असीम पर निर्भर ससीम जीवन

जन्म मरण से कोई मुक्त नहीं

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जन्म और मरण के बीच की यात्रावधि को जीवनकाल कहा जाता है। यह यात्रा मनुष्य, जीव जन्तु और पेड़ पौधों को ही सम्पन्न करनी पड़ती हो ऐसा नहीं है। अपितु इस विशाल चक्र में ब्रह्माण्ड के कितने ही ग्रह नक्षत्र आये दिन उत्पन्न होते और मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। उनका विस्तार अपनी पृथ्वी से लाखों करोड़ों गुना बड़ा है, तो भी जन्म मरण के बन्धनों में वे भी बंधे हुए हैं। क्या छोटे क्या बड़े सभी काल के ग्रास बने हुए हैं। प्राणी ही नहीं ग्रह नक्षत्र भी इसी नियति क्रम के आधार पर उदय और अस्त होते रहते हैं।

ग्रह-नक्षत्रों की दूरी तथा विस्तार परिधि को हम खुली आंखों से नहीं देख सकते। उनकी जानकारी प्राप्त करने को उन सूक्ष्मग्राही यन्त्रों का सहारा लेना पड़ता है जो दूरवर्ती तारकों से निसृत होने वाली प्रकाश किरणों को पकड़ने और परखने में समर्थ होते हैं।

यह ग्रह-नक्षत्र न केवल प्रकाश तरंगें फेंकते हैं वरन् उनका शक्ति प्रेषण जो सैकड़ों प्रकार का है उनमें एक प्रेषण रेडियो शक्ति तरंगों का भी है। हमें उनकी जानकारियां इन रेडियो तरंगों के आधार पर ही होती हैं। पिछले दशक में डेनिश खगोलवेत्ता मार्टेन रियाडट ने प्रचण्ड शक्तिशाली क्वासर किरणों का पृथ्वी पर आगमन का पता लगाया था। उनका उद्गम आठ अरब प्रकाश वर्ष माना गया है। किन्तु इनका प्रवाह भी स्थिर नहीं वह ज्योति हमसे प्रति सैकिण्ड 2,40,00 किलोमीटर की चाल से दूर हटती चली जा रही है। इसका कारण वह फुलाव विस्तार की भगदड़ प्रक्रिया ही है।

अनन्त तारक मंडल में हमारा सूर्य भी एक छोटा सा तारा है, इस ब्रह्माण्ड में—ऐसे भी अनेक तारे विद्यमान हैं जो सूर्य से भी अनेक गुने बड़े हैं। सूर्य परिवार में 9 मुख्य ग्रह—लगभग एक सहस्र अवान्तर ग्रह—अनेक पुच्छल तारे एवं उल्का समूह हैं। सूर्य तारे का यह सम्पूर्ण परिवार—उसके मध्य का विशाल आकाश—तथा अपनी अपनी कक्षाओं में गमन करने हेतु उन सब के द्वारा घेरा गया आकाश यह सब मिलकर एक सौरमण्डल कहलाता है।

सौरमण्डल के ग्रहों का आकार—सूर्य से उनका अन्तर एवं उनके सूर्य का परिभ्रमण में लगने वाला समय का विवरण इस प्रकार है—

अपने सूर्य जैसे लगभग 500 करोड़ ताराओं सौरमण्डल, तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस वर्तुलों के मेघ मिलकर एक आकाश गंगा बनती है। ऐसी 10 करोड़ से अधिक आकाश गंगाओं तथा उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक ब्रह्माण्ड कहा जाता है यह ब्रह्माण्ड कितने हैं? इस प्रश्न के उत्तर में प्रश्न कर्त्ता से ही उलटा प्रश्न पूछना पड़ेगा—आपके नगर में रेत के कण कितने हैं? मनुष्य की बुद्धि एवं कल्पना इस स्थान पर थक जाती है। इसलिए विज्ञान ने उसे ‘अनन्त’ कहा है। अध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं उसके स्वामी, नियन्ता, रक्षक को भी ‘अनन्त’ नाम से ही सम्बोधित किया है—

अनन्त आकाश में स्थित ग्रह तारकों की विशालता और उनकी परिभ्रमण कक्षा के विस्तार की कल्पना करने से पूर्व हमें अपने सौरमण्डल में स्थित नव ग्रहों पर दृष्टि डालनी चाहिए और देखना चाहिए कि असंख्य सौरमण्डलों में से छोटा सा तारा अपना सूर्य—आदित्य—कितने वाल परिवार को अपने साथ लिए फिरता है।

(1) बुद्ध—व्यास 3000 मील, सूर्य से दूरी 3 करोड़ 60 लाख मील सूर्य की परिक्रमा में लगने वाला समय 82 दिन।
(2) शुक्र—व्यास 7800 मील, दूरी 6 करोड़ 70 लाख मील, अवधि 224 1/2 दिन।
(3) पृथ्वी—व्यास 7920 मील, दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील, अवधि 365 1/4 दिन।
(4) मंगल—व्यास 4200 मील, दूरी 14 करोड़ 10 मील परिभ्रमण 687 दिन।
(5) गुरु—व्यास 8700 मील, दूरी 47 करोड़ 30 लाख मील, परिभ्रमण समय 12 वर्ष।
(6) शनि—व्यास 7400 मील, दूरी 88 करोड़ 60 लाख मील परिभ्रमण 29 1/2 वर्ष।
(7) यूरेनस—व्यास 31000 मील, दूरी 180 करोड़ मील, परिभ्रमण समय 84 वर्ष।
(8) नेपच्यून—व्यास 33000 मील, दूरी 280 करोड़ मील, परिभ्रमण समय 164 1/2 वर्ष।
। यम—व्यास 3000 मील, दूरी 370 करोड़ मील, परिभ्रमण समय 248 वर्ष।

इस सौर मण्डल की एक सदस्य अपनी पृथ्वी भी है। उसकी स्थिति का विहंगावलोकन करते हुए सामान्य बुद्धि हतप्रभ होती है फिर अन्य विशालकाय ग्रह नक्षत्रों की विविध विशेषताओं पर ध्यान दिया जाय तो प्रतीत होगा कि इस संसार में छोटे से लेकर बड़े तक सब कुछ अद्भुत और अनुपम ही है। सृष्टि कर्त्ता की कृति प्रतिकृति को समझने के लिए मानवी बुद्धि का प्रयास सराहनीय तो है पर निश्चित रूप से उसकी समस्त चेष्टाएं सीमित ही रहेगी। अपनी पृथ्वी के भीतर तथा बाहर जो रहस्य छिपे पड़े हैं अभी उनमें से कण मात्र ही जाना समझा जा सका है, जो शेष है वह इतना अधिक है कि शायद उसे जानने में मानव जाति की जीवन अवधि ही समाप्त हो जाय। पृथ्वी का मध्य केन्द्र बाह्य धरातल से 6435 किलो मीटर है। पर उसके भीतर की स्थिति जानने में अभी प्रायः 2800 मीटर तक का ही पता चलाया जा सका है। मध्य केन्द्र का तापमान शतांश होना चाहिए। 62 मील की गहराई पर तापमान 3000 अंश शतांश होगा। इस तापमान पर किसी पदार्थ का ठोस अवस्था में रहना सम्भव नहीं। अस्तु यह निर्धारित किया गया है कि 62 वें मील से लेकर 3960 मील पर अवस्थित भूगर्भ केन्द्र तक का सारा पदार्थ पिघली हुई स्थिति में होगा। समय समय पर फूटने वाले ज्वालामुखी और भूकम्प इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

