नवयुग का शुभारम्भ

November 1967

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युग-परिवर्तन का विषय बड़ा महत्वपूर्ण और साथ ही विवादग्रस्त भी है। हमारे ज्यादातर प्राचीन विचार के भाई तो इसको सुनकर ही चौंक पड़ते हैं। उनके मस्तिष्क में लाखों वर्ष के सतयुग और कलियुग के सिद्धान्त ने ऐसी जड़ जमा रखी है कि इस बात पर विश्वास ही नहीं होता कि, युग इतना शीघ्र बदल सकता है।

भारतीय पुराणों की मान्यता के अनुसार कालचक्र चार युगों में बँटा है- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। दूसरे धर्मों में भी इससे कुछ मिलता जुलता विभाजन देखने में आता है, जैसे ईसाइयों के ग्रन्थों में ‘गोल्डन एज’ (सुवर्ण-युग), ‘सिलवरएज’ (रौप्य-युग), ‘कौपरएज’ (ताम्र-युग), ‘आयरनएज’ (लौह-युग) का नाम मिलता है। जैनियों में ‘सुखमा’- ‘सुखुमा-दुखमा’- ‘दुखमा-सुखुमा’- ‘दुखमा’ आदि कालों का वर्णन मिलता है।

इन चार युगों में से कौन अच्छा है और कौन बुरा इसकी चर्चा साधारण जनता में प्रायः सुनने में आया करती है, पर जब हम इस पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो उसमें कोई सार नहीं दिखलाई पड़ता। पहले से ही किसी काल-विभाग को खराब मान लेना और यह भावना बना लेना कि इस समय में तो पाप-कर्मों की वृद्धि होगी ही, न तो कोई तर्क संगत बात है और न इसमें किसी प्रकार की बुद्धिमानी ही कही जा सकती है। जिस प्रकार भाग्यवाद या तकदीर के सिद्धान्त ने भारतवासियों को आलसी और निरुद्योगी बना दिया है उसी प्रकार कलियुग के सिद्धान्त ने उनको तरह-तरह की हानिकारक रूढ़ियों में फंसने में सहायता पहुँचाई है। इस कलियुग सम्बन्धी भ्रामक धारणा के कारण पिछले वर्षों में समाज-सेवकों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। जब लोगों को किसी हानिकारक रूढ़ि को त्यागने या समयानुकूल किसी नई प्रथा को अपनाने के लिये कहा गया तो यही उत्तर मिला- “यह तो कलियुग है।” स्त्री शिक्षा, पर्दा प्रथा, अल्पायु में विवाह, वृद्ध विवाह, जाति प्रथा, दहेज प्रथा आदि किसी भी दोष दुर्गुण को त्यागने का परामर्श दिया गया तो कलियुग का बहाना प्रस्तुत कर दिया गया।

युग का आरम्भिक स्वरूप :-

पर इस जगह हम अपने पाठकों को यह अच्छी तरह बतला देना चाहते हैं कि चारों युगों की लाखों वर्षों की धारणा थोड़े ही समय की है और इसका विस्तार पौराणिक कथावाचकों ने ही किया है। अन्यथा वेद में ये शब्द तीन- तीन महीनों के अन्तर से एक वर्ष के भीतर होने वाले चार यज्ञों के लिये प्रयुक्त किये गये थे -

कृतयादि नव दर्श। त्रेतायै कल्पिनं।

द्वापरायाधि कल्पिनं। आसकन्दाय सभास्थाणुम्।

(यजुर्वेद 30 । 18)

इस प्रकार वैदिक-काल में कृत, त्रेता, द्वापर, आस्कन्द ये तीन-तीन महीनों पर होने वाले स्तोमों (यागों) के नाम थे। वेद की संहिता में चौथे स्तोम का नाम ‘आस्कन्द’ दिया गया है, पर कुछ समय बाद जब संहिता की व्याख्या के लिये ब्राह्मण ग्रन्थ बनाये गये, तो ‘आस्कन्द’ की जगह कलि, का नाम प्रयुक्त किया गया, जैसे-

