आत्म निर्भर बने अपने आप उठें।

April 1976

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गीताकार ने “उद्धरेत् आत्मानात्मानाम्” की शिक्षा देते हुए यह स्पष्ट घोषणा की है कि अपना उद्धार अपने ही द्वारा सम्भव है। उसको कोई दूसरा करने वाला नहीं है। अपने उत्थान एवं पतन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ही है इसमें श्रेष्ठ पुरुषों का सहयोग और उनका सत्संग थोड़ी बहुत हमारी सहायता करें यह बात दूसरी है पर अपना कल्याण करने के लिए हमें स्वयं आगे बढ़ना होगा उनके उपदेश हमारा मार्ग प्रदर्शन तो कर सकते हैं पर मंजिल तो हमें स्वयं ही तय करनी चाहिए। लोक और परलोक का सुख दूसरों के कंधों पर बैठकर नहीं प्राप्त किया जा सकता है। तैरने की कला का ज्ञान होने पर भी मनुष्य तब तक तैरना नहीं सीख सकता है जब तक वह स्वयं पानी में घुसकर पैर न चलाये। मृत्यु का आलिंगन किये बिना स्वर्ग का सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता है।

“मैं आत्मा हूँ चैतन्य स्वरूप हूँ।’- संसार का सारा ज्ञान मेरे अंदर समाया हुआ है, मेरे पास अनन्त शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। केवल उनके जगाने भर की आवश्यकता है। ऐसा विचार मन में दृढ़ हो जाने पर मनुष्य जो कुछ चाहे कर सकता है वह जो चाहे बन सकता है। सन्त इमरसन का कथन है विश्वास करो कि तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हो। इस प्रकार की संकल्प शक्ति से मन में आत्म विश्वास पैदा होगा, आत्म निर्भरता बढ़ेगी और प्रगति के पथ पर बढ़ते चले जाओगे।

मैं संसार के बंधन में नहीं हूँ, वरन् यह संसार मेरी संकल्प शक्ति का विकास है। संसार जड़ है आत्मा चैतन्य स्वरूप है। अतः जड़ का चैतन्य को बाँधना सम्भव नहीं है, यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि संसार ने मुझे बाँध लिया है तो यह उसका भ्रम ही माना जायगा। महाराजा जनक के द्वारा आयोजित की गई एक धर्म सभा में जब इसी प्रकार पूछा गया था कि संसार ने हमें बाँध लिया है या हमने संसार को तो अष्टावक्र महाराज ने शामियाने के एक लट्ठे को पकड़कर चिल्लाना शुरू किया, “हे जनक! हे जनक! तेरे इस लट्ठे ने मुझे पकड़ लिया है मुझे इससे छुड़ाओ।” इसको सुनकर सारी सभा हँसने लगी तथा जनक जी भी मुस्कुराने लगे थे और उन्होंने कहा ‘महाराज यह शामियाने का लट्ठा जड़ है यह कैसे आपको बाँध सकता है?’ हाथ हटा लीजिए बस आप इससे मुक्त है” बस यही समस्या हमारे और संसार के बीच में है यदि हम आत्म विश्वास, आत्म निर्भरता, आत्मावलम्बन, आत्म चिंतन और आत्म निर्माण इन पाँच बातों को अपने जीवन में उतार लें तो कोई शक्ति हमें भाग्य बदलने की तो बात ही क्या, संसार बदलने से नहीं रोक सकती है। परावलंबी, पराधीन को न तो कभी इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में।

अपने उत्थान, पतन की जिम्मेदारी बाह्य परिस्थितियों पर न डालिए। बाह्य परिस्थितियाँ जीवन निर्माण में कुछ सहायता भले ही करें, पर उनका स्थान गौण है। असली शक्ति तो अपने पास ही है। शक्ति सम्राट तो हमीं हैं। विश्वास कीजिये कि परिस्थिति निर्माण की योग्यता आप में भरी हुई है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रतिभा के आधार पर ही अपने संसार का निर्माण करता है यदि बाह्य परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लिया जाये तो दुखी और विपन्न परिस्थिति में उत्पन्न होने वाले बालक ईश्वर चन्द विद्यासागर, स्वामी रामतीर्थ, अब्राहीम लिंकन आदि साधारण व्यक्ति ही होते संसार के लोग उनका नाम भी न जानते। परन्तु वे परिस्थितियों से लड़े और उन्होंने उन पर विजय प्राप्त की। आदि कवि बाल्मीकि, कबीर, सूर, तुलसी आदि की बाह्य परिस्थितियां कोई अच्छी थोड़ी थी उनमें अचानक ही प्रतिभा का वह स्रोत फूट पड़ा जिनकी प्रशंसा करते हुए हम नहीं अघाते हैं। उस महाशक्ति का भण्डार तो उनके अंदर पहले से ही विद्यमान था केवल झकझोरने भर की आवश्यकता थी। साधारण सी घटनाओं ने उनकी प्रसुप्त चेतना शक्ति के द्वार खोल दिये और वे महापुरुष बन गये।

