विश्व-व्यापी परिवर्तन

November 1967

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मनुष्य का ज्ञान बहुत परिमित है, उसे बहुत थोड़ी दूर की चीजें दिखाई देती हैं। वह अपने आस-पास जो कुछ देखता है, उसी को सत्य और सब कुछ समझता है। वह ख्याल करता है कि दुनिया इस समय हमको जैसी दिखलाई पड़ रही है वह हमेशा से वैसी ही है और आगे चल कर भी वैसी ही बनी रहेगी। यह बात केवल अशिक्षित या देहाती कहे जाने वाले लोगों की नहीं है, वरन् ज्यादातर पढ़े-लिखे, स्कूल, कालेजों की दो-चार परीक्षायें पास किये लोग भी इसी तरह के होते है। वे भी परिवर्तन-तत्व से अनजान होते हैं और इस कारण प्रचलित नियमों और रीति-रिवाजों में ऐसे लिपटे रहते हैं कि उनको छोड़ने या बदलने की बात सुनकर एकदम चौंक पड़ते हैं और जीवन से उसका विरोध करने लगते हैं। इस समय संसार ऐसे ही मनुष्यों से भरा पड़ा है। योरोप और अमेरिका के निवासी वैसे भारतवासी और एशिया के अन्य देशों के रहने वालों की अपेक्षा भौतिक साधनों में बहुत बढ़े-चढ़े हैं और ठाठ-बाठ और फैशन की जिन्दगी गुजारते हैं, पर वहाँ भी कुछ इने-गिने लोगों को छोड़ कर ज्यादातर लोग मानव-समाज के परिवर्तन के सम्बन्ध में अनजान ही देखने में आते हैं।

परिवर्तन अनिवार्य है :-

पर हम जानते हैं कि परिवर्तन संसार का अटल नियम है और कोई समय ऐसा नहीं होता जबकि वह अपना काम न करता रहता हो। यह सही है कि कभी उसकी गति बहुत धीमी रहती है और सामान्य जनता उसे अनुभव नहीं करती और कभी वह ऐसी सरपट चाल से दौड़ने लगता है कि घोर निद्रा में पड़े हुए भी घबड़ा कर उठ बैठते हैं। अंग्रेजी राज्य के आरम्भ से लगभग सौ साल तक यहाँ के निवासी प्रायः बिना किसी प्रकार की हलचल की अवस्था में पड़े रहे, जिससे उनकी यही धारणा बन गई कि अब दुनिया सदा इसी चाल से चलती रहेगी और हम तथा हमारी संतानें चैन के साथ खाने-कमाने में लगे रह कर जिन्दगी पूरी कर सकेंगे। पर परिवर्तन की शक्तियाँ अपना काम कर रही थीं और सन् 1994 में एक ऐसा धमाका हुआ कि जिसने स्थिति को एकदम बदल दिया। इस भयंकर धक्के के फलस्वरूप जो साम्राज्य सैकड़ों वर्षों से अटल-अचल समझे जाते थे उनकी जड़ हिल गई और कितने ही ऊँचे सिंहासन तथा रत्नजटित मुकुट धरती पर लुढ़कते हुये दिखाई पड़ने लगे। जर्मनी के कैसर और रूस के जार, जो सर्वशक्तिमान समझे जाते थे और जिनका आतंक दूर-दूर तक व्याप्त था, रास्ते के भिखारी की तरह हाथ पकड़ कर एक कोने में बैठा दिये गये।

