मात्र यूटोपिया नहीं, वास्तविकता

February 1991

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विश्व के मूर्धन्य कहे जाने वाले लेखकों में से कइयों ने वर्तमान में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर भविष्य की सुखद रूप रेखा तैयार की है, जिसे यूटोपिया नाम दिया गया है। उसमें से अधिकाँश ने सन् 2000 के बाद आने वाले समय को सुख और शान्ति से भरा-पूरा बताया है एवं उज्ज्वल भविष्य के रूप में प्रतिपादित किया है, जिसे आज हम कुछ हद तक सत्य सिद्ध होते देख रहे हैं।

ऐसे ही एक यूटोपियाकार हुए है ग्रीक के महान दार्शनिक प्लेटो। उन्होंने सन् 2000 के बाद के समय को “रिपब्लिक” नाम से अभिहित किया है। उनके अनुसार तब वैसे ही व्यक्ति शासन-सत्ता का सूत्र-संचालन कर सकेंगे, जो पूर्णतया परमार्थमय जीवन जियेंगे। वे लिखते है कि उन पर धर्म का अंकुश रहेगा, ताकि भटकने एवं सत्ता का दुरुपयोग करने का डर न रहे। उस समय मनुष्य जाति पूर्णतया सुख शान्ति अनुभव करेगी। राज्य तंत्र एवं धर्मतंत्र एक दूसरे में एकाकार हो जायेंगे। बच्चों की पढ़ाई 20 वर्ष की उम्र तक होगी। उसके बाद उनकी नैतिक, चारित्रिक, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को देखकर भविष्य में कुछ करने का निर्धारण होगा। इस आधार पर प्रतिभाशालियों का चयन होगा। जिनमें व्यवस्था बुद्धि की अधिकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना होगी, उन्हें संगठन के रूप में शिक्षण दिया जायगा। शेष व्यापारी या किसान होंगे एवं सिपाही भी। प्रत्येक व्यक्ति को अध्यात्म विद्या अपनाना अनिवार्य हो जाएगा, यह मुख्य रूप से नैतिकता एवं चारित्रिक प्रखरता के रूप में होगी। ऐसी व्यवस्था बनाई जाएगी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को परमार्थमय जीवन बिताने के लिए न्यूनतम पाँच वर्ष का समय देना पड़ेगा। यह उनका व्यावहारिक शिक्षण होगा। सभी वर्ण अपने-अपने दायित्व को भलीभाँति पूर्ण करेंगे, और व्यावहारिक जीवन में साम्यवाद का वह स्वरूप प्रस्तुत करेंगे जो थोपा हुआ नहीं, अपितु स्वमेव धारण किया हुआ होगा, जिसके अंतर्गत सामर्थ्य भर पुरुषार्थ एवं आवश्यकता भर लेने की नीति ही सर्वोपरि होगी “एक प्रकार से यह ब्रह्मनिष्ठ लोकसेवियों की परम्परा के पुनर्जीवन की बात प्लेटों ने कही है। “

उनके अनुसार विवाह का आधार इन्द्रिय तृप्ति न होकर अधिक समर्थता अर्जित करना होगा। अधिकाँश दम्पत्ति वैवाहिक जीवन में एक दूसरे को आगे बढ़ाने एवं प्रतिभा को निखारने का कार्य करेंगे। विवाह होगा, किन्तु बच्चे उत्पन्न करने में जल्दबाजी न करेंगे। विवाह की उम्र कम न हो कर 30 से 35 वर्ष की होगी जिसके अंतर्गत नर एवं नारी की समान प्रगति ही मूल मुद्दा रहेगी।

ऐसे ही एक अन्य यूटोपिया-लेखक इटली के थामस काम्पानेला हुए है। उन्होंने अपने जेल-जीवन के दौरान सन् 1602 में एक उपन्यास लिखा “ला सीटा दि सोल” अर्थात् “दि सिटी ऑफ दि सन्” जिसमें उन्होंने सन् 2000 के बाद की समाज व्यवस्था का एक रोचक मॉडल प्रस्तुत किया है।

