विश्व-धर्म और भारतीय आदर्श

November 1967

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भारतीय शास्त्रों में ‘धर्म’ को बहुत ऊँचा और व्यापक स्थान दिया गया है। जहाँ संसार की अन्य जातियों और देशों में धर्म को समाज-संगठन की अन्य जातियों और देशों में धर्म को समाज-संगठन या राज्य-व्यवस्था के सुसंचालन करने का एक साधन मानकर अपनाया गया है, वहाँ भारतवर्ष में आरम्भ से ही यह घोषणा कर दी गई कि धर्म मानव जीवन का एक मात्र आधार है। जब तक कोई व्यक्ति धर्म पर स्थिर है तभी तक वह ‘मनुष्य’ कहा और समझा जा सकता है अन्यथा वह अन्य पशुओं के समान एक प्राणी ही है। मीमाँसा दर्शन में सबसे पहले यही प्रश्न उठाया गया है कि ‘धर्म क्या है?’ और इसका उत्तर गिने हुये पाँच शब्दों में दे दिया है कि “यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः।” जिस आचरण से इस लोक और परलोक में कल्याण की प्राप्ति हो वही धर्म है।”

महाभारत में जब भीष्मपितामह से ‘धर्म’ का उपदेश करने को कहा गया तो उन्होंने बतलाया -

अक्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा तथा ।

प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च॥

आर्जवं भृत्यभरणं नवैते सार्ववर्णिकाः॥

(शान्ति पर्व 60-7,8)

अर्थात्- “कभी क्रोध न करना, सत्य भाषण, बाँट कर खाना, क्षमा-भाव, अपनी पत्नी से ही सन्तुष्ट रहना, पवित्रता, शत्रु-भाव न रखना, सरलता और आश्रितों का पालन करना- ये मनुष्य मात्र के योग्य धर्म-कर्त्तव्य हैं।”

इन ‘धर्मों’ में ऐसी कोई बात नहीं है जो संसार के किसी मजहब या ‘पैगम्बर’ के अनुयाइयों के विरुद्ध कही जा सके अथवा जिसे मानने में किसी को आपत्ति हो सके। अगर इनमें से केवल सत्य को ही ले लें तो उसी में संसार के बहुसंख्यक सद्गुणों का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार क्षमा-भाव या दया भी ऐसी मनोवृत्ति है जिससे मनुष्य अनेक दोषों से बच कर देव-श्रेणी तक पहुँच सकता है। पवित्रता की भावना मनुष्यता का एक मुख्य लक्षण है। जिसमें इसका अभाव हो उसको कभी ऊँची निगाह से नहीं देखा जा सकता। आश्रितों का ठीक ढंग से पालन करना सज्जनता एक आवश्यक अंग है। ये सब बातें ऐसी हैं कि जिनके लिये न किसी प्रकार के प्रमाणों की आवश्यकता है और न दलीलों की। मनुस्मृति में धर्म का लक्षण बतलाते हुये यह भी समझाया है कि व्यवहार में इस सम्बन्ध में किस प्रकार की कार्य प्रणाली रखनी चाहिये-

विद्वभ्द्रिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः।

हृदयेनाभ्यनुज्ञातो ये धर्मस्तं निबोधत॥1॥

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्य कामता।

काम्योहि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥2॥

(मनुस्मृति अ ॰ 2)

अर्थात्- “धर्म वह है जिसका रागद्वेष से रहित विद्वान सत्पुरुष आचरण करते हैं और जिस पर हृदय से विश्वास करते हैं। ऐसे धर्म का सार यह है कि स्वर्ग आदि के फल की इच्छा करना अच्छा नहीं है और धार्मिक नियमों और विधानों का त्यागना भी ठीक नहीं है, इसलिये सर्वोत्तम मार्ग यही है कि फल की इच्छा को त्याग करके धार्मिक विधानों का पालन किया जाय।”