द्वितीय महायुद्ध ने तो ‘जिसके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता था’ ऐसे ब्रिटिश साम्राज्य को खोखला बना दिया और उसे लाचार होकर भारतवर्ष और अन्य कितने ही देशों को स्वतन्त्र कर देना पड़ा। इसी परिवर्तन की लहर ने हिटलर जैसी नाचीज-हस्ती को संसार का सबसे प्रबल व्यक्ति बना दिया, जिसके सम्मुख एक बार समस्त संसार थर्रा गया और जो सभी प्रमुख देशों की सम्मिलित शक्ति को दबा कर कुछ समय के लिये समस्त योरोप का कर्ता-धर्ता बन गया। यह परिवर्तन का ही चमत्कार है कि जो चीन चालीस-पचास वर्ष पहले ‘अफीमची’ के नाम से दुरदुराया जाता था और पच्चीस वर्ष पहले जो जापानियों के सामने पदावनत हो रहा था आज सारे संसार को चुनौती दे रहा है और हर एक देश से लड़ने को तैयार हो रहा है। कुछ ही महीने पहले पच्चीस लाख की आबादी के- भारतवर्ष के एक जिले के बराबर वाले- इसराइल देश ने, जिसकी नींव रखे 20 वर्ष भी नहीं हुये- मिश्र, ईराक, सीरिया, अल्जीरिया जैसे 10 करोड़ की आबादी वाले देशों को चार-पाँच दिन के भीतर चारों खाने चित्त पछाड़ दिया, यह भी नये युग के आगमन का एक आश्चर्यजनक चिन्ह ही समझा जायगा।

बीसवीं शताब्दी की विशेषता :-

पर यदि गम्भीर रूप से विचार किया जाय तो इसमें आश्चर्य की कोई बात भी नहीं है। इतिहास और भावी परिवर्तनों के जानकारों की दृष्टि में बीसवीं शताब्दी में दुनिया की कायापलट होने का समय ही है। इसके आरंभिक काल से ही शिक्षा, धर्म, विज्ञान, राजनीति समाज आदि सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। इस शताब्दी में हवाई जहाज, रेडियो, टेलीविजन आदि के आविष्कार हुये जिनसे संसार की दशा में बहुत अन्तर पड़ गया । इसी सदी में स्त्रियों की समानता का आन्दोलन उठा जिसने सामाजिक दशा में एक नया मोड़ ला दिया। इसी सदी में मजदूर आन्दोलन ने जोर पकड़ा और रूस की श्रमजीवी राज्य-क्रान्ति हुई जिसने राजनैतिक क्षेत्र में एक नये युग का श्रीगणेश कर दिया।

यह आने वाला नया संसार कैसा होगा इसके सम्बन्ध में अब तक सैकड़ों विद्वान मस्तिष्क लड़ा चुके हैं। हरएक उसे अपने विचारों के मुताबिक रूप देता है। उनमें से थोड़ी-थोड़ी बातें सभी की सच होंगी, पर एक बात निश्चित है कि आगामी युग अध्यात्म-प्रधान होगा। वर्तमान समय में सैकड़ों प्रकार की नई-नई उन्नतियाँ होने पर भी एक बड़ी कमी आध्यात्मिक भावना का अभाव है। यद्यपि लोगों ने अणु को वश में कर लिया और चन्द्रमा तक जा पहुँचे, पर अन्य मनुष्यों को अपनी ही तरह एक आत्मा से युक्त-परमात्मा का एक अंश समझने की भावना पैदा नहीं हुई। इसी कमी के फल से विद्या, ज्ञान, विज्ञान की समस्त प्रगति के होने पर भी उसका उपयोग नाश, स्वार्थपरता के लिये हो रहा है, जिससे यह जगत सुखी बनने की बजाय उल्टा आपत्तियों का आगार बनता जाता है। यह सब दुष्परिणाम भौतिकवाद, स्वार्थवाद की अधिकता का ही है। यदि मनुष्य अपने लाभ के साथ दूसरों के कल्याण की भी अभिलाषा रखता, तो आज संसार की दशा स्वर्ग से भी बढ़ कर सुखद शाँतिदायक होने से कुछ भी सन्देह न था।

