हम विचारों के उपासक बनें।

February 1991

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पढ़ते - पढ़ते उन ने आंखें उठाई। दृष्टि सामने आ जा रहे लोगों को छूती हुई गंगा के उछलते-कूदते जल कणों से गले मिलने लगी। किताब अभी भी हाथों में थमी थी। वह निर्निमेष भाव से ताके जा रहे थे। गहरी झील सी इन आंखों में श्रद्धा, भक्ति, निरहंकारिता क्या कुछ नहीं था? इधर कई महीनों से छुट्टी के दिन कलकत्ता की भीड़-भाड़ से दूर इस ग्रामीण अंचल में आने लगे थे। उनकी मान्यता थी, इस देश का हृदय गाँव है। आज के पढ़े लिखे लोग इसको कितना महत्व देंगे, इससे उन्हें क्या?

नदी के किनारे बाँसों के भिड़े, बेल के झाड़, केले के पेड़ों के बीच बने इस शिव मन्दिर के पास बने चबूतरे में आकर या तो घण्टों पढ़ते रहते या फिर अपने ही भावों में खो जाते। सफेद धोती-कुर्ता धारा प्रवाह संस्कृत का उच्चारण कहीं से नहीं साबित होने देता कि वह विदेशी है। पर किया क्या जाय चमड़ी के रंग का? जिसे देखते ही पुजारी बिफर पड़ा था अन्दर मत घुसना बाबू। कोई बात नहीं बाहर तो बैठ सकता हूँ, उनके स्वरों में अटूट विनय थी। बैठ जाओ पुजारी भी विनम्रता से अप्रभावित न रह सका। पर उसके स्वर में उपेक्षा अधिक थी।

उस दिन से कितने दिन बीत गए। उनकी निरभिमानता ने अकेले अक्खड़ पुजारी ही नहीं उस जैसे अनेकों का व्यवहार बदल कर रख दिया है। अब तो सभी उनको अच्छी तरह पहचानने लगे हैं। इस पहचान में सिर्फ चेहरा- मोहरा भर शामिल है। कुछ अधिक पूछने पर जवाब में एक संकोच पूर्ण ‘न’ ही मिलती रही है। इतने पर भी सभी के अपनत्व में कहीं कोई कमी नहीं।

इस बीच कितने गुजर गए कुछ पता नहीं। ये भी उधर से गुजरने वालों में ही थे पर औरों से पर्याप्त भिन्न। इनकी आँखें इस ओर घूमी -नजर चेहरे से टकराई। एक-पल दो पल बहुत कुछ मन के पर्दे पर लिख गया। कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, अँग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, हिब्रू, अरबी, फारसी, जर्मन भाषा के असाधारण विद्वान रॉयल सोसाइटी के फेलो। पर यहाँ क्यों ठेठ भारतीय वेश भूषा में। मामला समझ में नहीं आया। समझने के प्रयास में कदम उधर को मुड़ गए। बढ़ते पाँवों ने उन्हें उनके पार खड़ा कर दिया। वह अभी भी पूर्ववत देखे जा रहे थे। आहट पाकर विचारों की शृंखला भंग हुई। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। उभरती मुस्कान परस्पर जा मिली। “लगता है यहाँ के लोग आपको जानते नहीं हैँ “आगन्तुक ने बात की शुरुआत की। “यहाँ के लोग मुझे जानते हैं, मेरी आत्मा को जानते हैं। वही तो मूल परिचय है। हाँ वे मेरे अहंकार से अभी अपरिचित हैं।”

वे यह सब कुछ समझ नहीं पाए थे। यह तो पता था कि वे आजकल संस्कृत के अध्ययन में मग्न हैं। पर इतनी जल्दी आत्मा जीव, अहं, ईश्वर की भूल- भुलैया इन्हें घेर लेगी, यह नहीं पता था। ‘आपकी यह पहेली मुझे समझ में आयी नहीं।’ कहने के साथ आगन्तुक ने उनकी ओर ताका।

वह हँसते हुए कहने लगे ‘आप भी बहुत भोले हैं राजा साहब। सीधी सी बात है मेरे अहंकार का परिचय यह कि मैं चीफ जस्टिस हूँ, रायल सोसाइटी का फेलो हूँ, यह हूँ वह हूँ। आत्मा का परिचय अर्थात् अस्तित्व का परिचय। एक आपस में दूरी पैदा करता है, विभाजन की खाइयाँ खोदता है दूसरा अंतरंग आत्मीयता स्थापित करता है।’

वे विचारक भी हैं, आज पता चला। न्यायाधीश के रूप में तो वर्षों से उन्हें जाना जाता रहा है। पर यह रूप? आने वाला थोड़ा खिसक कर सामने आ बैठा। ढलते दिन के कारण पूरा चबूतरा छाया से भरा था। सारी धूप गंगा में जा सिमटी थी।

‘आजकल आप’ आगंतुक सज्जन आगे कुछ कहते कि वह मुँह पर अंगुली रखते हुए बोले ‘अधिक कुछ नहीं बस पहले औरों के साथ न्याय करता था, अब अपने साथ न्याय करने लगा हूँ।’

‘अब देखो! वह अपने चिन्तन की शैली समझाने लगे। सिर की ग्रन्थि विशेष से यदि एक तोला रस निकाल लिया जाय तो संसार के बड़े से बड़े विद्वान की सब विद्या विस्मृत हो जाएगी। दिमाग के स्नायु विशेष पर एक चोट पड़ जाय तो बुद्धि का पता भी नहीं रह जाएगा।’

गौर से सुन रहे सज्जन ने भी ये बातें यदा-कदा पढ़ी थीं। पर यूरोपीय होने के कारण न्यायाधीश महोदय को कुछ अधिक ही पता था। वे आगे बोले बुद्धि विद्या की बात छोड़ भी दें तो शरीर के बल का, धन का, यश का, समर्थकों की बहुलता का गर्व क्या कम होता है? जबकि असलियत कुछ और ही है। एक अच्छे बलवान को तनिक सा जुलाब देकर देखिए। धन-यश समर्थक ये तो शरीर के अंश भी नहीं हैं। इन्हें नष्ट होते या रुख बदलते कितनी देर लगती है। किन्तु इनका अभिमान, अभिमान अन्धा जो है। वह तथ्य देखे भी कैसे?’