निष्काम कर्म की महत्ता -

मनुस्मृति की यह शिक्षा संसार का सर्वोच्च धर्मतत्व है। त्याग और संन्यास का उपदेश एक सीमा तक ही व्यावहारिक हो सकता है और साँसारिक लोगों का बहुत थोड़ा भाग ही उसको वास्तविक रूप में स्वीकार कर सकता है। और कुछ नहीं तो शरीर-रक्षा और सृष्टि-क्रम को चालू रखने के लिये तो हमको जीवन निर्वाह के साधनों का उपार्जन, संग्रह और रक्षण करना ही पड़ता है। इसलिये जो धर्म प्रचारक केवल त्याग, तपस्या, ईश्वराराधन की चर्चा ही करे और साँसारिक व्यवस्थाओं से उसका समन्वय करने का मार्ग-दर्शन न करावे, वह चाहे ताड़ के पेड़ के समान ऊँचा भले ही दिखलाई पड़े पर सर्वसाधारण उसका अनुगमन नहीं कर सकते। भारतीय-धर्म की सर्वोच्च रचना श्रीमद्भगवद् गीता में इस सिद्धान्त को बड़ी स्पष्टता के साथ घोषित किया है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुभूँर्मा ते संगोस्त्व कर्मणि॥

“संसार में तुमको कर्म करने का ही अधिकार है फल का अधिकार नहीं है। तुम फल की वासना, चिन्ता त्याग दो और कर्म में भी पूर्णतः लगे रहो, यही सबसे बड़ा धर्म मार्ग है।”

यद्यपि भारतीय धार्मिक साहित्य अत्यन्त विशाल है, संसार के सब ग्रन्थों को इकठ्ठा किया जाय तो भी उसका परिणाम हमारे देश के धार्मिक साहित्य से अधिक नहीं हो सकता। एक दृष्टि से तो धार्मिक साहित्य का इतना अधिक और विविधतापूर्ण होना उलझन और भ्रम पैदा करने वाला जान पड़ता है, पर जब हम उसकी इस शिक्षा पर ध्यान देते हैं कि ‘परमात्मा तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं, जिनसे भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के व्यक्ति अग्रसर होते हुये एक ही स्थान पर पहुँच जाते हैं।” अथवा जैसा गीता में कहा गया है-

“ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ताँस्त्थैवभजम्यहम्।”

“भगवान को जो जिस प्रकार से भजता है वह उसको उसी रूप में प्राप्त होता है।” ये ऐसा सिद्धान्त है जिनमें सब धर्मों का समावेश हो जाता है। यही कारण है कि अतिप्राचीन काल से भारतीयों ने कभी किसी धर्म पर मतभिन्नता के कारण आक्रमण नहीं किया, वरन् जितने भी लोग इस देश में आक्रमणकारी के रूप में आये उनको भी मिलाकर अपना एक अंग ही बना लिया। यह बात दूसरी है कि आज स्थिति बदली हुई दिखाई पड़ती है। जिस प्रकार अधिक समय व्यतीत हो जाने पर प्रत्येक जीवित और जड़ पदार्थ में विकृति या निर्बलता आ जाती है उसी प्रकार हम लोग भी इस ऊँचे तत्व को बहुत कुछ भूल गये हैं और अपने धर्म को एक ऐसी चारदीवारी में घेर दिया है जिससे वह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के बजाय ‘आठ कनौजिया नौ चूल्हे’ वाली स्थिति में पहुँच गया है।

