असीम पर निर्भर ससीम जीवन

सृष्टि संसार की नियामक सत्ता

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वो प्रत्येक व्यक्ति अपने सुख-दुःख, आनन्द क्षोभ, शांति उद्वेग के लिए स्वयं जिम्मेदार है। स्वयं वह अपने लिए कांटे बोता है और फूल उगाता है। फिर भी उसे अपने किये का परिणाम चुनने की स्वतन्त्रता नहीं है। यदि यह स्वतन्त्रता मिली होती तो कोई भी व्यक्ति बुरे काम करने के बाद भी अच्छे परिणाम चुन लेता और बुरे कार्यों के परिणाम दूसरे व्यक्तियों के लिए छोड़ देता।

इसी कारण कहा जा सकता है मनुष्य कर्म करने में तो स्वतंत्र है पर परिणाम ईश्वर के अधीन है, ईश्वर—एक ऐसी व्यवस्था, नियामक सत्ता है जो कर्मों के परिणाम और उस आधार पर जातिगति विधियों का नियमन करती है। उस सत्ता को असीम कहा जाता है इसलिए यह मानने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि मनुष्य का जीवन असीम पर निर्भर है।

वैसे भी प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता, प्रत्येक रचना का कोई रचयिता और प्रत्येक व्यवस्था का कोई न कोई नियामक अवश्य होता है। आस्तिकवाद के समर्थन में भी यही तर्क दिया जाता है और इसी आधार पर ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। प्रश्न यह भी किया जा सकता है कि जब प्रत्येक रचना का कोई न कोई अधिष्ठाता है, तो इसी के अनुसार ईश्वर की सृजेता सत्ता भी कोई न कोई होनी चाहिए। ईश्वर यदि अपना कारण स्वयं है तो फिर प्रकृति अपना कारण स्वयं क्यों नहीं हो सकती? इस तरह के प्रश्न, उत्तर और प्रतिप्रश्नों की शृंखला का कहीं भी अन्त नहीं है। पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए, अपनी विद्वत्ता सिद्ध करने के लिए कितने भी तर्क दिये जा सकते हैं और प्रतिपक्षी को हतप्रभ किया जा सकता है परन्तु सत्य की शोध के लिए पूर्वाग्रह से मुक्त दृष्टिकोण चाहिए और चाहिए निर्मल दृष्टिकोण। ताकि वस्तुस्थिति को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखा समझा जा सके।

ईश्वर है या नहीं है उससे भी ज्यादा विचारणीय प्रश्न यह रहा है कि इस विश्व की रचना कैसे हुई? किसने की? इस प्रश्न—पर जो मतभेद चिरकाल से चला आ रहा है वह अभी भी विद्यमान है। विज्ञानी कहता है कि जड़ तत्वों का अनायास सम्मिलन ही सृष्टि का निमित्त है। इसी से छोटे-बड़े अनेक पदार्थ मिले जिनमें चेतना भी एक इकाई है। आस्तिक मान्यताओं के अनुसार हर वस्तु का कोई कर्त्ता होता है तो सृष्टि का भी कोई चेतन कर्त्ता होना चाहिए वह ईश्वर है। ईश्वरवादियों की दो मान्यताएं हैं—एक यह कि वह अपनी सूक्ष्म स्थिति से दृष्टा साक्षी है और सृष्टि का सूत्र संचालन बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह करता है। दूसरा पक्ष है कि यह सृष्टि ही ईश्वर है। हर पदार्थ के मूल में काम करती हलचल और हर प्राणी में निवास करने वाली बुद्धि के रूप में उसकी सत्ता प्रत्यक्ष है। व्यष्टि को उसका अंश माना जाय और समष्टि को उसका संयुक्त समग्र रूप।

