असीम पर निर्भर ससीम जीवन

जीवन का छोर कहां है?

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जड़ और चेतन के संयोग सायुज्य से उत्पन्न गति, स्पन्दन और हलचल को जीवन चेतना के रूप में व्याख्यायित किया गया है। फिर भी यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि जीवन का ओर छोर कहां है? इस प्रश्न के उत्तर में मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि जन्म दिन उसका आरंभ होता है और मरण दिन पर इति श्री हो जाती है पर यह स्थूल उत्तर है। सूक्ष्म उत्तर के रूप में यह कहा जाना चाहिए किए जिस दिन ईश्वरीय महातेज में जीव रूप स्फुल्लिंग प्रकट हुआ वह उसका जन्म दिन है। योनियों के चक्र में भ्रमण करते हुए उसका यात्रा क्रम चल रहा है। वर्तमान मनुष्य जीवन उस जन्मान्तरण के महाग्रन्थ का एक पृष्ठ मात्र है। उसका अन्त तब होगा जब महाप्रलय में ब्रह्म अपने सारे प्रस्तार को अपने आप में समेट कर केन्द्रीभूत कर लेगा।

पृथ्वी का आदि अन्त कहां है? इस प्रश्न का उत्तर साधारणतया उसका व्यास 8000 मील बताकर अध्यापक लोग दे देते हैं पर यह तो केवल धरती की ठोस सीमा हुई। धरती का जीवन उसका वायु मंडल है। वायु न हो तो जीवन संचार ही सम्भव न हो। शब्दों का बोलना सुनना ही शक्य रहे। बादल वर्षा आदि की कोई व्यवस्था न बने। यह वायु भी धरती का वैसा ही अंग है जैसा कि ठोस पदार्थ। यह वायु का घेरा उसका अपना है। जिस तरह किसी देश की सीमा उसके समीपवर्ती समुद्र में भी उतनी घुसी रहती है जितनी में कि उसका यातायात एवं सुरक्षा निर्भर है। ठीक इसी प्रकार धरती की सीमा भी वहां तक जायगी, जहां तक कि उसका अपना वायु मंडल संव्याप्त है। यह अत्यन्त मोटी परिभाषा है जितनी गहरी शोध धरती के अस्तित्व के बारे में है उतने ही नये तथ्यों का अनावरण होता चला गया है। पिछली मान्यताएं झुठलाई जाती रही हैं और नई स्थापना होती रही है। इस उलट पुलट का अन्त कब और कहां होगा यह बताया जा सकना आज की स्थिति में सम्भव नहीं।

अब से पचास वर्ष पूर्व धरती का वायु मंडल 7.8 मील की ऊंचाई तक माना जाता था। पीछे कहा जाने लगा कि वह 100-150 मील है। वैज्ञानिक अनुसन्धान आगे बढ़े और यह परिधि 250-300 मील बताई जाने लगी इसे आयनोस्फियर कहते हैं। इससे भी ऊंची लहराती, झूमती, घूमती, रंगीन ज्योतियां देखी गईं जिन्हें वैज्ञानिकों की भाषा में आऊरोकल लाइट्स—मेरु ज्योतियां कहा जाता है। इनका अस्तित्व वायुमंडल के बिना सम्भव नहीं। अस्तु, वायु मंडल की सीमा 700 मील ऊंचाई तक मानी गई। इस प्रकार पृथ्वी की परिधि पहले की अपेक्षा अब और आगे खिसक गई।

रूस का प्रथम उपग्रह पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काटने के लिए जब भेजा गया था तो अनुमान था कि 500-600 मील ऊंचाई पर हवा नाममात्र को होगी। उपग्रह को उससे कोई बाधा न पड़ेगी और वह 6 महीने अपना काम जारी रख सकेगा। पर वह अनुमान गलत निकला। इतनी ऊंचाई पर भी हवा का काफी दबाव था। उसकी रगड़ से यान की गति धीमी होती गई और उसे दो महीने में ही वापिस लौटना पड़ा।

पृथ्वी के चारों ओर तीस मील तक फैला हुआ सघन वायु-मंडल, सूर्य के अल्ट्रावायलेट किरणों का विवरण, व्यूहाणुओं से सम्बद्ध गैस क्षेत्र, दृश्यमान प्रकाश, अदृश्य ब्रह्माण्ड किरणें, रेडियो तरंगें, चुम्बकीय परतें, लोकान्तरों से आने वाला प्रभाव आदि अनेक तथ्य ऐसे हैं जो खुली आंखों से दीख नहीं पड़ते फिर भी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं उनका अपनी धरती के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है। मोटे तौर से ऋतु प्रभाव के साथ धरती के साथ जुड़े हुए अन्तरिक्ष के सम्बन्ध से ही हम परिचित हैं पर जो इससे आगे की—अनदेखी बातें हैं वे और भी अधिक प्रभावशाली हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि भूगर्भ में जो कुछ है उससे असंख्य गुना पदार्थ और प्रभाव अन्तरिक्ष में भरा पड़ा है। उससे अपरिचित रहे तो हमें अज्ञानियों की संज्ञा में ही गिना जायगा।

