्रों को अपनी क्षमता का एक महत्वपूर्ण अंश भेजना पड़ता है। यदि यह अनुदान न मिलें तो हमें उतना अभावग्रस्त रहना पड़े कि जीवन को धारण किये रहना भी न बन पड़े।

अन्न, जल और वायु पर हमारा त्रिविधि आहार निर्भर है। मोटे तौर पर अन्न खेत में, जल कुंए में और हवा आकाश में विद्यमान दीखती है। हवा अनायास ही मिलती रहती है, जल थोड़े प्रयत्न परिश्रम से मिल जाता है और अन्न भी थोड़ा पैसा खर्च करने या कृषि क्रिया करने से मिल जाता है। पर इन तीनों की उत्पत्ति का मूल कारण जो परमाणु हैं उनकी गतिशीलता अदृश्य रेडियो तरंगों पर निर्भर रहती है यदि वे तरंगें पृथ्वी पर उचित मात्रा में उपलब्ध न हों तो परमाणुओं की जीवन निर्मात्री गतिशीलता समाप्त हो जाय और अन्न, जल, वायु तीनों ही इस रूप में न रह सकें, जिस रूप में इस समय मिलते हैं। तब आधार-विहीन जीवन की स्थिरता भी न रहेगी। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं का भी जीवन सम्भव न होगा और वृक्ष-वनस्पतियों का स्वरूप यदि बन भी गया तो वह वर्तमान स्वरूप से सर्वथा भिन्न अत्यन्त भोंड़े और विकृत रूप में ही शेष रहेगा। उस स्थिति में पृथ्वी धीरे-धीरे अन्य ग्रहों की तरह निर्जीव होती चली जायेगी।

धरती पर जीवनोपयोगी परिस्थितियों का आधार जिन रासायनिक हलचलों और आणविक गतिविधियों पर निर्भर है, वे अन्तरिक्ष से आने वाले रेडियो तरंगों पर अवलंबित हैं। शक्ति के स्रोत उन्हीं में हैं। विविध विधि हलचलों का अधिष्ठात्री इन्हीं को कहना चाहिए। हमारा परिवार—हमारा शरीर—हमारा अस्तित्व सब कुछ प्रकारान्तर से इन रेडियो तरंगों पर निर्भर है जिन्हें हम आत्मा की तरह जानते भले ही नहीं पर निश्चित रूप से अवलम्बित उन्हीं पर हैं। जीवन लगता भर अपना है पर उसमें समाविष्ट प्राण इसी दृश्य सत्ता पर निर्भर हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में रेडियो तरंग पुंज कहते हैं।

चेतन जगत में जिस तरह ब्रह्म की सत्ता व्याप्त है उसी तरह पदार्थों के अस्तित्व और क्रिया-कलाप में इन रेडियो तरंगों की सत्ता प्राण की तरह समाई हुई है। यह तरंगें कहां से आती हैं? क्या यह धरती की अपनी सम्पत्ति या उपज है? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान इस रूप में देता है कि धरती के पास जो जीवन सम्पदा है वह पूरी की पूरी उधार ली हुई है। सूर्य की ऊर्जा धरती पर एक संतुलित मात्रा में बिखरती है। रोशनी और गर्मी के रूप में उसे हम अनुभव करते हैं, अप्रत्यक्ष रूप से उसमें जीवन तत्व भी सम्मिलित हैं। सूर्य यदि न हो अधिक दूर या अधिक पास हो तो फिर पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह किसी प्राणधारी के निवास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त बन जायगी। सूर्य की ऊर्जा को बहुत बड़ा श्रेय इस धरती को जीवन प्रदान करने का है।

सूर्य से उपलब्ध होने वाली ऊर्जा जिस रूप में पृथ्वी पर आती है वह भी अकेले सूर्य की सम्पत्ति नहीं है उसके साथ अन्य ग्रह तारकों का अनुदान भी मिला-जुला होता है। रेडियो तरंगों का अति महत्व पूर्ण भाग—तो सूर्य की अपेक्षा अन्य ग्रहों से अधिक आता है। पृथ्वी पर विद्यमान रेडियो शक्ति का स्रोत तलाश करने पर उसका उद्गम अति दूरदर्शी क्वासर तारकों में और अति निकटवर्ती ‘पल्सर’ पिण्डों से आता है। यदि उनका अनुदान बन्द हो जाय तो फिर यहां सब कुछ सुनसान ही दिखाई पड़ने लगे और वह अन्न, जल, वायु भी उपलब्ध न हो जिसे हम तुच्छ और स्वल्प श्रम साध्य समझते हैं। यह वस्तुयें सस्ती कितनी ही हों पर उनकी उत्पादक क्षमता उन दूरवर्ती अति कृपालु पिण्डों की उदारता पर निर्भर है जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते।