इन मान्यताओं पर दार्शनिक दृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है। विज्ञान पक्ष की यह मान्यता यदि स्वीकार कर ली जाय कि परमाणुओं के मिलन से सृष्टि बनी तो एक नया प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि प्राणियों में जो ‘अहम्’ बोध पाया जाता है क्या वह भी उसी अणु सम्मिलन का परिणाम है? क्या विज्ञानियों द्वारा आविष्कृत यन्त्रों में वह ‘अहम्’ है। नदी, पर्वत, अन्न, धातु आदि पदार्थों में वह आत्म-बोध है? क्या वे विचारपूर्वक कुछ करने और बनने का उपक्रम करने की स्थिति में हैं? क्या उनमें दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्वेदना है? क्या उनमें आकांक्षा, विचारणा एवं क्रियाशीलता जैसी अन्तःचेतनाएं उठती हैं? यदि ऐसा रहा होता तो जड़-पदार्थ भी चेतन प्राणियों की तरह अपनी-अपनी योजनाएं बनाते और इच्छा पूर्ति के लिए स्वेच्छापूर्वक स्वतन्त्र गतिविधियां अपनाते।

जड़ का आधार चेतना है या चेतना का आधार जड़? यह विवाद का मुख्य विषय है। पदार्थ में कुछ अपनी विशेषताएं हैं। उनके परस्पर मिलन से नई-नई ऐसी वस्तुएं बनती हैं जो मिलन वाले घटकों से भिन्न प्रकार की होती हैं। रसायन शास्त्र के अन्तर्गत ऐसे प्रयोग निरन्तर होते रहते हैं। इस मिलन प्रतिक्रिया की विचित्रता के कारण ही यह अनुमान होता है कि जब वस्तुओं की रगड़ से बिजली पैदा हो सकती है तो रासायनिक पदार्थों का अमुक सम्मिश्रण चेतन को क्यों उत्पन्न नहीं कर सकता? इस तर्क पर यह विचार करना चाहिए कि रासायनिक सम्मिश्रण से नये पदार्थ या प्रवाह तो अवश्य बनते हैं, पर वे सभी बोध रहित होते हैं। आग पानी के सम्मिश्रण में एक तीसरी चीज भाप तो बन सकती है, पर वह रहेगा बोध रहित ही। रगड़ से बिजली तो बनती है, पर उसमें ज्ञान कहां होता है? मनुष्य कृत अगणित अद्भुत यन्त्रों का निर्माण हुआ है। कम्प्यूटर कितने ही प्रसंगों में मनुष्य से अधिक बुद्धिमान और तत्पर दिखाई पड़ते हैं। फिर भी उनमें अपनी चिन्तन क्षमता नहीं है। किन्तु बुद्धि युक्त मनुष्य द्वारा संचालित किये बिना बहुमूल्य स्वसंचालित कहे जाने वाले यन्त्र भी कहां काम करते हैं? अन्तरिक्ष में उड़ने वाले राकेटों का भी नियन्त्रण तो मनुष्य को ही करना पड़ता है भले ही उन यन्त्रों में कितनी ही प्रचण्ड सामर्थ्य क्यों न भरी पड़ी हो। फिर निर्माताओं ने उन यन्त्रों में जितनी सामर्थ्य भर दी है वे उससे रत्ती भर भी अधिक काम नहीं कर सकते। स्थिति के अनुसार परिवर्तन करने की सूझ-बूझ उनमें कहां होती है वे अपने में उत्पन्न हुई गड़बड़ियों को समझने तथा सुधारने में भी समर्थ कहां होते हैं? ऐसी दशा में जड़ से चेतन की उत्पत्ति कहां हो सकी? बात इतनी भर सिद्ध हुई कि पदार्थों के मिलने से नई किस्म के पदार्थ बन सकते हैं, पर वे रहेंगे अन्तः बोध रहित ही। चेतना का गुण बोध है। जिसे बोध नहीं—मात्र हलचल करता है—उसे चेतन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धियां चेतन मस्तिष्क के प्रयास का प्रतिफल हैं। यदि ऐसा न होता तो प्रकृति की विद्युत शक्ति बहुत पहले ही अपने अस्तित्व का परिचय देने लगी होती और आज जो काम कर रही है वह उससे भी पहले ही करने लगी होती। पदार्थ में पाई जाने वाली एनर्जी हलचल भर कर सकती है चेतना का मौलिक गुण है आत्म बोध। रेडियम आदि में शक्तिशाली एनर्जी पाई जाती है, पर वह आत्म-बोध के आधार पर सम्भव हो सकने वाली विचारणा और आकांक्षा से सर्वथा रहित है। किसी विचारशील के इशारे पर अपनी क्रियाशक्ति का प्रभाव भर देख सकती है। एनर्जी और चेतना दोनों एक वस्तु नहीं है जैसा कि विज्ञान पक्ष द्वारा प्रतिपादन किया जाता है। न तो चेतना, जड़ और न जड़ में चेतना का अस्तित्व है। दोनों की अपनी-अपनी सत्ता और महत्ता है। हां दोनों के बीच ताल-मेल बहुत अधिक है। जड़ से चेतन को अपनी आकांक्षाएं एवं आवश्यकताएं पूरी करने का अवसर बनता है। चेतना से जड़ की उपयोगिता को उभारने और सुव्यवस्थित रूप से प्रयुक्त करके उसकी सार्थकता सिद्ध की जाती है। लोक व्यवहार में यही क्रम चलता है। सृष्टि निर्माण का आधार भी यही समझा जाना चाहिए।

