गायत्री उपासना बनाम द्विजत्व-ब्राह्मणत्व

April 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री उपासना मानव मात्र के लिए है। सद्बुद्धि की देवी-ऋतम्भरा प्रज्ञा की अधिष्ठात्री इस महाशक्ति की आराधना और अन्तःकरण में प्रतिष्ठापन करना, हर किसी के लिए आवश्यक है। यह तत्व जिसे भी प्राप्त होगा वह ऊँचा उठेगा। जहाँ तक अधिकार का प्रश्न है प्रत्येक सत्प्रयोजन को सम्पन्न करने-सन्मार्ग की दिशा में कदम बढ़ाने की छूट और सुविधा हर किसी को है। प्रतिबन्ध तो अवाँछनीय गतिविधियों पर ही लगाये जाते हैं। अथवा उन कार्यों से रोका जाता है जो करने की सामर्थ्य से बाहर होते हैं और क्षमता के अभाव में भारी वजन उठाने पर कठिनाई उत्पन्न होने की आशंका होती है। गायत्री उपासना में ऐसी कोई बात नहीं है। न तो उसमें कुछ अनैतिक है और न दुस्साध्य। उसका लक्ष्य सद्बुद्धि की शरण में जाना है। इसमें अधिकारी अनधिकारी का प्रश्न ही नहीं उठता।

सूर्य की धूप में, चन्द्रमा की चाँदनी में बैठने का मनुष्य को ही नहीं प्राणिमात्र को अधिकार है। गंगा स्नान पर किसी के लिए प्रतिबंध नहीं है। स्वच्छ वायु में साँस लेने, जल पीने और अन्न खाने से किसी को वंचित नहीं किया जाता। इसी प्रकार सत्य बोलने, उदारता बरतने संयम से रहने, कर्त्तव्य परायण रहने जैसे सत्प्रयोजनों के लिए किसी को रोका नहीं जाता वरन् प्रोत्साहित किया जाता है। ईश्वर का स्मरण भी ऐसा ही पवित्र कार्य है। जिसमें हानि की कोई आशंका नहीं है और न ऐसा कुछ है जिस पर विचार करके किसी को प्रभु प्रार्थना का अधिकारी किसी को अनाधिकारी ठहराया जा सके। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही बात है। वह सार्वभौम-सर्वजनीन उपासना मंत्र है जिसे बिना धर्म, जाति, सम्प्रदाय, देश, वेशभूषा, लिंग आदि का भेदभाव किये मनुष्य मात्र द्वारा अपनाया जा सकता है।

यहाँ यह इसलिए कहा जा रहा है कि जहाँ तहाँ ऐसे प्रतिपादन मिलते हैं जिनमें द्विजत्व और ब्राह्मणत्व को गायत्री के साथ जोड़ा गया है। इस प्रतिपादन का तात्पर्य इतना ही है कि उत्कृष्टतावादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्त्तव्य अपनाकर चलने वाले जीवन क्रम में ईश्वरीय उपासना की दिव्य उपलब्धियाँ अधिक अच्छी तरह हो सकती हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। दूसरे जन्म से तात्पर्य है पशु प्रवृत्तियों से जकड़े हुए सामान्य प्राणि जीवन से ऊँचा उठकर मानवी उत्तरदायित्वों की विशिष्टता भरी भूमिका को अपनाया जाना। नर पशु की रीति नीति छोड़कर, देव जीवन की महानता अपनाया जाना। इसके लिए व्रत लेना पड़ता है कि वासना तृष्णा की क्षुद्रता में कृषि कीटकों की तरह निरत नहीं रहा जायगा वरन् मानवी उत्कृष्टता को जीवन क्रम से ओत प्रोत करते हुए उच्च स्तरीय सिद्धान्तों को अपनाकर चला जायगा। ऐसा व्रत शील जीवन क्रम ही द्विजत्व है। पशु प्रवृत्तियों का त्याग और देव परम्परा को धारण करने का व्रत लेना भारतीय परम्परा में एक अत्यंत आवश्यक एवं पवित्र कर्म है। इसलिए द्विजत्व का संस्कार समारोह पूर्वक किया जाता है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार कहते हैं। इसका प्रतीक यज्ञोपवीत धारण है। ऐसे व्रतधारियों को द्विज संज्ञा दी गई है।