अब तक समुद्र तट पर हवा का दबाव देखकर यह हिसाब लगाया जाता था कि ऊंचाई पर वह परत अमुक क्रम से घटती जायगी और अन्त में एक स्थान पर जाकर हवा बिलकुल समाप्त हो जायगी। पर वह अनुमान गलत निकला। वायु मण्डल गर्मी को पाकर फैलता ही जाता है वह इतना हलका हो सकता है कि उसे जाना न जा सके पर रहता वह बहुत आगे तक है।

31 जनवरी 1958 को अमेरिकी कृत्रिम उपग्रह ‘एक्स प्लोरा’—‘प्रथम’ अन्तरिक्ष में उड़ाया गया। बाद में रूसी और अमेरिकन उपग्रह और भी उड़े। उनसे नई सूचना मिली कि पृथ्वी की भूमध्य रेखा के चारों ओर दो मोटे-मोटे कवच हैं। मानो धरती ने अपनी कमर में दो मेखलायें पहन रखी हैं। इनमें एक विचित्र प्रकार का वायु मण्डल और इनमें से एक की ऊंचाई दो हजार मील और दूसरी के बीस हजार मील के लगभग है। इस प्रकार धरती की सीमा अब और आगे बढ़ गई।

यह मेखला कवच किसी एक नई वस्तु के बने हैं जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘प्लाज्मा’ कहा जाता है। अब तक यही पढ़ा सुना जाता रहा है कि पदार्थ तीन रूपों में पाया जाता है (1) ठोस, (2) तरल, (3) वायव्य। पर अब यह चौथी वस्तु और सामने आई प्लाज्मा। यह वायु से भी विरल एक ऐसी गैसीय स्थिति है जिसमें परमाणुओं का भी विघटन हो जाता है।

पुराना अनुमान यह था कि आकाश सर्वथा शून्य एवं रिक्त है। पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि वह क्षेत्र सर्वथा शून्य नहीं है। उसमें विद्युतमय और चैतन्य तत्व भरे पड़े हैं। उसमें भी अपनी दुनिया की तरह ही हलचलों की भरमार है। समझना चाहिये इस शून्य आकाश सागर में ही लहरें, ध्वनियां, उथल-पुथल, जीव-जन्तु जैसे अपने ढंग के अतिरिक्त पदार्थों की भरमार है। न वहां निःस्पंदन है न निश्चल स्थिति।

पृथ्वी में एक दूसरे किस्म का वायु मण्डल भी है जिसे आकर्षण-चुम्बकत्व अथवा ग्रेविटी के नाम से पुकारते हैं। यह चुम्बकत्व ‘प्लाज्मा’ को प्रभावित करता है और उसकी प्रतिक्रिया लौटकर फिर पृथ्वी पर आती है। इस प्रकार का आदान-प्रदान और भी विस्तृत क्षेत्र पर अधिकार जमाता है। इस चुम्बकीय प्रत्यावर्तन को सम्पन्न करने वाला वायु मण्डल की तरह का ही एक चुम्बक मण्डल भी है। यह भी पृथ्वी का ही विस्तार है, इसे उसी का आधार साधन अथवा अधिकार क्षेत्र कह सकते हैं। इस प्लाज्मा प्रवाह के कारण ही सूर्य की शक्ति का धरती तक नियन्त्रित रूप से आना सम्भव होता है और अन्य ग्रहों से उसका सम्पर्क बनता है। इसलिये धरती की परिधि नापनी हो तो उसकी गणना वायु मण्डल को आधार मानकर नहीं वरन् चुम्बक मण्डल की परिधि के आधार पर नापनी चाहिये?