विज्ञान की मान्यता यह है कि जो जाना गया वह यह है। उसका यह आग्रह नहीं है कि जो जान लिया गया उससे आगे और कुछ जानने के लिए नहीं है। जिज्ञासा का द्वार खुला रहने और भावी शोध से नये निष्कर्ष निकालने की आशा बनाये रहने के कारण विज्ञान को नास्तिक नहीं कहा जा सकता। वह आज ईश्वर को उस रूप में नहीं मानता जिसमें कि आस्तिक मानते हैं तो भी ऐसी सम्भावनाएं विद्यमान हैं जो चेतना का स्वतन्त्र आस्तित्व सिद्ध करने के लिए आगे बढ़ती चली आ रही हैं और विज्ञान की उन सम्भावनाओं को स्वीकार करने के लिए मस्तिष्क खुला रहना होगा।

नियन्त्रित और नियामक व्यवस्था और व्यवस्थापक के न्याय से भी ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। यह तो सर्वमान्य है कि कार्य का कोई अधिष्ठाता, प्रत्येक रचना का कोई कलाकार अनिवार्य रूप से होता है। आगरे का ताजमहल संसार के सर्व प्रसिद्ध सात आश्चर्यों में से एक है। उसके निर्माण में प्रतिदिन 20 हजार मजदूर काम करते थे, इतिहासकारों के अनुसार उसका निर्माण 6 करोड़ रुपये में हुआ। उसके निर्माण में साढ़े अट्ठारह वर्ष लगे। उसमें राजस्थान से आया संगमरमर, तिब्बत की नीलम मणि, सिंहल की सिपास्लाजुली मणि, पंजाब के हीरे, बगदाद के पुखराज रत्न लगे हैं। इतनी सारी व्यवस्था और साधन सामग्री जुटाने में एक व्यक्ति की बुद्धि काम कर रही थी। वह थी शाहजहां की। ताजमहल की रचना के साथ शाहजहां चिरकाल अमर है।

कोरिया का मेलोलियम संसार का दूसरा आश्चर्य। 62 हाथ लम्बी उतनी ही चौड़ी चहारदीवारी के मध्य 40-40 हाथ ऊंचे 36 स्तम्भ जो नीचे मोटे पर ऊपर क्रमशः पतले होते गये हैं। सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक संगमरमर की बहुमूल्य मूर्तियों की सजावट। प्रसिद्ध कलाकार पाइथिस और माटीराम द्वारा विनिर्मित इस समाधि मन्दिर का निर्माण केवल एक व्यक्ति की इच्छित रचना है वह थी वहां की महारानी ‘‘आर्टीमिसिया’’।

20 लाख रुपये की लागत से बनी 25 फुट ऊंची ओलम्पिया की जुपिटर प्रतिमा एथेन के सम्राट पराक्लीज की हार्दिक इच्छा का अभिव्यक्त रूप है। इफिसास का डायना मन्दिर चांदफिन की कल्पना का साकार है तो अजन्ता की 29 गुफाओं में 5 मन्दिरों और 24 बौद्ध बिहारों में प्रवर सेन युग के आचार्य सुनन्द का नाम अंकित है। सिंकन्दरिया का प्रकाश स्तम्भ सिकन्दर के संकल्प का मूर्तिमान है। 263 हाथ के घेरे में 22 फुट ऊंचे ठोस घेरे में खड़ा किया गया बैबिलोन साम्राज्ञी ने बनवाया रोम का कोलोसियस, पीसा की मीनार रोडस की पीतल की मूर्ति मिस्र के पिरामिड चार्टेज गिरजाघर डेविड, मोजेज, स्टिाइन चैपिल पियेटा की प्रतिमाएं, एफिल टावर (पेरिस) व्हाइट हाउस अमेरिका, लाल किला दिल्ली आदि जितनी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं हैं, उनके रचनाकार आला मस्तिष्क और भाव सम्पन्न आत्माएं रही हैं किसी भी सांसारिक निर्माण को स्वनिर्मित नहीं कहा जा सकता इसी से रचना के साथ रचनाकार को नाम अविच्छिन्न रूप से चलता है।