इस संसार में प्रचुर मात्रा में रेडियो तरंगें बरसाते ‘क्वासर’ तारक हमारी पृथ्वी से सबसे अधिक दूरी पर हैं इनकी खोज डच खगोल विज्ञानी मार्टिन स्मिड नामक व्यक्ति ने की। कैलीफोर्निया के पालोयर शिखर पर लगी 200 इन्च व्यास वाली विशालकाय दूरबीन के आधार पर लम्बे समय तक अनुसन्धान करते रहने पर वह इन तारकों को पता लगाने में समर्थ हुआ।

क्वासर का प्रकाश पृथ्वी तक आने में 10 करोड़ प्रकाश वर्ष लगते हैं। दूरबीनों ने जो कुछ इन तारों के बारे में दिखाया है वह 10 करोड़ वर्ष पुराना दृश्य है। हो सकता है कि इस बीच वे नष्ट भी हो गये हों और प्रकाश किरणें, उस समय से चलती रह कर अब कहीं धरती तक आ पहुंची हों।

सन् 60 में अत्यन्त तीव्र रेडियो तरंगें प्रसारित करने वाले चार तारे देखे गये। यों इनका प्रकाश क्षीण था पर रेडियो तरंगों का प्रसारण अत्यधिक था। पहचानने के बाद उनका नाम क्वासी स्टेलर सोर्सेज (क्वासर) रखा गया।

रेडियो टेलिस्कोप—एक्सरे टेलिस्कोप प्रभृति शक्तिशाली यंत्रों से क्वासर नक्षत्रों के द्वारा पृथ्वी पर आने वाले प्रभावों को जाना गया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि ईथर में संव्याप्त रेडियो तरंगों की प्रस्तुत क्षमता को बहुत बड़ा अनुदान इन क्वासर तारकों से मिलता है।

क्वासर हमसे बहुत दूर हैं और इतनी अधिक तेजी के साथ हमसे दूर हट रहे हैं जिसे अकल्पनीय ही कहना चाहिए। क्वासर तारकों में से एक तो 28000 मील प्रति सैकिण्ड के हिसाब से हमारी आकाश गंगा को छोड़कर शून्य आकाश में दौड़ता चला जा रहा है। इन दूरवर्ती क्वासरों के अतिरिक्त इसी प्रयोजन में सहायक निकटवर्ती पल्सर पिण्ड भी हैं। रेडियो किरणें उनसे भी हमें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं।

आकाश में छोटे-छोटे कितने ही पिण्ड छितरे पड़े हैं। इन्हें ‘पल्सर’ जाना जाता है। इनका व्यास प्रायः 10 मील का पाया गया है। अब तक इनकी संख्या 37 खोजी जा चुकी है। और भी रेडियो दूरबीनों की पकड़ में आने वाले हैं। यह सर्वथा सुनिश्चित अवधि के अन्तर से अति तीव्र रेडियो तरंगें छोड़ते हैं। इस अन्तर को एक सैकिण्ड के तीसवें भाग से लेकर 3 सैकिण्ड तक का पाया गया है इस अन्तर को ‘बीच-बीच’ की ध्वनि के साथ सुना जाता है। पहले अनुमान था कि किसी अन्य ग्रह के प्राणी एक निर्धारित क्रम प्रक्रिया के साथ टेलीग्राम की डैमी से निकलने वाले ‘गरगट्ट’ प्रवाह की तरह कुछ संदेश संकेत भेज रहे हैं। इस सन्दर्भ में भी बहुत खोज हुई, पीछे यह निष्कर्ष निकला कि पल्सर जितने छोटे हैं उतने ही तीव्र रेडियो तरंगों के संचारक भी। पृथ्वी पर फैली हुई रेडियो क्षमता की समर्थता में इनका भी बड़ा हाथ है।