नये युग का धर्म -अध्यात्म-

जो लोग अध्यात्म का अर्थ केवल पूजा पाठ, कथा वार्ता, उपवास-व्रत, तीर्थयात्रा, कर्मकाण्ड आदि को समझते हैं वे गलती पर हैं। ये बातें अध्यात्म-भावना उत्पन्न करने में सहायक हो सकती हैं, पर इनको स्वयं अध्यात्म नहीं कहा जा सकता। अध्यात्म तो तभी समझा जा सकता है जब मनुष्य में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मनोवृत्ति उत्पन्न हो जाय और वह तदनुसार व्यवहार करने लगे। अध्यात्म को जानने और मानने वाला व्यक्ति कभी स्वार्थवादी नहीं हो सकता। वह प्रत्येक स्थिति में दूसरे व्यक्तियों और समाज के हित, कल्याण, सुख-सुविधा का ख्याल रखेगा, क्योंकि उसे अपने में और दूसरे व्यक्तियों में कुछ अन्तर ज्ञात नहीं होता। ऐसे लोगों की जिस समाज या देश में बहुतायत होगी वह कभी दुःखी या अधःपतित नहीं हो सकता, चाहे उसके साधन अधिक हों या अल्प। सुख-दुःख, शान्ति-अशान्ति, सहयोग फूट आदि बातों का आधार सामग्री की बहुतायत अथवा कमी नहीं वरन् अध्यात्म-भावना की न्यूनाधिकता ही है। उदाहरण के लिये योरोप, अमेरिका के प्रगतिशील देशों की स्थिति सामने है। वे लोग विद्या, कला, विज्ञान तथा धन में बहुत आगे बढ़े हुये हैं, वहाँ के गरीब और मजदूर कहलाने वाले भी अन्य देशों के मध्यवर्गीय लोगों की तरह रहते हैं, पर तो भी सबसे अधिक अशान्ति, संघर्ष, आपाधापी वहीं पर देखने में आती है। वे ही नाश के एक से बढ़ कर एक साधन और यंत्र तैयार करके मानव-सभ्यता के नाश होने का खतरा पैदा कर रहे हैं। वे ही जातीय द्वेष और वर्ग-संघर्ष को बढ़ाकर अशान्ति की वृद्धि के कारण बने हुये हैं।

सतयुग का सच्चा स्वरूप :-

हम लोग सदा ‘सतयुग‘, ‘कलियुग‘ आदि का नाम किया करते हैं, पुण्यकर्मों में सतयुग का और पाप रूप कार्यों में कलियुग का आरोपण किया करते हैं। यह ठीक है पर सतयुग का वास्तविक रूप यही है कि उस समय मनुष्यों में अध्यात्म भावना की प्रधानता रहती है और इसलिये मनुष्य एक दूसरे के साथ सद्व्यवहार ही करते हैं। जहाँ मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्ध सत्य, न्याय, सहानुभूति, उदारता पर आधारित होंगे वहाँ चाहे साधन-सामग्री की कमी भी हो तो भी दुःख, क्लेश, आधि-व्याधि का अस्तित्व नहीं रह सकता। ऐसी सतयुग की स्थिति का वर्णन ‘महाभारत’ (वन पर्व अ॰ 149) में हनुमान और भीम के संवाद में मिलता है। उसमें कहा गया है-

कृते नाम युगे तात यत्र धर्मः सनातनः।

कृतमेव न कर्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे॥

“कृतयुग में सनातन धर्म की पूर्ण स्थिति रहती है। उसका नाम कृतयुग इसीलिये पड़ा कि उस उत्तम युग के लोग अपना सब कर्त्तव्य कर्म स्वयं सम्पन्न कर लेते हैं।”

न विग्रहः कुतस्तन्द्री न द्वेषो न च पैशुनम्।

न भये नापि संतापो न चेर्ष्या न च मत्सरः॥

“कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं होता, कोई आलसी भी नहीं रहता द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और मत्सर आदि दोष भी दिखाई नहीं पड़ते।”