यह छोटे-छोटे उपादान बिना कर्त्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सके होते तो इतना सुन्दर, संसार जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश व गर्मी देता है। रात थकों को अपने अंचल में विश्राम देती, तारे-पथ-प्रदर्शन करते, ऋतुएं समय पर आतीं और चली जाती हैं। हर प्राणी के लिए अनुकूल आहार, जलवायु की व्यवस्था, प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। करोड़ों की संख्या में तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के लड़ मरे होते। यदि इन सब में गणित कार्य न कर रहा होता तो अमुक दिन, अमुक समय सूर्य ग्रहण-चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रान्ति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह सोद्देश्य कर्म और सुन्दरतम रचना बिना किसी ऐसे कलाकार के सम्भव नहीं थी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एक रस देखता हो, साधना जुटाता हो, न्यास करता हो और जीव मात्र को पोषण संरक्षण प्रदान करता हो।

नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन चल तो सकते हैं, पर आधे घण्टे से अधिक नहीं जब कि पृथ्वी को ही अस्तित्व में आये करोड़ों वर्ष बीत चुके। परिवार के वयोवृद्ध के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है। गांव का एक मुखिया होता है तो कई गांवों के समूह की बनी तहसील का स्वामी तहसीलदार, जिले का मालिक कलक्टर, राज्य का गवर्नर और राष्ट्र का राष्ट्रपति। मिलों तक के लिए मैनेजर कम्पनियों के डाइरेक्टर न हों तो उनकी ही व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है और उनका अस्तित्व डांवाडोल हो जाता है फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, तो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा का विरद् चरितार्थ हुए बिना नहीं रहता।

2 फरवरी 1947 के नेशनल हेरल्ड में एक लेख छपा था—‘‘वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं?’’ इस लेख में विद्वान् लेखक ने बताया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता हे, यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासन हीनता आ जाये तो विराट् ब्रह्माण्ड एक क्षण को भी नहीं टिक पाता। एक कण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त कुछ न होता।

नियामक विधान किसी मस्तिष्कीय सत्ता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है। हमारे जीवन का आधार सूर्य है। वह 10 करोड़ 60 लाख मील की दूरी से अपनी प्रकाश किरणें भेजता है जो 8 मिनट में पृथ्वी तक पहुंचती हैं। दिन भर में यहां के वातावरण में इतनी सुविधाएं एकत्र हो जाती हैं कि रात आसानी से कट जाती है। दिन-रात के इस क्रम में एक दिन भी अन्तर पड़ जावे तो जीवन संकट में पड़ जाये। सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में एक बूंद का-सा नगण्य अस्तित्व रखती है फिर, उसकी तुलना में रूस साइबेरिया प्रान्त में एक गड़रिये के घर में जी रही एक चींटी का क्या अस्तित्व हो सकता है, पर वह भी मजे में अपने दिन काट लेती है।

लेकिन परमात्मा कभी-कभी अपने अस्तित्व के दिग्दर्शन के लिए संहारक क्षमता का उपयोग भी करता है। ऐसे दृश्य उपस्थित होते हैं कि मनुष्य तो क्या समस्त जीव जगत तक थर्रा उठता है। इस स्थिति का उद्देश्य मानव की प्रसूत-आध्यात्मिकता को झकझोरना कहा जा सकता है। जैसे पिता बालक को उद्दण्डता तब तक बर्दाश्त करता है जब तक और किसी का अहित न हो। डांटा तो वह कभी-कभी ही डराने, धमकाने अनुशासन में बनाये रखने के लिए करता है। ईश्वर भी इसी प्रकार अपनी सन्तानों को अनुशासन में रखने के लिए समय-समय पर धमकाता डराता और दण्ड देता रहता है। ‘ईश’ का अर्थ है—अनुशासन। इस सृष्टि के कण-कण में एक अनुशासन संव्याप्त है। मनुष्य अपने शरीर और मस्तिष्क को जितने अंश में अनुशासित रख सकता है वह उतने अंश में अपने आप का ईश्वर है। इस संसार में अनुशासन हीन कुछ भी नहीं है। आकाशस्थ ग्रह नक्षत्र एक अनुशासन में बंधे हैं। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की सुव्यवस्था सर्वत्र देखी जा सकती है। प्राणी और पदार्थ एक दूसरे के पूरक बनकर रह रहे हैं।