कृताय सभावि नं। त्रेतायदि न वदर्शं।

द्वापरावहिः सदा। कलये सभा स्थाणुम।

(तै॰ ब्रह्मण 3-41)

वेद हिन्दू-धर्म के ही नहीं वरन् समस्त संसार के आदि ग्रन्थ माने जाते हैं। प्रायः सभी विदेशी विद्वानों तथा ऐतिहासिक खोज करने वालों ने उनको ‘संसार के पुस्तकालय की प्रथम पुस्तक’ कह कर सम्मानित किया है। इनसे पुराना मानव-समाज के निर्माण पर प्रकाश डालने वाला कोई अन्य स्रोत नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, दर्शन, स्मृति, पुराण, महाकाव्य सब उनसे बाद में रचे गये हैं और उन सब का मूल किसी न किसी रूप में वेदों में ही है। यही कारण है कि हमने युग- विभाग का मूलस्वरूप वेदों में ही खोजने का उपक्रम किया और फलस्वरूप मालूम हुआ कि उस युग में जो यज्ञ योग हुआ करते थे उन्हीं के समय और अवधि को नियत करने के लिये कृत, त्रेता, द्वापर, कलियुग आदि काल सूचक शब्दों का प्रचलन हुआ था। फिर धीरे-धीरे विभिन्न विद्वानों द्वारा ये विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किये जाते रहे और ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में इनकी व्यक्ति और समाज की उन्नत और अवनत दशाओं के लिये भी व्यवहार में लाने लगे जैसे-

कलिःशयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।

उत्तिष्टन्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन्॥

अर्थात्- “जब व्यक्ति या समाज सुषुप्ति की अवस्था में रहता है तब कलियुग होता है। जब वह जम्हाई लेता है अर्थात् कुछ चैतन्य हो जाता है तब द्वापर होता है। जब उठ कर बैठ जाता है अर्थात् कार्य के लिये उद्यत हो जाता है तब त्रेता होता है और जब खड़ा होकर चलना आरम्भ कर देता है अर्थात् अपने कर्त्तव्य में पूर्णतः संलग्न हो जाता है तब उसे (कृतयुग या सतयुग) समझना चाहिये।”

शासन के प्रभाव से युग का आगमन :-

आगे चलकर चार युग का सिद्धान्त कुछ अधिक फैल गया और लोग उनके गुण, अवगुणों पर विचार भी करने लगे, पर फिर भी महाभारत के समय तक वर्तमान धारणा का कहीं पता नहीं था। उस समय विचारशील व्यक्ति यह नहीं मानते थे कि सतयुग, कलियुग आदि का समय बिल्कुल निश्चित कर दिया गया है और वह इतने लाख वर्ष तक अवश्य ही बने रहेंगे। इसके बजाय महाराज युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर भीष्म पितामह ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि, सतयुग, कलियुग आदि का आधार राजा (शासक) द्वारा भला या बुरा शासन किया जाना ही है।

वे कहते हैं -

कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा काला कारणम्।

इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्।79।

राजा कृतयुग स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च।

युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्।97।

कृतस्य करणाद् राजा स्वर्गमत्यन्तमश्नुते।

त्रेतायः करणाद् राजा स्वर्ग नात्यन्तमश्नुते।99।

प्रवर्तनाद् द्वापरस्य यथाभागमुपाश्नुते।

कलेः प्रवर्तनाद् राजा पापमत्यन्तमश्नुते।100।

(शान्ति पर्व, 69 वाँ अध्याय)

अर्थात् “हे युधिष्ठिर! काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही काल का कारण होता है। राजा ही सतयुग की सृष्टि करने वाला होता है और राजा ही त्रेता, द्वापर तथा चौथे युग कलि की भी सृष्टि का कारण होता है। सतयुग की सृष्टि करने से राजा को अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होती है। त्रेता की सृष्टि करने से राजा को स्वर्ग तो मिलता है, परन्तु वह अक्षय नहीं होता। द्वापर का प्रसार करने पर वह अपने पुण्य के अनुसार कुछ काल तक स्वर्ग का सुख भोगता है, परन्तु कलियुग की सृष्टि करने से राजा को अत्यन्त पाप का भागी होना पड़ता है।