न साम ऋग्यजुर्वर्णां क्रिया नासीच्च मानवी।

अभिध्याय फलं तत्र धर्म संन्यास एव च॥

“उस समय साम, ऋक्, यजुः आदि का पृथक-पृथक विभाग नहीं होता अर्थात् सब लोगों के ज्ञान में एक समानता रहती है, मनुष्य एक मत होकर कार्य करते हैं, एक सा विचार रखते हैं और सब एक दूसरे के लिये स्वार्थ त्याग करते रहते हैं।

न तस्मिन् युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षयः।

नासूया नापि रुदितं न दर्पो नापि वैकृतम्॥

“इसलिये उस युग में न तो किसी प्रकार की बीमारी होती है, न इन्द्रियों में क्षीणता आने पाती है। न कोई किसी का दोष-दर्शन करता था, न कोई रोता रहता था, न किसी में घमंड था और न कोई अन्य प्रकार का विकार पाया जाता था।”

यह समाज की उसी स्थिति का चित्र है जब लोग अपनी और संसार की वास्तविकता को अनुभव करके पारस्परिक भेदभाव को त्याग दे और पूर्णरूप से सहयोग तथा आत्मीयता की भावना रख कर अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करें। उस समय लोगों के ज्ञान, कर्म, व्यवहार में ऐसा कोई अन्तर नहीं होता जिससे पारस्परिक मतभेद और विरोध की उत्पत्ति हो। आज धर्म का इतना होहल्ला हो जाने पर और धार्मिक ग्रन्थों का पहाड़ खड़ा हो जाने पर भी लोगों में घृणा, द्वेष और शत्रुता की भरमार देखने में आती है, पर सतयुग में एक भी धर्म ग्रन्थ न होने पर और न धर्म के नाम पर किसी प्रकार की बाहरी धूमधाम, प्रदर्शन होने, पर सब लोग उसके मूल तत्वों को समझने वाले और तदनुसार आचरण करने वाले होंगे, जिससे मानव-समाज निरन्तर प्रगति ही करता जायगा और उसमें अकारण विरोध, प्रतिस्पर्धा, शत्रुता की भावना का नाम भी सुनने में न आयेगा। ‘महाभारत’ में ही एक अन्य स्थान (शाँति पर्व 169) भीष्मपितामह ने राजा या समाज के नेताओं की रीति-नीति और न्याय व्यवस्था को ही समाज के सुधार और सतयुगीन होने का मुख्य आधार बतलाया है। जब देश की सामान्य जनता अपने प्रमुख व्यक्तियों से प्रेरणा ग्रहण करके सद्मार्ग पर चलती है, सदाचरण का पूरा-पूरा ध्यान रखती है तो संसार में से स्वयं ही पापों का लोप होकर सर्वत्र सत्य और न्याय का साम्राज्य दृष्टिगोचर होने लगता है-

ततः कृतयुगे धर्मो नाधर्मो विद्यते क्वचित।

सर्वेषामेव वर्णानाँ नाधर्मे रमते मनः॥

“उस सतयुग में धर्म ही रहता है, अधर्म का कहीं चिन्ह भी दिखाई नहीं देता तथा किसी भी वर्ण की अधर्म में रुचि नहीं रहती।”

योगक्षेमाः प्रवर्तन्ते प्रजानाँ नात्र संशयः।

वैदिकानि च सर्वांणि भवन्त्यपि गुणान्युतः॥

“उस समय प्रजा के योगक्षेम स्वतः सिद्ध होते रहते हैं, तथा सर्वत्र वेदानुकूल गुणों का विस्तार हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं।”

व्याधयो न भवन्त्यत्र नाल्पयुर्द्दश्यते नरः।

विधवा न भवन्त्यत्र कृपाणो न तु जायते॥

“जगत में उस समय रोग नहीं होते, कोई भी मनुष्य अल्पायु नहीं होता, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती तथा कोई भी मनुष्य दीन दुःखी नहीं होता है।”

