विश्व समाज की नवीन रचना

November 1967

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‘एक महत् चेतना की सशक्त धारा आ रही है जिसके प्रवाह में राष्ट्रों की पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं की दीवारें चूर-चूर हो जायेंगी और तब विश्व के समस्त राष्ट्र प्रेम का महोत्सव मनायेंगे’ ये उद्गार आज से 59 वर्ष पूर्व बंगाल निवासी विश्व-एकता के महान प्रचारक ठाकुर दयानन्द ने प्रकट किये थे। उन्होंने कहा कि ‘मैं देख रहा हूँ कि संसार में विश्व बन्धुत्व की भावना परिव्याप्त हो गयी है और एक ही विश्वधर्म पूर्व और पश्चिम की मिलन-भूमि बन गया है।’ यद्यपि आज भी अधिकाँश पढ़े लिखे लोगों को विश्व-समाज की स्थापना, विश्व के सभी स्त्री-पुरुषों का भाई-बहिन की तरह रह सकना कठिन ही नहीं असंभव जान पड़ता है, पर उस सूक्ष्म-जगत के दृष्टा को उस समय भी यह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा था कि संसार के वातावरण में विश्व-भावना का तत्व उत्पन्न हो गया है और इसी शताब्दी के भीतर यह परिपक्व होकर एक नये जगत की रचना का कार्यारंभ कर देगा।

वैसे तो विश्व की एकता और मनुष्यों के भ्रातृभाव के सिद्धाँत की घोषणा अति प्राचीनकाल से होती आ रही है, पर उस समय यह भावना प्रायः व्यक्तिगत ही होती थी। कोई महापुरुष अथवा उनका अनुयायी छोटा-सा समुदाय इसके अनुकूल आचरण भी करके दिखा देता था, पर इसका संसारव्यापी प्रचार और व्यवहार कभी देखने में नहीं आया। गत शताब्दी से ही अनेक महापुरुषों ने विश्व समाज की आवाज उठाई है। इनमें योरोप, अमरीका, एशिया आदि सभी भूखण्डों के महानुभाव सम्मिलित हैं। ये सब मानवतावादी सिद्धाँत के अनुयायी हैं। यद्यपि भिन्न-भिन्न देशों के निवासी और भिन्न भाषा-भाषी होने के कारण वे प्रायः एक-दूसरे से अपरिचित ही रहे, पर उन सब के अन्तःकरण में यह एक भावना अवश्य पाई जाती है कि सभी मनुष्य भाई-भाई हैं और उनको लड़ने के बजाय परस्पर में मिल कर ऐसी संस्थाओं का निर्माण करना चाहिए जिससे विश्व-एकता और विश्व-समाज का मार्ग प्रशस्त हो। इस तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए ॥ह्वद्वड्डठ्ठ ष्ठद्गह्यह्लद्बठ्ठब् (ह्मूमैन डेस्टिनी) के लेखक ‘लकाम्ते द नाय’ ने कहा है-

‘व्यक्तियों और राष्ट्रों के लिये अब वह समय आ गया है कि वे अपने अभीष्ट को पहिचानें। यदि सभ्य देश शाँति चाहते हैं, तो इस समस्या को भौतिक रूप से हल करें। विगत युग की प्राचीन धारणाओं में सब ओर दरारें पड़ गई हैं, उन्हें धागों अथवा इने-गिने उच्चवर्ग के व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक संधि-पत्रों से मजबूत नहीं बनाया जा सकता। शाँति का निर्माण मनुष्य के आन्तरिक परिवर्तन द्वारा होना चाहिये। युद्धों और दोषों का मूल हमारे अन्दर है। यदि शत्रु हमारे अन्तरतम में रहने को स्वतंत्र हो, तो बाहरी सुरक्षा के प्रयास निरर्थक होंगे।’

वर्तमान पारस्परिक विरोधी स्थिति-

जैसा हम इस अंक में अन्यत्र बतला चुके हैं इस कठिन परिस्थिति का मूल कारण यही है कि मनुष्य ने यंत्र विज्ञान और साधन-सामग्री में जितनी उन्नति कर ली है उतनी प्रगति उसने मानसिक और भावनात्मक क्षेत्र में नहीं की है। भौतिक प्रगति की निगाह से तो वह लाठी और पत्थरों से लड़ने के बजाय राकेट और अणुबम तक पहुँच गया, गर्मी और जाड़े से पीड़ित होने की बजाय ‘एयर कंडीशण्ड’ निवास गृहों में रहने लगा पर मानव-एकता और भ्रातृभाव की निगाह से वह उल्टा पिछड़ गया। उसने समाज में अमीर और गरीब, शोषक और शोषित की ऐसी श्रेणियाँ उत्पन्न कर दी जो कभी मिल ही नहीं सकती। इसके साथ ही पूरब और पश्चिम के नाम पर भी मानव सभ्यता में ऐसे-ऐसे भेदभाव पैदा हो गये हैं जिनका वास्तविक एकीकरण हो सकना आसान नहीं है।