भूगर्भ केन्द्र के पदार्थ पिघली हुई—लचीली स्थिति में होने चाहिए इसका एक कारण यह भी है कि पृथ्वी के धरातल के एक मील नीचे ऊपर की पृथ्वी का दबाव प्रायः 450 टन प्रतिवर्ग फुट पड़ता है। बढ़ते-बढ़ते यही दबाव पृथ्वी केन्द्र पर 20 लाख टन प्रति वर्ग फुट हो जायगा। दबाव का यह गुण होता है कि वह पदार्थ के आयतन (विस्तार) को घटाता है। रुई के ढेर को दबाने से उसका विस्तार छोटा रह जाता है। यों भीतर का ताप आयतन बढ़ाने का प्रयत्न करेगा पर साथ ही बाहरी दबाव उसे रोकेगा भी। इन परस्पर विरोधी शक्तियों के कारण भीतर एक प्रकार के तनाव की स्थिति बनी रहेगी और उस स्थान पर पदार्थ लचीला ही रहेगा।

पृथ्वी की आयु कितनी है इसका निष्कर्ष पांच आधारों पर निकाला गया है (1) प्राणियों का विकास परिवर्तन का सिद्धान्त (2) परत चट्टानों के निर्माण की गति (3) समुद्र का खारापन (4) पृथ्वी के शीतल होने की गति (5) रेडियो धर्मी तत्वों का विघट के आधार तक पृथ्वी की आयु लगभग 200 करोड़ वर्ष ठहरती है। पर यह अनुमान मात्र ही है। इस संदर्भ में मत-भेद बहुत है उनमें 12 करोड़ वर्ष से लेकर 900 करोड़ तक की पृथ्वी की आयु होने की बात कही गई हैं।

पृथ्वी का यह घोर ताप युक्त हृदय केन्द्र विशाल है। इसकी त्रिज्या 2100 मील है। इस भाग को ‘बेरी स्फियर’ कहते हैं।

भूगर्भ विज्ञान के अनुसार पृथ्वी गोल है। केवल ध्रुवीय क्षेत्रों में कुछ पिचकी हुई है। भूमध्य रेखा क्षेत्र में कुछ उभरी हुई है। पृथ्वी का व्यास 7900 मील है। पर्वतों की सर्वोच्च चोटी प्रायः 5 1/2 ऊंची और समुद्र की अधिक गहराई 7 मील है।

यह तो मात्र पृथ्वी की बनावट सम्बन्धी जानकारी हुई उससे सम्बन्धित समुद्र, पर्वत, वायुमण्डल ऊर्जा, चुम्बकत्व आदि की चर्चा इतनी बड़ी है कि अब तक की जानकारियां न्यूटन के शब्दों में सिन्धु तट पर बालकों द्वारा बीने गये सीप घोंघों की तरह ही स्वल्प हैं।

सृष्टि के अंतर्गर्भ में छिपे हुए ज्ञात और अविज्ञात रहस्यों की ओर जब दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि उसका रचयिता सचमुच ही ‘महतो महीयान्’ है। उसका महत्व इस सृष्टि के रूप में अपनी लीला विलास से मानवी बुद्धि को चकित चमत्कृत कर रहा है। यदि उस महत्ता के समुद्र जीव भी अपनी सत्ता को विसर्जित करदें तो अगले ही क्षण आज की अणु बन सकता है और पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है।

विस्तार, संकुचन, जन्म-मरण सक्रियता, विश्राम जैसी परस्पर विरोधी लगने वाली पर वास्तविक पूरक क्रिया-कलाप के आधार पर ही सृष्टि की गतिविधियां चल रही हैं इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि अपनी स्थिति भी सदा एक जैसी नहीं रह सकती। आज की समर्थता कल की असमर्थता में परिणत हो सकती है। इसलिये वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की ही बात सदा सोचनी चाहिए। इस पश्चात्ताप का अवसर नहीं आने देना चाहिए कि अमुक समय हमें ऐसे सत्कर्म करने का अवसर था, पर हम उस समय आलस्य, प्रमाद अथवा लोभ-मोह वश वैसा नहीं कर सके। आज का जीवन कल मृत्यु में परिणत होना ही है, जब इतने विशालकाय ग्रह-नक्षत्र एक जैसी स्थिति में नहीं रह सकते तो हम तुच्छ प्राणी कैसे सदा विकसित एवं समर्थ रह सकते हैं।

ब्रह्माण्ड के भीतर झांकें तो

ब्रह्माण्ड को देखने समझने के लिए मानवी जिज्ञासा अब इस प्रयास में संलग्न है कि सौरमण्डल से बाहर निकल कर विशाल ब्रह्माण्ड की झांकी की जाय और अनुमान को प्रत्यक्ष में परिणत करके यह देखा जाय कि आखिर यह सारा प्रयास है क्या? है कैसा?

सौरमण्डल से बाहर निकलने के लिए हमें तीव्रतम गति की आवश्यकता होगी और दीर्घकालीन जीवन अभीष्ट होगा अन्यतम अकल्पित दूर तक पहुंचना और लौटना सम्भव ही कैसे हो सकेगा। इस सन्दर्भ में वैज्ञानिकों के जो प्रयास चल रहे हैं, उनमें आशा की एक क्षीण किरण दिखाई पड़ने लगी है।

अब तक प्रकाश की गति को ही सर्वोपरि गति माना जाता रहा है। आइंस्टीन कहते थे, इससे तीव्रगति नहीं हो सकती। पर अब ‘कर्क’ नीहारिका की—गतिविधियों का विश्लेषण करते हुए इस गतिशीलता का नया कीर्तिमान सामने आया है। आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय के डा. एल.एल. और डा. ज्याफे एनडीन ने इस नीहारिका के विद्युतीय चुम्बकीय क्षेत्र की चल रही गतिशीलता को प्रति सैकिण्ड 5,95,200 मील नापा है जो प्रकाश गति की तुलना में लगभग चार गुना अधिक है। इस नीहारिका के मध्य एक छोटा सूर्य ऐसा पाया गया है जिसका तापमान अपने सूर्य से 100 गुना अधिक है। वह अपनी धुरी पर प्रति सैकिण्ड 33 बार परिक्रमा कर लेता है, यह भ्रमण गति भी अब तक की कल्पनाओं से बहुत आगे है।