पृथ्वी से सूर्य की दूरी 9,00,000 मील है। चूंकि यह सूर्य भी पृथ्वी की परिधि है और वायु की तरह उसकी गर्मी रोशनी भी पृथ्वी के लिये जीवन आधार है। मछली का आधार पानी होता है। किसान का आधार खेत। इसी प्रकार पृथ्वी जिस खेत या समुद्र से अपना काम चलाती है उसका नाम हुआ सूर्य। यह सूर्य भी एक प्रकार से उसी की सम्पत्ति है और वायु मण्डल की तरह वह भी उसी का अधिकार क्षेत्र है। दूसरे ग्रहों का भी सूर्य से संबन्ध है—हो न बना रहे। इससे अपना क्या बनता बिगड़ता है। किसान का खेत होता है उसमें चूहे, दीमक, कीड़े, पतंगे भी पलते रहते हैं। चूंकि दूसरे ग्रह भी सूर्य से लाभ उठाते हैं इसलिये धरती का अधिकार उस पर से कम नहीं हो जाता। पृथ्वी की असली परिधि नापनी हो तो उसकी लपेट के भीतर सूर्य को भी लेना पड़ेगा।

पृथ्वी भी सजीव प्राणवान

कुछ मोटी-मोटी बातें ही हम अपनी इस धरती के बारे में जानते हैं। धरती की खोज-बीन बहुत हुई है, उसके बारे में बौद्धिक ऊहापोह और यांत्रिक निरीक्षण के आधार पर बहुत कुछ जानने का प्रयत्न किया गया है—बहुत कुछ जाना भी है पर जो कुछ जाना गया है वह अत्यन्त स्वल्प है अभिनव खोजों से पता चलता है कि पृथ्वी के बारे में अब तक की लाखों वर्ष की जानकारी बहुत स्वल्प थी।

यों पृथ्वी का व्यास और परिधि का जो माप किया गया है वह स्थिर नहीं है। पृथ्वी क्रमशः फूल रही है। उसका फुलाव यों बहुत मन्द गति से है पर वह चलता रहा तो वर्तमान माप से सैकड़ों मील की वृद्धि करनी पड़ेगी। समुद्र क्रमशः सूख रहा है। फलस्वरूप थल भाग बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि पांच लाख वर्ष बाद पृथ्वी का थल क्षेत्र अब की अपेक्षा दूना हो जायगा। जन्म के बाद वृद्धि को जा क्रम प्राणधारी वनस्पतियों तथा प्राणियों पर लागू होता है, वही पृथ्वी के बारे में भी है। पृथ्वी भी तो एक देवी है—इसकी सजीवता के कारण ही तो इसे धरती माता कहते हैं।

मनुष्य भले ही निःचेष्ट बैठे—भले ही उदास, निराश दिखाई पड़े पर धरती उछलती-कूदती—नाचती, थिरकती अपनी मोद-विनोद भरी जीवन-यात्रा पर अनवरत गति से चलती चली जा रही है। हम साधारणतया इतना ही समझते हैं कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर काटती है और अपनी धुरी पर घूमती है। पर बहुत ही उसकी चाल में नृत्य जैसी कुटकन-फुटकन भी शामिल है इसे अभी-अभी ही जाना गया है।

पृथ्वी की एक गति और भी है जिसे ‘थिरकन’ कहा जा सकता है। वह अपनी धुरी पर सर्वथा स्थिर नहीं है। उसकी अक्ष और सिरे अपना स्थान बदलते रहते हैं। 14 महीने की अवधि में यह विचलन प्रायः 72 फीट तक होता पाया गया है। यों सवा चार करोड़ फीट व्यास वाली पृथ्वी के कलेवर को देखते हुए 72 फीट नगण्य है तो भी उससे उसकी गति और स्थिति का पता तो चलता ही है। इंग्लैण्ड के खगोल वेत्ता जेम्स ब्रेडले ने इस थिरकन की सम्भावना व्यक्त की थी जो अब विधिवत् यन्त्रों द्वारा नापी जाने लगी है। ध्रुव जिन्हें स्थिर मानकर ही उनका नामकरण किया गया था अब पता चला है कि उनका भी तन-मन डोलता है और वे भी इधर-उधर भटकते हैं, एक जगह छोड़ते और दूसरी पकड़ते रहते हैं।

यह थिरकन क्यों होती है इसका सही पता तो नहीं चला पर कुछ अनुमान ऐसे लगाये गये हैं जिन्हें सारगर्भित कहा जा सकता है। यथा ध्रुव क्षेत्रीय बर्फ पिघलने से उत्पन्न असन्तुलन—समुद्रीय जल का भटकाव—भूगर्भ में भरे हुए गर्म लावे का पुनर्वितरण एवं उद्वेलन आदि।