इस अवस्था को बदल कर मानव मात्र की समता, एकता, भ्रातृभाव की स्थिति लाना केवल लेखों और भाषणों द्वारा संभव नहीं है। वर्तमान समय में मनुष्य पारस्परिक आध्यात्मिक संबंध को भूल कर भौतिक सफलताओं को ही अधिकाधिक महत्व देता जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि सम्पत्ति, भूमि, सत्ता के लिये व्यक्तियों और राष्ट्रों का संघर्ष उग्र से उग्रतर होता चला जाता है और होते-होते आज मानव-सभ्यता के पूर्णतः विनष्ट हो जाने की संभावना सामने खड़ी दिखाई पड़ रही है। यदि मनुष्य को इस भीषण-भविष्य से अपनी रक्षा करनी है तो उसको अवश्य ही अविलम्ब ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जिससे पुरानी हानिकारक, भेदभाव पूर्ण अवस्था का अन्त होकर नवीन समयानुकूल सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हो सके। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण और गंभीर विषय है और इस संबंध में संसार के बड़े-बड़े मनीषी अपने विचार प्रकट करते रहते हैं। इस संबंध में नीचे देश और विदेशों के कुछ महान विचारकों की सम्मतियाँ दी जा रही हैं जिससे पाठक इस समस्या के विविध पहलुओं की कुछ जानकारी प्राप्त करके स्वयं भी कुछ सोच सकेंगे।

महात्मा गाँधी का भारतीय दृष्टिकोण-

सबसे पहले हमारा ध्यान महात्मा गाँधी की तरफ जाता है, जिनको ‘इस युग का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति’ स्वीकार किया जा चुका है और जो वास्तव में मनुष्य मात्र के कल्याण का लक्ष्य रख कर ही कोई बात कहते थे। उनके सामाजिक व्यवस्था संबंधी विचारों का स्पष्टीकरण करते हुये श्री हरिभाऊ उपाध्याय ने लिखा है-

‘गाँधी जी कोरे आदर्शवादी नहीं थे। वह आदर्श का उल्लेख करके उसके व्यावहारिक रूप पर विशेष जोर देते थे। अतएव उनके लेखों को पढ़ते समय सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कौन-सी बात को वे आदर्श-व्यवस्था के लिये कह रहे हैं, कौन-सी वर्तमान अवस्था के लिये और कौन-सी संधिकाल के लिये। अपने सामाजिक आदर्श में वे अराजकतावादी कहे जा सकते हैं, जिसका अर्थ यह होता है कि समाज में किसी प्रकार की कोई सरकार न रहे, सब लोग अपने घर-घर के राजा हो जावें। इसी आदर्श को उन्होंने कहीं ‘राम-राज्य’ कहीं ‘सर्वोदय’ कहीं ‘अहिंसक-स्वराज्य’ के नाम से पुकारा है। लेकिन समाज की अन्तिम अवस्था का यह चित्र एकाएक समझ में नहीं आता। क्या सचमुच मनुष्य इस पृथ्वी तल पर कभी इतना उन्नत देवता या सन्त, मुनि की तरह निस्पृह-निरपेक्ष हो जायेगा, जिसके लिये किसी छोटी या बड़ी सामूहिक व्यवस्था (शासन) की बिल्कुल आवश्यकता न रहे?’

यह आदर्श वर्तमान समय के अधिकाँश मनुष्यों के विचारों और धारणाओं से इतना भिन्न है कि जिसके संभव होने पर उनको विश्वास नहीं हो पाता। वे यह देख रहे हैं कि वर्तमान समय में जो सामाजिक व्यवस्था प्रचलित है वह निरन्तर बढ़ते और बदलने वाले भौतिक साधनों से मेल नहीं खाते और इससे एक हानिकारक संघर्ष अधिकाधिक उग्र रूप धारण करता जाता है तो भी उनको कोई ऐसा मार्ग दिखलाई नहीं पड़ता जिससे इसका निराकरण किया जा सके। गाँधी जी के दूसरे बड़े अनुयायी श्री किशोरलाल मशरुवाला ‘जड़मूल से क्राँति’ नामक पुस्तक में लिखते हैं-

‘इस विषय में कहीं भी मतभेद नहीं है कि जगत आज अतिशय अस्वस्थ है। विज्ञान और उद्योगों में बहुत कुछ विकास हुआ है और हर रोज बढ़ता जाता है। मानव जाति के आदिकाल से लेकर सन् 1800 तक के लम्बे समय में भी कुल उत्पादन जितना नहीं हुआ उतना अनन्त प्रकार का उत्पादन पिछले दो-सौ वर्ष में हुआ होगा। पुराणों तथा योगशास्त्र में वर्णित सिद्धियाँ हम प्रत्यक्ष होती देखते हैं और बिना योग साधे उनका उपयोग कर सकते हैं। पर आश्चर्य यह है कि फिर भी तंगी का पार नहीं, दुखों का अन्त नहीं, शाँति-सुलह सन्तोष का नाम नहीं, इन्सान, इन्सान को देखकर प्रसन्न नहीं होता। वह बाघ और साँप से भी ज्यादा घातक और जहरीला बन गया है। कोई देश या कोई समाज ऐसा नहीं जिससे यह मानवता का अभाव बहुत अधिक मात्रा में दिखलाई न पड़ रहा हो। हमारे जीवन में कहाँ खराबी है? सुख के साधन हमारे लिये दुःख रूप-शाप के समान क्यों हो गये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिये।’

क्राँति कब सफल हो सकेगी?