प्रजनन और काम कौतुक में प्रत्येक वर्ग की वंश वृद्धि का कैसा अद्भुत समन्वय है, जिसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। परमाणु समूह का अपने क्रिया-कलाप में बिना दूसरों के टकराये संलग्न रहना कितना विधिवत् और कितना व्यवस्थित है। शरीर की कोशाएं अपने आप में एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व का परिचय देती हैं और सघन सहयोग के सहारे शरीर की गतिविधियों का सुसंचालन करती हैं। किसी भी क्षेत्र में—किसी भी दिशा में—दृष्टि पसार कर देखा जाय सर्वत्र अनुशासन संव्याप्त है। बाढ़, भूकम्प, आंधी, तूफान जैसी दुर्घटनाएं भी अनायास नहीं होतीं उनके मूल में भी कोई सिद्धान्त काम करते हैं और उन्हीं के आधार पर वे घटनाएं घटित होती हैं, जिन्हें यदा-कदा होने के कारण हम आकस्मिक अप्रत्याशित समझते और आश्चर्य करते हैं। इस अनुशासन को भी ईश्वर नाम दिया जा सकता है।

लहरों का पृथक अस्तित्व देखने पर भी वे वस्तुतः समुद्र की विशाल जल राशि की ही छोटी-छोटी इकाइयां होती हैं। किरणों का समन्वय ही सूर्य है। व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। सृष्टि के सबसे छोटे घटक अण्ड या अणु कहलाते हैं इन्हीं का विशाल समुदाय ब्रह्माण्ड है। आत्माओं की सामूहिक चेतना परमात्मा है। हम हवा के विशाल समुद्र में उसी प्रकार सांस लेते और जीते हैं जिस प्रकार मछलियां किसी जलाशय में अपना निर्वाह करती हैं। प्राणियों की समग्र सत्ता ब्रह्म है। अणुओं का समुदाय ब्रह्माण्ड। प्राणी और पदार्थों की सत्ता दीखती तो स्वतन्त्र है, पर वस्तुतः वह एक ही विशाल महाप्राण के अनन्त संसार से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। उसमें उगते, बढ़ते और बदलते रहते हैं। इस महाप्राण को—महान अनुशासन को ईश्वर कहा जा सकता है।

न तो पैर को देख पाते हैं और न हाथ को हाथ। आंखों की ज्योति ही दोनों को देख सकने में समर्थ होती है। आंखें स्वयं ही इस ज्योति से प्रकाशवान होती है तो भी वे अपने आलोक को देख सकने में समर्थ नहीं होतीं। हाथ के लिए आंख की ज्योति का देख सकना तो और भी कठिन है। जड़ पदार्थों से बने इन्द्रिय समूह से—यन्त्र उपकरणों से उस परम चेतन ज्योति को कैसे देखा जाय? यह सम्भव न होने से ही यदि ईश्वर की सत्ता मानने से इंकार किया जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा यदि सूक्ष्म और स्थूल की अनुभूति के लिए प्रत्यक्ष से साक्षी न बनने की बात स्वीकार कर ली जाय तो ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति पग-पग पर हो सकती है। जड़ से जड़ की नाप तौल हो सकती है। चेतन-चेतन की अनुभूति पा सकता है। परिष्कृत, परिशोधित आत्मा के लिए यह तनिक भी कठिन नहीं है कि वह अपने अन्तराल में विद्यमान ऐसी सत्ता का अनुभव करे जो उसे निरन्तर ऊंचा उठाने और आगे बढ़ाने का आह्वान करती है।