यहाँ पर लाखों वर्ष के पाप पूर्ण कलियुग की बात न कह कर यही सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा।’ भीष्म पितामह के मतानुसार यदि शासक श्रेष्ठ, सदाचारी, न्यायी, सत्य प्रेमी हो और जनता को भी वैसा आचरण करने की प्रेरणा करे, तो इस पृथ्वी पर सतयुग की स्थिति लाकर लोगों को स्वर्ग सुख का अनुभव करा सकता है। इसके उदाहरण स्वरूप पिछले दो हजार वर्षों के भीतर ही होने वाले महाराज विक्रमादित्य, राजा भोज और महाराज हर्ष आदि का उल्लेख किया जा सकता है जिनके राज्य में कोई मूर्ख, दुष्कर्म करने वाला भूखा-नंगा न था और प्रजा अत्यन्त सुखपूर्वक रहकर धर्म का पालन करती थी। सर्वसाधारण के विचारानुसार ये राजा कलियुग के भीतर ही हुये थे, पर उनके सतयुगीन शासन की कथाएँ आज भी सब लोगों की जबान पर हैं। साथ ही पिछले सौ-पचास वर्षों में ही हम ऐसे राजाओं को भी देख चुके हैं जिनके राज्य में प्रजा का धन, मान, शील कुछ भी सुरक्षित न था और जिन्होंने अपने पापपूर्ण शासन के कारण जनता की स्थिति नरक तुल्य बना दी थी।

भगवान कृष्ण का युग सम्बन्धी मन्तव्यः -

महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर भगवान् कृष्ण ने चारों युगों को सामयिक परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न बतलाया है। जब वे पाण्डवों और कौरवों में संधि कराने के उद्देश्य से हस्तिनापुर गये थे तो उन्होंने कर्ण को युद्ध के लिये बहुत उत्सुक देखकर चेतावनी दी थी।

यदा द्रक्षसि संग्रामे श्वेताश्वं कृष्ण सारथिम्।

ऐन्द्रमस्त्रं विकुवणाबुभे चाप्याग्नि मारुते॥6॥

गाँडीवस्य च निर्घोषं विस्फूर्जितिंमिवाशनेः ॥

न तदा भविता त्रेता न कृते द्वापरे न च॥7॥

यदा द्रक्षसि संग्रामे कुन्तिपुत्र युधिष्ठिरम्।

जप होम समायुक्तं स्वाँ रक्षन्तं महाचमूम्॥8॥

आदित्यमिव दुधर्षम् तपन्तं शत्रुवाहिनीम्।

न तदा भविता त्रेता न कृतं द्वापरं न च॥ 9॥

(उद्योग पर्व अ॰ 142)

अर्थात्- “जब तुम संग्राम में श्वेत घोड़ों के सारथी कृष्ण को आग बगूले की तरह चारों तरफ दिखाई देते और गाँडीव धनुष की टंकार से वज्राघात करने वाले अर्जुन को देखोगे, तब न तो त्रेता रहेगा न कृतयुग और न द्वापर, जब जप होम आदि द्वारा सुर्य की तरह प्रचण्ड प्रताप का कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को संग्राम में शत्रु सेना को संतप्त करते-करते और अपनी विशाल सेना की रक्षा करते देखोगे, तब न तो त्रेता रहेगा, न कृतयुग और न द्वापर।”

भगवान कृष्ण का आशय यही है कि यदि दुर्योधन के पक्ष वाले दुराग्रह के वशीभूत होकर पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाध्य कर देंगे तो फिर कृत, त्रेता और द्वापर के बजाय कलियुग (अर्थात् कलह) दिखाई पड़ने लगेगा। यहाँ पर उन्होंने स्पष्टतः सतयुग, त्रेता आदि युगवाची शब्दों को तत्कालीन परिस्थिति के लिये प्रयुक्त किया है।