संसार तो दर्पण के समान है जहाँ अच्छी और बुरी प्रत्येक वस्तु हमें अपने मन के अनुकूल ही दिखाई पड़ती है। हमें जो दुनिया के दूसरे लोगों की अच्छाइयाँ या बुराइयाँ दिखाई पड़ रही हैं सब कुछ नहीं है वरन् वे तो अपने मन की भावनाओं की प्रतिच्छाया मात्र हैं। हमारी छिद्रान्वेषण और गुण ग्राहकता की प्रवृत्ति ही दूसरों की अच्छाइयों और बुराइयों को देखने का मुख्य कारण होती हैं। एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों को अच्छे और बुरे व्यक्ति ढूंढ़ लाने को कहा था। दिन भर इधर उधर भटकने पर भी दुर्योधन को कोई अच्छा व्यक्ति नहीं मिला और न युधिष्ठिर को कोई बुरा। दुर्योधन की दृष्टि में सब में कोई न कोई बुराई थी और युधिष्ठिर को दूसरों में अच्छाई या गुण ही गुण दिखाई दिये। अतः हमारे सामने जो कुछ भी अच्छी या बुरी परिस्थितियाँ आती हैं उनका मूल कारण हम स्वयं है। हमारा दृष्टि दोष ही उनको अनुकूल या प्रतिकूल समझने लगता है।

क्रोधी व्यक्ति को सारे संसार के लोग क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव के दिखाई देते हैं। झगड़ालू और सनकी व्यक्तियों को अपने चारों ओर के सभी व्यक्ति सदैव लड़ते झगड़ते हुए दिखाई देते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति निकम्मा और आलसी है उसे दुनिया में कोई काम ही करने को नहीं है। जो व्यक्ति शारीरिक रूप से अस्वस्थ है उसे सभी प्रकार के भोजन रुचिकर प्रतीत होते हैं। व्यभिचारी, लम्पट, चोर, झूठे, पागल, अन्यायी, अत्याचारी तथा बेईमान को भी अपनी दुनिया अलग बनाते हुए देखा जाता है। इसके अतिरिक्त ज्ञानी संत साधु उत्साही, साहसी, सेवाभावी, परोपकारी, आत्म विश्वासी लोगों की दुनिया ही अलग बस जाती है। जो संसार बुरे व्यक्तियों के लिए बुरा है वही अच्छे व्यक्तियों के लिए सद्गुण एवं सदाचार से भरा हुआ कर्मक्षेत्र बन जाता है संसार न तो किसी के लिए दुख का हेतु है और न किसी के लिए सुख का हेतु। वास्तव में वह तो कुछ है ही नहीं इसीलिए इसको असार-संसार कहा जाता है। अपनी मनःस्थिति ही संसार रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित होने पर भिन्न भिन्न दिखाई पड़ती है।

सम्पूर्ण समस्याओं का निराकरण अपने पास ही है, हम दूसरों से जिस सहायता की अपेक्षा करते हैं उसकी पात्रता भी हमें अपने अंदर पैदा करनी चाहिए। आत्म निर्भरता तथा आत्मावलंबन का मार्ग छोड़ देने पर ही मनुष्य के अंदर दीनता की भावना उत्पन्न होने लगती है और वह बड़े दीन हीन वचन बोलने लगता है, ‘मैं क्या कर सकता हूँ? कोई मेरा साथ नहीं देता है ऐसी शिकायतें प्रायः वे लोग ही किया करते हैं जिनको अपने ऊपर विश्वास नहीं है। देवता, भाग्य, ग्रह, नक्षत्र, समय, काल, युग आदि को वे व्यर्थ ही कोसते हुए सुने जाते हैं।

भाग्य की रेखाएँ तो कर्म के आधार पर बनती और मिटती रहती हैं। भाग्य लिखते समय विधाता को सोचना पड़ता है कि अमुक व्यक्ति के भाग्य में क्या लिखा जाये? अपनी शक्तियों के सदुपयोग और दुरुपयोग के आधार पर भाग्य का लेखा जोखा तैयार होता है। यदि हमने अपने में सद्गुणों को अधिक जमा कर लिया है, तो भाग्य में भी उन्नति का लेख लिखा जायेगा और यदि दुर्गुणों को मूर्खताओं को बढ़ावा दिया गया है तो भाग्य की लिपि भी बदल जायेगी। यदि हमारे अंदर उत्साह, लगन, साहस, दृढ़ता, धैर्य, परिश्रम, कर्मठता आदि गुण विद्यमान हैं तो विश्वास मानिए कि हम अपने भाग्य की लिपि बदल डालेंगे। कल का किया गया कार्य ही तो आज का भाग्य बनता है। भाग्य पहले से लिखा हुआ नहीं होता है।

मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट रचना है उसे इतनी क्षमता एवं योग्यता स्वभावतः ही प्राप्त हैं कि वह अपने लिए उपयोगी एवं अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण स्वयं कर ले। परमात्मा ने मनुष्य को दूसरे जीवों की तरह पराश्रित, अयोग्य, बुद्धिहीन एवं निर्बल नहीं बनाया है कि वह दूसरों की कृपा पर जीवित रहे। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। अपने लिए भली और बुरी परिस्थिति उत्पन्न करने का एकमात्र अधिकार केवल उसी को है। अतः हमें भूत प्रेत, देवी देवता, ग्रह नक्षत्र और भाग्य आदि का बहाना छोड़कर आत्म निर्भरता का पाठ सीखना चाहिए और अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए तभी हमारी आकाँक्षाएँ पूर्ण हो सकेंगी।

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