खण्ड प्रलय को निमंत्रण तो न दें।

February 1991

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प्रकृति मनुष्य के हाथ की घड़ी नहीं है जिसे चाहे जिस तरह घुमाते रहा जाय और फिर चाहे जिस कोने में पटक दिया जाय। वस्तुतः इस विश्व ब्रह्मांड की सभी गतिविधियाँ एक सुनिश्चित अनुशासन के अंतर्गत क्रमबद्ध रूप से चल रही हैं। ग्रह-उपग्रह एक दूसरे के बन्धन में हैं और उसकी गतिविधियों से प्रभावित होते हैं। अनभ्यस्त उथल-पुथल चलती है तो उससे समूचा वातावरण प्रभावित होता है। पृथ्वी को अन्तरिक्षीय घातक किरणों से बचाने के लिए कई परत थोड़ी ऊँचाई पर स्थित हैं। उन परतों में मनुष्य जब छेद करने पर उतारू होता है तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि सुरक्षा ढाल टूटने या झीनी पड़ने पर ऐसे परिणाम खड़ी कर दे जिसके कारण लेने के देने पड़ने लगें।

पृथ्वी पर कई बार हिमयुग आये हैं। सर्वत्र बर्फ ही बर्फ छाई है। इतना अधिक शीत न सह पाने वाले प्राणी उसी में अपना दम तोड़ गये फिर दस-पन्द्रह फुट तक हिम सतह जम जाने पर खाद्य संकट भी आता है और भूखों मरने की दूसरी विभीषिका खड़ी हो जाती है। ऊँचे स्थान पर जो प्राणी किसी प्रकार बच रहते हैं वे हजारों वर्षों का हिमयुग समाप्त होने पर नये सिरे से वंश-वृद्धि करते और नई दुनिया बसाते हैं।

हिमयुग वातावरण के विपर्यव से आते हैं। उनका आगमन भी भयावह है और विदाई भी रोमाँचकारी। जब तापमान बढ़ता है, बर्फ पिघलती है तो समुद्र की सतह ऊँची उठ जाती है। महाद्वीप टूट-फूट कर कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। समुद्र में से कुछ भूखण्ड ऊपर निकलते हैं और कुछ ऊपर वाले उसके गर्भ में समा जाते हैं। हिमयुग को एक प्रकार से खण्ड-प्रलय ही माना जाता है।

अपने क्रम से जब हिमयुग आये, तब उसे विधि-विधान कह सकते हैं, पर मनुष्य वातावरण को छोड़कर उस अत्यधिक जल्दी भी बुला सकता है। ध्रुवों का संतुलन बिगाड़ सकता है। उस पर जमी बर्फ पिघल पड़ने और समुद्री तूफान आने का संकट बुला सकता है। पर्यावरण की छेड़छाड़ करने से इस प्रकार के अनेकों संकट आ सकते हैं। मनुष्य आज उद्धत बालक की तरह कुछ ऐसी ही छेड़छाड़ कर प्रलय को आमंत्रित कर रहा है।

इसी संदर्भ में पिछले दिनों अमेरिका के न्यूयार्क स्थित “लेमण्ड डी. जियोलॉजिकल आब्जरवेटरी पेलीसीड्स” में एक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें संसार भर के मूर्धन्य भू-वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों मौसम विज्ञानियों आदि ने भाग लिया। इस सम्मेलन में बहुचर्चित विषय “मिलटिन मिलेन कोविच” की हिमयुग शृंखला का विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया जिसमें वैज्ञानिक मिलेन कोविच ने कहा है कि पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य के कुल प्रकाश में प्रतिवर्ष 0.1 प्रतिशत की कमी होती जाती है। इसी कारण प्रति एक लाख वर्ष के बाद इस धरती पर हिमयुग आ जाता है।

इस तथ्य की पुष्टि करते हुए अनुसंधान कर्ताओं ने कहा है कि फ्राँस में नार्मन की समुद्र तट पर नौ करोड़ वर्ष पूर्व की ऐसी चट्टानें मिली हैं जिनमें प्रत्येक 20 हजार वर्ष में एक परत स्पष्ट दीखती है। इसी प्रकार पेन्सिलवेनिया राज्य के न्यूयार्क वेसिन में 20 करोड़ वर्ष पुराने पहाड़ों के पर्यवेक्षण से भी यह तथ्य उजागर हुआ है कि एक लाख एक हजार वर्षों में हिमयुग का आवर्तन होता है। इसमें 19 हजार से 23 हजार वर्षों में अलग-अलग प्रकार की परतें पाई गई हैं जो इस बात की द्योतक हैं कि किन्हीं कारणों वश प्रकृति संतुलन गड़बड़ाया होगा और पृथ्वी सामान्य से तीन गुना बर्फ से ढक गई होगी। कुछ इसी तरह के लक्षण इन दिनों भी प्रकट हो रहे हैं।

इस सम्बन्ध में मिनिसेटा विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती के गर्भ में छिपे प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन एवं पर्यावरण के साथ की गई खिलवाड़ के कारण पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों में परिवर्तन होने लगा है। उत्तरीध्रुव में दक्षिण ध्रुव की प्रकृति विकसित हो रही है तथा दक्षिण में उत्तरी ध्रुव की। ध्रुव विपर्यय की इस घटना को अप्रत्याशित मानकर इसकी उपेक्षा करना मनुष्य जाति को बहुत महंगा पड़ सकता है। ध्रुव विपर्यय के कारण मनुष्य सहित सभी जीवधारियों को स्थान परिवर्तन के लिए विवश होना पड़ेगा, अन्यथा बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप स्वयं में अनुकूलन न ला पाने के कारण मृत्यु वरण ही उनके लिए एक मात्र विकल्प होगा। इस प्रक्रिया से बैक्टीरिया जैसे छोटे प्राणियों से लेकर पशु-पक्षी एवं मनुष्य सभी को गुजरना पड़ेगा। ध्रुवों के बदल जाने पर अंतरिक्ष से आने वाली ब्रह्मांडीय किरणें उनकी ओर विक्षेपित होंगी, फलस्वरूप जलवायु भी प्रभावित-परिवर्तित हो जायेगी और प्रागैतिहासिक काल में जिस तरह बड़ी संख्या में जीवधारियों का विलुप्तीकरण हुआ था, मौसम परिवर्तन के कारण उसी की पुनरावृत्ति हो सकती है।