मनुष्यों के कर्मानुसार युग-

इस सब का साराँश यह है कि प्राचीन मनीषियों ने युगों को कोई पूर्व निर्धारित और अटल विभाजन न मान कर मनुष्यों के कर्मानुसार ही उनका आना और जाना अथवा परिवर्तन होना बतलाया। उनका मुख्य उपदेश यही है कि मनुष्य जैसा कर्म करेंगे। वैसे ही युग में उनको अपना जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। यदि हम आम बोयेंगे तो आम खायेंगे और बबूल बोयेंगे तो काँटों से अंगों का छिदाना पड़ेगा। परमात्मा की तरफ से मनुष्य को इतनी बुद्धि और स्वतन्त्रता दी गई है कि वह इनमें से चाहे जैसी बात चुन लें।

युगों के विभाजन की तुलना हम वर्ण व्यवस्था से कर सकते हैं। समाज का निर्माण करने वाले, विधान बनाने वाले मनीषियों ने समाज-संचालन की आवश्यकता और मनुष्यों की प्रकृति का निरीक्षण करके चार वर्ण बना दिये और मनुष्यों को यह सुविधा दे दी कि वे अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार किसी भी वर्ण के कर्त्तव्य का पालन कर सकते हैं। वे चाहें तो वेदाध्ययन और तप-त्यागमय जीवन अपनाकर ब्राह्मण बन सकते हैं, लड़ाकू प्रकृति होने पर क्षत्रिय धर्म अपना सकते हैं, वाणिज्य और कृषि में रुचि रहने पर वैश्य बन सकते हैं, अपनी मोटी बुद्धि होने और दिमागी काम की शक्ति न होने पर सेवावृत्ति को पसन्द कर सकते हैं। अधिकाँश मनुष्य जिस वर्ण के अनुकूल कार्यों को अधिक मात्रा में अपनायेंगे उसी वर्ण की प्रधानता का समाज बन जायेगा।

लगभग यही बात युगों के विषय में है। विद्वानों और विचारकों ने समय, परिस्थिति और समाज तथा व्यक्तियों के विकास का अनुमान लगा कर काल का एक मोटा विभाजन कर दिया कि यदि मनुष्य ऐसे आचरण अधिक अपनायेंगे। कलियुग आयेगा और इससे विपरीत हो तो सतयुग अथवा त्रेता में पहुँच जायेंगे। इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का सन्देह न रहे दूसरे शास्त्रकारों ने बहुत स्पष्ट रूप से कह दिया है-

तपः परं कृतयुगे, त्रेतायाँ ज्ञानमुच्यते।

द्वापरे यज्ञमित्याहुः, दानमेकं कलौयुगे।

अर्थात्- “सतयुग में तप की प्रधानता होती है। त्रेता ज्ञान प्रधान तथा द्वापर यज्ञ प्रधान होता है और कलियुग में केवल दान का ही महत्व शेष रह जाता है।” इससे हमको यह तात्पर्य समझना चाहिये कि हम जैसा शुभ या अशुभ कर्म करेंगे वैसा ही युग उपस्थित हो जायेगा। यही कारण है कि एक ही समय में विभिन्न देशों की स्थिति में पृथ्वी आकाश का सा अन्तर दिखाई पड़ता है। एक देश के निवासी लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से दिन पर दिन उन्नति की चोटी पर चढ़ते नजर आते हैं जब कि उसी के मुकाबले में दूसरे देश के निवासियों की स्थिति दिन पर दिन गिरती नजर आती है और वे पतन के गर्त में पहुँच जाते हैं। इस वैषम्य पर विचार करते हुए एक लेखक ने ‘वेदान्त सूत्र’ के आधार पर यह प्रतिपादित किया था कि विभिन्न देशों और राष्ट्रों की अवस्था में यह वैषम्य आकस्मिक अथवा मनमाने ढंग से नहीं होता वरन् यह भी सृष्टि का एक नियम है इस सम्बन्ध में भगवान् व्यास ने चतुर्थ प्रपाठक में अपना मन्तव्य इस प्रकार प्रकट किया है-

द्विधड़ऽसुमन्तः क्रमर्द्धीतर बीजाभ्याम्॥ 10 ॥

भाष्य-द्विधेतिः असुमन्तः प्राणिनः क्रमर्द्धी तर बीजाभ्यो क्रमोन्नति क्रमावनत्योः शक्ति विशेषाभ्याम्।