द्विज के लिए आदर्शवादी रीति नीति अपनाना और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहने की योजना बनाकर चलना आवश्यक होता है ऐसे कार्यों में तीन प्रमुख हैं-(1) अज्ञान का निवारण (2) अनीति का उन्मूलन (3) अभावों का समापन। व्यक्तिगत रुचि, योग्यता, परिस्थिति के अनुसार इनमें से कोई भी लक्ष्य चुन सकता है। संसार के समस्त कष्टों और संकटों के तीन ही कारण हैं। इन्हें जितना निरस्त किया जा सके उतनी ही सुख शान्ति स्थिर रह सकेगी और प्रगति की संभावना बढ़ेगी। अज्ञान का निवारण करने में प्रवृत्त वर्ग ब्राह्मण-अनीति से जूझने वालों को क्षत्रिय-अभाव दूर करने में जुटे हुए लोगों को वैश्य कहते हैं। जिनमें में इस प्रकार की आदर्शवादी आकाँक्षायें नहीं हैं जो अपनेपन की आपाधापी तक ही सीमित हैं, जिनकी उत्कृष्टता अपनाने में कोई रुचि नहीं है जो पेट प्रजनन में आगे की बातों में रुचि नहीं लेते, जिन्हें पशु प्रवृत्तियों में डूबे रहना ही पर्याप्त लगता है वह समस्त मनुष्य शूद्र हैं। यह भावनात्मक वर्गीकरण है। इसमें जाति वंश का कोई प्रश्न नहीं है। इसे विशुद्ध रूप से आचार प्रक्रिया या आदर्श पद्धति कहा जा सकता है। इस तथ्य को और भी स्पष्ट करना हो तो यों कह सकते हैं कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पशु प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्ति शूद्र और उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व अपनाने वाले लोग द्विज हैं। इन वर्गों को स्थायित्व नहीं है। आज का स्वार्थी कल आदर्शवादी बन सकता है। इसी प्रकार आज का श्रेष्ठ व्यक्ति कल निकृष्ट भी बन सकता है। अस्तु शूद्र द्विज होते रहते हैं और द्विजों में से अगणित पतित होकर शूद्र वर्ग में चले जाते हैं। यह वर्ण भेद ही प्राचीन काल से वर्ण भेद कहा जाता है। जन्म जाति के आधार पर किसी को शूद्र या द्विज मानना निरर्थक है। सदाचारियों के बच्चे सदाचारी ही हों और दुराचारियों के यहाँ दुराचारी ही जन्मते रहें ऐसा कहाँ होता है। इसलिए अमुक वंश में जन्मे लोग शूद्र ही होते रहेंगे और अमुक परिवार की पीढ़ियां द्विज ही होती रहेंगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।