समस्त ब्रह्माण्ड के बारे में जानना तो बहुत दूर की बात है हम अपने सौर-मण्डल के बारे में ही बहुत कम जानते हैं। पृथ्वी के बारे में हमारी जानकारी का क्रमिक विकास हुआ है। चन्द्रमा को प्राचीन काल में एक स्वतन्त्र और पूर्ण ग्रह माना जाता था अब वह मान्यता बदल दी गई है और माना गया है कि वह पृथ्वी का उपग्रह मात्र है। चन्द्रमा पृथ्वी से 3,80,000 किलो मीटर दूर है। प्रकाश की किरणें उस दूरी को सवा सैकिण्ड में पूरी कर लेंगी। सूर्य से पृथ्वी 14,95,00000 किलो मीटर दूर है। इतनी दूरी पूरी करने में प्रकाश किरणों को साड़े आठ मिनट लगते हैं। अपने सौर-मण्डल का अन्तिम ग्रह प्लूटो, सूर्य से 590 करोड़ मील कि.मी. है। इस दूरी को प्रकाश किरणें साढ़े पांच घंटे में पूरा करती हैं।

मंगल को भौम—भूमि पुत्र आदि नामों से पुकारा जाता है और कहा जाता है कि वह अति प्राचीन काल में पृथ्वी का ही एक अंग था। प्रकृति के विग्रह से यह टुकड़ा कटकर अलग हो गया और स्वतन्त्र रूप से ग्रह बनकर अपनी कक्षा में भ्रमण करने लगा। इतने पर भी उसमें ऐसी अनेकों विशेषताएं मौजूद हैं जो पृथ्वी से मिलती जुलती हैं। उस पर प्राणियों की उपस्थिति पर जो विश्वास किया जाता रहा है उसमें कमी नहीं आई वृद्धि एवं पुष्टि ही हुई है।

सोवियत खगोलवेत्ता मिखाइल यारोव ने अभी हाल में रूस तथा अमेरिका द्वारा भेजे गये मंगल खोजयानों की रिपोर्टों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है, कि वहां जीवन होने की बहुत सम्भावना है। वे कहते हैं कि मंगल मृत ग्रह नहीं है। उसमें पिछले दिनों ऐसी उथल-पुथल होती रही हैं जिनका प्राणियों की उत्पत्ति में प्रधान हाथ रहता है। अगले दिनों वहां के ध्रुवों के पिघलने की पूरी सम्भावना है इससे कुछेक केन्द्रों में संग्रहीत और ठोस स्थिति में रहने वाला पानी नदी-नालों और बादलों के रूप में जगह-जगह पहुंचने लगेगा। उस स्थिति में स्वभावतः ऐसे प्राणी उत्पन्न होने लगेंगे जो वहां की जलवायु में भली प्रकार जीवनयापन कर सकें।

मंगल में पानी तो है, पर वह वहां फटते रहने वाले ज्वालामुखियों द्वारा हवा में भाप बनाकर बुरी तरह उड़ाया जा रहा है। उसके भूतल का प्रायः एक लाख गैलन पानी भाप बनकर आकाश में उड़ जाता है। इसी से सघन बादल जो उसके ऊपर छाये हुए हैं और भी अधिक सघन बनते जाते हैं।

अन्तरिक्ष खोजी मैनियर ने जो सूचनाएं भेजी हैं उनका विश्लेषण करते हुए डा. मासूरस्की ने एक निष्कर्ष यह भी निकाला है कि मंगल जब सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसके निकटतम पहुंच जाता है तो गर्मी की अधिकता से उसके ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघल कर नई नदियों तथा झीलों का निर्माण करती है। जब वह बहुत दूर निकल जाता है तो गर्मी की कमी से हिम प्रलय भी होती है। इन हिम युगों के बीच प्रायः 25000 वर्षों का अन्तर रहता है।

हम पृथ्वी निवासियों की शरीर रचना डिआक्सीराइवो न्यूक्लीक एसिड (डी.एन.ए.) रसायन से सम्भव हुई है। यह जलीय स्तर का तत्व है। उसका विकास जहां जल की उपस्थिति होगी वहां सम्भव हो सकेगा। पर यह अनिवार्य नहीं कि यह एक ही रसायन सभी ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति में जीवन उत्पन्न करता हो, उसके और भी बहुत से आधार हैं।

अमेरिका की नेशनल साइन्स कांग्रेस ने मंगल-ग्रह की नवीनतम स्थिति को ध्यान में रखते हुए भी यह आशा व्यक्त की है कि वहां जीवन का अस्तित्व हो सकता है। डी.एन.ए. के अतिरिक्त भी जीवन के अन्य आधार हो सकते हैं। पृथ्वी पर भी ऐसे बैक्टीरिया पाये गये हैं जो मंगल जैसी परिस्थितियों में रखे जाने पर भी जीवित रह सकते हैं। उन्हें ऑक्सीजन की जरा भी जरूरत नहीं पड़ती यहां तक कि ऑक्सीजन में उलटे दम तोड़ने लगते हैं।

रूस की साइन्स एकेडमी के अन्तर्गत चलने वाले माइक्रो बायोलाजिकल इन्स्टीट्यूट ने एक प्रयोगशाला विनिर्मित की है जिसमें मंगल-ग्रह जैसा वातावरण है। इसमें पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले पिग्मेन्टे बैक्टीरिया भली प्रकार विकसित हो रहे हैं। घातक अल्ट्रावायलेट विकरण भी उन्हें कुछ हानि नहीं पहुंचा सकता। ऐसे ही कुछ पौधे भी हैं जो उस वातावरण में जीवनयापन कर रहे हैं।

मैनीनर—9 यान द्वारा भेजी गई सूचनाओं का जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी में अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वहां के दक्षिण ध्रुव पर हिमाच्छादित वातावरण है। डा. रुडोल्फ हैनेल ने इन्हीं सूचनाओं से यह भी नतीजा निकाला है कि वहां की हवा में भाप का भी अच्छा अंश है। ऊपर के वातावरण में तेज गर्मी अवश्य है, पर मंगल के धरातल का तापमान सह्य है। मंगल के दो चन्द्रमा उसकी परिक्रमा करते हैं।

अमेरिका मंगल यात्रा पर जाने वाला चार यात्रियों सहित एक यान 1 मई 1986 को भेजने की सम्भावना घोषित कर चुका है। सूर्य, मंगल और पृथ्वी की चाल को देखते हुए वह दिन ऐसा होगा जिसको चलने से कम से कम यात्रा करने पर भी लक्ष्य तक पहुंचा जा सकेगा। यों मंगल की न्यूनतम दूरी पृथ्वी से 620 लाख और अधिकतम दूरी 650 लाख मील है। इस यान के लौटने की तारीख 25 जुलाई 1987 निर्धारित की गई है। इस यात्रा पर 750 खरब डालर खर्च आने की सम्भावना है।

पोलिश खगोल विज्ञानी जान गाडोमिस्की ने ब्रह्माण्ड में जीवन की सम्भावनाओं पर प्रकाश डालने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है—‘मेनुअल आन स्टेलर एकोस्फियर्स’। उसमें उनने अपने निकटवर्ती तीन ऐसे ग्रहों का उल्लेख किया है जिनमें जीवन होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। वे हमसे दश-ग्यारह प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं। सन् 1950 में एक उल्काश्म पृथ्वी पर गिरा था। उसका विश्लेषण करने में अमेरिका के मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता जुटे। डा. सिसलर की अध्यक्षता में चली उस शोध का निष्कर्ष यह था कि इसमें अमीनो, नाइट्रेट, हाइड्रोकार्बन जैसे जीव रसायन मौजूद हैं और जहां से यह आया है वहां जीवन की संभावना है। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय ने डा. काल्विन के नेतृत्व में इसी उल्काश्म की दूसरे ढंग से खोज कराई। उनने भी सिसलर की जीवन सम्भावना वाली बात को पुष्ट कर दिया।