तत्रयस्य बाहुल्यं भोगभूमौ द्वितीयस्य कर्म भूमौ द्रव्टव्यम्। अत्राच मनुजेषु ये क्रमर्द्धिषीं जिनस्तेषाँ प्रागुन्नतिर नुमीयताँ वियति विहंगानाम वोर्ध्वागामिनाम्।

अर्थात्- मनुष्यों की सृष्टि दो प्रकार की होती है। एक ‘क्रमोन्नति’ वाली और दूसरी ‘क्रमावनति’ वाली, प्रथम प्रकार की क्रम से उन्नति करने वाली प्रजा ‘भोग-भूमि’ (जैसे यूरोप, अमरीका आदि) में पाई जाती है और दूसरी प्रजा ‘कर्म भूमि’ (जैसे भारतवर्ष) में मिलती है। क्रमोन्नति बीज वालों की पहले अवनति और पीछे क्रमशः उन्नति होती जाती है। क्रमावनति बीज वालों की पहले उन्नति और पीछे क्रमशः अवनति होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिन भारतवासियों की अभी अवनति हो रही है उनकी पहले उन्नति हुई थी और जिन विदेशियों की इस समय उन्नति दिखलाई पड़ रही है वे पहले अवनति की दशा में थे। इसका दृष्टान्त इस प्रकार है कि जैसे पक्षी आकाश में उड़ रहे हों तो उनमें से जो पक्षी क्रमशः ऊपर की ओर चढ़ रहा है उनकी उन्नति और जो नीचे उतर रहा हो उसकी अवनति का अनुमान करना चाहिये।

तद्वतार्युगानि व्यस्तैक क्रमाभ्याम्॥11।

भाष्य- तद्वतोरिति न द्वतो क्रमर्द्धी तरबीजतोर्व्यस्तैक क्रमाभ्याँ व्युत्क्रमानुक्रमाभ्याँ युगानि सत्यत्रेता बीजिनाँ कल्यादि सत्यान्ताति क्रमादनति बीजिनाँ तु सत्यादि कल्पन्तानि युगनिवर्त्तन्ते।

अर्थात्- उन दोनों (क्रमोन्नति तथा क्रमावनति बीज वालों) के युग व्युत्क्रम और अनुक्रम दो प्रकार के होते हैं। क्रमावनति वालों के सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि- ये चार युग क्रमशः होते हैं। इसके विपरीत क्रमोन्नति वालों का प्रथम कलियुग होता है फिर क्रम से उन्नति की वृद्धि होते-होते सतयुग की सी उत्तम अवस्था आ जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले भारत में सतयुग की अवस्था थी, जिसका क्रमशः त्रेता, द्वापर, कलियुग के रूप में ह्रास होता गया है। क्रमोन्नति वालों ने आरम्भ में (कलि में) जो थोड़ी उन्नति आरम्भ की वह आगामी युगों में क्रमशः बढ़ती हुई इस समय चरम सीमा पर पहुँच गई। अब उसके पुनः गिरने के लक्षण स्पष्ट हो रहे हैं। इससे अनुमान लगाना भी असंगत नहीं कि अब कर्मभूमि भारत में कलियुग समाप्त होकर पुनः सतयुग की दशा आने वाली है।

इस विवेचन से विदित होता है कि सतयुग और कलियुग ऐसी स्थिति में नहीं है जो अनिवार्य रूप से दस-बीस लाख वर्षों तक बनी रहे। वरन् वे मानव-समाज की उन्नत और अवनत दशाओं की ही सूचक हैं। यदि किसी देश में ऐसी आत्माओं का आविर्भाव हो जाता है जो अपने त्याग-तपस्या, परामर्श-भावना के बल पर समाज को सत्कर्मों की तरफ प्रेरित कर सकें तो वहाँ कलि की दशा के स्थान में सतयुग की दशा दिखाई पड़ना सर्वथा सम्भव है।

