एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस अस्वस्थ हो गए। वे काशीपुर के बगीचे में विश्राम कर रहे थे। भक्तों के उपचार और सेवा सुश्रूषा के बावजूद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो रहा था। रोग दिन-दिन बढ़ता जा रहा था। उनके अस्वस्थ होने का समाचार सुनकर अपने कुछ साथियों के साथ श्री शशधर तर्क चूड़ामणि उन्हें देखने आये।
कुछ औपचारिक वार्तालाप के बाद श्री शशधर तर्क चूड़ामणि ने स्वामी जी से कहा, “महाराज! शास्त्रों का कथन है कि शारीरिक व्याधियों को मनोबल के आधार पर मुहूर्त मात्र में दूर किया जा सकता है। एक बार स्वस्थ होने की इच्छा लेकर,यदि मन को व्याधि-ग्रस्त स्थान पर केन्द्रित कर दिया जाये जो रोग से तत्क्षण मुक्ति मिल सकती है। आप तो मनोजयी महापुरुष हैं। क्यों नहीं अपने मन को रोग स्थान पर केन्द्रित करके रोगमुक्त हो जाते।”
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बड़े क्लान्त-भाव से श्री शशधर तर्क चूड़ामणि से कहा, “पण्डित होकर भी आप मुझे उस मन को हाड़ माँस की इस जर्जर मठरी में केन्द्रित करने का परामर्श दे रहे हैं जो उस सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को समर्पित किया जा चुका है।” श्री शशधर तर्क चूड़ामणि निरुत्तर होकर स्वामी जी के चरणों में विनत हो गए।
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