हमारे यहाँ इसके लिये जो उपाय बतलाये जाते हैं वे व्यवहार की दृष्टि से नहीं वरन् धर्म, ईश्वर और प्राचीन संस्कृति के नाम पर ही उनका निश्चय किया जाता है। यह कहने की आवश्यकता है कि इन बातों का प्रभाव थोड़े से उच्च मनोवृत्ति वालों पर ही पड़ता है, शेष लोग सब कुछ सुन और समझ कर भी उसी मार्ग पर चलते हैं जिससे उनको भौतिक लाभ हो, स्वार्थ की पूर्ति हो सके। महात्मा जी ने इनका आधार अहिंसा और सत्य पर रखा, पर इन आदर्शों का अनादि काल से उच्चारण और प्रशंसा करते हुये भी कितने मनुष्य इन पर चलते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिये व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने वालों का मत है कि इस उद्देश्य की पूर्ति जहाँ जैसे मार्ग से संभव हो उसी प्रकार की जानी चाहिये। समस्त संसार और सब प्रकार के व्यक्तियों के लिये ‘अहिंसा’ और ‘प्रेम’ का साधन ही काम नहीं दे सकता। योरोप के महान मानवतावादी प्रिंस क्रोपाटकिन का कहना है-

‘क्राँति से हमारा तात्पर्य क्या है? उसका अर्थ यह नहीं है कि शासकों में परिवर्तन कर देना। उसका वास्तविक अर्थ है सामाजिक सम्पत्ति के ऊपर जनता का अधिकार, उसका आशय है उन सब शक्तियों को नष्ट कर देना, जो अब तक मनुष्य समाज की प्रगति में बाधक रही है। लेकिन क्या क्राँति किसी सरकार द्वारा निकाले हुये निर्देशों द्वारा हो सकती है? कोई सरकार, चाहे वह एक आदर्श क्राँतिकारी सरकार ही क्यों न हो, जनता में कोई नई लहर पैदा नहीं कर सकती और हमारे विध्वंस तथा पुनर्निर्माण के महान कार्य में बहुत ही कम सहायक हो सकती है। सामाजिक क्राँति के फलस्वरूप जो आर्थिक क्राँति होगी, वह इतनी विशाल और गंभीर होगी, वह सम्पत्ति और वितरण की मौजूदा व्यवस्थाओं में इतने और ऐसे परिवर्तन करेगी कि किसी मनुष्य के लिये यह असंभव है कि भावी-समाज की विभिन्न संस्थाओं का विस्तृत वर्णन कर सके।’

हमारे यहाँ की सर्वोदय-समाज की मान्यता भी इससे मिलती-जुलती ही है। उसके एक नेता श्री धीरेन्द्र मजूमदार ने इस समस्या पर काफी सोच विचार कर ‘शासन-मुक्त समाज की ओर’ नामक पुस्तक लिखी है, उसके आरंभ में ही उन्होंने कह दिया है शासन-मुक्त भावी-समाज का विवरण बता सकना असंभव है। इसका कारण उन्होंने यही बतलाया है-

‘सबसे पहले यह समझने की आवश्यकता है कि अगर कोई व्यक्ति किसी लक्ष्य की ओर जाने के मार्ग में अपने सामने बहुत बड़ा खड्ड- बहुत बड़ा गड्ढा देखता है तो वह उस मार्ग को छोड़ देता है। उस समय यह जरूरी नहीं होता कि उस मार्ग को छोड़ने से पहले यह मालूम कर किया जाय कि सही मार्ग क्या है? चाहे दूसरा मार्ग मालूम हो या न हो पर पहले मार्ग को तो वह छोड़ ही देगा और दूसरे मार्ग की खोज में लग जायेगा। इस खोज ढूंढ़ में वह कुछ समय भटकेगा भी। फिर कोई न कोई एक मार्ग उसको सूझ जायेगा। जो सिद्धाँत व्यक्ति के लिये लागू हैं वही समाज के लिये भी है। अगर समाज को आज ऐसा दीखता है कि शासन-संस्था ही मनुष्य के लिये संकट का कारण बन रही है और उसके विकास में एक रोड़े की तरह सिद्ध हो रही है तो उसे त्याग देना ही चाहिये। अतः जब हम से यह प्रश्न किया जाता है कि ‘आप जो शासन-मुक्त समाज की बात करते हैं, तो बतायें कि आगामी समाज का स्पष्ट स्वरूप क्या होगा?’ तो उत्तर में हम कहेंगे कि हमें शासन-मुक्ति चाहिये। बदले में कैसा समाज होगा, उसकी स्पष्ट धारणा धीरे-धीरे निकालनी होगी। आज हम उसे पूरी तरह नहीं बता सकते।’