उन्होंने अपने सूर्य नगर के निवासियों को तीन श्रेणी में बाँटा है पान (शक्ति), सिन (ज्ञान) एवं मोर (प्रेम) अर्थात् वहाँ के निवासी इन तीनों गुणों से युक्त होंगे, जिसके कारण सूर्य नगर समस्त विश्व का आकर्षण केन्द्र बन जायेगा। “यह अपने सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों की आभा-ऊर्जा समस्त विश्व में सूर्यवत् बिखरेगा, जिसे अन्य देश ग्रहण कर प्रकाशवान बनेंगे। इसी उपन्यास में ये आगे लिखते है कि वहाँ के छोटे बच्चे तीन से सात वर्ष की उम्र से ही भाषा संबंधी समस्त ज्ञान प्राप्त कर चुके होंगे। इस अवधि में ही उनके भविष्य की रूपरेखा बन जायेगी। इसके बाद ऋषि परम्परा के अनुसार सभी बच्चे नंगे पैर रहेंगे, जो सादगी एवं सज्जनता का प्रतीक होगा। अध्ययन के अन्तराल वे स्वयं उपार्जन करेंगे। इसके दौरान ही उन्हें विज्ञान कृषि संबंधी तकनीकी एवं कला संबंधी भिन्न-भिन्न शिक्षा दी जायेगी।”

“सम्पत्ति व्यक्तिगत न रहेगी, अपितु सामूहिक होगी। लोग सामूहिकता का अर्थ न केवल समझेंगे अपितु अपनायेंगे। न कहीं अनावश्यक धन संचय होगा न चोरी, न हत्या, न बलात्कार। न कहीं जेल होगी, न लोग प्रताड़ित किये जायेंगे। यह व्यवस्था थोपी हुई नहीं, अपितु प्रायश्चित्त स्वरूप स्वमेव अपनाई गई होगी? “

सूर्य नगर में वंश चलाने की उसकी अपनी विशिष्ट शैली होगी। सन्तानोत्पादन के लिए उन्हीं माता-पिताओं को छूट मिलेगी, जो बच्चों में प्रसव पूर्व एवं बाद में सुसंस्कारों को डाल कर उन्हें महामानव के रूप में विकसित करने में समर्थ होंगे।

इसी शृंखला में श्री एच जी वेल्स का भी नाम आता है। यों तो उनकी ख्याति आरंभ में एक सामान्य उपन्यासकार से कोई बहुत अधिक नहीं थी और जैसा कि आम उपन्यासकारों को लोग सामान्य रूप में लेते और पढ़ते हैं, वैसा ही इनके साथ भी हुआ। पर समय के साथ जैसे-जैसे इनकी औपन्यासिक कल्पनाएँ मूर्तिमान होती गई, वैसे-वैसे ही इनकी प्रसिद्धि उपन्यासकार से यूटोपिया लेखक के रूप में होने लगी। इनकी अन्य रचनाओं को फिर काल्पनिक न मान कर परिकाल्पनिक (हाइपोथेटिकल) माना जाने लगा और विशेष रुचि एवं महत्व को साथ पढ़ा जाने लगा।

वे सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए अपनी बहुचर्चित रचना “द टाइम्स मशीन” से जिसमें उन्होने 19 वीं सदी से 21 वीं सदी तक होने वाले वैज्ञानिक आविष्कारों, लोगों के रीति-रिवाजों में बदलाव एवं मानसिकता में परिवर्तन को स्पष्ट किया है एवं सुखद भविष्य के मानसून आने की एक झाँकी भी उन्होंने प्रस्तुत की है। उनकी विश्व प्रसिद्ध रचनाओं में “दि वार ऑफ दि वर्ल्ड एवं दि फूड ऑफ दि गॉड” आदि विशेष उल्लेखनीय हैं?