इस थिरकन के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से उत्तरी ध्रुव के चारों ओर 40 अक्षांश पर पांच वेधशालाएं स्थापित की जा रही हैं। (1) जापान में मिजुसावा (2) समरकन्द के निकट केताव (3) इटली में सार्डीनिया द्वीप का कार्लीफोर्ते (4) अमेरिका में गैदर्ज वर्ग तथा (5) यूक्रिया इन पांचों केन्द्रों का संचालन इन्टरनेशनल पोलरमोशन सर्विस द्वारा किया जा रहा है। इनमें लगे शोध यन्त्र अत्यन्त संवेदनशील हैं। इसलिए उन तक गर्मी एवं रोशनी का कम से कम प्रभाव पड़े ऐसी व्यवस्था बनाई गई है। वहां बत्तियां अत्यन्त क्षीण ज्योति की जलती हैं जिनके सहारे अंधेरे में टटोलने की कठिनाई हल हो सके। खिड़कियां हर समय खुली रखी जाती हैं ताकि कार्यकर्त्ताओं के शरीर की गर्मी जमा होकर यन्त्रों को प्रभावित न करने लगे।

अपनी धरती को हम धूलि-मिट्टी की बनी ऊबड़-खाबड़ कुरूप मात्र देखते हैं। यह अति निकटता की अवज्ञा है। वस्तुतः वह बहुत ही सुन्दर और सुसज्जित है इस शोभा, सौन्दर्य को थोड़ा-सा ही दूर हट कर देखा जा सकता है। वह साज-सज्जा युक्त नववधू की तरह अथवा किसी अति सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित देव प्रतिमा की तरह किसी चतुर कारीगर द्वारा गढ़ी गई सी प्रतीत होती है। अपोलो 8 पर यात्रा करते हुए अन्तरिक्ष यात्रियों ने बताया कि उन्होंने अन्तरिक्ष में पृथ्वी को इस तरह देखा मानो काली मखमल की चादर पर किसी ने रंग-बिरंगे रत्नों से जगमगाता हुआ प्रकाशवान थाल लटका दिया हो। चन्द्रमा हमें एक ही सुनहरे रंग का दीखता है पर चन्द्र तल से पृथ्वी रंग-बिरंगी दीखती है। वनस्पतियों का रंग हरा, समुद्र का नीला और रेत का भूरा, बर्फ का सफेद स्पष्ट दीखता है। लगता था कई रंगों से सजा हुआ विशालकाय प्रकाश पिण्ड आकाश पर अपना साम्राज्य स्थापित किये हुए है।

बाहर से शान्त, निश्चेष्ट पड़ी दीखने वाली धरती के भीतर निरन्तर उद्वेग भरी हलचलें होती रहती हैं। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने के लिए उसका व्यग्र असन्तोष कभी-कभी फूट पड़ता है तो हम कांप उठते हैं। भूकम्पों के रूप में वह अक्सर प्रकट होता रहता है। आन्तरिक विक्षोभ ही क्रान्तिकारी हलचलों के रूप में फूटते हैं। धरती ज्यों की त्यों नहीं पड़ी रहना चाहती। वह अपनी वर्तमान स्थिति में परिवर्तन और परिष्कार चाहती है। इसके लिये उसके भीतर ही भीतर चलने वाली हलचलें अक्सर विस्फोट बनकर बाहर आती रहती हैं। कई बार तो यह विस्फोट भूकम्प बहुत ही भयानक होते हैं और अपनी असाधारण भली-बुरी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करते हैं।

पृथ्वी के गर्भ में 25 मील गहरे उतरने पर इतनी गर्मी है कि उसमें पत्थर भी पिघल जाय। वहां सब कुछ पिघले हुए लोहे की तरह द्रव रूप में है। अपने जन्म काल में पृथ्वी भी सूर्य की तरह आग का गोला थी। वह क्रमशः ठण्डी होती गई। ऊपर की परतें इतनी ठण्डी हो गईं कि उस पर वनस्पतियों और प्राणियों का जीवन सम्भव हो सके, किन्तु भीतर की आग अभी भी बहुत गरम है। ठण्डक जैसे-जैसे भीतर घुसती जाती है वैसे ही वैसे गरम परतों का विस्तार सिकुड़ता है और वहां उत्पन्न होने वाली भाप परतें फोड़ कर ऊपर निकलने का प्रयास करती है। इसी विस्फोट को ज्वालामुखियों के रूप में देखा और भूकम्पों के कप में अनुभव किया जाता है।

सन् 1967 में 11 दिसम्बर को महाराष्ट्र के कोयना नगर के समीपवर्ती क्षेत्र में जो भूकम्प हुआ उसमें 80 किलोमीटर लम्बी और छह फुट चौड़ी एक दरार ही जमीन में फट गई थी। जान माल का विनाश भी रोमांचकारी था। पूरा नगर खण्डहर में परिणत हो गया था।