द्विजत्व के साथ गायत्री उपासना को सोना और सुगंध मिलने की तरह अधिक सराहा गया है और उससे अधिक लाभ होने का तथ्य समझाया गया है। ईश्वर उपासना कोई भी कर सकता है पर अधिक लाभ उसी को होगा जो प्रभु समर्पित आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया भी अपनाने का प्रयत्न करेगा। ईश्वर उपासना गाड़ी का एक पहिया है और आदर्शवादिता अपनाने वाली जीवन साधना दूसरा। इन दोनों के सम्मेलन से ही सर्वतोमुखी प्रगति का रथ अग्रसर होता है। मात्र पूजा पाठ कर लेने से भी यों तो कुछ लाभ होता ही है पर पूरा सत्परिणाम देखना हो तो पवित्र जीवन कम अपनाने की साधना के साथ ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। पवित्र जीवन उर्वरा भूमि है और भजन उपजाऊ बीज। दोनों की व्यवस्था पर समुचित ध्यान रखा जाना चाहिये। इसी प्रतिपादन को गायत्री और द्विजत्व का समन्वय करने की संगति बिठाकर किया गया है। तथ्य को समझा जाना चाहिए।यदि किसी का वंश या जाति का द्विज ठहराया जायगा और उसी परिवार में जन्में लोगों को उपासना का-गायत्री का-अधिकारी कहा जायगा तब तो निश्चित रूप से अर्थ का अनर्थ ही हो जायगा। दुर्भाग्य से पिछले दिनों ऐसी ही भूल होती रही है और अमुक जाति वंश के लोगों को इस पवित्र उपासना का अधिकारी अमुक को अनाधिकारी ठहराया जाता रहा है। जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। तत्वदर्शी-मानवतावादी-ऋषि इतने संकीर्ण हो ही नहीं सकते थे कि वे किसी अमुक जाति वंश को आत्मिक प्रगति के साधनों को अपनाने का अधिकारी ठहरायें और अन्यों को उससे वंचित कर दें। ऐसा पक्षपात तो बहुत ही ओछे स्तर के संकीर्ण बुद्धि, पक्षपाती और विद्वेषी लोग ही कर सकते हैं। भारतीय धर्मशास्त्रों और उनके प्रस्तुतकर्त्ता ऋषियों पर ऐसे आक्षेप लगने लगेंगे तो यह उस महान संस्कृति का अपमान ही होगा जिसके कारण समस्त विश्व ने इस देश वासियों को देव मानव माना था और जगद्गुरु कहकर अपना मस्तक नवाया था।

गायत्री उपासना का अधिकार हर किसी को है। मनुष्य मात्र बिना किसी भेद-भाव के उसे कर सकता है। इस सामान्य बुद्धि संगत तथ्य के समर्थन में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं तो भी इस संदर्भ में प्रमाण मिल ही जाते हैं।

सर्वेषां वा गायत्री मनु ब्रूयात्।

पारस्कर गृह सूत्र 2।3।10

गायत्री का उपदेश सबको करें-

चतुर्णामपि वर्णानाम् आश्रमस्य विशेषतः। करोति सततं शान्ति सावित्रीं उत्तमां पठन्।।

-महाभारत

“चारों वर्ण और चारों आश्रमों में रहने वाले कोई भी साधक जो इस उत्तम गायत्री मंत्र का जप करते हैं वे परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।’

यथा कथं च जप्तैषा त्रिपदा परम पावनी सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिनां किं पुनर्नृप।

-विष्णु धर्मोत्तर

हे राजन् जैसे बने वैसे जप करने पर भी परम पावनी गायत्री कल्याण करती है। फिर विधिपूर्वक उपासना करने के नाम का तो कहना ही क्या है?

अग्निदेव ने कहा है-

एवं सन्धा विधि कृत्वा गायत्रींच जयेत् स्मरेत्। गायेचिष्यान् यत स्त्रायेदभार्यां प्राणांस्तथैव च॥

अर्थात् “सन्ध्या विधि परिपूर्ण करने के पश्चात् गायत्री का स्मरण और जप करना। गायमान होने से अर्थात् उसकी उपासना-जप करने से वह गुरु, शिष्य, स्त्री और प्राणी सबका उद्धार करती है।

ब्राह्मण शब्द मात्र विद्वान अथवा कर्मकाण्ड परायण के लिए नहीं होता वरन् जिसका जीवन ब्रह्म परायण है, जो आत्म शोधन और परमार्थ प्रयोजन में निरत रहकर ब्रह्म तेज की अभिवृद्धि करता है ब्राह्मणत्व का पद उसी को मिलता है और वही पूजनीय गिना जाता है।

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान्पुरुषः स विद्वान्। सुचिन्तितं चौषधमातुराणां। न नाममात्रेण करोत्यरोगम्॥

शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं, परन्तु जो क्रिया में चतुर हैं वही पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय करी औषध भी रोगियों को केवल नाम-मात्र से अच्छा नहीं कर देती है॥171॥