पृथ्वी से पचास मील ऊपर कितनी ही उल्कायें उड़ती रहती हैं। प्रयत्न यह किया जा रहा है कि इनमें से कुछ को गिरफ्तार कर के लाया जाय और उनके मुंह से ब्रह्माण्ड के छिपे हुए रहस्यों को उगलवाया जाय। यों धरती पर से भी एस्ट्रोरेडियो सिस्टम के सहारे संसार की कितनी ही वेधशालायें इस दिशा में खोज-बीन करने में निरत हैं। ओजमा प्रोजेक्ट का रेडियो टेलिस्कोप इस दिशा में कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें प्रस्तुत करने में सफल हो चुका है।

अपने सौर-मण्डल में नौ ग्रह हैं। जिनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। इकत्तीस उपग्रह हैं और जो गिन लिये गये ऐसे बीस हजार क्षुद्र ग्रह हैं। यह सभी अपनी-अपनी कक्षा मर्यादाओं में निरन्तर गतिशील रहने के कारण ही दीर्घ जीवन का आनन्द ले रहे हैं। यदि वे व्यतिक्रम पर उतारू हुए होते तो इनमें से एक भी जीवित न बचता। कब के वे परस्पर टकरा कर चूर्ण-विचूर्ण हो गये होते।

इन नौ ग्रहों में से जो ग्रह सूर्य के जितना समीप है उसकी परिक्रमा गति उतनी ही तीव्र है। बुध सबसे समीप होने के कारण प्रति सैकिण्ड 48 किलोमीटर की गति से चलता है और एक परिक्रमा 88 दिन में पूरी कर लेता है। पृथ्वी एक सैकिण्ड में 28.6 किलो मीटर की चाल से चलती हुई 365.25 दिन में परिक्रमा पूरी करती है। प्लूटो सबसे दूर है वह सिर्फ 4.3 किमी. प्रति सैकिण्ड की चाल से चलता है और 248.43 वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है।

इनमें से बुध और शुक्र में अतिताप है। मंगल मध्यवर्ती है। बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो बहुत ठंडे हैं। पृथ्वी का तापमान सन्तुलित है।

सूर्य से पृथ्वी की ओर चलें तो पांचवां और पृथ्वी से सूर्य की ओर चलें तो तीसरा ग्रह बृहस्पति है। वह अपने नौ ग्रहों में सबसे बड़ा है। शेष आठ ग्रहों का सम्मिलित रूप भी बृहस्पति से कम पड़ेगा उसकी दूरी सूर्य से भी उतनी ही है जितनी पृथ्वी से, अर्थात् कोई 60 करोड़ मील अधिक से अधिक और 36 करोड़ कम से कम। उसका मध्य व्यास 88,700 मील है। सामान्यतया उसे पृथ्वी से 10 गुना बड़ा कहा जा सकता है। गैस के बादलों की 10 हजार से लेकर 20 हजार मील मोटी परत उस पर छाई हुई है। पानी और हवा का अस्तित्व मौजूद है। बृहस्पति के इर्द-गिर्द 12 चन्द्रमा चक्कर काटते हैं। इनमें से चार का तो विस्तृत विवरण भी प्राप्त कर लिया गया है। बृहस्पति का गुरुत्व पृथ्वी से ढाई गुना अधिक है। वहां दिन 10 घन्टे को होता है किन्तु वर्ष लगभग 12 वर्ष में पूरा होता है। उस की चाल धीमी है एक सैकिण्ड में 8 मील। जबकि अपने पृथ्वी एक सैकिण्ड में 28 मील चल लेती है।

विश्व जीवन का कीर्तिमान 210 डिग्री फारेनहाइट तक जीवित रह सकने का बन चुका है। उतनी गर्मी सहन करने वाले जीवधारी बृहस्पति जैसे दूसरा सूर्या समझे जाने वाले हाइड्रोजन गैस प्रधान ग्रहों पर आसानी से निर्वाह कर सकते हैं।

वैज्ञानिक यहां तक कहते हैं कि सूर्य के विस्फोट से जिस प्रकार सौर-मण्डल के अन्य ग्रह बने हैं, उस तरह बृहस्पति नहीं बना। वह अपने बारहों उपग्रहों समेत एक स्वतन्त्र नक्षत्र है। किसी प्रकार सूर्य की पकड़ में आकर उसकी अधीनता स्वीकार करने में विवश हो गया है तो भी उसमें स्वतन्त्र तारक जैसी विशेषतायें बहुत अंशों में विद्यमान हैं। यदि बृहस्पति स्वतन्त्र तारक रहा होता तो उसके 12 उपग्रहों में 4 को प्रधानता मिलती। इस प्रधान चन्द्रमाओं को गैलीलियो ने अपने दूरबीनों से देख लिया था और उनके नामकरण आई.ओ. यूरोपा, गैनीमीड, कैलिस्टो कर दिया था। अन्य 8 उपग्रह इसके बाद देखे पहचाने गये।

सौर परिवार के ग्रह पिण्ड अपनी पृथ्वी के सहोदर भाई हैं। हम उनके बारे में जो जानते हैं वह इतना कम है जिसे बालकों जितना स्वल्प ज्ञान ही कह सकते हैं सौर परिवार जैसे अरबों-खरबों तारकमंडल जिस ब्रह्माण्ड में भरे पड़े हैं उसकी विशालता की कल्पना तक कर सकना अपनी बुद्धि के लिए सम्भव नहीं है।

हम अपनी ज्ञान परक उपलब्धियों पर गर्व करें सो ठीक है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि अनन्त ज्ञान की तुलना में हमारी जानकारियां अत्यन्त ही स्वल्प और नगण्य हैं। इतनी तुच्छ जानकारी के आधार पर हमें सर्वज्ञाता बनने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए और ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व तक से इनकार करने की इसलिए ढीठता नहीं बरतनी चाहिए कि हमारी बुद्धि उसे प्रत्यक्षवाद की प्रयोगशाला में प्रकट नहीं कर सकी।