आध्यात्मिकता की आधार शिला होगी-

इन धारणाओं का एक कारण यह है कि इन तमाम लेखकों ने इस समस्या पर भौतिक घटनाओं और प्रमाणों के आधार पर ही विचार किया है। अपरोक्ष (सूक्ष्म) जगत पर ही उनकी दृष्टि नहीं है अथवा उस ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं है। अन्यथा यह समझने में उनको कठिनाई नहीं होती कि संसार में घोर उथल-पुथल और हजारों परस्पर विरोधी आन्दोलनों के होते हुए भी सब लोग सूक्ष्म-जगत में एक पहले से ही निश्चित योजना की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। चाहे अधिकाँश व्यक्ति इस संबंध में अनजान हों पर वे दैवी योजना के अनुसार उस भावी-समाज की रचना में ही सहयोग दे रहे हैं जो वर्तमान समय की अपेक्षा बहुत उच्च होगी। संसार क्रमशः भौतिकता के कुपरिणामों से सावधान होकर अध्यात्म के मार्ग को ग्रहण करने की चेष्टा कर रहा है और यही भावी विश्व समाज का आधार होगा। अध्यात्म की शक्ति ही संसार को स्वार्थ जनित कलह से छुड़ा कर शाँति के क्षेत्र में पहुँचा सकती है। इसलिये भारतीय मनीषियों का कार्यक्रम सदा संसार को अध्यात्म मार्ग का उपदेश देना ही रहा है और आज हम भी इसी मार्ग को ग्रहण करके संसार-संकट को मिटाने के लिये प्रयत्नशील हैं।

इतिहास की साक्षी-

धार्मिक जगत को छोड़ कर सब हम इस समस्या पर इतिहास, अर्थ-व्यवस्था की दृष्टि से विचार करते हैं तो उससे भी अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि यद्यपि भूतकाल में अपनी असमर्थता और साधनों के अभाव से विभिन्न देशों के निवासी एक दूसरे से पृथक रहे हैं और पारस्परिक भय अथवा स्वार्थपूर्ति के लिये वे एक-दूसरे से संघर्ष भी करते रहे हैं। पर अब प्रगति पथ पर अग्रसर होते-होते ऐसा अवसर आ पहुँचा है जब मानव-जाति के लिये सब विषयों में एक से नियम बना कर एक विश्व-राष्ट्र बनाना अनिवार्य है। इन परिवर्तनों का उल्लेख करते हुये श्री एच.जी. वेल्स ने अपने जगत प्रसिद्ध ग्रंथ Outline of History (संसार के इतिहास की रूपरेखा) के अन्त में लिखा है-

‘मानव जाति के इतिहास में इसके पश्चात् जो दूसरा दर्जा (स्टेज) आयेगा वह समस्त मानवों में ऐक्य स्थापित करके उनका एक समाज बनाना होगा, जिससे वे एक ही लक्ष्य स्थिर करके अग्रसर होंगे और सब के प्रयत्न एक ही दिशा में उन्मुख होंगे। इस ‘संसार के इतिहास’ संबंधी ग्रंथ में हम आदि काल से वर्तमान समय तक के परिवर्तनों पर दृष्टिपात कर चुके पर अभी तक किसी अन्तिम निर्णय पर नहीं पहुँच सके। करोड़ वर्ष पहले जो जीवन की धारा आरंभ हुई थी, और पाँच लाख वर्ष पूर्व मनुष्य ने अपनी जो साहसिक यात्रा आरंभ की थी वह अब तक बड़ी समस्या के रूप में परिणत हो गई है। प्रश्न होता है कि इसके पश्चात क्या होगा? हम जान चुके हैं कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में क्रमशः प्रगति करते-करते मनुष्यों के बड़े-बड़े समुदाय बन चुके हैं। ये संगठन छोटे से पारिवारिक फिर्क की इकाई से बढ़ कर करोड़ों की संख्या वाले विशाल राष्ट्रों के रूप में परिणित हो चुके हैं। फिर भी संसार की वैज्ञानिक उन्नति-तार, टेलीफोन, वायुयान-जल, स्थल, वायु से आवागमन के साधनों की निरन्तर उन्नति को देखते हुये ये विशाल संगठन भी समस्त संसार की तुलना में बहुत छोटे हैं। उपरोक्त परिवर्तनों के कारण मनुष्य परिस्थिति से सामंजस्य बनाये रखने के लिये महाविशाल संगठन की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। वर्तमान समय में सर्वत्र जो सामाजिक अशाँति, आर्थिक झगड़े और युद्ध आदि दिखलाई पड़ रहे हैं वे इस सामंजस्य की स्थापना के ही प्रयत्न हैं।

‘हमारे सच्चे राष्ट्र की स्थापना का कार्य अब आरंभ हो रहा है और इसके निर्माण में प्राणपण से चेष्टा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है। वह राष्ट्र समस्त संसार के राष्ट्रों का सम्मिलित राष्ट्र (स्नद्गस्रद्गह्ड्डद्य खशह्द्यस्र स्ह्लड्डह्लद्ग) होगा। आज यह सम्मिलित ‘महाराष्ट्र’ ही मानव जाति का एक मात्र लक्ष्य है। आज समस्त मानव जाति का ‘विधाता पुरुष’ ही हमारा उपास्य देव है। जिस प्रकार काल प्रभाव से प्राचीन जातियों के देवता आज विस्मृति के गर्भ में लोप हो गये हैं उसी प्रकार यह ‘राष्ट्रवाद’ का देवता भी गायब हो जायेगा। आज हमारी सच्ची राष्ट्रीयता ‘मानवता’ ही है।’