कोयना भूकम्प के बारे में भूगर्भ शास्त्री डा. कृष्णन का अनुमान था कि बांध बनाकर उस क्षेत्र में जो शिव सागर झील बनाई गई है उसका पानी धरती के नीचे की परतों में उतर कर इस भूकम्प का कारण बना होगा।

कभी-कभी भूकम्पों का परिणाम वरदान जैसा भी होता है। सन् 1956 में मैक्सिको के दक्षिणी रेगिस्तान में एक भयंकर भूकम्प आया था जिसके कारण वहां मीठे पानी का एक विशालकाय फव्वारा फूट पड़ा और पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने वाला वह क्षेत्र हरा-भरा उपजाऊ और मनुष्यों के रहने योग्य बन गया।

सन् 1923 में 1 दिसम्बर को जापान की राजधानी टोकियो में ऐसा भूकम्प आया था जिसने प्रायः सारे नगर को उजाड़ दिया। बुरी तरह आग लगी और लगभग ढाई लाख मनुष्यों की जानें गईं। सन् 1906 में 12 अप्रैल को सेनफ्रांसिस्को में भी ऐसा ही भूकम्प आया था जिसने तीन लाख मनुष्यों को बेघर बना दिया और हजारों की जाने ले लीं। भारत में 1737 का भूकम्प इतिहास प्रसिद्ध है जिसने तीन लाख मनुष्य मारे थे। सन् 1950 में आसाम के भूकम्प में करीब 60 झटके लगे थे और डेढ़ हजार जानें गई थीं। 1934 का बिहार भूकम्प का आतंक दूर नहीं हो पाया था कि एक वर्ष बाद ही क्वेटा में एक और भूकम्प हुआ जिसने 30 हजार मनुष्यों को उदरस्थ किया। कांगड़ा का भूकम्प भी बहुत विनाशकारी था।

अब से कोई दो हजार वर्ष पूर्व इटली का विसूवियस भाग एक ऐसे ज्वालामुखी के रूप में फूटा था जिसमें आग की नदी बहने लगी थीं। विस्फोट से 7 मील दूर बसा पोम्पियाई शहर पूरी तरह विस्मार हो गया था। ऐसा ही एक भयंकर विस्फोट प्रशान्त महासागर के सुन्डा द्वीप में—सन् 1893 में हुआ था। उसने उस द्वीप का अता-पता ही मिटा। धरती के आरम्भिक जीवन में भूकम्पों और ज्वालामुखियों की भरमार थी पर अब जैसे-जैसे ठण्डक गहराई तक घुसती जा रही है वह विस्फोटों का सिलसिला घट रहा है। इतने पर भी प्रायः डेढ़ लाख छोटे-बड़े भूकम्प अभी भी पृथ्वी पर अनुभव किये जाते हैं जिनमें से कम से कम दस तो महाविनाशकारी अवश्य ही होते हैं।

पृथ्वी के गर्भ में क्या-क्या भरा पड़ा है इस सम्बन्ध में केवल 15 प्रतिशत की ही जानकारी हमें है। भूगर्भ का 85 प्रतिशत भाग ऐसा है जिसके बारे में हम सर्वथा अनजान हैं। धरती से जो लाभ अब तक उठाया जाता रहा है उससे मनुष्य को सन्तोष नहीं वह चाहता है कि क्यों न उसकी समस्त सम्पदा का पता लगा लिया जाय और उससे क्यों न भरपूर लाभ उठाया जाय?

इसके लिए धरती को गहरी खुदाई करनी होगी तभी भीतरी परतों के बारे में यथार्थ जानकारी प्राप्त की जा सकेगी अभी तो इस सम्बन्ध में जो जाना गया है वह अनुमानों पर ही आधारित है।

इसके लिए होनोलूलू का उत्तर पश्चिमी प्रशान्त महासागर का 170 मील का क्षेत्र चुना गया है। यहां पनडुब्बी नुमा 6 मकान बनाये जा रहे हैं जो समुद्र में 18000 फुट गहराई में रहा करेंगे। इसमें एक शक्तिशाली ‘ड्रिलिंग संयंत्र’ रहेगा। यह ‘टर्बो कोरक’ यन्त्र लगातार 203 घण्टे चलने और दो मील गहरा छेद करने में सफल हो चुका है इसकी नोंक बहुमूल्य हीरों से बनाई गई है जो गरम और कठोर परतों में भी छेद करती चली जायेगी। यह छेद गहरे समुद्र तल से ही आरम्भ करना उचित समझा गया है ताकि 18 हजार फुट तक की गहराई का छेद करने का परिश्रम एवं व्यय बचाया जा सके।