. सन् 1054 में एक अति भयंकर तारा विस्फोट हुआ। क्रेब नीहारिका के मध्य में हुए इस विस्फोट का जिसका प्रकाश आकाश के सुदूर क्षेत्र में भारी चमक के रूप में देखा गया। उसका अवशेष—सुपर नोवा के रूप में अभी भी मौजूद है। पल्सर उसी के मलबे से बने हैं और वे प्रकाश ही नहीं गामा किरणें और एक्स किरणें भी बड़ी मात्रा में धरती पर भेज रहे हैं। देवज्ञ किप थार्न ने इन्हें भीमकाय आकाशी लट्टू बताया है।

एकाकी जीवन की कल्पना व्यर्थ है। वस्तुतः हम अत्यन्त विशालकाय ब्रह्माण्ड के एक तुच्छ से घटक हैं। जीवन के उद्भव से लेकर उसे गतिशील रखने वाले साधनों के लिए न केवल पृथ्वी पर फैले मनुष्य जानवरों और वनस्पतियों पर निर्भर रहना पड़ता है वरन् अन्तरिक्ष के सुदूर निवासी ग्रहपिण्ड भी हमारी जीवन यात्रा के आधार हैं।

दिव्य अनुदान—ईश्वर की अनुकम्पा

अन्तरिक्ष में सुदूर स्थित ग्रहपिण्ड किस प्रकार हमारी जीवन यात्रा का आधार बने हुए हैं—उसका थोड़ा सा परिचय ऊपर की पंक्तियों में दिया। ये अनुदान इतनी उदारतापूर्वक मनुष्य को मिले हुए हैं कि उनका ठीक ठीक पता भी नहीं चलता। वैसे भी प्रत्यक्ष जगत में जीव जन्तुओं, वृक्ष वनस्पतियों द्वारा मनुष्य को अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न करने के लिए जो सहयोग, आश्रय और अनुकम्पा मिलती है उसके लिए कौन वह उपकृत भाव से रहता है। पेड़ पौधों, वृक्ष वनस्पतियों, जलाशय सागर वायु, आकाश, पृथ्वी आदि चेतन जड़ समझी जाने वाली वस्तुओं के अभाव में जीवन यात्रा के सुविधापूर्वक चलने की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

नित्यप्रति के व्यवहार से प्रकृति की इन व्यवस्थाओं को सहज स्वाभाविक लगती हों लेकिन हाल ही में हुई वैज्ञानिक शोधों के अनुसार जीवन न केवल आपस में ही एक दूसरे पर निर्भर है, अपितु वह अज्ञान और रहस्य के गर्भ में छुपे हुए पर भी निर्भर है।

बताया जाता है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के उभय पक्षीय संतुलन केन्द्र बिन्दु हैं। अन्तरिक्ष का असीम विकिरण पृथ्वी के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है। उसका एक सीमित अंश ही भूतल को स्पर्श कर पाता है। धरती के बहुत ऊपर एक जटिल आवरण कवच चढ़ा हुआ है। प्राचीन काल में योद्धा लोग जिरह वख्तर पहन कर युद्ध में लड़ने जाते थे और शत्रु के प्रहारों से आत्मरक्षा करते थे। उसी प्रकार का कवच सुदूर अन्तरिक्ष में पृथ्वी ने भी धारण कर रखा है। अन्तर्ग्रहीय विकरण उसी से टकरा कर इधर उधर छितरा जाते हैं, यदि यह आवरण न होता तो अन्तरिक्ष से बरसते रहने वाले अनियन्त्रित शक्ति प्रवाह उसे कब का नष्ट भ्रष्ट कर देते।

सौर मण्डल के अन्य ग्रह उपग्रहों में यही एक विशेष कमी—कमजोरी है कि उनके ऊपर पृथ्वी जैसा आवरण कवच नहीं है। अतएव उल्काएं उनसे टकराती रहती हैं। विकरण उन्हें प्रभावित करते रहते हैं। इन्हीं आक्रमणों ने उन्हें निष्प्राण बना रखा है यदि उन्हें भी धरती जैसा कवच मिला होता तो वे भी अपनी पृथ्वी की तरह ही सुन्दर, सुरभित और सजीव बने हुए होते।