अकृष्टपच्या पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा।

त्वक्पत्रफलमुलानि वीर्यवन्ति भवन्ति च॥

“पृथ्वी पर बिना जोते-बोये ही खाद्य पदार्थ तथा अन्य वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, उनकी छाल, पत्ते, फल और मूल सभी शक्तिशाली होते हैं।”

संसार में बीच-बीच में सतयुग की अवस्था आने और उस समय आदर्श मानव-समाज का दृश्य दिखाई पड़ने का वर्णन प्राचीन धर्मग्रन्थों में ही नहीं मिलता वरन् वर्तमान समय में ही छोटे बड़े सभी धर्म-प्रचारक और अध्यात्म ज्ञाता वर्तमान स्थिति को शीघ्र ही किसी आदर्श युग के आगमन का चिन्ह मान रहे हैं। उन लोगों ने इस सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिनमें मानव मात्र को विरोध, शत्रुता अथवा पार्थक्य की मनोवृत्ति त्याग कर एक पिता के पुत्रों-एक माता से उत्पन्न भाइयों की तरह रहने तथा व्यवहार करने का उपदेश दिया है। बंगाल की ‘अरुणाचल मिशन’ नामक संस्था की स्थापना करने वाले ठाकुर दयानन्द ने अपने एक उपदेश में कहा था-

“आगामी युग में यह पृथ्वी मानवों की नहीं ईश्वर की होगी। इसे ईश्वर का उत्तराधिकार समझ कर ही रखना होगा। सारी दुनिया एक पूर्ण वस्तु की तरह सारे मानव-समाज को दे दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति पिता के घर में उसकी सम्पूर्ण जागीर (विश्व) का सम्मिलित उत्तराधिकारी और जिम्मेदार है। इस तरह का विश्व की सम्पत्ति को एक वर्ग दूसरे लोगों को वंचित रख कर, नहीं हड़प सकता । तब इस तरह एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का, एक जाति द्वारा दूसरी जाति का, एक देश द्वारा दूसरे देश का शोषण नहीं होगा। पिता ने जो दिया है उसका प्रत्येक व्यक्ति को यथार्थ आवश्यकतानुसार वितरण हो जाना चाहिये।

“संसार के सभी देश, संसार के सभी लोग एक संघ में संगठित हो जायेंगे। प्रत्येक देश उस संघ का समान और स्वतन्त्र इकाई (यूनिट) होगा। प्रत्येक इकाई स्वतन्त्र व्यक्तियों का संघ होगा जो समान अधिकार, स्वतन्त्रता और सुविधाओं का उपभोग करेंगे तथा जिनमें किसी प्रकार का कोई विभेद नहीं होगा।

“इकाई-संघ (यूनिट यूनियन) का प्रधान उत्तरदायित्व प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इकाई-संघ से अपने जीवन की आवश्यक चीजें, अपने अधिकार से ही प्राप्त कर सकता है। इसके बदले इकाई संघ प्रत्येक व्यक्ति से उसके द्वारा की जा सकने वाली उच्चतम सेवा प्राप्त करेगा।”

इसी प्रकार ‘बहाई’ समाज के संस्थापक महात्मा बहा और उनके उत्तराधिकारियों ने पिछले सौ वर्षों में लगातार यह प्रयत्न किया है कि पृथ्वी के सब निवासी पारस्परिक मतभेदों और लड़ाई-झगड़े के कारणों को त्याग कर एक विश्व-समाज, विश्व-राज्य की स्थापना करें और उसके अनुशासन में सब अत्यन्त प्रेमपूर्वक रहने लगें। इन उपदेशों का साराँश ‘सतयुग‘ (मासिक -पत्र) के एक लेख में इस प्रकार दिया गया था-