एक युग के भीतर दूसरे की अन्तर दशा :-

युग-परिवर्तन के विषय में एक मत यह भी है कि युगों का परिणाम तो पुराणों के लेखानुसार लाखों वर्ष का अवश्य है, पर प्रत्येक युग के भीतर अन्य युग की अन्तर और प्रत्यन्तर दशाएँ आती रहती हैं। मनीषियों का कथन है कि प्रत्येक युग में अन्य युगों का वर्तते रहना प्रकृति का नियम है। सतयुग में भी कलियुग वर्ता था और उस समय के चक्रवर्ती शासक हिरनाकुश ने धर्म और ईश्वर-निष्ठा को नष्ट करने की बड़ी कोशिश की थी। इसी प्रकार कलियुग के बीच में अब सतयुग भी बरतेगा। सृष्टि की दशा अब ऐसी हो गई है कि बिना सतयुग के आये वह ज्यादा दिन स्थिर नहीं रह सकतीं। इस समय मनुष्यों की शक्तियाँ ऐसी होती जा रही हैं कि यदि युग न बदले तो मानव जाति सौ, दो सौ वर्ष में ही नष्ट हो सकती है। पर ऐसा होना परमात्मा को इष्ट नहीं। इसलिये दैवी शक्ति युग-परिवर्तन का टेका (आधार) लगा कर इसकी रक्षा करेगी।

इस प्रकार एक युग में दूसरे युगों की दशा का वर्णन शास्त्रों और पुराणों में स्थान-स्थान पर मिलता है। महाभारत के आदि पर्व में कौरव-पाण्डवों की उत्पत्ति का वर्णन दुष्ट क्षत्रियों का संहार कर दिया तो उनकी स्त्रियाँ पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण में गई। इस प्रकार क्षत्रिय वंश की रक्षा होकर धीरे-धीरे उनकी उन्नति होती चली गई और राज्य व्यवस्था पुनः उनके हाथ में आ गई पर वे लोग धर्म-मार्ग पर चलने वाले थे- उनके सम्बन्ध में आदि पर्व अ॰ 64 में लिखा है-

प्रशासति पुनः क्षत्रे धर्मेणेमाँ वसुन्धराम्।

ब्राह्माद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुद्मुत्तमाम्। 24।

अर्थात्- “जब पुनः क्षत्रिय शासक-धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता हुई।”

एवं कृतयुगे सम्यग् वर्तमाने तदानृप।

आपूर्यंत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिभृशम्॥26॥

अर्थात्- “इस तरह उस समय सब ओर ‘सतयुग‘ छा रहा था। सारी पृथ्वी नाना प्रकार के प्राणियों से खूब भरी-पूरी रहती थी । “

इसी प्रकार जब दुर्योधन का जन्म हुआ तो उसको कलियुग का आविर्भाव माना गया-

कलेरंशस्तु संजज्ञे भुवि दुर्योधन नृपः।

दुर्बुद्धिर्दुर्मतिश्चैव कुरुणामयशस्करः ॥

जगता यस्तु सर्वस्य विद्विष्टः कलिपूरुषः ।

यः सर्वां घातयामासं पृथिवीं पृथिवीपते॥

(आदि ॰ 67, 87, 88)

अर्थात्- “खोटी बुद्धि और दूषित विचार वाले कुरु-कुल- कलंक राजा दुर्योधन के रूप में इस पृथ्वी पर कलियुग का अंश ही प्रकट हुआ था। वह कलि स्वरूप पुरुष सब का द्वेष पात्र था। उसने सारी पृथ्वी के वीरों को लड़वा कर मरवा दिया।”

बृहस्पति का भ्रमण-काल और युगारम्भ :-

उपर्युक्त विवेचन से पाठकों को यह प्रतीत हो गया होगा कि युगों का परिवर्तन वैसा दीर्घकालीन और जटिल नहीं है जैसी कि सर्वसाधारण में धारणा बन गई है। युगों का परिवर्तन अवश्य होता है और लोगों के लिये उन्नति तथा अवनति, खुशहाली और तंगहाली, ज्ञान और अज्ञान के दौर समय-समय पर आया करते हैं। पर इन चारों युगों का परिणाम बारह हजार वर्षों का ही होता है जैसा कि महाभारत, भागवत और विभिन्न पुराणों में बतलाया गया है -