यों सन् 1952 में गार्डनलिल ने इस सन्दर्भ में बहुत दौड़-धूप की थी और काफी गहराई तक खुदाई भी की पर जितना आवश्यक था उतना कार्य न हो सका, सन् 1961 में वैस्कम योजना के अन्तर्गत कैलिफोर्निया समुद्र तट पर यह प्रयत्न फिर आरम्भ हुआ और समुद्र तल से 600 फुट गहराई तक जाने में सफलता प्राप्त कर ली। अब वे प्रयत्न और अधिक तेज किये गये हैं।

एक बार ऐसा भी सोचा गया था कि जमीन के आरपार छेद कर दिया जाय। पर उसका खतरा जल्दी ही समझ लिया गया। समुद्र का पानी धरती की गरम परतों में समा कर न केवल सूख ही जायगा वरन् उसकी भाप से भयंकर ज्वालामुखी उठेंगे और धरती की ऊपरी परतों के चिथड़े उड़ जायेंगे। इन विभीषिकाओं को ध्यान में रखते हुए धरती में गहरा छेद करने के उत्साह के अगले कदम फूंक-फूंक कर उठाये जा रहे हैं। अब तक 11 हजार फुट की गहराई में खोदी जा चुकी है पर उतना पर्याप्त नहीं। आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए 20 हजार फुट गहराई तक तो जाना जी पड़ेगा।

पृथ्वी के इर्द-गिर्द सामान्यतया शान्त वातावरण है, पर जब कभी वायु मण्डलीय उथल-पुथल के छोटे-छोटे कारण बन जाते हैं तो उसका प्रतिफल भयंकर आंधी-तूफानों और बवंडरों के रूप में सामने आता है। कहना न होगा कि इन विद्रूप विद्रोहों के कारण असंख्यों को असंख्य प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। साथ ही उस उथल-पुथल के कारण नये प्रकार के अवसर उत्पन्न होते रहते हैं।

प्रशांत महासागर में टाइफून और अटलांटिक महासागर में हरिकेन एवं टेरनेडो तूफान आते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों को ट्रापिकल साइक्लोन कहा जाता है। पृथ्वी की गति के कारण उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध की हवाएं परस्पर विरोधी दिशाओं में घूमती हैं। सूर्य की तेजी से हवाएं ऊपर उठती हैं फलस्वरूप अगल-बगल की हवाएं नीचे की खाली जगह को भरने के लिए दौड़ती हैं। उसी उथल-पुथल में हवा के कितने ही चक्रवात बन जाते हैं और वे जिधर से निकलते हैं उधर ही अपनी प्रचण्ड शक्ति का परिचय देते हैं। वे अक्सर 100-150 मील प्रति घण्टे की चाल से चलते हैं, पर कभी-कभी 200 मील की भी उनकी गति देखी जाती है। इनकी परिधि 25 से 600 मील तक की पाई जाती है। कभी-2 यह तूफान अपने साथ समुद्र की लहरों को 15 फुट ऊंची उठा लेते हैं और समुद्र तट के क्षेत्र पर धावा बोल देते हैं। ‘टोरनेडो’ अपने सजातीयों में सबसे भयंकर होते हैं। वे विस्तार की दृष्टि से तो बहुत बड़े नहीं होते पर अपनी विनाश शक्ति का आश्चर्य जनक परिचय देते हैं। मजबूत पेड़ों को वे तिनके की तरह उखाड़कर फेंक देते हैं। अमेरिका के इलिनाइज राज्य में एक बार एक तूफान ने एक गिरजाघर का समूचा शिखर उखाड़ लिया था और उसे 15 मील दूर ले जाकर पटका था। शन्य छोटी-बड़ी इमारतों को उखाड़ फेंकने की घटनायें तो आये दिन होती रहती हैं।

भयंकर तूफानों का एक कारण तो उनमें रहने वाली हवा की ही तेजी होती है। दूसरी वजह यह है कि चक्रवात के मध्य भाग में वायु भार बहुत हलका रह जाता है। साधारणतया मनुष्य शरीर पर हर घड़ी हवा का 15 टन भार लदा रहता है। पर उस तूफान के मध्यभाग में यह वजन प्रायः आधा रह जाता है। इससे वस्तुओं के ऊपर उठ जाने या फट जाने की स्थिति पैदा हो जाती है। इस भारहीनता के कारण जो क्षति होती है वह वायु वेग की तुलना में कम नहीं अधिक ही होती है। इस दुहरी मार के कारण ही इन चक्रवातों द्वारा इतना भयंकर विनाश होता है।