अन्त में श्री वेल्स ने स्पष्ट कह दिया है कि इस तरह के महान परिवर्तन आरंभ में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होते ‘वे रात में एक चोर की तरह चुपचाप मन के भीतर प्रविष्ट होते हैं’ और एक दिन अकस्मात दिखाई देता है कि वे अत्यन्त वेगवान और जगद्व्यापी बन गये हैं। इसका मुख्य आधार धर्म ही होगा पर वह धर्म जो भ्रष्टाचार और पुरोहितों के झंझटों से पूर्णतया मुक्त होगा। उन्होंने इस प्रकार के विश्व राष्ट्र के मूल-सूत्र’ (क्चह्शड्डस्र स्नह्वठ्ठस्रड्डद्वद्गठ्ठह्लड्डद्यह्य) का वर्णन करते हुये स्पष्ट कहा है-

च्ढ्ढह्ल, ख्द्बद्यद्य ड्ढद्ग ड्ढड्डह्यद्गस्र शठ्ठ ष्शद्वद्वशठ्ठ ख्शह्द्यस्र ह्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ, क्द्गह्ब् द्वह्वष्द्ध ह्यद्बद्वश्चद्यद्बद्धद्बद्गस्र ह्वठ्ठद्बक्द्गह्ह्यड्डद्यद्बभ्द्गस्र ड्डठ्ठस्र ड्ढद्गह्लह्लद्गह् ह्वठ्ठस्रद्गह्ह्यह्लशशस्र. ञ्जद्धद्बह्य ख्द्बद्यद्य ठ्ठशह्ल ड्ढद्ग ष्टद्धह्द्बह्यह्लद्बड्डठ्ठद्बह्लब् ठ्ठशह् ढ्ढह्यद्यड्डद्व ठ्ठशह् क्चह्वस्रस्रद्धद्बह्यद्व ठ्ठशह् ड्डठ्ठब् ह्यह्वष्द्ध ह्यश्चद्गष्द्बड्डद्यद्बभ्द्गस्र द्धह्शद्व शद्ध ह्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ, ड्ढह्वह्ल ह्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ, ह्लद्धद्ग श्वद्बद्दद्धह्लद्धशद्यस्र ख्ड्डब्, ह्लद्धद्ग द्मद्बठ्ठद्दस्रशद्व शद्ध ॥द्गड्डक्द्गठ्ठ, ड्ढह्शह्लद्धद्गह्द्धशशस्र, ष्ह्द्गड्डह्लद्यक्द्ग ह्यद्गह्क्द्बष्द्ग ड्डठ्ठस्र ह्यद्गद्यद्ध द्धशह्द्दद्गह्लद्धह्वद्यठ्ठद्गह्यह्य द्गह्लष्. ्नठ्ठस्र ह्लद्धद्बह्य ख्शह्द्यस्र ह्यह्लड्डह्लद्ग ख्द्बद्यद्य ड्ढद्ग ह्यह्वह्यह्लड्डद्बठ्ठद्गस्र ड्ढब् ह्वठ्ठद्बक्द्गह्ह्यड्डद्य द्गस्रह्वष्ड्डह्लद्बशठ्ठ द्गह्लष्. ञ्जद्धद्गह्द्ग ख्द्बद्यद्य ड्ढद्ग ठ्ठशह्ल ड्डह्द्वद्बद्गह्य, ठ्ठश ठ्ठड्डक्द्बद्गह्य ड्डठ्ठस्र ठ्ठश ष्द्यड्डह्यह्यद्गह्य शद्ध ह्वठ्ठद्गद्वश्चद्यशब्द्गस्र श्चद्गशश्चद्यद्ग, ख्द्गड्डद्यह्लद्धब् शह् श्चशशह्.ज्

(ह्रह्वह्लद्यद्बठ्ठद्ग शद्ध ॥द्बह्यह्लशह्ब्)

अर्थात्- ‘यह विश्व-राष्ट्र एक सामान्य धर्म के ऊपर स्थापित होगा। वह धर्म स्वाभाविक सत्य के ऊपर आधारित होगा जिसे सर्वसाधारण ठीक तरह से समझ सकेंगे और पालन कर सकेंगे। यह न ईसाई धर्म होगा, न मुसलमान, बौद्ध और न कोई अन्य विशेष धर्म। यह केवल शुद्ध धर्म होगा जिसमें किसी प्रकार की भ्रष्टता न होगी और सन्तजनों द्वारा प्रदर्शित ‘आठ-मार्ग’ के अनुकूल होगा जैसे परलोक का सुधार, भ्रातृभाव, जीव सेवा और अहंकार का त्याग आदि।’

नये समाज की रूपरेखा-

कितने ही विचारशील लेखकों ने नये जगत की रूपरेखा निबंध, कहानी, उपन्यास आदि के रूप में प्रकट की है। उनकी सम्पत्ति है कि जब संसार के समस्त मनुष्य देश, जाति, मजहब के नाम पर पैदा किये गये झूठे भेदभाव को त्याग देंगे और गलत ढंग के स्वार्थ को त्याग कर परस्पर सच्चा सहयोग करने लगेंगे तो यह संसार वर्तमान की अपेक्षा बहुत अधिक बदल जायेगा। जिस तरह हजार वर्ष पहले का कोई व्यक्ति यदि इस समय दुनिया में वापस आ जाय तो उसको हर जगह रेल, मोटर, हवाई जहाज, बिजली, रेडियो, चल-चित्र आदि देख कर भ्रम होने लगेगा कि यह दुनिया है या कोई दूसरी, उसी प्रकार आज कल के मनुष्यों को सौ, दो-सौ वर्ष बाद आने वाला संसार की सर्वथा नया और अजनबी जैसा जान पड़ेगा। वर्तमान समय में भी उसके लिये कैसे-कैसे परिवर्तन सोचे जा रहे हैं इसके लिये हम नमूने के तौर पर दो चार विद्वानों की रचनाओं में से उनके विचार नीचे दे रहे हैं-