इतिहासवेत्ताओं के मतानुसार प्राचीन संसार के अधिकाँश धर्मों का उद्गम वैदिक धर्म ही है। प्राचीन मिश्र, ईरान, यूनान, रोम आदि के निवासी तो आर्यों की शाखा ही माने जाते हैं और उनका धर्म भी वैदिक धर्म का एक रूपांतर ही था। दक्षिणी-पूर्वी एशिया के जावा, सुमात्रा, स्याम, कम्बोडिया आदि में भारतीय धर्म और संस्कृति के अवशेष भरे पड़े हैं। इतना ही क्यों मैक्सिको और अमरीका तक में भारतीय धर्म के प्रभाव का प्रमाण मिला है। ऐसी दशा में यदि हम अब फिर अध्यात्म-प्रधान भारतीय धर्म को शुद्ध रूप में विश्व-धर्म के सिंहासन पर बैठायें तो इसमें अनुचित क्या है? यद्यपि कुछ वर्षों से योरोप एशिया के कितने ही विद्वानों तथा धर्मप्रेमियों का ध्यान विश्व धर्म के सिद्धान्तों की विवेचना तथा प्रचार की तरफ जाने लगा है, पर हम देखते हैं कि उन सबका समावेश भारतीय धर्म में हो जाता है। कारण यही है कि हमारे धर्म का उद्भव भौतिक उन्नति का भी विधान है, पर उसे सदैव अध्यात्म के अनुकूल रखने का अदेश दिया गया है। ऐसी भौतिक प्रगति और सम्पदा जिससे आत्मा का पतन होता हो उसमें त्याज्य बतलाई गई है। यही सिद्धान्त ‘विश्व-धर्म’ का मूलमन्त्र हो सकता है।

ईश्वरीय प्रेम और मानव सेवा-

सब मजहबों में धर्म का अन्तिम उद्देश्य ईश्वरीय प्रेम और उसकी प्राप्ति माना गया है। जब तक मनुष्य की दृष्टि इस संसार की वस्तुओं और भौतिक सम्बन्धों पर ही रहती है, तब तक उसे आत्मिक ज्ञान हो सकना सम्भव नहीं होता। इसलिये सन्तों ने सदा यही उपदेश दिया है कि ईश्वर और आत्मा के प्रति सच्चे रहते हुये ही साँसारिक सम्बन्धों का पालन करो। भारतवर्ष में जैन, बौद्ध आदि जो अन्य मत चले हैं और विदेशों में जो ईसाई, इस्लाम, पारसी, यहूदी आदि मजहब पाये जाते हैं, उन सबने विभिन्न शब्दों और शैलियों में इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। साथ ही यह प्रकट कर दिया गया है कि यह ईश्वरीय प्रेम और उसका स्मरण केवल काल्पनिक या विचारात्मक ही नहीं होना चाहिये वरन् वह प्रत्यक्ष अथवा कार्य रूप में भी प्रकट होना चाहिये जोकि परोपकार- मानव सेवा के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।

जैन धर्म भारत का अति प्राचीन मत है और एक प्रकार से भारतीय-धर्म में प्रचलित ज्ञान-मार्ग का अनुगामी है। उसके उपदेश वेद-पुराणों के सिद्धान्तों से बिल्कुल मिलते हुये ही हैं-

सब्बेहि भूएहि दयाणुकपी खंतिक्खते संजय वंभपारी।

सावज्जजोगं परिवज्जयंतो चरेज्जभिक्ख सुसमाहिं इन्दिमे॥

(उत्तराध्ययन 21। 13)

“सब प्राणियों पर दया करे, कठोर वचन भी सहन करे और बदला न ले। संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करे। इन्द्रिय निग्रह करे और निष्पाप जीवन जिये।”

धम्मो मंगलं मुक्किट्ठं माहिंसा संजमो तपो।

देवा वितं नमंसति जस्सधम्मे सया मणो॥

“अहिंसा, संयम और तप इसी का नाम धर्म है, जो मनुष्य के लिये मंगलकारक होता है। जो धर्मशील होते हैं उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं।”

बौद्ध धर्म की भी ऐसी ही शिक्षा है-

न परो पर निकुब्बेथ नातिमंजेथ कत्थचिंन कचिं।

व्यारोसना पटिध सज्जा नाँञमं ञस्स दुरखमिच्छेया॥

(अभिधम्म पिटक)

“कभी किसी को मत ठगो, किसी का अपमान मत करो। वैर या प्रतिरोधवश किसी को दुःख देने की बात मत सोचो- यही मानव-धर्म है।”