अन्तर्ग्रहीय ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव क्षेत्र में होकर छनी हुई उपयुक्त एवं आवश्यक मात्रा में ही प्रवेश करती हैं और पृथ्वी को अभीष्ट परिपोषण देने के उपरान्त दक्षिणी ध्रुव में होती हुई बहिर्गमन कर जाती हैं। एक सिरे से प्रवेश करके चूहा जिस प्रकार बिल के दूसरे सिरे से निकल भागता है उसी प्रकार अन्तर्ग्रहीय विकरण धरती के एक सिरे से प्रवेश करता और दूसरे से बाहर निकलता रहता है। उत्तरी ध्रुव क्षेत्र में एक ऐसी चुम्बकीय छलनी है जो केवल उसी प्रवाह को भीतर प्रवेश करने देती है जो उपयोगी है। छलनी में बारीक आटा ही छनता है और भूसी ऊपर रह जाती है। ठीक इसी प्रकार ध्रुवीय छलनी में भी पृथ्वी के लिए उपयोगी विकरण आते हैं और शेष को पीछे धकेल दिया जाता है।

उत्तरी ध्रुव पर यह छानने की क्रिया टकराव के रूप में देखी जा सकती है। इस टकराव से एक विलक्षण प्रकार के ऊर्जा कम्पन उत्पन्न होने हैं जिनकी प्रत्यक्ष चमक उस क्षेत्र में प्रायः देखने को मिलती रहती है उसे ध्रुवप्रभा या मेरुप्रकाश कहते हैं। इसका दृश्यमान प्रत्यक्ष रूप जितना अद्भुत है उससे अधिक रहस्यमय उसका अदृश्य रूप है। इस मेरुप्रभा का प्रभाव स्थानीय ही नहीं होता वरन् समस्त भूतल को यह प्रभावित करता है। भूगर्भ में, समुद्र तल में, वायु मण्डल में, ईथर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती हैं—चढ़ाव उतार आते हैं उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इस ध्रुव प्रभाव एवं मेरुप्रकाश से होता है। इतना ही नहीं उसकी हलचलें प्राणधारियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती हैं। मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशिष्ट रूप से होता है। सुविज्ञ लोग उस प्रभाव प्रवाह में से अपने लिये उपयोगी तत्व खींच लेने, धारण कर लेने में भी सफल होते हैं और उससे असाधारण लाभ प्राप्त करते हैं।

ध्रुव प्रकाश सर्चलाइट के समान होता है। यह उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में ज्यादा तेज होता है। उत्तरी ध्रुव पर कभी-कभी गर्मी भी हो जाती है दक्षिणी पर नहीं। उत्तरी ध्रुव पर एस्किमो रहते हैं दक्षिणी ध्रुव में पेन्गुइन पक्षी के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता यह पक्षी आगन्तुकों से बहुत प्रेममय व्यवहार करते हैं। उत्तरी ध्रुव पर धरती भीतर को धंसी है 14000 फुट गहरा समुद्र बन गया है जबकि दक्षिणी ध्रुव 29000 फीट उभरा हुआ है। उत्तर में बर्फ बहती है दक्षिण में स्थिर रहती है दक्षिण ध्रुव में रात धीरे-धीरे आती है सूर्य दक्षिणी क्षितिज के लिए बहुत थोड़ी देर के लिए जाता है। सूर्यास्त का दृश्य घण्टों रहता है अस्त हो जाने पर महीनों अन्धकार छाया रहता है केवल मात्र उत्तर की ओर कुछ प्रकाश दिखाई देता है। एक बार ध्रुव यात्री बायर्ड ने यहां सूर्य को बिलकुल हरे रंग का देखा। ऐसा दृश्य इससे पहले किसी ने नहीं देखा था किरणों की वक्रता के कारण ऐसे विलक्षण दृश्य वहां प्रायः देखने को मिलते रहते हैं।

ध्रुवों पर सूर्य की किरणों की विचित्रता के फलस्वरूप अनेक विचित्रताएं दृष्टिगोचर होती हैं। दूर की वस्तुयें हवा में लटकती हुई जान पड़ती हैं। टीले जितने होते हैं उससे कई गुना बड़े लगते हैं। कई बार सूर्य एक के स्थान पर कई-कई दिखाई देते हैं और इसी प्रकार चन्द्रमा भी। बर्फ में, हवा में भी कई बार सूर्य दिखाई दे जाते हैं। यह सभी कृत्रिम सूर्य वास्तविक जैसे ही लगते हैं।