‘सत्य-समाज’ ने आगामी मानव-समाज की विशेषता के संबंध बहुत कुछ विचार और किया है। उनकी ‘संस्कृति समस्या’ नामक पुस्तक में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि वर्तमान समाज की किन त्रुटियों का निराकरण करने से नये समाज की स्थापना संभव हो सकेगी। यह विवेचन भारतीय दृष्टिकोण से किया गया है इसलिये हमारे लिये विशेष सिद्ध हो सकता है-

सबसे पहले हमको जाति-समभावी बनना है, जिससे जात-पाँत, ऊंच-नीच के भेदभाव मिट कर एक सुव्यवस्थित समाज बन सके।

यही बात धर्म-समभाव के संबंध में है। हिन्दू मुसलमान, बौद्ध, जैन आदि सभी में समन्वय स्थापित होना आवश्यक है।

प्रान्तीयता की भावना भी घातक है। हिन्दी, मराठी, बंगाली, गुजराती आदि का द्वन्द्व हटाना जरूरी है।

इन भेदभावों के मिटाये जाने पर अन्य राष्ट्रों के साथ मिलकर विश्व-राष्ट्र की योजना सफल बनाना आवश्यक है जिससे अमेरिका, रूस, जर्मन, इंग्लैण्ड, चीन, जैसे देश स्पर्धा करके संसार को युद्ध की आग में न झोंक दें।

रंगभेद, गोरे-काले का भेद मिटाया जाय जिससे अमरीका में हब्शियों पर और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर अत्याचार होना, जैसे अन्यायपूर्ण कृत्य बन्द हों।

सब संसार में एक बोली हो जिससे सब लोग एक दूसरे के मनोभाव समझ सकें और आपस में मित्र बन सकें।

जनसंख्या और खाद्य सामग्री के उत्पादन में समन्वय किया जाय। इसके बिना भुखमरी और अशाँति फैलती है।

श्रम की प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से कायम की जाय। इसी से पूँजीवाद का विष शमन हो सकेगा और हरामखोरी तथा मुफ्तखोरी की प्रवृत्तियाँ दूर होंगी?

इसमें सन्देह नहीं कि जब तक लोगों में वर्तमान समय में भीतर घुसे दोषों को निकाल कर उनके मन को परिष्कृत न किया जायेगा तब तक नवयुग नहीं आ सकता। विशेषतः जाति और संप्रदाय ऐसी चीजें हैं जो मनुष्यों में अनिवार्य रूप से पृथकत्व-फूट की भावना की वृद्धि करती है। इसी प्रकार भाषा भेद से मनुष्यों की पारस्परिक घनिष्ठता में व्याघात होता है और गरीब-अमीर तथा काले-गोरे का अन्तर ईर्ष्या और द्वेष को जन्म देता है। जब इन बाधाओं को दूर हटा दिया जायेगा तभी सच्चे अर्थों में एक विश्व संघ की स्थापना का प्रयत्न किया जा सकेगा। जब तक उपरोक्त दोष बने रहेंगे तब तक तो यदि किसी विश्वव्यापी संगठन का प्रयत्न किया भी जायेगा तो वह वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ आदि की तरह दिखावटी और निरर्थक ही सिद्ध होगा।

विश्व शासन-व्यवस्था-

आगामी विश्व-समाज का एक अन्य चित्र भी है जिसमें उस समय की शासन-व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार ‘संसार भर का एक विश्व-पंचायती विधान स्थापित होगा जिसमें राष्ट्रों, रंगों, धर्मों, श्रेणियों के लोग पूर्णतया एक हो जायेंगे, पर उसमें भाग लेने वाले राष्ट्रों और देशों की स्वतंत्रता की रक्षा की जायेगी। इस विश्व-पंचायती-विधान में एक संसार भर की विश्व-धारा सभा होगी जिसके सदस्य सारी मनुष्य जाति के प्रतिनिधि होते हुये अपने राष्ट्र के सर्वसाधन सम्पन्न अधिकारी भी होंगे। यही सब सदस्य मिल विश्व-पंचायत में ऐसे नियम बनायेंगे जो संसार के सभी देशों पर समान रूप से लागू होंगे। ये कानून ऐसे होंगे जिनसे सब देशों का पारस्परिक संबंध मधुर और न्यायपूर्ण बनेगा। संसार भर की एक प्रबंधकारिणी संस्था होगी, जिसकी सहायता के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय सेना होगी जो उन नियमों को कार्यरूप में परिणत करायेगी, जिन्हें विश्वधारा सभा ने बनाया है। इस प्रकार विश्व-पंचायत के सदस्यों की अखण्ड एकता की पूर्ण रक्षा हुआ करेगी।’