ईसाई मजहब में प्रेम को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और ईसा प्रेम तथा क्षमा के मूर्तिमान अवतार थे। उनका सबसे बड़ा उपदेश यही था कि “Love thy neighbour as thyself.” (तुम अपने पड़ोसी से भी उतना ही प्रेम करो जितना अपने से करते हो।) क्या यह कथन हमारे शास्त्रों के इन वाक्यों का ही रूपांतर नहीं है-

आत्मना प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्।”

(जो बात तुमको दुःखदायी लगती है उसको किसी दूसरे के साथ भी मत करो।) ईसाई धर्म के एक प्रसिद्ध कवि सैमुअल टेलर ने कहा है-

॥द्ग श्चह्ड्डब्द्गह्लद्ध ड्ढद्गह्यह्ल ख्द्धश द्यशक्द्गह्लद्ध ड्ढद्गह्यह्ल,

्नद्यद्य ह्लद्धद्बठ्ठद्दह्य ड्ढशह्लद्ध द्दह्द्गड्डह्ल ड्डठ्ठस्र ह्यद्वड्डद्यद्य.

स्नशह् ह्लद्धद्ग स्रद्गड्डह् त्रशस्र ख्द्धश द्यशक्द्गह्लद्ध ह्वह्य

॥द्ग द्वड्डस्रद्ग ड्डठ्ठस्र द्यशक्द्गह्लद्ध ड्डद्यद्य.

“उसी की ईश्वर-प्रार्थना सर्वोत्तम है जो उसके नाम पर सबसे बड़े और छोटे को सबसे ज्यादा प्रेम करता है। क्योंकि ईश्वर भी हम से बहुत अधिक प्यार करता है और इसी से उसने हमारी सृष्टि की है।”

प्रसिद्ध मुसलमान सन्त शेख सादी ने कहा है- ‘जिस प्रकार एक शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे से मिले रहते हैं वैसे ही परमात्मा के सब पुत्र भी एक दूसरे के अंग हैं। अगर एक को ज्वर हो जाय तो दूसरे भी बेचैन हो जायेंगे। मानव-सेवा से बढ़ कर और कोई धर्म नहीं है। मेरा प्रियतम परमात्मा सब हृदयों में निवास करता है, कोई भी हृदय उससे खाली नहीं है। वह हृदय धन्य है जो उसे प्रत्यक्ष कर देता है। क्योंकि परमात्मा प्रत्येक मनुष्य में निवास करता है इसलिये प्रत्येक का सम्मान करना चाहिये।”

वर्तमान समय में जबकि ईश्वर के अस्तित्व पर ही शंका उठाई जाती है ‘ईश्वरीय प्रेम’ का जिक्र करना विशेष उपयोगी नहीं होगा। पर हम उनको बतलाना चाहते हैं कि वे केवल शब्दों से न भड़के। प्राचीन काल की भाषा और वर्णन शैली में इसी तरह का प्रयोग लोगों को प्रभावित कर सकता था, इसलिये एक नहीं सभी सन्तों और महापुरुषों ने इसी ढंग की बातें लिखी हैं। ईश्वर से उन सबका उद्देश्य उसी एक सर्वव्यापी आत्मसत्ता से है जो विश्व के प्रत्येक कण में व्याप्त है। किसी भी विश्व-धर्म की कल्पना बिना अध्यात्म में नहीं की जा सकती और अध्यात्म का केन्द्र-बिन्दु अवश्य ही कोई चैतन्य-सत्ता होगी, फिर चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाय। जिस व्यक्ति का ध्यान ‘ईश्वरीय प्रेम’ की तरफ नहीं है और जो अन्य मनुष्यों को अपना भाई, अपने शरीर का एक अंग न समझ कर कमाई या शोषण का साधन मात्र समझता है, वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता और न वह मनुष्य में पाये जाने वाले उच्च सद्गुणों को महत्व दे सकता है। इस तरह की प्रवृत्ति प्रायः पतन का ही कारण बनती है।