वातावरण में क्लोरो फ्लुओरो कार्बन एवं कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों की बढ़ती मात्रा को देखते हुए वैज्ञानिकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि आगामी दस वर्षों में जलवायु प्रलयंकारी स्वरूप धारण कर सकता है। सामाजिक अपराधों, मानसिक विकृतियों के अतिरिक्त हृदय रोग, त्वचा के कैंसर एवं मधुमेह जैसी बीमारियों की अप्रत्याशित वृद्धि के मूल में उनने पर्यावरण में भरी विषाक्तता को ही प्रमुख माना है। इस सम्बन्ध में हवाई उपमहाद्वीप स्थित मोनालोआ वेधशाला के वैज्ञानिकों ने गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया है। आँकड़े प्रस्तुत करते हुए उनने बताया है कि इन दिनों वातावरण में प्रति वर्ष एक पी.पी. एम की दर से कार्बन डाइऑक्साइड भरती जा रही है। इस मात्रा में 30 प्रतिशत की अभिवृद्धि पृथ्वी के तापक्रम को एक से चार डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ा देती है। इस तरह तापमान में यह बढ़ोत्तरी प्रति वर्ष “ग्रीन हाउस प्रभाव” को जन्म देती है। औद्योगिक चिमनियों एवं वाहनों से निकलने वाला धुँआ इसमें घृताहुति का काम करता है।

तापमान की इस अभिवृद्धि का सर्वाधिक प्रभाव ध्रुवीय बर्फ पर पड़ेगा। ‘आइस कैप’ के पिघलने से समुद्र की सतह ऊँची उठेगी और तटवर्ती प्रदेशों को जलमग्न कर देगी। बम्बई, कलकत्ता, न्यूयार्क, टोकियो साउहैम्पटन (ब्रिटेन), सेनफ्रांसिस्को तथा कैलिफोर्निया जैसे महानगर समुद्र के गर्भ में विलीन हो जायेंगे। ध्रुवीय असंतुलन भू चुम्बकत्व पर भी अपना प्रभाव डालेगा तथा सन् 1993 से सन् 2000 के बीच कहीं भी कभी भी भयावह भूकंप आ सकते हैं, ज्वालामुखी फट सकते हैं। वायुमण्डल में जमी ज्वालामुखीय धूल अभी भी इतनी ज्यादा है कि सौर ऊष्मा को पृथ्वी तक पहुँचने नहीं देती जो कि जीवधारियों की जीवनीशक्ति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है।

अनुसंधानकर्ता विशेषज्ञों के अनुसार पिछले चालीस वर्षों से सूरज क्रमशः सिकुड़ता जा रहा है। इसके फैलने का क्रमशः अब से दस वर्ष बाद आरंभ होगा। सिकुड़ने फैलने का यह सूर्य चक्र 86 वर्ष का होता है। एक ओर जहाँ सूर्य के सिकुड़ने से पृथ्वी ठण्डी होती जा रही है वहीं दूसरी तरफ मानवी कृत्यों से वातावरण गरम होता जा रहा है। यह विरोधाभास तब प्रलय के रूप में फट सकता है जब सूर्य के फैलने का क्रम आरंभ होगा। वायुमण्डल का बढ़ता तापमान तथा पृथ्वी का गरम होना-दोनों मिलकर भयावह विभीषिकाओं को जन्म दे सकते हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वातावरण में जो व्यतिक्रम आ रहा है, उससे योरोप, अमेरिका और रूस अब की अपेक्षा अधिक गरम व सूखे हो जायेंगे। वहाँ बर्फ गिरनी बन्द हो जायेगी लेकिन उत्तर पूर्व अफ्रीका, भारत, मध्यपूर्व एशिया, मेक्सिको तथा पश्चिम आस्ट्रेलिया अधिक आर्द्र व गीले हो जायेंगे। इसके साथ ही साथ समूचे विश्व में समुद्र तल 15-20 मीटर ऊँचा उठ जायेगा। ग्लेशियर पिघलने से नदियों में बाढ़ आ जायेगी। मौसम में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाने से उपजाऊ भूमि बंजर हो जायेगी एवं जहाँ अभी बर्फ है, वहाँ रेगिस्तान नजर आयेंगे। संसार की कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था चरमरा जायगी और यह सब परिवर्तन इस सदी के अंत तक मात्र 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ जाने पर ही दृष्टिगोचर होने लगेंगे।

मौसम बदलने का मोटा अर्थ सर्दी, गर्मी, वर्षा का साधारण गति चक्र समझा जाता है, पर वैज्ञानिक भाषा में पृथ्वी पर छाये वातावरण में उथल पुथल होने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य की गतिविधियाँ इन दिनों ऐसी चल रही हैं कि उसे तात्कालिक लाभ किसी भी मूल्य पर मिले। इस उद्देश्य के लिए की गई वातावरण के साथ खिलवाड़ उसी के लिए भयावह संकट की भूमिका बनेगी। महाकाल की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया उस दण्डित करे, इससे पूर्व ही वह अपनी चाल बदल ले, इसी में उसका, सारी मानव जाति का कल्याण है।


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