ब्रह्माण्ड का विस्तार मापा नहीं जा सकता

ब्रह्माण्ड का विस्तार इन्च, फुट, गज और मीलों में नापा नहीं जा सकता। उसे केवल समय माप सकता है, क्योंकि वह जब एक मूल बिन्दु से विकसित होना आरम्भ हुआ था तब से आज तक बढ़ता ही जा रहा है। प्रकाश एक सेकिंड में 1 लाख 86 हजार मील चलता है और एक वर्ष में 5869 अरब, 70 करोड़, 36 लाख मील चलता है। इस हिसाब से जब से पृथ्वी का जन्म हुआ तब से ही सृष्टि का विस्तार मापें तो साधारण सा अनुमान लगाया जा सकता है। वह अनुमान आंशिक रूप से ही सही होगा क्योंकि पृथ्वी के पूर्व भी कितने ही ग्रह-नक्षत्र जन्म ले चुके होंगे। फिर भी अनुमान लगाने के लिये पृथ्वी की उत्पत्ति को आधार मानने में कोई हर्ज नहीं है, पृथ्वी की उत्पत्ति कब हुई, यह भी ठीक-ठीक मालूम नहीं किया जा सका है। ‘वैदिक सम्पत्ति’ के विद्वान लेखक पं. रघुनन्दन शास्त्री ने पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति का समय परार्द्ध और मन्वन्तरों के हिसाब से 1972940000 वर्ष निकाला है जबकि पृथ्वी को इससे अधिक ही होना चाहिये। इस हिसाब से अकेले इतने ही समय में ब्रह्माण्ड का विस्तार 5869713600000×1972940000 मील होना चाहिये। पर पृथ्वी तो सौर-मण्डल का एक अति छोटा-सा ग्रह है इससे पहले और बाद का विस्तार तो इससे भी अरबों गुना अधिक है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह ब्रह्माण्ड 50 करोड़ प्रकाश वर्ष के घेरे में है। 10 करोड़ तो नीहारिकायें मात्र हैं जो अनेक सौरमण्डलों को जन्म दे चुकीं, दे रही हैं।

पीले रंग का हमारा सूर्य एक प्रकाशोत्पादक आकाशीय पिण्ड ‘तारा’ माना गया है। इसके मुख्य नौ ग्रह, लगभग एक हजार अवान्तर ग्रह, अनेक पुच्छल तारे एवं उल्का समूह हैं। इन सबके द्वारा सूर्य के चारों ओर घेरा गया आकाश सब मिलाकर सौर-मण्डल कहलाता है। भारतीय मत के अनुसार जहां तक सूर्य की किरणें गमन कर सकती हैं वह सब सौर मण्डल का विस्तार है। इस विस्तार का अनुमान करना ही कठिन है जब कि सौर मण्डल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऐसा है जैसे 10 करोड़ मन गेहूं के ढेर में पड़ा हुआ गेहूं का एक छोटा दाना। एटलस में सारी पृथ्वी का नक्शा निकाल कर अपने गांव के अपने घर की जगह ढूंढ़ें तो उसकी माप ही नहीं निकाली जा सकेगी ऐसी ही नगण्य स्थिति सौर मण्डल की इस विराट् ब्रह्माण्ड में है। यहां इस सूर्य जैसे करोड़ों सूर्य अरबों चन्द्रमा दिन-रात प्रकाश करते रहते हैं।

नौ प्रमुख ग्रहों का विस्तार ही इतना विशाल है। अभी तो 500 करोड़ और भी तारे, धूमकेतु और क्षुद्र ग्रह हैं जिनके व्यास 10 मील से लेकर कई-कई हजार मील के हैं सारा सौरमण्डल महादानव की तरह है यदि कहा जाय तो वह हजार भुजाओं वाले सहस्र बाहु अनेक मुंह वाले दशानन और अपने पेट में सारी सृष्टि भर लेने वाले लम्बोदर की तरह विकराल है और मनुष्य उस तुलना में रेत के एक कण, सुई के अग्रभाग से भी हजारवें अंध जितना छोटा। जैसे मनुष्य जब चलता है तो चींटी, मच्छरों को नगण्य पाप-पुण्य से परे मानकर मारता-कुचलता निकल जाता है उसी प्रकार सौर मण्डल की यह अदृश्य शक्तियां हमें कुचलती और क्षुद्र दृष्टि से देखती निकल जाती होंगी तो हम उनका क्या बिगाड़ सकते हैं। लगी तो रहती है आये दिन शनि की दशा दीन मनुष्य उससे भी तो छुटकारा नहीं ले पाता।

चन्द्रमा सबसे पास का उपग्रह है वहां लोग थोड़े समय में हो आये। अभी तो बुध है वहां मनुष्य जाये तो 210 दिन तब लगें जब वह इतनी ही तीव्र गति से उड़ान करे जैसे चन्द्रयात्रा के लिये। शुक्र में पहुंचने में 292, मंगल में 598, बृहस्पति में 2724, शनि में 4416, यूरेनस, नेपच्यून तथा यम तक पहुंचने में क्रमशः 32 वर्ष, 61 वर्ष और 92 वर्ष चाहिये जबकि मनुष्य की अधिकतम आयु ही सौ वर्ष है अर्थात् कोई यहां से बाल्यावस्था में चले और यम का चक्कर लगाकर आये तो यह बीच में ही मर जायेगा। इतनी दूर की यात्राओं के लिये यात्री को और अधिक सामान न हो तो भी ऑक्सीजन, पानी, आर्गनिक पदार्थ, क्षार आदि तो चाहिये ही। यह सामान भी एक बड़ा बोझ होगा। बुध के लिये 0.615 टन, शुक्र के लिए 0.921 टन, मंगल के लिये 1.824 टन, बृहस्पति 5.981, शनि 12.939 टन चाहिये यदि इतना (1 टन=27 मन के लगभग) खाद्यान्न ही हो जाये तो अन्तरिक्ष यानों की भीम कायिकता का तो अनुमान लगाना ही कठिन हो जायेगा। चंद्रमा जाने वाले अन्तरिक्षयान में 56 लाख पुर्जे लगे थे यदि उसमें लगे 99.9 प्रतिशत काम करें शेष 1 प्रतिशत=56 पुर्जे ही खराब हो जायें तो मनुष्य बीच में ही लटका रह जाये?

यह यात्रायें तभी सम्भव हो सकती हैं जब मनुष्य को कुछ दिन मार कर जीवित रखा जा सके। वैज्ञानिक उसकी शोध में पूरी तरह जुट गये हैं। हर नई उपलब्धि इस तरह नये प्रश्न और नई समस्या को जन्म देता हुआ चला जा रहा है। महत्वाकांक्षायें हनुमान के शरीर की तरह बढ़ीं तो प्रश्न और समस्याओं ने सुरसा का रूप धारण कर लिया। आज का विज्ञान मनुष्य को ऐसी ही समस्याओं में ग्रस्त करता हुआ चला जा रहा है।

वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किये हैं जिनसे मनुष्य को अस्थायी मृत्यु प्रदान करके उन्हें पुनर्जीवित करना सम्भव हो गया है पर समस्या केवल आयु सम्बन्धी ही तो नहीं है अन्तरिक्ष की विलक्षण शक्तियों से भी तो भय कम नहीं है न जाने कितने सूक्ष्म शक्ति प्रवाह आकाश में भरे पड़े हैं वे मानव-नियन्त्रित अन्तरिक्ष यानों को 1 सेकेंड में कहीं का कहीं पहुंचा सकते हैं। अमेरिका को इन शक्ति-प्रवाहों का पता भी है।