पृथ्वी का चुंबकत्व जो कि पृथ्वी के कण-कण को, पृथ्वी में पाये जाने वाले जीवन तत्व को प्रभावित करता है वस्तुतः ब्रह्माण्ड से आने वाले एक प्रकार के शक्ति या तत्व प्रवाह के कारण हैं। यह प्रवाह उत्तर की ओर से आता है इसलिए उत्तरी ध्रुव क्षेत्र और दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र दोनों दो ध्रुव होने पर भी गुण धर्म से अलग-अलग हैं सामान्यतः दोनों चुम्बकीय ध्रुवों की विशेषतायें एक समान किन्तु एक दूसरे से भिन्न दिशा में होनी चाहिए किन्तु कई बातों में समानता होने पर भी दोनों की विशेषताओं में बड़ा अन्तर है।

उत्तरी ध्रुव एक गढ़ा है दक्षिणी ध्रुव गुमड़ा। उत्तरी ध्रुव की बर्फ दक्षिणी ध्रुव से अधिक गर्म होती है जल्दी गलने और जल्दी जमने वाली भी होती है। दक्षिणी ध्रुव उजाड़ क्षेत्र है यहां कुछ पक्षी जलचरों के अतिरिक्त एक पंखहीन मच्छर भी पाया जाता है वह क्या खाकर जीता है और कैसे इतनी भयंकर शीत में जीवन धारण किये रहता है वैज्ञानिक इस प्रश्न का आज तक समाधान नहीं कर सके।

उत्तरी ध्रुव में जीव का बाहुल्य है पौधों तथा जन्तुओं की संख्या करोड़ों तक पहुंचती है। यहां दिन और रात समान नहीं होते 6-6 महा के भी नहीं होते—कई बार रात 80 दिन के बराबर होती है यह सबसे लम्बी रात होती है। क्षितिज के बीच सूर्य वर्ष में 16 दिन रहता है। यहां चन्द्रमा इतनी तेजी से चमकता है कि उसके प्रकाश में, दिन में सूर्य की रोशनी के समान ही काम किया जा सकता है।

कुछ मेरुप्रकाश विस्तृत और आकृति हीन होते हैं कुछ सजीव और हलचल करते हुए। कभी वे किरणों की लम्बाई के रूप में जान पड़ते हैं कभी प्रभा और ज्वाला के रूप में कभी वह दृश्य बदलता हुआ कभी चाप, पड़ी और कोरेना के रूप में होता है तो कभी प्रकाश गुच्छे सर्चलाइट के समान। यह रात भर तरह-तरह के दृश्य बदलते हैं हर दृश्य और परिवर्तन सूर्य की अपनी आन्तरिक हलचल का प्रतीक होता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष अनुसन्धान के दौरान आया और उसके विलक्षण आकार प्रकार देखने में आये स्मरण रहे भू-भौतिक वर्ष सूर्य के 16 वर्षीय चक्र के दौरान मनाया गया। इस अवधि में सूर्य की आन्तरिक हलचल बहुत बढ़ जाती है, यह प्रकाश मुख्यतः चुम्बकीय तूफान होता है जो पृथ्वी की सारी यान्त्रिक क्रिया में क्रान्ति उत्पन्न करके रख देता है।

अनुसन्धान के दौरान यह पाया गया है कि सूर्य में जब तेज दमक दिखती है उसके एक दो दिन बाद ही मेरु प्रकाश भी तीव्र हो उठता है। यह बढ़ी हुई सक्रियता सूर्य-विकरण तथा कणों की बौछार का ही प्रतीक होती है। शान्त अवस्था में भी यह सम्बन्ध बना रहता है पर प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होता। यह कण अति सूक्ष्म इलेक्ट्रान (ऋण आवेश कण) प्रोट्रॉन (धन आवेश कण) होते हैं जो 200 से लेकर 1000 मील तक प्रति घण्टे की गति से दौड़ते हुए पृथ्वी तक आते हैं जबकि प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने में कुल 8 मिनट ही लेता है प्रकाश की गति 1800000 मील प्रति सेकिंड है इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी सूर्य की विद्युतीय शक्ति से सम्बद्ध है पृथ्वी स्वयं—एक चुम्बक की तरह है। चुम्बकत्व पार्थिव कणों में विद्युत प्रवाह के कारण पैदा होता है इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी चुम्बकीय क्षमता सूर्य के ही कारण है। यह कण पृथ्वी से हजारों मील ऊपर ही पृथ्वी के क्षेत्र द्वारा पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों की ओर मोड़ और प्रवाहित कर दिये जाते हैं—