वर्तमान युग का परिवर्तन अनिवार्य है -

वर्तमान युग महान् परिवर्तनों और नवीनताओं का है। यद्यपि विद्या और ज्ञान का पुराने जमाने में भी अभाव न था और बीच-बीच में ऐसे भी युग आ चुके हैं जबकि वैज्ञानिक आविष्कारों और यन्त्र विद्या की अच्छी उन्नति हुई है, पर उस समय यह जानकारी थोड़े से विशेष व्यक्तियों और विशेष प्रदेशों तक ही सीमित रह जाती थी। इस समय हम प्रचार के साधनों के बढ़ जाने से विद्या, ज्ञान, विज्ञान का जो विश्व-व्यापी प्रकाश देख रहे हैं, वह स्थिति संसार में कदाचित कभी नहीं आई। यही कारण है कि इस समय विश्व-धर्म, विश्व राज्य और विश्व-भाषा जैसी बातें सम्भव मानी जाने लगी हैं और उनके लिये विचार-विमर्श भी किया जाने लगा है। अब भी जिन लोगों के मस्तिष्क केवल प्राचीन बातों और सिद्धान्तों से ही भरे हैं वे इन बातों की सम्भावना में तनिक भी विश्वास नहीं करते और इस प्रकार के विचार प्रकट करने वालों को हँसी का ही पात्र समझते हैं।

पर तो भी हम देख रहे हैं कि दुनिया बड़ी तेजी से बढ़ती चली जा रही है और लक्षणों से प्रतीत होता है कि वह अब अन्तिम मंजिल के निकट आ पहुँची है। हम यह भी स्वीकार करते हैं कि यह अन्तिम मंजिल बड़ी कठिन है- घोर संघर्षपूर्ण है, जिसमें जितना भी रक्तपात, बर्बादी, तोड़-फोड़ हो जाय कम है। कुछ लोग तो स्थिति की भयंकरता को देखकर मानव-सभ्यता के नष्ट हो जाने की ही आशंका करने लगे हैं। परिस्थिति की गम्भीरता और एक प्रलयकारी तूफान की सम्भावना को तो हम भी अस्वीकार नहीं करते, पर हमारा मत है कि मानव जाति इतनी मजबूत और चिमड़ी है कि वह इस घोर संकट-महान परीक्षा को पार करके उस विश्व-व्यापी सभ्यता और संस्कृति के युग में पदार्पण कर सकेगी।

वह युग कैसा होगा? आज ज्यादातर व्यक्ति उसको मान सकना तो दूर उसकी कल्पना करने में भी असमर्थ हैं। परिवर्तन और नवीन तत्वों, संस्थाओं के जन्म के विषय में अनजान होने से वे नये वातावरण, नये क्षेत्र और नये ढंग के समाज के विचार से भय खाते हैं। जैसे अनेक ग्रामीण जन किसी बड़े नगर में पहुँच कर हक्के-बक्के हो जाते हैं और चलने-फिरने, उठने-बैठने, बात-चीत करने आदि सभी बातों में असुविधा अनुभव करते हैं, और अपने सीधे-सादे, ढीले-ढाले ग्रामीण ढर्रे को ही अच्छा बतलाते हैं वही हालत आजकल नये युग के सम्बन्ध में अधिकाँश दुनियादार मनुष्यों की देखने में आती है।