इन सीमित भौतिक शक्ति, परिस्थिति और अपनी लघुत्तम क्षमता लेकर मनुष्य अपने सौर-मण्डल के विस्तार को ही नाप सकने में समर्थ नहीं तो फिर विराट् ब्रह्माण्ड को जान लेना उसके लिये कहां सम्भव है।

अकल्पनीय अद्भुत विराट्

जान लेना तो दूर रहा, समूचे ब्रह्माण्ड को देख पाना भी सम्भव नहीं है। बिना किसी यन्त्र के सायंकाल आकाश की ओर खड़े होकर देखें तो हम संसार के सम्पूर्ण भागों से अधिक से अधिक 10 हजार तारे देख कसते हैं। एक स्थान पर खड़े होकर दो हजार तारों से अधिक नहीं देखे जा सकते। यह सभी तारे एक सर्पित नीहारिका (सरमेंटल नेबुला) के बाह्य प्रदेश में उपस्थित हैं। जो हमारी दृष्टि में आ जाते हैं और जो बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं दिखाई देते आकाश गंगा में ऐसे तारों की संख्या 1500 करोड़ है। इनमें से अनेक तारे सूर्य से छोटे और अनेक सूर्य से कई गुना बड़े तक हैं। इनकी परस्पर की दूरी इतनी अधिक है कि उन सब की अलग नाप करना भी कठिन है। पृथ्वी से सूर्य की दूरी 9 करोड़ लाख मील है, चन्द्रमा हम से कुल 240000 मील दूर है। प्लूटो ग्रह जो सूर्य से सबसे अधिक दूर है, उसमें सूर्य का प्रकाश पहुंचने में 5 घण्टे 30 मिनट समय लगता है। अर्थात् सूर्य और प्लूटो के बीच का अन्तर 186000 मील×19800 सैकिण्ड=3682800000 मील है। मनुष्य का आकार-प्रकार इतने विशाल अन्तरिक्ष की तुलना में सागर की एक बूंद, मरुस्थल के एक रेणु-कण से भी छोटा होना चाहिये।

यह तो रहा सौर परिवार का विस्तार और उसकी परिवार संख्या का संक्षिप्त-सा विवरण। इनमें होने वाली गति शक्ति और क्रियाशीलता का क्षेत्र तो और भी व्यापक है। सूर्य स्वयं भी स्थिर नहीं। वह अपनी धुरी पर 43000 मील प्रति घण्टे की भयंकर गति से घूमता रहता है और प्रति सैकिण्ड 40 लाख टन शक्ति आकाश में फेंकता रहता है। पृथ्वी को तो उस शक्ति में से कुल चार पौण्ड शक्ति प्रति सैकिण्ड मिलती है और उतने से ही यहां के जलवायु का नियंत्रण खनिज पदार्थ और मनुष्यों को ताप आदि मिलता रहता है। यह शक्ति देखने में कम जान पड़ती है, किन्तु उसे यदि किसी परमाणु केन्द्र में पैदा करना पड़े तो उसके लिये प्रति घण्टा 1700 अरब डालर व्यय करने पड़ेंगे। सूर्य की यह शक्ति जो वह अपने सौर परिवार की रक्षा और व्यवस्था में व्यय करता है, वह उसकी सम्पूर्ण शक्ति के दस लाखवें भाग का भी दस लाखवां हिस्सा होता है। काम में आने वाली शक्ति के अतिरिक्त को वह अपने भीतर न जाने किस प्रयोजन के लिये धारण किये हुये है और थोड़ी-सी शक्ति भी कंजूसी से व्यय करता है। उससे जहां सूर्य (आत्मा) की शक्ति का बोध होता है, वहां यह भी पता चलता है कि नियामक शक्तियां कितनी सामर्थ्यवान् हैं और मनुष्य कितना क्षुद्र है, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से तो वह कीड़े-मकोड़ों से भी गया-बीता रह गया। आत्मिक दृष्टि से भले ही उसकी सामर्थ्य बढ़ी-चढ़ी हो, किन्तु उसका उद्घाटन और उद्बोधन एकाएक नहीं हो जाता, उसके लिये अपूर्व विश्वास, अविरल साधना और अखण्ड साहस की आवश्यकता पड़ती है।

अभी तक हम अपनी पृथ्वी को छोड़कर केवल सौर-मण्डल तक ही पहुंचे हैं। यह सौर-मण्डल अपने परिवार को लेकर किसी अभिजित नक्षत्र की ओर जा रहा है, ऐसा भारतीय ज्योतिर्विदों का मत है और ऐसी-ऐसी आकाश गंगायें, हजारों नीहारिकायें और अगणित सूर्य अभी इस अन्तरिक्ष में हैं। ऋग्वेद में भी सृष्टि के विस्तार के वर्णन में ‘बहवो सूर्या’ अनन्त सूर्य आकाश-गंगा में हैं ऐसा कहा है। आकाश से कुछ ग्रह-नक्षत्र तो इतनी दूरी पर बसे हुए हैं कि मनुष्य मरे और फिर जीवन धारण करे, फिर मरे और फिर जीवन धारण करे इस तरह कई जन्मों की आवृत्ति करले तो भी उनका प्रकाश पृथ्वी तक न पहुंचे। ज्योतिर्विदों का कहना है कि आकाश में ऐसे कई तारे दिखाई दे रहे हैं, जो वास्तव में हैं ही नहीं। किन्तु चूंकि उनका प्रकाश वहां से चल पड़ा है और वह आकाश को पार करता हुआ आ रहा है, इसलिये उस तारे की उपस्थिति तो मालूम होती है पर वस्तुतः वह टूटकर या तो नष्ट हो गया है, अथवा किसी समीपवर्ती ग्रह में आकर्षित होकर उसमें जा समाया है।

हमारा सौर-मण्डल जिस नीहारिका से सम्बद्ध है, उसे मंदाकिनी आकाश-गंगा कहते हैं, यह आकाश गंगा ही इतनी विशाल है कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचने के लिये प्रकाश को 1 लाख वर्ष लगेंगे। कुछ चमकीले तारे जैसे व्याध या लुब्धक पृथ्वी से 10 प्रकाश वर्ष दूर हैं, यदि कोई तेज-से-तेज जहाज से चलें तो भी वहां तक पहुंचने में तीन लाख वर्ष लग जायेंगे। यह भी इसी निहारिका से सम्बन्ध रखते हैं। इस विस्तार को ही तय करने में मनुष्य को लाखों वर्ष लग सकते हैं तो शेष विस्तार को तो वह लाखों बार जन्म लेकर भी पूरा नहीं कर सकता वैज्ञानिकों ने अब तक ऐसी दस करोड़ नीहारिकाओं (नेबुलाज) का अनुमान लगाया। जबकि यह विस्तार भी ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण विस्तार की तुलना में वैसा ही है जैसे समुद्र तट पर बिखरे हुए रेत के एक कण का करोड़वां छोटा अणु।