“संसार में इस समय जो भयंकर परिवर्तन, अव्यवस्था दिखाई पड़ रही है, उससे चिन्तित नहीं होना चाहिये। संसार इस समय एक पुराने युग को छोड़ कर नये युग में प्रवेश कर रहा है, इसलिये ऐसी क्राँति होना अनिवार्य ही है। क्रान्ति और अव्यवस्था युग-परिवर्तन की निशानी होती है। जब एक युग मृत्यु के मुख में विलीन होने लगता है और नया युग कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है तो दोनों में तुमुल संघर्ष होना स्वाभाविक ही है। शोगी एफेराडी लिखता है-

“प्राचीन काल में जितने भी धर्म प्रवर्तक हो गये हैं, उन्होंने समय-समय पर एक ही दिव्य-ज्योति का प्रकाश प्रसारित किया है। उन सभी ने उस महान् दिवस के आगमन के मार्ग को प्रशस्त बनाया है, जिस दिन यह संसार पवित्र हो जायगा और मानवता अपना फल प्राप्त करेगी।

“बहाई संस्था का सिद्धान्त ईश्वर और उसके विभिन्न पैगम्बरों- प्रचारकों में एकता स्थापित करना है। इसके अनुसार मनुष्य का कर्त्तव्य है कि बिना किसी बन्धन के सत्य की खोज करे, सब प्रकार के अन्ध-विश्वासों और दुराग्रह से दूर रहे और यह विश्वास रखे कि धर्म का वास्तविक उद्देश्य सब मनुष्यों में एकता और प्रेम के भाव की वृद्धि और उसका एक मात्र लक्ष्य एक शान्तिपूर्ण, नियमबद्ध और उन्नतिशील समाज की स्थापना होनी चाहिये। यह पुरुष और स्त्री दोनों के लिये समान अवसर, समान अधिकार और समान सुविधाओं का प्रतिपादन करता है। यह अनिवार्य शिक्षा का समर्थन करता है, अमीरी और गरीबी के अत्यधिक अन्तर को मिटाना चाहता है, सेवा की भावना से किये गये काम की महिमा को सबसे अधिक मानता है और उसी को ईश्वर की सच्ची पूजा समझता है यह संसार भर में स्थायी रूप से शान्ति स्थापित करने की आवश्यकता स्वीकार करता है।”

महात्मा बहा के उपदेशों में किसी खास मजहब के प्रति पक्षपात की कोई झलक नहीं होती थी और उन्होंने सदैव उन्हीं बातों की प्रेरणा दी जिनका समावेश मानव-धर्म में होता है। इसी का प्रभाव है कि आज से पचास वर्ष पूर्व भी उनका प्रचार अमरीका जैसे दूरवर्ती स्थान में हो गया था। उस समय भी हमने उनके जिन सिद्धान्तों को पढ़ा था और एक लेख के रूप में ‘ललिता’ मासिक पत्रिका (सन् 1918) में प्रकाशित कराया था, उसकी बातें भारतीय धर्म के ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू’ सिद्धान्त पर ही आधारित है। उनका साराँश यहाँ दिया जाता है-

हे संसार के मनुष्यों। ईश्वरीय धर्म, प्रेम और एकता के लिये है। उसे फूट और कलह का कारण मत बनाओ।

हे संसार के मनुष्यों। एकता का झण्डा खड़ा कर दिया गया है। एक दूसरे को विदेशीपन की आँखों से मत देखो।

हे ईश्वर के पुत्रों। प्रथम उपदेश यह है कि तुम एक भले, स्वच्छ, प्रकाशयुक्त हृदय के अधिकारी बनो।

हे मनुष्य के पुत्र। मैंने तुझे प्रकाश के पेड़ से पवित्रतम फल लेने की आज्ञा दी है। तू उसका तिरस्कार करके तुच्छ वस्तुओं से सन्तुष्ट क्यों होता है।