इसमें सन्देह नहीं कि नया-युग प्राचीन के मुकाबले में होगा भी इतना अलग और दूसरी शकल-सूरत का कि अधिकाँश लोगों को उसके अनुकूल बन सकना, अपने को नई परिस्थितियों के अनुसार बदल सकना कठिन ही नहीं असम्भव होगा। जो हालत कि मिट्टी के दिये की रोशनी में रहने वाले की बिजली के हण्डों से प्रकाशित निवास स्थान में जाकर हो जाती है, अथवा सदा बैलगाड़ी पर यात्रा करने वाले को साठ मील प्रति घन्टा चाल की मोटर या सात आठ सौ मील की गति वाले वायुयान पर बैठा देने से जैसा अनुभव होता है, वैसा ही प्राचीनता के विचारों को दिमाग में भरे हुये और उसी तरह के रहन-सहन वालों को नये युग में होगा। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में पड़कर अनेक व्यक्ति जिस प्रकार प्राणों से हाथ धो बैठते हैं, या मीठे पानी की मछली खारे पानी के समुद्र में पहुँचकर जिस प्रकार शायद ही जिन्दा बचती है, उसी प्रकार केवल एक ढर्रे पर चल सकने वाले व्यक्तियों की दशा उस समय दिखाई पड़ने लगेगी। यही कारण कि ऐसे व्यक्ति विश्व-धर्म, विश्व-राज्य और विश्व-भाषा जैसे शब्दों को सुनना भी नहीं चाहते और यदि कोई चर्चा करता है तो उसे तुरन्त सनकी या आधा पागल करार दे देते हैं।

फिर भी हम दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि अधिक से अधिक दस बीस साल में ही वर्तमान दुनिया का तोड़ दिया जाना और सौ पचास वर्ष में नई दुनिया का ढाँचा बनकर खड़ा हो जाना निश्चय है। वह एक ऐसा दृढ़ तथ्य है जिसे आजकल के सभी विचारक, चाहे वे किसी भी धर्म या मजहब के अनुयायी क्यों न हों मानने से इनकार नहीं करते। वर्तमान युग में हमारे सबसे बड़े मार्ग दर्शक और धार्मिकों में अग्रगण्य, महात्मा गाँधी ने कहा है-

“हमारा माना हुआ धर्म अपूर्ण है, उसमें सदा परिवर्तन होते रहते हैं और होते रहेंगे। ऐसा होने से ही हम उत्तरोत्तर ऊपर उठ सकते हैं- सत्य की ओर ईश्वर की और निरन्तर आगे बढ़ सकते हैं। जब हम ‘मनुष्य कल्पित’ सब धर्मों को अपूर्ण मान लेते हैं, तो किसी को ऊँचा या नीचा मानने की बात नहीं रह जाती। सभी सच्चे हैं, पर सभी अपूर्ण हैं, इसलिये दोष के पात्र हैं। समभाव होने पर भी हम उनमें दोष देख सकते हैं। हमें अपने दोषों को भी देखना चाहिये। पर ऐसे दोषों के कारण उसका त्याग नहीं किया जाता, बल्कि दोष को दूर करना पड़ता है।”

धार्मिक विधानों में ऐसा सामयिक परिवर्तन होते रहना उचित ही नहीं अनिवार्य है। प्राचीन धर्मों में से किसी की परीक्षा की जाय यह स्पष्ट मालूम हो जायगा कि वह किस समय किस मानव-समुदाय की किन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये चलाया गया था? भिन्न-भिन्न देशों और युगों की परिस्थितियाँ एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत होती हैं इसलिये धार्मिक प्रथायें भी उसी के अनुरूप चलानी पड़ती हैं। भारतवर्ष का मध्य-भाग कृषि प्रधान है। साल भर में दो-तीन फसलें तरह-तरह के अनाजों और अन्य खाद्य पदार्थों की होती हैं। इसलिये यहाँ धार्मिक विधानों में, पूजा पाठ में, अन्न के बने पदार्थों, मिठाइयों, फल-फूल आदि का ही विशेष उपयोग होता है। पर ईसामसीह जिस पैलेस्टाइन देश के निवासी थे वहाँ की अधिकाँश भूमि रेतीली या ऊसर-बंजर थी और लोगों के जीवन निर्वाह का मुख्य आधार नदियों और समुद्र से मछली पकड़ना और मुख्यता उन्हीं से भोजन की पूर्ति करना था। इसलिये उनके धार्मिक संस्कारों और उत्सवों आदि में मछलियों का ही जिक्र आता है, यद्यपि ईसामसीह बहुत अधिक दयालु प्रकृति के और परोपकारी थे। इसीलिये किसी विद्वान ने कहा है कि “मनुष्य स्वयं जो खाता है वही अपने देवताओं और ईश्वर को भी खिलाता है।” इस तरह के परिवर्तन अगर राजी से समय पर न किये जायें तो उससे कैसी हानि होती है, इस सम्बन्ध में उदाहरण देते हुये महात्मा भगवानदीन जी ने ‘आज का धर्म’ नामक पुस्तक में लिखा है-