मार्च तथा सितम्बर में (चैत्र तथा क्वार) में जबकि पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है मेरु प्रकाश अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पड़ता है जबकि अन्य समय गलत दिशा के कारण प्रकाश लौटकर ब्रह्माण्ड में चला जाता है यही वह अवधि होती है जब पृथ्वी में फूल-फलों की वृद्धि और ऋतु परिवर्तन होता है। उस समय सूर्य की यह विद्युत धाराएं स्पष्ट और अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पड़ती हैं। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो चुका है कि उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों में विद्युत धारा की चादरें जैसी ढकी रहते हैं। एक ओर आश्चर्यजनक घटना वायुमण्डल की है वह सीटी जैसी ध्वनियों की। अनुमान किया जा रहा है कि यह आकाश में तड़ित विद्युत के कारण विद्युत चुम्बकीय तरंगों के कारण होता है इससे वायुमण्डल में 7000 मील की ऊंचाई पर भी एक विद्युतमय गैस की उपस्थिति सम्भावना व्यक्त की जा रही ज्ञात नहीं वह सूर्य की शक्ति है या पृथ्वी की। ध्रुवप्रभा एवं मेरुप्रकाश का धरती पर होने वाली विभिन्न हलचलों एवं परिवर्तनों से क्या सम्बन्ध है। उसका अन्वेषण करने में विज्ञानवेत्ता संलग्न है। वे क्रमशः इस निष्कर्ष पर पहुंचते जा रहे हैं कि मनुष्य के निजी पुरुषार्थ का महत्व एक बहुत छोटी सीमा तक ही सीमित है। बहुत करके तो अन्तरिक्ष और भूलोक के बीच चल रहे आदान-प्रदान पर ही निर्भर रहता है। धातुएं, वनस्पति, ऋतु परिवर्तन, जलवायु जैसे महत्वपूर्ण तत्वों पर इन्हीं अदृश्य अभिवर्षणों का प्रभाव रहता है इतना ही नहीं वे प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती हैं। उस दृष्टि से स्वतन्त्र समझा जाने वाला प्राणि जगत् प्रति की सूक्ष्म हलचलों की कठपुतली मात्र बनकर एक प्रकार से नियति नियन्त्रित ही बन जाता है।

एक बारगी यह स्थिति बड़ी दयनीय प्रतीत होती है कि प्राणियों को नियति की कठपुतली मात्र बनकर रहना पड़े। अन्तर्ग्रहीय प्रवाह उसके सामने जो भी परिस्थितियां उत्पन्न करें उसके सामने नतमस्तक होना पड़े।

पर नेतृत्व विज्ञान पर अधिक गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ध्रुवीय छलनी की तरह ही मानवी चेतना में भी एक अद्भुत विशेषता यह है कि वह प्रकृतिगत प्रवाहों में से जिसे चाहे ग्रहण करे एवं जिसे चाहे अपने मनोबल की टक्कर मारकर इधर-उधर छिपा दें।

प्रकृति की इन प्रेरणाओं को हृदयंगम करने पर जीवन यात्रा सुख-शान्तिपूर्वक सम्पन्न की जा सकती है। प्रकृति की इन प्रेरणाओं की नियम-मर्यादाओं की अवहेलना करने पर उसका दण्ड दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है। परस्पर सहयोग एक ऐसा तत्व है जिसमें न केवल प्राणी क्रमिक विकास की दिशा में अग्रसर होते हैं, वरन् निर्जीव समझे जाने वाले तत्वों में भी सुव्यवस्था रहती है।

मनुष्य की प्रधान विभूति

मानवी विशेषताओं में उसकी प्रधान विभूति चिन्तन परायणता विचारशीलता नहीं वरन् सहयोग भावना है, उसके आधार पर मिलजुल कर काम करना, साथ-साथ पारस्परिक स्नेह, सौजन्य प्रदान करना सम्भव हो सका है। यही वह आधार है जिसके कारण विविध विधि प्रगति की सम्भावनायें सामने आयी हैं।