आगे चल कर जीवन संबंधी अन्य आवश्यक कार्यों पर विचार करते हुये कहा गया है- ‘संसार भर का एक न्यायालय होगा और संसार भर में पत्र व्यवहार करने और यातायात करने की ऐसी पद्धति प्रचलित की जायेगी जिसमें कोई देश किसी प्रकार की रुकावट पैदा न कर सकेगा। सारे संसार की एक राजधानी होगी जो विश्व-संस्कृति के लिये केन्द्र का कार्य करेगी। यह एक ऐसा केन्द्र होगा जिससे संगठित करने वाली शक्तियाँ उत्पन्न हुआ करेंगी। संसार भर के लिये एक भाषा होगी जो या तो बनाई जायेगी या प्रचलित भाषाओं में से प्रेमपूर्वक चुन ली जायेगी। संसार के लिये एक विश्व-लिपि, एक विश्व-साहित्य, सारे संसार के लिये एक ही विश्व-सिक्का, एक ही प्रकार की विश्व-व्यापक नाप-तोल आदि ऐसी बातें होंगी जो सब राष्ट्रों के बीच अटूट संपर्क और एक दूसरे को समझाने की सुविधायें उत्पन्न करेंगी। इस नये समाज में विज्ञान और धर्म, जो मानव जीवन की बड़ी प्रबल शक्तियाँ हैं, मिलजुल कर कार्य करेंगी और इस प्रकार मानव-जाति में एकता की वृद्धि करेंगी। इस विधान के अंतर्गत समाचार पत्र मनुष्य जाति के विभिन्न विचारों को प्रकट करने के लिये पूर्णतया स्वतंत्र होंगे किन्तु वे किसी धनाढ्य व्यक्ति या संस्था के हाथों में पड़ कर कोई कुटिल प्रचार न कर सकेंगे।’

सामाजिक परिवर्तनों का पूर्वाभ्यास-

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बदल कर उसके स्थान पर नई व्यवस्था स्थापित करने का कार्य इतना विशाल और अनगिनती शाखा-उपशाखाओं से युक्त है कि उनका वर्णन एक लेख क्या एक ग्रंथ में भी संभव नहीं हो सकता। इसलिये हम भावी-समाज की कुछ ऐसी झाँकियाँ (वर्तमान अवस्था से मुकाबला करके) दिखाना चाहते हैं जिससे पाठकों को स्वयं ही प्रस्तावित परिवर्तनों का महत्व अनुभव होने लगे। यह वर्णन श्री राहुल साँकृतायन की ‘बाईसवीं सदी’ पुस्तक में है। यह इस ढंग से किया गया है मानों कोई व्यक्ति उस भावी-समाज में पहुँच कर उसकी नवीन व्यवस्थाओं की तुलना पुरानी संस्थाओं से कर रहा है। सब से पहले वर्तमान व्यापार प्रणाली के दोषों की आलोचना सुनिये-

‘पहले किसी प्रकार भी धनी बनने की बीमारी का बड़ा प्रकोप था। उस समय लोगों को ऐसा करने की स्वाधीनता भी थी। उस समय किसी वस्तु का मूल्य राष्ट्रीय आवश्यकता पर निर्भर नहीं था। धन की इच्छा वाले धनिक इस बात की कब परवाह करते थे, कि अमुक व्यवसाय में देश का श्रम तथा जीवन बरबाद होगा या सार्थक? वह तो देखते थे कि बाजार में माँग किस चीज की है। बस, उसी की तैयारी के लिये बड़े-बड़े कारखाने खोल देते थे, जिनमें लाखों आदमी काम करते थे। शराब, सिगरेट, अफीम यद्यपि हानिकारक वस्तुयें थीं, किन्तु उनकी उपज के लिये लाखों आदमी और लाखों बीघे जमीन फंसी रहती थी। आजकल नये संसार में वैसी बात कहाँ चल सकती है?’

आजकल की अदालतें कैसी निकम्मी चीजें हैं और शिक्षा प्रणाली कितनी निरर्थक है इसका कुछ परिचय निम्न उद्धरण से मिल सकेगा-

‘पैसे का नाम उठ जाने तथा वैयक्तिक सम्पत्ति के न रह जाने से फल-फूल, खेती-बारी, कल-कारखाना सब कुछ राष्ट्रीय है, और इसीलिये अब उतने नियमों की भी भरमार नहीं है। इन्कम टैक्स का कानून, बन्दोबस्त कानून, कोर्ट फीस, आबकारी, काश्तकारी, लगान, ज्वाइंट स्टाफ कंपनी आदि-आदि सैकड़ों कानूनों का अब कोई काम नहीं रहा। दीवानी मामलों की जड़ ही खत्म हो गई, क्योंकि धन-धरती किसी व्यक्ति की न होकर समाज की है। फौजदारी कानून का आकार भी बहुत घट गया है, क्योंकि धन-धरती के अपहरण विषयक चोरी-डकैती आदि अपराध अब संभव ही नहीं। एक व्यक्ति का दूसरे-व्यक्ति को हानि पहुँचाने के कारण भी अब नाम-मात्र को रह गये हैं, क्योंकि इन सब की जड़ वही व्यक्तिगत स्वामित्व ही था।

उन निकृष्ट पेशों और दूषित शारीरिक तथा मानसिक स्थिति वाले लोगों के विषय में कैसा सुधार हुआ इसका विवरण पढ़िये-

