सौन्दर्य कहाँ खोजें- कहाँ पायें

April 1976

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सौन्दर्य आकर्षक है। इस लिए प्रिय लगता है। जो प्रिय है उसे पाने की इच्छा होती है। सौन्दर्य की खोज और प्राप्ति के लिए प्रायः हमारा अन्तस् रोता रहता है। न जाने कितने भले-बुरे मोड़ उसे इसी अतृप्ति को तृप्त करने के लिए लेने पड़ते हैं।

पाने से पहले खोजना जरूरी है। खोजने से पहले उसके रूप को समझा जाना चाहिए। इसलिए सौन्दर्य खोजियों से उनका अनुभव पूछ लिया जाय तो कठिन अनुसन्धान की अपेक्षा सरलता ही होगी।

कराहते पीड़ित से पूछा तो उसने सहानुभूति भरे आश्वासन में बताया। थके-हारे ने कहा- ‘शीतल, सुकोमल विश्रान्ति में उसने देखा है।’ कलाकार प्रकृति की- सुषमा का वर्णन करता चला गया और बोला सौन्दर्य देखना है तो उन्मुक्त गगन के झिलमिलाते तारों, धरती पर लहराते वन-उपवनों को देखो, नदी निर्झरों और गिरि-शृंगों को निहारो।

रातभर जगे पहरेदार ने छुट्टी का संदेश लेकर उदय होते हुए स्वर्णिम प्रभात का वर्णन उल्लासपूर्वक कर डाला। श्रमिक दिन भर संध्या के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था उसने कहा “प्रतीची सान्ध्य लालिमा से बढ़ कर इस संसार में अन्यत्र कहीं सौन्दर्य की अनुभूति नहीं हो सकती।”

सेनाध्यक्ष ने तलवारों की खनखनाहट और घोड़ों की चंचल पद टापों की मधुर स्मृतियाँ सुनाईं और युद्ध कौशल के दावपेचों में उभरती सुन्दरता का उत्साहपूर्वक वर्णन किया। वैज्ञानिक ने परमाणु परिवार की गति-विधियाँ और सम्भावनाओं का जिस ढंग से वर्ण किया उससे लगता था बाहरी दुनिया का सौन्दर्य बीज परमाणु सत्ता में छिपा पड़ा है। उद्गम स्थल उसने जान लिया अन्य दूसरे तो केवल उसकी प्रतिक्रिया को जानते हैं।

भिखारी अपने अन्न दाता के गुण-गान कर रहा था और कह रहा था- उससे सुन्दर तो भगवान भी नहीं है। भगवान जन्म देकर चला गया किंतु पालन तो आश्रय दाता कर रहा है। कामुक की व्याख्याएँ अलग थीं। वह रूप लावण्य के भेद-उपभेदों का आवेश पूर्वक वर्णन कर रहा था लगता था कि उसने क्रीड़ा कक्ष में संसार के सारे सौन्दर्य को संचित हो कर बैठे देखा है। स्वर साधक शर्त लगा कर कह रहा था यदि किसी को सौन्दर्य बोध हो तो देखे कि नादब्रह्म में अन्तःकरण को तरंगित करने की कितनी कोमल संवेदना भरी पड़ी है।

और लोग भी अपनी-अपनी कह रहे थे, शीत से ठिठुरा आग की- और ग्रीष्म से संतप्त हिम वर्षा की सराहना कर रहा था। दार्शनिक ने तत्व दर्शन की व्याख्या इस तरह की मनो भाव सौन्दर्य के अतिरिक्त और सब कुछ मिथ्यात्व ही इस संसार में भरा पड़ा है।

इन विवेचनाओं में किसी को सौन्दर्य बोध था, किसका गलत? इसका निष्कर्ष निकालने वाले तत्त्वदर्शी ने कहा- “यह सभी गलत थे और सभी सही। गलत इस अर्थ में कि उन्हें उन पदार्थों को सुन्दर कह डाला जिन्हें भिन्न परिस्थिति और मनःस्थिति के लोग अपने कटु अनुभवों के आधार पर घृणापूर्वक असुन्दर सिद्ध करने का दावा कर सकते हैं। सही इस अर्थ में कि जिस पर भी उन्होंने अपने आन्तरिक सौन्दर्य की किरणें फेंकी वही सौन्दर्य की आभा से जगमगाता दिखाई देने लगा।”

सौन्दर्य को वस्तुओं और व्यक्तियों में खोजते हुए भटकना व्यर्थ है। दूर से सुहावना पास से डरावना यही है इस संसार का क्रम उपक्रम। उत्कृष्ट दृष्टिकोण ही सुन्दर है उसकी प्रकाश परिधि में जो भी वस्तु आती है, सुन्दर लगने लगती है। कुरूपता से अरुचि हो तो उसका उन्मूलन कुरुचि को बुहार फेंकने के लिए करना चाहिए।

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