सब का मूल ईश्वरीय ज्ञान है। इसी को प्राप्त करना प्रशंसनीय है।

ये उपदेश महात्मा बहा ने संसार में शान्ति, प्रेम, भ्रातृभाव की स्थापना हो, इसी भावना से दिये थे और इसके लिये सब प्रकार के कष्ट सहन करके अपनी सच्चाई का उदाहरण भी उपस्थित किया था। इस प्रकार के धार्मिक स्वातंत्र्य और निष्पक्ष विचारों के कारण उनके अनुयाइयों पर भी अकथनीय अत्याचार हुये और ईरान में ही बीस-तीस हजार व्यक्तियों को क्रूरतापूर्वक मार डाला गया। इसी का परिणाम है कि ईरान के तत्कालीन शासकों का वंशोच्छेद हो गया और बहाई धर्म सब लोगों की दृष्टि में सत्य, न्याय, समता का प्रचारक और सम्माननीय बन गया।

संसार का उद्धार योगी करेंगे :-

आधुनिक समय में भारतवर्ष में जो योग-सिद्ध पुरुष राजनीति और संसार की गतिविधियों के पूर्ण जानकार हुये हैं उनमें श्री अरविन्द का स्थान सर्वोच्च है। प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार के ज्ञान का उनमें अपूर्व समन्वय हुआ था। विदेशों में उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त करके वे भारतीय अध्यात्म की ओर आकर्षित हुये और इस सम्बन्ध में इतना काम कर गये कि उनका देहावसान हो जाने के बाद भी लोग उनके उपदेशों से प्रेरणा लेकर योग और अध्यात्म के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। नीचे दिये गये उद्धरण में उन्होंने जहाँ ‘योगी’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका आशय अध्यात्म-तत्व के अनुसार जीवन यापन करने वाले व्यक्ति से ही है। श्री अरविन्द ने, जिनको कुछ अंशों में दिव्य दृष्टि भी प्राप्त थी, अध्यात्म को ही दुनिया मुख्य धर्म और कर्त्तव्य कर्म बतलाया है। उनके एक लेख में जिसका शीर्षक था ‘संसार का उद्धार योगी करेंगे’ और जो जुलाई 1941 में ‘सतयुग‘ में प्रकाशित हुआ था, उन्होंने कहा था -

“इस समय भारत का सबसे बड़ा काम यही है कि वह पूर्ण-योगी मनुष्यों को पैदा करे। इस समय संसार का भविष्य उन्हीं पूर्ण योगियों पर निर्भर है। भविष्य में भारत को जिस विपुल विराट कर्म का भार अपने ऊपर लेकर खड़ा होना पड़ेगा उसकी सूचना स्वरूप सारे संसार में एक विचित्र विकास का होना आरम्भ हो गया है। आगामी तीस-चालीस वर्ष के भीतर संसार में एक विचित्र, पवित्र परिवर्तन होगा, सारी बातों में ही उलट फेर हो जायगा। उसके बाद जो नवीन जगत तैयार होगा उसमें भारत की सभ्यता ही संसार की सभ्यता होगी। भावी भारत का काम केवल अपने ही लिये नहीं है वरन् समग्र संसार के लिये है। अतएव अब भारत को उन्हीं पूर्ण योगी मनुष्यों की तैयारी में लगाना चाहिये जो इतने गुरुतर भार को सम्भाल सकने में समर्थ हों। योगियों के लिये सब कुछ सम्भव है। शिक्षा, समाज, राजनीति, शिल्प और वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों में योगियों की अपूर्व प्रतिभा एक विचित्र सृष्टि तैयार कर सकती है, यह निश्चय है। इस समय योगियों द्वारा ही संसार में एक नवीन परिवर्तन भगवान् करना चाहते हैं। पूर्ण योगी पुरुषों द्वारा जो कर्म तैयार होगा वही भावी जगत का सच्चा आधार होगा। बुद्धिजीवी या हृदयजीवी मनुष्य, चाहे वे कितने ही बड़े नेता अथवा कार्यकर्ता क्यों नहीं इस कार्य का भार नहीं सम्भाल सकेंगे। पूर्ण योगियों को पैदा किये बिना कभी भी कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। आज उसी की साधना भी चल रहा है।