कहते-कहते वह भावुक हो उठे। कोई उनकी इस भावुकता को हो सकता है, दुर्बलता करार दे दे। पर यह दुर्गुण नहीं है। इसी ने उन्हें जागरुक किया है। इसी से वह अपने छोटे से छोटे दोष से बचे।

‘जहाँ रोग को ठीक समझा गया है, उसकी चिकित्सा पाने की आशा वहीं की जा सकती है।’ ‘उन्होंने बताया - भौतिकता को लक्ष्य मानने वाले देशों में तो अभिमान कोई बुराई नहीं माना जाता। वहाँ तो उसे पोषण दिया जा रहा है। ‘

अभिमान यहाँ के लोगों में भी कम कहाँ है?’ पास बैठे हुए सज्जन बोल उठे ।

‘यह तो मनुष्य की सामान्य दुर्बलता है। इसमें देश विशेष का नाम लेना व्यर्थ है’उन्होंने कहा ‘किन्तु इस महान देश ने बहुत पहले अनुभव कर लिया था कि यह एक भयंकर दुर्बलता है। अतः यहाँ इसकी चिकित्सा जितनी सहज है उतनी और कहीं नहीं।’

शरीर नश्वर है। इसका मोह करना झूठा है। इस पर अभिमान करना अज्ञान है। ‘वह कह रहे थे “भारतीय बच्चे को माता की गोद में यह सीख मिल जाती है। इस देश के अपठित ग्रामीण भी इसे जानते हैं।”

उनकी बातों की सच्चाई सुनने वाले को अनुभव हो रही थी। भारत का प्रायः प्रत्येक आदमी इन बातों को सुनता है और कहता भी है। किन्तु कितने लोग हैं जो गम्भीरता से इस तथ्य पर विचार करते हैं, सोचने-समझने की कोशिश करते हैं ।

विचार के अभाव में अभिमान उत्पन्न होता है और अभिमान से पनपते हैं व्यवहार के दोष। इन्हीं दोषों से अलगाव की खाइयाँ खुदती हैं, अपराधों की सृष्टि होती है। न्यायाधीश से अधिक व्यवहार के मर्म को और कौन जानेगा। उनका तो पेशा ही व्यवहार की समीक्षा है। सारी उम्र उन्होंने यही तो किया था।

“राजा साहब!” उन्होंने सामने बैठे अपने मित्र की ओर भावपूर्ण नेत्रों से देखा। कहने लगे “इस देश में वह सब कुछ है जो संसार में अन्यत्र नहीं। काश! कोई ऐसा उपजे जो यहाँ के निवासियों को विचार करना सिखा दे। मैं सच-सच कहता हूँ, झूठ मत मानना जिस दिन यहाँ के निवासी विचार करना सीख गए, सोच समझ कर जिन्दगी जीना उन्हें आ गया, उसी दिन इस धरती में स्वर्ग उतरे बिना नहीं रहेगा ।” कहते-कहते उनका चेहरा भावोद्दीप्त हो उठा। सुनने वाला इस आभा को देख कर चकित था।

“विचार से उपजा विवेक एक मात्र औषधि है अभिमान की, दूसरे शब्दों में मंगल पथ जीवन के शुरुआत की। “कहते हुए वह उठने लगे और तभी दोनों ने एक साथ देखा आकाश एक दम तारों ही तारों से भरा है, सर्दियाँ शुरू हो गई थीं। दूर-दूर तक न शब्द, न स्वर, न गंध, न रूप कुछ नहीं था। दोनों के पाँव एक साथ बढ़ने लगे।

निरभिमानता! सचमुच श्रद्धा, भक्ति, उन्नत विश्वास यहाँ तक कि समस्त सद्गुणों का एक मात्र आधार यही तो है और इसकी प्राप्ति की एक मात्र औषधि? सुनने वाला उनकी बातों पर सोच रहा था। अपनी क्षुद्रता एवं भगवत्ता की महत्ता पर बार-बार चिन्तन, जीवन के उद्देश्य का विवेक ही तो अभिमान को दूर करेगा।

निरभिमानता मूल मंत्र मानकर अपनी जीवन यात्रा पर चलते जीवन में उपलब्धियों का ढेर लगा देने वाले यह विदेशी थे प्राच्य विद्याविद् सर विलियम जोन्स जिन्होंने विश्व विख्यात ‘ऐशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल” की स्थापना की। उनकी मित्रता पाने वाले व्यक्ति थे, कृष्ण नगर के तत्कालीन महाराज शिवचन्द्र। यदि हम भी विचारों के उपासक बन सकें तो उनकी ही भाँति जीवन में दिव्यत्व उभरे बिना न रहे। विचारक्रान्ति- विचारों की सक्रिय उपासना पद्धति के अलावा और क्या है?


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