. सहयोग से अनुशासन का विकास होता है और हर किसी को अपनी मर्यादाओं में रहने के लिए स्वेच्छापूर्वक अथवा नियन्त्रण में आबद्ध होकर रहना पड़ता है। एकाकी उच्छृंखलता में अहन्ता का पोषण हो सकता है पर उससे स्वयं के लिए और अन्य सभी के लिए विपत्ति ही उत्पन्न होती है। यह दृश्य अन्य प्राणियों में भी देखे जाते हैं, जिनमें असहयोग पनप रहा होगा वे अपने अस्तित्व को संकट में डाल रहे होंगे। इतना ही नहीं जहां कहीं उनका सम्पर्क होगा वहां भी विपत्ति उत्पन्न कर रहे होंगे। न केवल मनुष्यों और प्राणियों में वरन् विश्व ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक में मर्यादा, नियम, व्यवस्था की अवहेलना से प्रस्तुत होने वाली विपत्तियों के उदाहरण देखे जा सकते हैं। आकाश की दुनिया में स्वच्छन्द विचरण करने वाली उल्काओं को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। उन्हें स्वेच्छाचारिता पसन्द है। मिलजुल कर एक बड़े पिण्ड के रूप में सम्मिलित बड़ा अस्तित्व बनाना उन्हें स्वीकार नहीं। इससे उनकी अहन्ता पर आघात जो आता है समूह का श्रेय सबको मिलता है पर जिन्हें एकाकी श्रेय लेने की अभिलाषा है उन्हें तो अपनी आपाधापी का ही ध्यान रहता है और अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाने में ही अच्छा लगता है। आकाश में आवारागर्दी करती हुई जहां तक स्वच्छन्द विचरण करने वाली यह स्थिति है, उन का आकार ही नहीं लक्ष्य भी छोटा होता है। अतएव वे परिस्थितियों के एक झोंके में उलट-पुलट हो जाती हैं और न केवल अपना अस्तित्व गंवा बैठती हैं वरन् जहां भी उनके चरण पड़ते हैं वहीं विनाश उत्पन्न करती हैं।

रात में कभी-कभी तेजी से कोई तारा टूटता-सा लगता है वह प्रकाश की लकीर बनाता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर दौड़ता है और कुछ ही सेकिण्ड की चमक दिखाकर एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंचते-पहुंचते लुप्त हो जाता है। इन्हें प्रायः अशुभ माना जाता है और किसी अनिष्ट की सूचना अथवा किसी महामानव की मृत्यु के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ा जाता है और भी कई तरह की अटकलें लगाई जाती हैं पर वस्तुतः यह उल्कायें हैं जो स्वभावतः आकाश में अपने ढंग से अपनी कक्षा में भ्रमण करती रहती हैं पर उनमें से कभी कोई भूल-भटक कर पृथ्वी के समीप आ जाती है तो पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर अपने वायु मण्डल में चली जाती है। इस वायुमण्डल के घर्षण से वह अग्निवर्ण होकर, जल-भुनकर खाक हो जाती है। यही वह दृश्य है जो चमकीली लकीर करती हुई आतिशबाजी की तरह हमें दिखाई देती हैं और जिसे तारा टूटना कहते हैं।

अधिकांश उल्काएं छोटी होती हैं और हमारे वायु मण्डल में प्रवेश करते ही जल जाती हैं पर उनमें से कुछ बहुत बड़ी होती हैं अस्तु पूरी तरह वे नहीं जल पातीं और अधजली धरती से आ टकराती हैं। ऐसे उल्का खण्ड जहां-तहां म्यूजियमों में एक शोधशालाओं में संग्रहीत हैं। अब तक उपलब्ध उल्काओं में से सबसे बड़ी ग्रीनलैंड में पाई गई थी उसका भार साढ़े छत्तीस टन और आयतन 11×7×5 फुट है।

पिछले दिनों धरती पर सबसे बड़ा उल्कापात 30 जून 1908 को प्रातः 7 बजे साइबेरिया के त्यूंगून वनप्रदेश में हुआ। इसकी अग्नि शिखा आकाश में 25 मील तक फैली उसके कारण 400 वर्गमील का प्रदेश पूर्णतया जल गया उसमें न कोई प्राणी बचा न पेड़ पौधा। यह अग्नि पिण्ड कोई 1000 टन भारी था।