अमेरिका के दक्षिणी राज्य और एशिया के जापान, फारमोसा, फिलीपाइन आदि भाग इनके अधिक शिकार होते हैं। हिन्द महासागर में भी इनकी धूम रहती है और बंगाल की खाड़ी में वे अपना रौब दिखाने अक्सर आ धमकते हैं। कभी वे इतने भयंकर होते हैं कि भूगर्भ को प्रभावित करके ज्वालामुखी फूटने, भूकम्प उत्पन्न करने की घटनायें खड़ी कर देते हैं। कितने ही नये द्वीपों का उदय होना और कितने ही टापुओं का समुद्र तल में समा जाना अक्सर तूफानों के साथ-साथ ही घटित होता है। ऐसे तूफान कई बार पृथ्वी के भीतर घटित होने वाली अन्य घटनाओं के कारण भी उत्पन्न होते देखे गये हैं।

हम जिस पृथ्वी को देख रहे हैं, वह करोड़ों वर्ष आयु की बुढ़िया है। नवोढ़ा धरती का तो रूप ही कुछ और था। भूगर्भशास्त्र (ज्योलॉजी) के अनुसार अपने आविर्भाव काल में पृथ्वी वातीय स्थिति (गैस फार्म) में थी। वह सूर्य की तरह प्रचण्ड ऊर्जा वाला गोला थी, जिसमें जीव का तो क्या जल का रहना भी सम्भव न था। जल भी तब वाष्प रूप में ही था।

ऊर्जा फेंकना ग्रहों का स्वभाव है, उससे उनका ताप क्षीण होता है, ऐसे ही पृथ्वी की गर्मी भी धीरे-धीरे शान्त होने लगी। पानी बरसा कुछ उससे भी गर्मी कम हुई और एक दिन पृथ्वी अर्द्ध तरल स्थिति में आ गई। वायुमण्डल के सम्पर्क के कारण पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा शीघ्र ठण्डा हो गया और उसमें पपड़ी पड़ती गई, जिसके कारण कहीं पहाड़ बन गये, कहीं मैदान, कहीं टीले, नदी-नाले और कहीं चट्टान। ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी धरातल में क्रमशः ठण्डक के प्रवेश के कारण बनती चली गई।

पृथ्वी जैसी ऊपर से दिखाई देती है, भीतर से वैसी नहीं है। इसके अन्दर अभी भी वह पुराने द्रव्य और संस्कार दबे पड़े हैं, जो करोड़ों वर्ष पूर्व उसमें सर्वत्र भरे पड़े थे। पृथ्वी ऊपर से ठण्डी होती गई पर अभी (वालकेनो) के रूप में कभी-कभी फूट पड़ती है तो उसकी शक्ति का पता चलता है।

पृथ्वी की यह शक्ति उसकी मूलभूत स्थिति के विद्यमान होने के कारण है। पृथ्वी ऊपर से ठण्डी हो गई, किन्तु अनेक पर्तों के दबाव के नीचे अब भी प्राचीनतम गैसीय और तरल स्थिति विद्यमान है। अनुमान है कि 4 हजार मील की गहराई पर पृथ्वी के सभी खनिज और धातुयें या तो गैस स्थिति में होंगी या तरल स्थिति में। एक से एक महत्वपूर्ण वस्तुयें भूगर्भ में छिपी पड़ी हैं। पेट्रोलियम और मिट्टी के तेल पृथ्वी की गहराई में ही मिलते हैं। सोने-चांदी और मुख्यतया कोयले की खानें गहराई में ही हैं। साधारण स्थिति में ऊपर पृथ्वी का दबाव अधिक और भीतर की गैसों का दबाव कम रहता है, इसलिये 4 मील अन्तराल की स्थिति का पता नहीं चल पाता, किन्तु क्षरण द्वारा पृथ्वी का दबाव भीतरी गैसों की तुलना में कम होते ही भीतर की शक्ति उबल पड़ती है और पृथ्वी को फोड़कर अपने साथ चट्टानों का पिघला हुआ रूप लावा और संग्रहीत गैसों की उबलता लेकर मीलों आकाश में उछलने लगती है। इस समय विनाशकारी दृश्य उपस्थित हो उठते हैं। लावा चारों ओर फैल जाता है। भूकम्प उठ खड़े होते हैं, चारों ओर भाग-दौड़ मच जाती है।

भगवान का बनाया हुआ यह विश्व ब्रह्माण्ड चमत्कारी और रहस्यों से भरा पड़ा है। उसकी एक छोटी-सी गुड़िया अपनी धरती है। उसे कितनी कारीगरी से बनाया गया और कितने रहस्यों से संजोया गया है इसे देखकर अपनी बुद्धि चकित रह जाती है। धरती की भीतरी और बाहरी गतिविधियों का थोड़ा-सा परिचय जानने पर हम अवाक् रह जाते हैं और सोचते हैं, जो जाना गया है उससे असंख्य गुना जानने के लिए शेष है।