पैस्कल कहते थे कि—‘जो हमारी पकड़ में नहीं आया, उसके सम्बन्ध में यह सोचना गलत है कि उसका अस्तित्व है ही नहीं।’ अब से कुछ शताब्दियां पहले बिजली, रेडियो आदि की कहीं चर्चा तक नहीं थी। भूतकाल में भी कभी उनकी उपस्थिति देखी नहीं गई थी। इन शक्तियों की कल्पना जब किन्हीं मस्तिष्कों में उदय हुई तब भी कोई ऐसे प्रमाण नहीं थे जिनसे उनकी उपस्थिति निश्चित रूप से सिद्ध की जा सके। फिर भी अनस्तित्व से अस्तित्व की सम्भावना स्वीकार की गई और खोजें चल पड़ीं। विभिन्न आविष्कार इस प्रकार प्रकट हुए हैं।

ईश्वर के अस्तित्व से मात्र इस आधार पर इनकार करना अयोग्य है कि वह इन्द्रियों और यन्त्रों की पकड़ में नहीं आता। ईश्वर तो चेतन है। जड़ जगत की भी अनेकों शक्तियां पर्दे के पीछे से झांकती हैं ओर अपने आभास का संकेत करती हैं। शोध कर्त्ता इन्हीं सम्भावनाओं पर आस्था रख कर इतना श्रम, समय और धन खर्च कर रहे हैं। यदि यह मानकर चला जाय कि जिनका प्रत्यक्ष होगा उन्हीं की सम्भावना स्वीकार की जायगी तब तो विज्ञान की प्रगति का सारा आधार ही समाप्त हो जायगा। तब उपलब्धियों का प्रयोग भर होता रहेगा। इन शोधों के लिए चेष्टा करना तो दूर उनकी कल्पना तक उपहासास्पद बन जायगी।

यह सब सत्य इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि संसार को बनाने वाला अद्भुत गणितज्ञ, विलक्षण इंजीनियर, सुयोग्य चिकित्साधिकारी मौसमवेत्ता और परमाणु वैज्ञानिक है, उस सत्ता के अस्तित्व से इन्कार करना अपने आप को पतन में धकेलने के बराबर है। उसे प्राप्त करने का प्रबल पुरुषार्थ आवश्यक है। जिसने उसे पा लिया उसने अपना जीवन धन्य कर लिया समझना चाहिए।

सर्व नियामक सत्ता की प्रबन्ध व्यवस्था का पता जीवन के आविर्भाव से ही चल जाता है। जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि में ऐसा प्रबन्ध है कि वे सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करें। सांस के बिना प्राणी एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकता, सो वह प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध है। उसके बाद जल की आवश्यकता है उसके लिए थोड़ा प्रयत्न करने से ही काम चल जाता है। तीसरी आवश्यकता अन्न की है सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए फल-फूल की प्राकृतिक व्यवस्था है वहीं बुद्धिधारी जीव थोड़े प्रयत्न से अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं इसके बाद के समस्त उत्पादन आवश्यकता के अनुपात में प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्त होते रहते हैं। इन सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक—व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी।

नैतिकता के सर्वमान्य सिद्धान्तों से न केवल जीव समुदाय जुड़ा है अपितु कर्त्ता ने वह अनुशासन स्वयं पर भी पूरी तरह लागू किया है। भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और सम्वेदनशील सत्ता को विकसित होने के लिए खुला छोड़ दिया जाता तो प्राण-धारी के लिए उपयोगी वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियां ही उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालतीं सो उसके लिए अति वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास मां के गर्भाशय की व्यवस्था क्या किसी अत्यधिक प्रबुद्ध सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं। जहां चारों तरफ से बन्द कोठरी में ही उसे विकास की समस्त सुविधाएं उचित मात्रा में मिलती रहती हैं। जन्म के पूर्व ही उसके लिए सन्तुलित आहार मां के दूध जैसा उपलब्ध कराकर उसने अत्यधिक करुणा दरसाई। असहाय, असमर्थ शिशु के लिए न केवल भौतिक सहायताएं अपितु उसके लिए जिन भावनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता थी वह समस्त उसे कुटुम्ब में; समुदाय और समाज में मिल जाती हैं। इस तरह जीवनसत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है इतने पर भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा विकसित हुआ जीव न केवल सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परमपिता, अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है।