संध्या वंदन को नित्य कर्म माना गया है। उसकी आवश्यकता शौच, स्नान, भोजन, शयन जैसी दैनिक गतिविधियों की तरह समझी गई है और कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर की स्वच्छता, सुविधा, पुष्टि के लिए साधन जुटाये जाते हैं उसी प्रकार अन्तःकरण पर आये दिन चढ़ने वाली मलीनता को स्वच्छ करने आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने एवं ब्रह्मतेजस् को बढ़ाने के लिये नित्य ही ईश्वराधना नियत समय पर नियमित रूप से करनी चाहिए। संध्या वन्दन इसी प्रक्रिया का नाम है। इसे अपनाने के लिए शास्त्रों ने कठोर निर्देश दिये हैं और उपेक्षा करने वालों की कटु भर्त्सना की है। संध्या को नित्य कर्म ठहराते हुए स्थान स्थान पर द्विजत्व की धारणा के लिए भी संकेत किये गये हैं और कहा गया है कि संध्या तो करनी ही करनी चाहिए पर उसका समुचित लाभ लेना हो तो द्विजत्व की जीवन साधना को भी अपनाये रहना चाहिए। यदि इस ओर उपेक्षा बरती गई और मात्र पूजा प्रक्रिया को ही पर्याप्त मान लिया गया तो काम नहीं चलेगा। उसके साथ साथ उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की समन्वित प्रक्रिया-द्विजत्व का जुड़ा रहना भी आवश्यक है। संध्या का सामान्य निर्देश तो हर किसी के लिए है पर साथ ही यह भी बताया जाता रहा है कि उपासना का पूरा लाभ लेना हो तो द्विजत्व के नाम से जानी जाने वाली जीवन साधना को अपनाया जाना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक समझना चाहिए।

सायं प्रातस्तु यः संध्यां सऋक्षां पर्युपासते। जप्त्वैव पावनीं देवीं सावित्री लोक मातरम्॥

-याज्ञवलक्य

प्रातःकाल तथा सायंकाल संध्योपासना और गायत्री जप जो ब्राह्मण करता है उसका सकल पाप नष्ट हो जाता है।

सायं प्रातश्च संध्यां यो ब्राह्मणोऽम्युपसेवते। प्रजपन् पावनीं देवीं गायत्रीं वेदमातरम्॥83॥ स तया पावितो देव्या ब्राह्मणों नष्टकिल्विषः।

-महा0 वन पर्व

जो ब्राह्मण प्रातः और सायं इन दोनों समय की संध्या और सबको पवित्र करने वाली वेदमाता गायत्री देवी के मन्त्र का जप करता है; वह ब्राह्मण उन्हीं गायत्री देवी की कृपा से परम, पवित्र और निष्पाप हो जाता है।

उद्यन्तमस्तं यन्त मादित्यममिध्यानम् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं मद्रमश्नुते।’

-तै0 आ॰ प्र0 2 अ॰ 2

उदय और अस्त होते हुए सूर्य की उपासना करने वाला विद्वान ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण को प्राप्त करता है।

सन्ध्यामुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोक मनामयम्॥

-यमस्मृति

जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियमपूर्वक सन्ध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनामय ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं।

उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः सान्तहितः। पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् स्वकाले चापरां चिरम्॥ ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वा द्दीर्घ मायु खायु युः। प्रज्ञां यशश्च कीत्तिंच ब्रह्मवर्चस मैव च ॥

-स्कन्द पुराण

प्रातः शयन से उठकर आवश्यक मल-मूत्रादि का त्याग करके फिर शुद्ध तथा समाहित होकर पूर्व सन्ध्या को खड़े होकर जपे और अपने समुचित समय पर दूसरी संध्या की उपासना चिरकाल तक करनी चाहिए। ऋषि लोग दीर्घ काल तक सन्ध्या की उपासना करने ही के कारण लम्बी आयु की प्राप्ति किया करते थे और इसी के प्रभाव से वे प्रजा-यश-कीर्ति और ब्रह्मवर्चस को भी प्राप्त करते थे।

उदयास्तमयादूर्ध्वं यावत् स्याद् घटिकान्नयम्। तावत् सन्ध्यामुपासीत प्रायश्चितं ततः परम्॥