इसके उपरान्त एक और विकट उल्कापात 12 फरवरी 1947 को प्रातः 10 बजकर 38 मिनट पर जायगा के वन प्रदेश में हुआ। यह अग्निपिंड घोर गर्जन करता हुआ उत्तर से दक्षिण की ओर दौड़ता चला आया और आलिन की पर्वत श्रृंखला से जा टकराया। फल-स्वरूप ढाई वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पूरी तरह चूर-चूर हो गया और वह उल्का भी टुकड़ों में बंटकर छितरा गई। जगह-जगह गहरे गड्ढ़े बन गये। उसका वजन सौ टन के लगभग था। छितराते हुए टुकड़े जहां-तहां मिले उनमें सबसे बड़ा टुकड़ा 1745 किग्रा. का था। उल्काओं को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं पाषाण प्रधान, लौह प्रधान। किसी में मृतकांश अधिक होता है किसी में धातु अंश की बहुलता होती है। धातुओं में लौह अधिक होता है। फिर भी निकिल, एल्युमीनियम, मैंगनीज, तांबा, क्रोमियम, मैग्नीशियम, कीवाल्ट, ऑक्सीजन, सल्फेट, फास्फोरस, कार्बन आदि पदार्थ पाये जाते हैं। कुछ खनिज तथा रसायन उनमें ऐसे भी होते हैं जो अपनी धरती पर नहीं पाये जाते इसलिये उनका नामकरण भी नहीं किया गया है।

जो उल्काएं पृथ्वी के समीप हैं वे या तो खुद भटक जाती हैं या फिर पृथ्वी ही कभी उल्का समूह के पथ के समीप जा पहुंचती है तो उसका टकराव होता है, साधारणतः उल्काएं अपने पथ पर घूमती रहती है और पृथ्वी अपनी कक्षा में। एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने पर ही वह विभीषिका उत्पन्न होती है जिसे उल्कापात के नाम से देखा या जाना जाता है।

सन् 1889 में पृथ्वी के समीप से ‘इरोस’ नाप की उल्का धरती के बहुत पास से गुजरी थी। उसकी लम्बाई बीस मील और चौड़ाई दस मील थी। 15 जून 1968 को ‘इकरेस’ नामक ऐसी उल्का पृथ्वी के निकट से गुजरी थी जो यदि धरती से टकरा जाती तो 1000 हाइड्रोजन बमों के एक साथ विस्फोट होने जैसा विध्वंस होता और भूलोक का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता।

यह उल्काएं जब छोटी होती हैं तो पृथ्वी के वातावरण में आकर घर्षण जन्य ऊर्जा से जलकर नष्ट हो जाती हैं पर जब वे अधिक बड़ी और अधिक कठोर होती हैं तो जलते-झुलसते हुए भी अपना अस्तित्व बनाये रहती हैं और धरती से टकराकर उसे भारी क्षति पहुंचाती हैं।

भूतकाल में ऐसी 8 उल्कायें समय-समय पर पृथ्वी से टकरा कर उसे भारी क्षति पहुंचा चुकी हैं। हडसन की खड़ी के किनारे का प्रख्यात गोल गड्ढा, जर्मनी में 17 मील चौड़ा राइन केसल का गड्ढा इन उल्काओं से उत्पन्न हो सकने वाली विभीषिकाओं का परिचय देते हैं। यदि ऐसी उल्कायें ध्रुवीय क्षेत्र पर गिर पड़ें तो पृथ्वी का सत्यानाश ही हो जायेगा। ध्रुवों की सतह पिघल पड़ेगी और समुद्र में बाढ़ आने से धरती के अनेक भागों में जल प्रलय का दृश्य उपस्थित होगा। चन्द्रमा पर वायु मण्डल झीना है इसलिए वहां उल्कायें आसानी से गिरती रहती हैं अस्तु उन्होंने सुन्दर चन्द्रमा को खाड़ खड्डों वाला बना दिया है।

उल्काओं का ही नहीं मनुष्यों और प्राणियों का उच्छृंखल, एकाकीपन पर दृष्टि से भयानक ही है। इसके विपरीत संघबद्ध, मर्यादा परायण और नियम व्यवस्था के अन्तर्गत रहते हुए ग्रह-नक्षत्र अपनी गतिविधियां शान्तिपूर्वक काम चला रहे हैं। चूंकि जीवन अन्योन्याश्रित है, एक दूसरे से संबद्ध और निर्भर है। अतएव किसी का भी मर्यादा भंग पूरी व्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न करता है। ऐसी स्थिति में स्वयं सुख-शान्ति से रहने और समान सुचारू सुव्यवस्था बनाये रहने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य संघबद्ध अनुशासन से काल ले। प्रगति और शांति के लिए सहयोग और अनुशासन का सार्वभौम नियम सदा से ही अपना महत्व प्रतिपादित करता रहा है और यह तथ्य अनन्तकाल तक अपनी उपयोगिता सिद्ध करता रहेगा।
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