इतने पर भी वह दयालु पिता ने उस शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी पितृत्व, कामेच्छा और भावनात्मक सहयोग की पूर्ति के लिए जोड़ी मिलाने, नर को नारी में नारी को नर में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा जुटाई, रोग निरोध की तथा सांसारिक प्रतिकूलताओं में अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्म-जात सुविधाएं भी प्रदान की हैं। रोगों से लड़ने की शक्ति रक्त कणों में, शारीरिक अवयवों की सुरक्षा त्वचा के द्वारा, देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए बढ़िया मस्तिष्क इतनी सुन्दर मशीन आज तक न कोई बना सका और न बना सकना सम्भव है जो इच्छानुसार हर परिस्थिति में मुड़ने, लचकने, संभालने में सक्षम है। आंख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा गुर्दे जैसी सफाई अधिकारी, हृदय जैसे पोषण संस्थान और पांव जैसा सुन्दर पार्क बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होगी इसकी तुलना न किसी इंजीनियर से हो सकती है न डॉक्टर से। वह प्रत्येक कला कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात और सर्व प्रभुता सम्पन्न दानी केवल परमात्मा ही हो सकता है इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी अपितु यह एक प्रकार से स्वयं का ही आत्मघात होगा।

इतने पर ही उसके अनुदान समाप्त नहीं हो जाते अग्नि में चिनगारी, पदार्थ में परमाणु, सूर्य में किरणों की तरह वह स्वयं भी मनुष्य की हृदय गुहा में बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता रहता है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही उसकी प्रेरणा रोकती है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को अनसुनी कर स्वेच्छाचारिता बरतता और उस अपराध का दण्ड, रोग, शोक, क्लेश कलह और मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है। फिर भी उसकी वासनाएं शान्त नहीं होती, वह अपनी वासनाओं की, तृष्णा की, अतृप्त कामनाओं की प्यास बुझाने के लिए मानवेत्तर योनियों में भटकता है, तो भी उसकी दया, करुणा, उदारता एक पल को भी साथ नहीं छोड़ती और उसे निरन्तर ऊपर उठने, कामनाओं से मुक्ति पाकर शाश्वत, सनातन और दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी इस सत्ता के अजस्र अनुदानों की ओर से आंख फेरकर मनुष्य प्यासा का प्यासा बना रहता है। माया के मूढ़ भ्रम-जाल में पड़ा जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के मोल नष्ट करता रहता है। वैज्ञानिक सृष्टि की नियामक विधि-व्यवस्था प्रत्येक अणु में विद्यमान दिव्य चेतना को नहीं झुठलाती। हर्बर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान एक विराट् शक्ति है जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार घर का मुखिया, गांव का प्रधान, जिले का कलेक्टर और प्रान्त का गवर्नर। राज्य के नियमों का हम इसलिए पालन करते हैं क्योंकि हमें राजदण्ड का भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर हमें भय लगता है जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है। निर्भीक व्यक्ति, नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है इस तथ्य से यह भी स्पष्ट है कि वह प्रजावत्सल और न्यायकारी है।

दार्शनिक कान्ट ने इन्पेंसर के कथन को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है—नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत और कसाई तक अपने बच्चों के प्रति दयालु और कर्त्तव्यपरायण होते हैं जब कि वे जीवन भर कुत्सित कर्म ही करते रहते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का पुष्ट-प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निर्माण, पालन और पोषण हो रहा है। इसलिए परमात्मा नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।

हैब्रू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘‘जेनोवाह’’ कहा गया है। जेनोवाह का शाब्दिक अर्थ है—वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। दार्शनिक प्लेटो ने उसे—‘‘अच्छाई का विचार’’ कहा है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि जीव-जन्तुओं में भी अच्छाई की चाह रहती है। अच्छाई में ही आनन्द और आत्म-तृप्ति मिलती है। अच्छाई शरीर और सौन्दर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई समाज की जो ईमानदारी, नेक नीयती, विश्वास, सहयोग और परस्पर प्रेम व भाईचारे की भावना से सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो रंग-बिरंगे फूलों, भोले-भाले पशु-पक्षियों के कलरव उनकी क्रीड़ा द्वारा सुरक्षित हो। इस तरह संसार में सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। परमात्मा इस तरह अच्छाई का वह बीज है जो आंखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।
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