सूर्योदय तथा सूर्यास्त के बाद तीन घटिका तक सन्ध्योपासना का काल है। इसके बीत जाने पर प्रायश्चित करना होता है।

प्रातः सन्ध्यां सनक्षत्रां नोपास्ते यः प्रमादत्तः। गायत्र्यष्टशतं तस्य प्रायश्चितं विशुद्धये॥

प्रमादवश यथासमय सन्ध्योपासना न होने पर प्रायश्चित रूप से 108 बार गायत्री जप करना होता है।

सन्ध्याकाले त्वतिक्रान्ते स्थत्वाऽऽचम्य यथा विधि।

जपदेष्ठशतं देवीं ततः सन्ध्यां समाचरेत्॥

सन्ध्या समय अतिक्रान्त हो जाय, तो यथाविधि स्नान आचमन करके 108 बार गायत्री जप करने के बाद सन्ध्या करनी चाहिए।

सव्याहृर्तिं स प्रणवां गायत्री शिर सा सह। ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित्। यथा कथन्चिज्ज प्तैषा देवी परम पावनी। सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिना किं पुनर्नृप।

-विष्णु धर्मोत्रा पुराण

व्याहृति प्रणव एवं शिरोमंत्र सहित गायत्री का जो जप करते हैं उन्हें किसी से भी डर नहीं रहता। परम पावनी गायत्री का जप किसी भी प्रकार किया जाय वह समस्त इष्ट कामनाओं को पूर्ण करता है। फिर यदि विधि पूर्वक किया जाय तब तो उसके सत्परिणाम का कहना ही क्या है।

या सन्ध्या सा तु गायत्री द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता। सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्तेन उपासिताः॥ सच सूर्य समो विप्रस्तेजसा तपसा सदा। तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुन्धरा॥ जीवन्मुक्तः स तेजस्वी सन्ध्यापूतो हि यो द्विजः॥

जो सन्ध्या है वही गायत्री है, एक ही द्विधा होकर प्रतिष्ठित है। सन्ध्या की उपासना करने पर विष्णु की ही उपासना होती है ऐसे उपासक तेज तथा तपोबल से सूर्य तुल्य होते हैं। उनके पाद रज स्पर्श से पृथ्वी पवित्र होती है और उनको जीवनमुक्त पदवी पर प्रतिष्ठा मिलती है।

उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च। तामेव सन्ध्यां तसमात्तु प्रवदन्ति मनीषिणः॥

-महर्षिव्यास

दिवा रात्रि के सन्धि समय में जो उपासना की जाती है, उसको भी इसलिए मनीषियों ने संध्या कहा है।

ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वादीर्घ मायु श्वाप्नुयुः। प्रज्ञां यशश्च कीर्तिश्च ब्रह्मवर्च समव च॥

दीर्घकाल तक सन्ध्या करके ऋषिगण दीर्घायु; प्रज्ञा, यश, कीर्ति और ब्रह्मतेज लाभ करते हैं।

गायत्री सर्व भंत्राणं शिरोमणितया स्थित्य। विद्या नामपि ते नैतां साधयेत्सर्व सिद्धये॥ त्रिव्याहृति युतां देवीऔंकार युग संपुटाम्। उपास्य चतुऐ वर्गान् साधयेद्योन सो अऽन्धधीः॥ देव्या द्विजत्वमासाद्य श्रेयसेऽन्यरतास्तु ये। ते रत्नमभिवांच्छन्ति हित्वा चिन्तामणि करात्॥

-वार्तिकसार

“गायत्री सब मंत्रों तथा विद्याओं में शिरोमणि है। इसलिए द्विजों को इसकी साधना करनी चाहिये। दो औंकारों द्वारा संपुट की गई और तीन व्याहृति वाली देवी गायत्री की उपासना करके जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चारों वर्गों को नहीं साधता वह अंधी बुद्धि वाला है। गायत्री के द्वारा द्विजत्व को प्राप्त करके जो अन्य देवताओं की साधना करते हैं, वे वैसे ही हैं जैसे हाथ में आई चिन्तामणि को त्यागकर रत्नों की इच्छा करने वाले होते हैं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118