“मुनासिब वक्त पर अगर धर्म और समाज की व्यवस्था में परिवर्तन न किया जाय तो उसका परिणाम अवश्य हानिकारक होगा। कोई बँगाली उत्तरी चीन में सिर नंगा रखने पर अड़ जाय तो जुकाम मोल ले बैठेगा और फिर भी अड़ा रहे तो जान से हाथ धो बैठेगा। अगर कोई गर्म देश का निवासी धार्मिक जन-समुदाय किसी कारणवश अथवा देश त्याग कर ठंडे देश में जा बसे और अपने रिवाजों को न बदले, तो वह नष्ट होने से कैसे बचेगा? समाज का कोई न कोई समझदार जरूर बदलाव की आवाज उठायेगा। अगर बदलाव पुराने विचारों से टकरायेगा तो उसको नये विचारों को जन्म देना पड़ेगा। यही कहलाने लगेगा नया धर्म।”

“दुनिया का कोई धर्म ऐसा नहीं जिसने अपना प्रचार ऐसे लोगों में किया हो, जो धर्म को जानते ही न थे। हर धर्म का जन्म किसी न किसी अन्य धर्म के मानने वालों में ही हुआ है। आदमी का बच्चा आदमी से ही शिशु रूप में जन्मेगा। यदि कोई यह कल्पना करे कि भगवान ने आरंभ में ही युवावस्था के पुरुष-स्त्री बना कर पृथ्वी पर बसा दिये तो यह विश्वास योग्य नहीं है। कोई न कोई धर्म भले ही सर्वप्रथम चला हो, पर धर्म-धारा अनादि है।”

यह माना जा सकता है कि आरम्भ में मनुष्य आज कल जैसे धर्म विधि विधानों से अनजान था। उसने प्रकृति के कामों को देखकर कुछ विचार बनाये और उनके आधार पर व्यवहार गढ़े। ये व्यवहार कुछ अपने आप बदलते रहे क्योंकि बदलाव व्यवहार का जीवन है। पर जब पुराने समाज को एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना पड़ा, एक प्रकार के वातावरण से दूसरे प्रकार के वातावरण में प्रवेश करना पड़ा, तब व्यवहारों में विशेष उलट-फेर करने की आवश्यकता आ पड़ी। उलट-फेर के समय सब घबरा उठे। उन्हें ऐसा मालूम होने लगा मानो उलट-फेर करने से उनका धर्म नष्ट हो जायगा। धर्म नष्ट होने से समाज नष्ट हो जायगा। नासमझ लोगों का ‘धर्म’ ऐसी छोटी-छोटी बातों से भी नष्ट हो जाता है। पर यदि कोई समझदार आदमी खड़ा हो जाय तो वह सबको सही रास्ते पर मोड़ भी सकता है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी की एक घटना, बड़ा अच्छा प्रकाश डालती है-