‘आजकल संसार में कितने ही पेशों का अस्तित्व नहीं रहा। वकील, मुख्तार, सोख्तार, बैरिस्टर ही नहीं, भंगी, रंडी, भिखमंगे, पंडे, भाट, मुजावर, कसाई आदि भी अब नहीं रह गये हैं। खिदमतगार, लौंडी, आका भी नहीं। बाल-विवाह, अनमेल विवाह का भी पता नहीं। तिलक, दहेज, नाच तमाशा, बड़ी-बड़ी बारात और उनमें हाथी, घोड़े, पालकी, आतिशबाजी आदि कुछ भी नहीं। देवताओं और पीरों के अड्डों की पूजा, बलिदान और कुर्बानियों का भी निशान नहीं। जाति-भेद, रंग-भेद भी नहीं। पैतृक बीमारियाँ तथा राजरोग, कुष्ठ, दमा, बवासीर, पागलपन, राजयक्ष्मा, उपदंश आदि सुनने में नहीं आते। इन बीमारियों से पिछली शताब्दी (21 वीं शताब्दी) में राष्ट्र को बहुत संघर्ष करना पड़ा, तब विजय मिली। ऐसे सब रोगियों (नर और नारी दोनों) को औषधि-प्रयोग से सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य बना दिया गया और उन्हें हटाकर पृथक रखा गया। यह काम बहुत कठिन था और हुआ भी एकदम नहीं। किन्तु जब एक बार राष्ट्र ने अपने हित की बात को समझ कर उसे करने की ठान ली तो भला वह काम हुये बिना कब रह सकता था? यह राष्ट्र ही के प्रयत्न का फल है कि पृथ्वी पर अंधे, लूले, लंगड़े, बहरे, गूँगे, काने, बुद्धिशून्य तथा विकृत-इन्द्रिय व्यक्ति खोजे भी नहीं मिलते।’

हम समझते हैं कि कितने ही पाठक इन बातों को कोरी कल्पना कह कर हंसने लगेंगे, पर इस प्रकार के भाव-प्रदर्शन में कोई बुद्धिमानी नहीं है। इससे यही प्रकट होता है कि उनमें इतनी क्षमता नहीं कि वर्तमान घटनाओं के आधार पर सौ-पचास वर्ष आगे चल कर होने वाले परिवर्तनों का अनुमान कर सकें। क्राँतिकारी परिवर्तन भी होते ही रहे हैं, यह हम पिछले अनुभवों से जानते हैं। सौ वर्ष पहले अधिकाँश यात्रायें पैदल या बैल गाड़ियों पर हुआ करती थीं। कहीं-कहीं घोड़ा-गाड़ी और ऊंट गाड़ी आदि से भी काम लेते थे। पर आज पैरों से चलना प्रायः बन्द सा होता जाता है। प्रत्येक व्यक्ति साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक किसी न किसी यंत्र का प्रयोग करके ही चलता है। हमारे देखते-देखते यातायात के संबंध में यह क्राँतिकारी परिवर्तन हो गया। अब लोग एक नगर से दूसरे नगर और एक देश से दूसरे देश तक की तो बात या शहर के भीतर भी जहाँ तक संभव हो सवारी से चलते-फिरते हैं। यदि सौ वर्ष पहले कोई दूरदर्शी व्यक्ति साधारण लोगों से यह बात कहता तो वे कदापि इसको न मानते और कहने वाले को गप-शप उड़ाने वाला ही बतलाते।

यही बात आप आगामी समाज की पुनः संबंध में भी समझ लें। समय के प्रभाव से महान् परिवर्तन हो ही जाते हैं, इस अवसर पर में पारस्परिक स्पर्धा और स्वार्थपरता ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी है कि जिसके कारण कोई भीषण संघर्ष होकर यह परिवर्तन बहुत शीघ्र और व्यापक रूप से होगा। इसलिये हम अपने पाठकों का ध्यान सदैव इस परिवर्तन की संभावनाओं की तरफ आकर्षित किया करते हैं, जिससे वे सावधान होकर दूषित और समय के प्रतिकूल प्रणाली को त्याग कर समयानुकूल मार्ग को अपनावें। इसमें सबसे मुख्य बात यही है इस समय जो पृथकता और अपना ही स्वार्थ देखने की मनोवृत्ति मनुष्य में घर कर गई है वह अन्त में दुःखदायी बन जायेगी और इस युग-परिवर्तन के जमाने में तो और भी घातक सिद्ध होगी। हमको निश्चय रूप से यह समझ लेना है कि यह परिवर्तन केवल मनुष्य का सोचा हुआ नहीं है वरन् दैवी-योजना और दैवी इच्छा से उपस्थित हो रहा है।

जुलाई के अंक में हम संसार के ऊपर मंडराते हुये युद्ध संकट की जो चेतावनी दे चुके हैं वह जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा पूरी होती दिखाई देगी। जैसा उसमें कहा गया था, तीसरे महायुद्ध का केन्द्र इसराइल (यहूदी) और अरब का संघर्ष ही बनता जाता है। विश्व-बन्धुत्व और विश्व-कल्याण की भावना रखने वालों को एकता और शाँति की शक्तियों को बढ़ावा देकर इस संकट को हलका करने की चेष्टा करनी चाहिये। यह कार्य क्यों और कैसे किया जाय इसी का मार्ग-दर्शन इस अंक में किया गया है।


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