सूर्य का आर-पार 864000 मील है। पृथ्वी की परिधि से 108 गुना अधिक है। ऐसे-ऐसे अनेक सौर-मण्डल इन अन्तरिक्ष में समाये हुये हैं और उनकी गतिशीलता इतनी तीव्र है कि कई-कई ग्रह-उपग्रह तो 72 हजार मील प्रति घण्टा की रफ्तार से अपने-अपने केन्द्र में भ्रमण शील हैं। कई तारे युगल (डबुल) और कई बहुत (मल्टीपल) होकर ब्रह्माण्ड (कास्मास) के आश्चर्य को और भी बढ़ा देते हैं। हमारे सौर-मण्डल में ही 1000 छोटे उपग्रह अनेक पुच्छल तारे और असंख्य उल्कायें विद्यमान् हैं। इस प्रकार की बनावटें प्रायः सभी सौर-मण्डलों में हैं। ऐसे-ऐसे 1 करोड़ सूर्यों की खोज की जा चुकी है। खगोल शास्त्री एण्ड्रोमीडा नामक नीहारिका (नेबुला) में 2700 लाख सूर्यों की उपस्थिति की पुष्टि कर चुके हैं। यह हमारे सौर-मण्डल की ओर 200 मील प्रति घण्टा की गति से बढ़ रहा है।

कुछ ऐसे तारों का पता लगाया गया है जो पृथ्वी से इतनी दूर बसे हैं, जहां हमारी कल्पना भी नहीं पहुंच सकती। उदाहरणार्थ ‘सिरस’ 8।। प्रकाश वर्ष, ‘प्रोस्योन’ 11 प्रकाश वर्ष ‘एलटेयर’ 15 प्रकाश वर्ष दूर है। वीदा और ऐरीट्यूरस तारा समूह पृथ्वी से 30 प्रकाश वर्ष कैपीला 54 प्रकाश वर्ष, सप्तर्षि मण्डल 100 प्रकाश वर्ष रीगल इ ओरिओन 500 प्रकाश वर्ष हाइडेसे 130, प्लाइडस 325 और ओरिओन का नीला तारा 600 प्रकाश वर्ष की दूरी पर बसा हुआ है। यह सब तारे विभिन्न प्रकार की जलवायु तापीय और ऊर्जा शक्ति वाले हैं। कई लम्बाई-चौड़ाई में बहुत बड़े हैं। अन्टलारि नामक तारा पृथ्वी जैसी 21 पृथ्वियां अपने भीतर भर ले तो भी बहुत स्थान खाली पड़ा रहे। ओरियन तारा समूह का तारा बैटिल जीन्स का व्यास 2500 लाख मील हे, कुछ तारे तो इतनी दूर हैं कि उनकी प्रथम किरण के दर्शन पृथ्वी वासियों को 36 हजार वर्ष बाद होंगे, तब तक उनका प्रकाश यात्रा करता हुआ बढ़ता रहेगा।

रेडियो ज्योतिष नाम की विद्या का जन्म अब इन सबसे आश्चर्यजनक माना जाने लगा है। अर्थात् रेडियो दूरबीनों का निर्माण हुआ है, जिससे रेडियो तारे और रेडियो नीहारिकाओं की खोज की गई।

अनन्त विस्तार के संकेत

डा. विकी नामक प्रसिद्ध खगोलज्ञ से एक बार एक पत्रकार ने प्रश्न किया आप बता सकते हैं अति सूक्ष्म से अति विशाल कितना बड़ा है डा. बिक्री ने खड़िया उठाई और एक बोर्ड में लिखा 10000000,00000,00000,00000,00000,00000, 00000,0000 (10 से आगे 41 शून्य) गुना। जबकि यह मात्र अनुमान है सत्य में विराट् जगत कितना विराट् है उसकी कोई माप जोख नहीं है।

उसी प्रकार अणु इतना सूक्ष्म है कि उसकी सूक्ष्मता का सही माप कठिन है। परमाणु के नाभिक का व्यास .000000000000001 मिली मीटर होता है इस नगण्य जैसी स्थिति को आंखें तो इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी से भी कठिनाई से ही देख पाती हैं। दोनों परिस्थितियां देखते ही ऋषियों का ‘‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’’ अर्थात्—‘‘वह अणु से अणु और विराट् से भी विराट् है’’ वाला पर याद आता है।

‘‘मनुष्य इन दोनों के मध्य का एक अन्य विलक्षण आश्चर्य है?’’ यह कहने पर डा. विकी से प्रश्नकर्त्ता ने पूछा—सो क्यों? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने बताया—मनुष्य जिन छोटे-छोटे कोशों (सेल्स-शरीर की सूक्ष्मतम इकाई का नाम सेल है यह जीवित पदार्थ का परमाणु होता है) से बना है उनकी संख्या भी ऐसी ही कल्पनातीत अर्थात् 7000000000000000000000। इसमें आश्चर्य यह है कि इन सभी अणुओं में प्रकाशवान् नाभिक की संगति आकाश के एक-एक तारे से जोड़ें तो यह देखकर आश्चर्य होगा कि समस्त ब्रह्मांड इस शरीर में ही बसा हुआ है। डा. विकी के इस कथन और ऋषियों के ‘‘यत् ब्रह्माण्डे तत्पपिण्डे’’ जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सब मनुष्य देह में है। ऐसी विलक्षण और विराट् देह प्राप्त करके भी मनुष्य जब क्षुद्र जीव जन्तुओं का सा जीवन होता है तो ऐसा लगता है कि मनुष्य को इस शरीर की देन देकर भगवान ने ही भूल की अथवा मनुष्य ने स्वयं ही उस सौभाग्य को अपने अज्ञान द्वारा आप नष्ट कर लिया।

मनुष्य सूर्य मण्डल के जीवन चक्र हैं। सूर्य से सवा नौ करोड़ मील दूर रहने वाली हमारी पृथ्वी को ग्रह कहते हैं। ग्रह इसलिये कहते हैं क्योंकि इसका अपना प्रकाश नहीं है यह सूर्य की द्युति से चमकती है। शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, प्लूटो सभी सूर्य से उधार प्रकाश पाकर चमकते हैं इसलिये इन्हें ग्रह-उपग्रह कहते हैं। जो अपनी चमक से चमकते हैं उन्हें तारा कहते हैं। सूर्य इस परिभाषा के अन्तर्गत एक तारा ही है। इसके आठ ग्रह हैं। इन आठों ग्रहों के अपने अपने चन्द्रमा हैं। कम से कम 1500 छोटे उपग्रह भी सौर परिवार के सदस्य हैं। अपने सौर मण्डल में दो विशाल उल्का पुंज और पुच्छल तारे भी हैं।

अन्य तारे, सूर्य और उसके अन्य सदस्य ग्रह-उपग्रहों से मिलकर बना संसार एक आकाश गंगा कहलाता है। हम जिस ‘स्पाइरल’ आकाश गंगा में रहते हैं उसमें विभिन्न गैसों की बनी 19 नीहारिकायें हैं। अपना सौर मंडल उन्हीं में से एक है। प्रत्येक नीहारिका में 25 खरब तारों के होने का अनुमान है। इस तरह अपनी आकाश गंगा में ही 25×19=475 खरब तारागण होंगे।