“जब स्वामी विवेकानन्द बेलूड़ (कलकत्ता) में रामकृष्ण मिशन का आश्रम बनवा रहे थे तो उसमें अनेक संथाली मजदूर काम करते थे। ये लोग आदिवासी माने जाते हैं और उनका रहन-सहन जंगलियों से कुछ ही ऊपर है। एक दिन स्वामी जी जब अन्य स्थानों का भ्रमण करते हुये आश्रम में आये तो उन्होंने इन मजदूरों के एक समुदाय को आश्रम में विशाल अहाते के एक कोने में झोंपड़ियाँ बना कर रहते देखा। स्वामी जी दरिद्रनारायण के उपासक थे और इन लोगों की गरीबी- न बदन पर कपड़ा, न पूरी भोजन-सामग्री- देखकर उनके हृदय में ठेस-सी लगी। उन्होंने संथालों से कहा कि रविवार के दिन तुम हमारे यहाँ भोजन करना। संथालों ने उनकी इस कृपा के लिये बड़ा आभार माना, पर उन्होंने ‘यह कठिनाई बतलाई कि “आपका भोजन खाने से हम धर्म-भ्रष्ट हो जायेंगे। पके हुये भोजन में नमक मिला रहता है और किसी अन्य जाति वाले का नमकीन भोजन खाने से हमारी जाति नष्ट हो जायगी, हमारा बहिष्कार कर दिया जायगा।” स्वामी जी को उनके अज्ञान पर तरस आया, पर उन्होंने उनकी बात से अप्रसन्न न होकर कहा कि “अगर नमक वाला भोजन करने से तुम्हारी जाति नष्ट होने का भय है तो हम बिना नमक का भोजन बनवा देंगे, तुम नमक अपने पास से मिलाकर भोजन कर लेना।”

इस छोटी-सी घटना से विदित होता है कि लोगों ने धर्म को कैसा पेचीदा और अन्ध श्रद्धा का विषय बना रखा है। जैसा कि एक कहावत है ‘सामने से एक तिनका भी प्रविष्ट करना कठिन है पर पीछे से चाहे हाथी को घुसादो’- जहाँ सुधार के नाम पर एक छोटा-सा परिवर्तन भी लोगों को स्वीकार नहीं होता वहाँ अप्रत्यक्ष रूप से पूरा का पूरा ढाँचा ही बदल दिया जाता है। “आज का धर्म’ में हिन्दू धर्म के परिवर्तनों पर विचार करते हुये कहा है-

“तीनों वेद तरह-तरह के विचारों से भरे पड़े हैं। उनसे सम्बन्ध रखने वाले ग्रन्थ तरह-तरह के व्यवहारों से भरे हैं। हर एक उपनिषद् एक नई विचार धारा लिये हैं। प्रत्येक दर्शन एक दूसरे से अलग है। आज सब उपनिषद्, सब दर्शन-ग्रन्थ, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब संहितायें मिल कर भले ही एक ‘वेद’ के नाम से प्रसिद्ध हो, भले ही उनके मानने वाले अपने को ‘एक धर्मी’ और ‘एक समाजी’ समझते हों, पर एक समय था ये सब विचारधारायें अलग-अलग धर्म का रूप लिये थी और उनके अनुयायी सब आपस में ऐसे ही लड़ते-झगड़ते थे जैसे आज कल के भिन्न-धर्मी लड़ते रहते हैं। बाद में इन सब धाराओं का मेल बैठाने की बड़ी-बड़ी कोशिशें की गयी तब काम चलाऊ स्थिति प्राप्त हुई।”

अब धीरे-धीरे वह समय आ पहुँचा है जब विचार-स्वातंत्र्य एक सार्वजनिक चीज बन गया है और छोटे-बड़े सभी श्रेणी के व्यक्ति प्रचलित धर्मों की त्रुटियों का अनुभव करने लगे हैं। लोगों की समझ में यह बात भी आ गई है कि इस समय कोई एक खास धर्म नहीं वरन् सभी धर्म लोगों की आवश्यकता को देखते हुये अपर्याप्त और असामयिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिये विचारक लोग इस विषय में अपनी सम्मति देते रहते हैं कि इस समस्या को कैसे हल किया जाय? इस समय ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं जिन्होंने सब धर्मों की अच्छी बातों को मिलाकर और समय की आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन तथा संशोधन करके एक ‘विश्व-धर्म’ का ढाँचा तैयार कर दिया है।


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