1933 में प्रकाशित होने वाले उपन्यास “थिंग्स टू कम” में विश्व-व्यवस्था की सुखद एवं शान्ति पूर्ण कल्पना की गई है जिसमें बताया है कि उन्नीसवीं सदी विनाश एवं विश्व स्तर पर पतन का काल है। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक कई खाइयाँ खोदी जायेंगी। इस सदी में ऐसा प्रतीत होगा, मानो सत्य, प्रेम, ईमान भाईचारा, मानवता जैसे शब्द मात्र आडम्बर बन कर रह गये हैं। नैतिक दृष्टि से व्यक्ति इतना गिर जायगा, जिसे पतित, पातकी की उपमा भी दी जा सके। विशेष रूप से नारी जाति को हीनता की दृष्टि से देखा जायगा, किन्तु बीसवीं सदी के अन्तिम में आमूल-चूल परिवर्तन होगा। इसका केन्द्र बिन्दु विकासशील देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। उस समय व्यक्ति अध्यात्मिकता से नियंत्रित होगा एवं विश्वव्यापी एकता, समता, संवेदनशीलता का इतना विस्तार होगा, जिससे मृत्यु एवं विनाश के सभी साधन सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे। तब विश्व एक परिवार के रूप में विकसित होगा एवं सीमाओं का बन्धन लोगों को विश्व बन्धुत्व से पृथक नहीं रख सकेगा।

“व्हेन द स्लीपर अवेक्स” उपन्यास में उन्होंने नायक के सन् 1900 में सघन निद्रा में सोने की कल्पना की है। तब परिस्थितियाँ पतन पराभव, विनाश, विग्रह, एवं नैतिक व धार्मिक मूल्यों के असाधारण अवमूल्यन जैसी थी, किन्तु उसकी नींद 200 साल बाद खुली, तो यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि परिस्थितियाँ सर्वथा बदल गई। वह देखता है कि आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने वाला मनुष्य का झुकाव स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न कर रहा है। हर व्यक्ति दैवी गुणों से सम्पन्न है। एक दूसरे को ऊँचा, अपने आगे बढ़ाने का सत्प्रयास चल रहा है। युद्ध एवं विनाश के स्थान पर विश्व प्रेम एवं भाईचारा का अजस्र प्रवाह उमड़ रहा है। वैज्ञानिक आविष्कारों, साधनों का सदुपयोग विनाश से हट कर सृजन प्रयोजनों में हो रहा है, फलतः विकराल दीखने वाले संकटों, विपदाओं का निदान सहज ही मिल रहा है। व्यक्ति भौतिक प्रगति को नगण्य मानकर गुण परक विकास को अपना चरम लक्ष्य मान रहा है और आध्यात्मिकता की विरासत को ही अक्षुण्ण रखने में अपना गर्व-गौरव अनुभव कर रहा है, वह विरासत जिसको वर्षों पूर्व उनके पूर्वजों के पूर्वज ने इस संसार को धरोहर के रूप में प्रदान किया था।

इसी प्रकार पुराण, महाभारत, जैसे भारतीय आर्य ग्रन्थों की अलंकारिक शैली में ही अन्यान्य लेखकों ने अपने उपन्यासों में भविष्य की झाँकी को प्रस्तुत किया है, जिसे आज हम काफी हद तक साकार होते हुए देख रहे हैं। सचमुच, अब तब हम सोये हुए ही तो थे, पर अब धीरे-धीरे हमारी तन्द्रा टूटती जा रही है। सन् 2000 आने में अभी 10 वर्ष की देरी है, तब तक हमारी खुमारी और हट जाय, तो इसे आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए और इसके ठीक सौ वर्ष बाद जब हम पूर्ण रूप से जग पड़ेंगे, तो उपन्यास के नायक का सपना सचमुच ही साकार हो उठेगा, जिसमें मनुष्य स्वयं को पूर्ण रूप से बदल कर मानव से महामानव और नर से नारायण बन कर इस धरती को “स्वर्गादपि गरीयसी” से महिमा मंडित करेगा।


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