इस जगत में जड़ के नाम से जाना गया भाग भी वस्तुतः चेतन है। उसमें चेतन की सारी विशेषतायें विद्यमान हैं। अपनी धरती जड़ समझी जाती है पर थोड़े गहन निरीक्षण से पता चलता है कि उसमें चेतन में पाये जाने वाले समस्त गुण मौजूद हैं। ब्रह्माण्ड के पिण्ड के रहस्य कितने असीम हैं और मानव बुद्धि कितनी ससीम है, इसका थोड़ा-सा आभास तब मिलता है जब हम अपनी चिरसंगिनी धरती माता के अद्भुत रहस्यों के सम्बन्ध में मिलती आ रही जानकारी पर विचार करते हैं।

पृथ्वी गत रहस्य, मनुष्य के सामने भगवान की कितनी ही प्रेरणाओं का प्रतिनिधित्व करता है। जीवन का कहीं आदि और कहीं अन्त है अथवा नहीं। इस प्रश्न के उत्तर में आइन्स्टीन और मिकोवन्सकी द्वारा अन्तरिक्ष के आदि, अन्त सम्बन्धी पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में दिये उत्तर को समझ लेना चाहिये। क्या अनन्त अन्तरिक्ष का कहीं अन्त है? इसके उत्तर में उपरोक्त वैज्ञानिकों ने कहा था ‘है’। वे कहते हैं, सीढ़ी चढ़ते हुए भी कोई वस्तु अन्ततः अपने मूल उद्गम पर घूमकर आ जाती है। इस गणित सिद्धान्त के आधार पर अन्तरिक्ष का अन्त भी वहीं पर हो जाना चाहिये जहां से इसका आरम्भ होता है अर्थात् ‘अनादि और अनन्त’ कहे जाने वाले अन्तरिक्ष का किसी एक बिन्दु पर मिलन अवश्य होता है। भले ही वह कितना ही दूरवर्ती क्यों न हो?

‘अनन्त के अन्त’ की बात उन्होंने सीधेपन की घुमाव प्रक्रिया के साथ जोड़ी है। यूक्लिड के रेखागणित सिद्धान्त के अनुसार एक सीधी रेखा लम्बाई में असीमित होने के बावजूद अपने उद्गम पर आ पहुंचेगी और मिल जायेगी। गणितज्ञ कहते हैं कि इस रेखा के मिलन घुमाव क्रम में पचास खरब प्रकाश वर्ष लय सकते हैं पर अन्ततः वह मिल जरूर जायेगी। ग्रह नक्षत्र सीधे ही दौड़ते हैं पर वह ‘सीध’ भी सीधी न रहकर आखिर गोलाई में ही घूम जाती है और हर पिण्ड को अपनी कक्षा निर्धारित करके उसी में चक्र की तरह घूमते रहना पड़ता है। गति कितनी ही सीधी या तीव्र क्यों न हो उसे झुकाव या घुमाव के प्रकृति बन्धनों को स्वीकार ही करना पड़ेगा। यह सिद्धान्त अन्तरिक्ष पर भी लागू होती है, उसे भी गोल होना चाहिये और जहां भी उसका आरम्भ बिन्दु माना जाय उसी से जुड़ा हुआ उसका अन्त भी जानना चाहिये।

पृथ्वी की तरह ही जीवन का ओर-छोर कहां है? इस प्रश्न के उत्तर में यदि गहरे मन्थन पर उतरें तो प्रतीत होगा यह मोटी मान्यता सर्वथा अपूर्ण है कि हम जन्म दिन पर जन्मे हैं मरण दिन पर अपना अस्तित्व गंवा देंगे। वस्तुतः जीवन का दायरा बहुत बड़ा है। हम महान से जन्मे हैं और महान की ओर चल रहे हैं। मृत्यु का हमारा अन्त है और जन्म आदि। यह एक दिन के प्रभात और दिनान्त जैसा उपक्रम है। इस स्थूल परिधि को ही हम सब कुछ न मानें वरन् यह मानकर चलें कि सूर्य की परिधि तथा फैली हुई पृथ्वी की सीमायें जिस तरह अत्यन्त विस्तीर्ण हैं, उसी तरह जीवन एक शरीर में विद्यमान होते हुए भी उसका विस्तार समस्त जड़ चेतन की परिधि तक व्यापक है। ससीम को असीम तक फैला देखना यही तत्व ज्ञान है। पृथ्वी की ओर-छोर और जीवन के आदि अन्त का सही उत्तर इसी तथ्य के आधार पर उपलब्ध किया जा सकता है।
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