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणाँ तत् कृतं युगम्।

तस्य तावच्छती संध्या संध्याँशश्च तथाविधः॥

त्रीणि वर्ष सहस्राणि त्रेतायुग महोच्यते।

तस्य तावच्छती संध्या संध्याँशश्च ततः परम्॥

तथा वर्ष सहस्त्रे द्वापरे परिमाणतः।

तस्यापि द्विशती संध्या संध्याँशश्च तथा विधः।

सहस्त्रमेकं वर्षाणाँ ततः कलियुग स्मृतम्।

तस्य वर्ष शतं संधि-संध्याँशश्च ततः परम्।

संधि संध्याँशयोस्तुल्यं प्रमाण मुपधारय॥

(वन पर्व 188-22 से 26)

अर्थात्- ‘चार हजार वर्षों का एक सतयुग बताया गया है। उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या और संध्याँश के होते हैं (अर्थात् सतयुग कुल मिलाकर 4000+400+400=4800 वर्ष का होता है। त्रेता तीन हजार वर्षों का होता है और उसकी संध्या तथा संध्याँश तीन तीन सौ वर्ष के होते हैं। इस प्रकार सब मिला कर 3000+300+300=3600 वर्ष का होता है।

द्वापर का मान दो हजार वर्ष का और उसकी संध्या और संध्याँश दो-दो सौ वर्ष की होती है। इस प्रकार यह 2400 वर्ष का होता है। कलियुग एक हजार वर्ष का कहा जाता है और संध्या तथा संध्याँश मिला कर वह बारह सौ वर्ष का हो जाता है।

सतयुग के सब से बड़े ऋषि और वर्तमान मन्वन्तर के आदि पुरुष भगवान् मनु ने भी अपनी स्मृति में यही सिद्धान्त प्रतिपादित किया है-

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणान्तु कृतं युगम्।

तस्य तावद्घृती संध्या संध्याशश्च तथा विधः।

इतरेषु स सन्ध्याँशेषु च त्रिषु।

एक पादे न बर्तन्ते सहस्राणि शतानि च ॥

यदेतत् परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम।

एतद् द्वादश साहस्त्रं देवानाँ युगमुच्यते॥

(अ॰ 1-69 से 71)

अर्थात्- “चार हजार वर्षों का सतयुग कहा है। उसका संध्या तथा संध्याँश भी इसी हिसाब से घटते जाते हैं। अर्थात् त्रेता 3600 वर्ष का, द्वापर 2400 का और कलियुग 1200 का होता है। इन चारों युगों की संख्या मिलकर 12 हजार होती। यह देवताओं के एक युग के समान का होता है।

गणित ज्योतिष द्वारा इस विषय में खोज करने वालों ने इस परिवर्तन का सम्बन्ध बृहस्पति के भ्रमण-काल से बतलाया है। उनका कथन है कि जिस प्रकार पृथ्वी अपनी कक्षा पर सूर्य की एक परिक्रमा 365 दिन में लगाती है उसी प्रकार बृहस्पति को सूर्य की एक परिक्रमा लगाने में 12 वर्ष लगते हैं। इस बीच में वह बारहों राशियों को पार कर लेता है और जब जिस राशि में होता है उसी के गुणों के अनुसार उसकी प्रकाश तरंगें पृथ्वी पर प्रभाव डालती हैं। जिस समय वह सूर्य और चन्द्र के साथ कर्क राशि के मूल नक्षत्रान्त में राशि, कला और अंश के हिसाब से एक हो जाता है, तब कृतयुग आरम्भ होने का समय माना जाता है। यह बात ‘महाभारत’ में युग-दर्शन के साथ ही बतला दी गई है-

ततस्तुमुल संघाते वर्तमाने युग क्षये।

यदाचन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पति।

एकराशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदाकृतम्॥

काल वर्षीन पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानिच॥

प्रदक्षिण ग्रहाणाँच भविष्यन्त्यनुलोमगा।

क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निराँमयम्॥

(वनपर्व 160-88-92)