19 नीहारिकाओं वाली आकाश गंगा का क्षेत्रफल 100000×32000= 3200000000 वर्ग प्रकाश वर्ष है। 1 प्रकाश वर्ष में ही करीब 58700 करोड़ अरब मील होते हैं फिर 3200000000 वर्ग प्रकाश वर्षों की दूरी का तो कोई अनुमान ही नहीं हो सकता। 475 खरब तारामण्डल तो इस क्षेत्र के केवल 1 प्रतिशत भाग में बसते हैं, शेष 99 प्रतिशत भाग तो शून्य है। देखने में ऐसा लगता है कि तारागण बहुत पास-पास हैं यदि वे चलते होंगे तो प्रतिक्षण आपस में टकराते रहते होंगे पर आकाश में कोई भी तारा परस्पर 25000000000000 मील दूरी से कम नहीं।

आकाश की गहराई की सीमा यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अभी तक तो अपनी आकाश गंगा में ही चक्कर काट रहे हैं। हमें अपनी पृथ्वी स्थिर और सूर्य को उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटते दिखाई देता समझ में आता है पर खगोलज्ञों ने सिद्ध किया है पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। यह सब सीमित दृष्टिकोण की बातें हैं जिस प्रकार मनुष्य अपने आपको एक गांव एक प्रान्त एक देश का ही निवासी मानकर रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा, भाषा संस्कृति के प्रति संकुचित दृष्टिकोण अपनाता है पर जब वैज्ञानिकों के यह संदर्भ सामने आते हैं तब पता चलता है कि अनन्त आकाश के क्षुद्र जन्तु मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं। समस्त मनुष्य जाति एक है। उसे एक नियम व्यवस्था के अन्तर्गत परस्पर मिल-जुलकर रहना चाहिये। यदि वह परस्पर बैर भाव रखता स्वार्थ और संकीर्णता की बात सोचता और करता है तो यह उसकी अबुद्धिमत्ता ही कही जायेगी। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के कथन भी पूर्ण सत्य नहीं। उनके द्वारा प्रतिष्ठापित मान्यतायें अभी हमारी दार्शनिक मान्यताओं और हमारे ऋषियों की उपलब्धियों के सामने वैसी ही हैं जैसे अनन्त आकाश में आकाश गंगा और नीहारिकाओं के सिद्धान्त हमें जीवन की वास्तविकता को भौतिक दृष्टि से ही नहीं निरीक्षण करना चाहिए वरन् जैसा वेद कहते हैं—

पतङ्गमक्तमसुरम्य मायया हृदय पश्यन्ति मनसा विपश्चितः । समुद्रे अन्तः कवयो विचक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वधसः ।। —ऋग्वेद 10।177।1

परमात्मा की अद्भुत इच्छा द्वारा शरीर धारण करके प्रकट हुए मनुष्यों! अपने आपको ज्ञान भक्ति और मनन द्वारा प्राप्त करो। संसार समुद्र के बीच प्रत्येक पदार्थ को कवि की दिव्य दृष्टि से देखना चाहिए। जो ध्यान में स्थित होकर तेज को मूल स्थान में ढूंढ़ते हैं वही आत्मा का पूर्ण रहस्य प्राप्त करते हैं।

विज्ञान और ब्रह्माण्ड की गहराइयां उसी ओर लेकर चल रही हैं। अब यह निश्चित हो चुका है कि सूर्य भी अपने समस्त परिवार के साथ अपनी आकाश गंगा के केन्द्र से 33000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर रहकर 170 मील प्रति सैकिण्ड की गति से उसकी परिक्रमा कर रहा है। इस तरह हम सौर मंडल-नीहारिका से आकाश गंगा के सदस्य हो गये। जितना यह विराट् बढ़ा हम और छोटे हो गये उसी के अनुसार हमारे विचार व्यवहार का तरीका भी बदलना चाहिये, तब तक हम सम्पूर्ण अस्तता को प्राप्त नहीं कर लेते। अमरीका की माउन्ट पैलोमर बेधशाला में सबसे बड़े 200 इन्च व्यास वाली दूरबीन है इसे वैज्ञानिक हाले ने बनाया था। बड़े दृष्टिकोण से संसार की असलियत का सबसे अधिक स्पष्ट और सही अनुमान होता है इस दूरबीन से देखने पर पता चला कि अपनी आकाश गंगा से 3000000000 प्रकाश वर्ष अर्थात् लगभग 20000000000000000000000 मील की दूरी पर सूर्य मण्डल जै 1000000000 और सौर मंडल या नीहारिकायें हैं। ऊपर दिये आंकड़ों के अनुसार इन नीहारिकाओं में तारागणों की संख्या 25000000000 खरब होनी चाहिये जबकि इन तारागणों द्वारा घेरे जाने वाला क्षेत्र कुल 1/100 ही होगा अर्थात् सम्पूर्ण विस्तार इन तारागणों के क्षेत्रफल से कहीं 99 गुना अधिक होगा।

इस सारे नक्शे को एक कागज में उतारना पड़े और दूरी का मापक 1 प्रकाश वर्ष को 1 इन्च के बराबर माना जाय तो भी कागज की लम्बाई कई नीहारिकों की लम्बाई से बढ़कर होगी। ज्यामिति शास्त्र (ट्रिगनामेट्री) के अनुसार चन्द्रमा की दूरी निकालने के लिए चार हजार मील की लम्बी आधार रेखा चाहिये फिर इन नीहारिकाओं में बसने वाले तारे तो इतनी दूर है कि उनकी दूरी निकालनी पड़ जाये तो 20 करोड़ मील लम्बी तो आधार रेखा ही चाहिये इतनी बड़ी पटरी (फुटा) बनानी सम्भव हो जाये तो उसका एक छोर पृथ्वी में रखकर नापने से भी सूर्य की आधी दूरी तक की ही माप हो सकेगी। सूर्य को पाने के लिये उसके दो गुने से भी अधिक लम्बाई आवश्यक है। दिनोंदिन विस्तृत होते जा रहे ब्रह्माण्ड का कभी जन्म हुआ था। जो जन्मता है उसकी निश्चित मृत्यु होती है। वैज्ञानिक भी गवेषणाओं द्वारा उस समय अवधि का निर्धारण कर चुके हैं और बता चुके हैं कि इस ब्रह्माण्ड का कभी न कभी अन्त होना है। इतने विस्तृत और अकल्पनीय ब्रह्माण्ड का निश्चित समय पर अवसान होना है तो मनुष्य की कौन बिसात है। इसके अतिरिक्त अनन्त अकल्पनीय विस्तृत ब्रह्माण्ड का सुव्यवस्थित संचरण, संचालन देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि कोई न कोई नियम व्यवस्था है जो इसका सुचारु रूप से संचालन कर रही है।

अनन्त विस्तार के यह संदर्भ संकेत करते हैं कि मनुष्य क्षुद्र और अणु में ही उलझा न रहकर विराट का भी कुछ अर्थ समझे। इसे भगवान ने जो सर्वशक्ति सम्पन्न बुद्धि दी है वह इसलिए है कि उसे तुच्छ कार्यों और तुच्छ स्वार्थों में ही अपना जीवन नष्ट न करते हुए आत्मा आत्मा के उत्थान व कल्याण के लिए भी कुछ करना चाहिए।
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