अर्थात्- “युग-परिवर्तन के अवसर पर बड़े संघर्ष और हलचल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्प नक्षत्र एवं तदनुरूप एक राशि कर्क में पदार्पण करेंगे तब सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ समय पर वर्षा करेगा, नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायेंगे। ग्रह प्रदक्षिणा भाव से अनुकूल गति का आश्रय ले अपने पथ पर अग्रसर होंगे, उस समय सब का मंगल होगा, देश में सुकाल आ जायगा, रोग व्याधि का चिन्ह भी न रहेगा।”

बृहस्पति यद्यपि प्रति बारहवें वर्ष सूर्य, चन्द्र के साथ एक राशि पर आ जाता है, पर इन तीनों के एक साथ पुष्प नक्षत्र में समान अंशों में आने की घटना एक हजार चक्रों (12 हजार वर्षों) के बाद पुनः आती है। उस समय बृहस्पति से आने वाली ज्ञान-विज्ञान की प्रेरक तरंगों की तीव्रता बढ़ जाती है और उसके फलस्वरूप मानव-समाज अपनी अवस्था का सुधार करके वेग पूर्वक प्रगति करने में लग जाता है।

ज्योतिषियों के मतानुसार उपर्युक्त योग सम्वत् 2000 में आ चुका है और उसी समय कलि के 1200 वर्ष समाप्त होकर सत्ययुग की संख्या लग चुकी है, जो उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार चार सौ वर्ष की होगी। यद्यपि हीन मनोवृत्ति के लोगों को इसका अनुभव नहीं होता और वे कलियुग के ही गीत गाते रहते हैं। पर जिन लोगों की आँखें खुली हुई हैं वे प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि इस समय संसार में जो अभूतपूर्व हलचल मची है और सदैव महाभयंकर संग्राम तथा संसार के नाश की सम्भावना समाने खड़ी जान पड़ती है, वह एक मात्र युग-परिवर्तन का ही लक्षण है।

हम आपको यही बतलाना चाहते हैं कि युग परिवर्तन प्रकृति का एक स्वाभाविक नियम है, उसमें जादू या रहस्य जैसी कोई बात नहीं है। जिस प्रकार जाड़े के पीछे गर्मी और उसके बाद बरसात स्वभावतः आ जाती है उसी प्रकार समाज की दशा बहुत दूषित हो जाने पर उसके सुधार का चक्र घूमने लगता है और संघर्ष तथा नाश के अन्य साधनों द्वारा उन दोषों का निराकरण होकर नवीन सुव्यवस्था का आविर्भाव होने लग जाता है। इस परिवर्तन का कुछ नियम भी प्राचीन मनीषियों ने ज्ञात कर लिये थे और उन्हीं के आधार पर चार युगों का सिद्धान्त स्थापित किया है। पर इसका यह आशय कदापि नहीं कि हम पाप कर्मों को अनिवार्य समझ लें और अपनी त्रुटियों या दूषित प्रवृत्तियों के लिये कलियुग को जिम्मेदार ठहरायें। वरन् युग सिद्धान्त का लाभ यह है कि हम समाज की गति-विधि की तरफ से सतर्क रहें और काल प्रभाव से उसमें जो दोष प्रवेश कर उनको दूर करने में प्रयत्न शील रहें।

इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान में कुछ वर्ष संसार के इतिहास में बहुत अधिक महत्व के हैं। कुछ समय से हम दुनिया में पुरानी संस्थाओं, प्रथाओं और परम्पराओं के विरुद्ध जो भावना तीव्र वेग के साथ फैलती देख रहे हैं वह अब चरम-सीमा पर पहुँचने वाली हैं। चीन जैसे देशों में तो इस संघर्ष ने भयंकर तम रूप धारण कर लिया है। और भी अनेक देशों से प्रतिदिन रक्त रंजित क्राँति के समाचार आते ही रहते हैं। परिस्थिति को देखने से यही निश्चय होता है कि अब बहुत शीघ्र यह नाश-लीला दुनिया के एक बड़े भाग को तहस-नहस कर देगी और पुराने युग के शेष कूड़े -कर्कट को बहा कर नये युग की स्थापना कर दी जायेगी।


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