विश्व की संचालन शक्ति -

महर्षि रमण का आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत ऊँचा स्थान था। देश और विदेशों के जिज्ञासु उनके ऊँचे अरुणाचल पर्वत के छोटे से आश्रम में पहुँच कर आत्मोन्नति के सम्बन्ध में मार्ग दर्शन ग्रहण किया करते थे। महर्षि कभी साँसारिक बातों की तरफ ध्यान नहीं देते थे और ऐसा प्रसंग छेड़े जाने पर भी वर्तमान घटनाओं पर भली या बुरी सम्मति नहीं प्रकट करते थे। जब ‘पाल ब्रंटन’ नामक प्रसिद्ध अंग्रेज अध्यात्मवादी लेखक ने साहस करके उनसे प्रश्न किया कि “क्या महर्षि कृपा करके संसार के भविष्य के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करेंगे, क्योंकि हम लोग बड़े संकट पूर्ण समय में होकर गुजर रहे हैं” तो उन्होंने कहा-

“तुम भविष्य की चिन्ता क्यों करते हो? तुमको तो वर्तमान समय का हाल भी ठीक तरह मालूम नहीं है। तुम वर्तमान समय को सम्भालो भविष्य अपने आप ही ठीक बन जायगा।”

यह उत्तर पाल ब्रंटन के लिये एक फटकार की तरह था। पर वह विदेशी अखबारों का ‘संवाददाता’ सहज में चुप होने वाला नहीं था। उसने कुछ घुमाकर फिर पूछा- “क्या संसार में पारस्परिक मित्रता और सहयोग का युग शीघ्र आरम्भ होगा? अथवा वर्तमान दुनिया आपस में लड़-झगड़ कर अंधकार के गर्त में जा गिरेगी?”

महर्षि को ऐसा प्रश्न पसन्द नहीं आया, तो भी उन्होंने कहा- “इस संसार पर एक महान् शक्ति शासन करती है और यह उसका काम है कि वह उसकी देखभाल करे। वह, जिसने कि इस संसार को जीवन प्रदान किया है, इस बात को अच्छी तरह जानता है कि इसे किस तरह पालना चाहिये। इस संसार का भार उसी के ऊपर है, तुम्हारे ऊपर नहीं।”

पाल ब्रंटन फिर भी हठ करता रहा और उसने कहा कि संसार की दशा इस समय जैसी कठिन होती जा रही है, उससे यह प्रकट नहीं होता कि वह विश्व-संचालक इस संसार के हित का कुछ विशेष ध्यान रखता है। पर महर्षि ने इसके सिवा कुछ नहीं कहा कि “जैसे तुम हो वैसा ही संसार भी है। अगर तुम अपने को नहीं समझ सकते तो संसार को समझने से क्या लाभ हो सकता है?” उनका आशय यही था कि जब संसार के मनुष्य स्वार्थ-साधन में ही संलग्न है और लाखों उपदेश सुनकर भी सत्य-मार्ग पर नहीं आते तो विश्व -संचालक शक्ति कर्मों का यथोचित फल देकर ही उनको सही रास्ते पर लायेगी।

नव-युग का मार्ग संकटों में होकर ही है -

मेहर बाबा भारतवर्ष में ही नहीं संसार के कितने ही देशों में अपने अध्यात्म और योग सम्बन्धी ज्ञान के लिये प्रसिद्ध हैं। वे चालीस वर्ष से अधिक समय से मौन रहते हैं और कहते हैं कि संसार के उद्धार का समय आ जायगा तभी मेरा मौन भंग होगा। अन्य अनेक सन्तों की तरह उनके अनुयायी और शिष्य भी उनको ‘अवतार’ की पदवी से विभूषित करते हैं। इस सम्बन्ध में तो हम कुछ कहना नहीं चाहते, क्योंकि जो संसार का पथ प्रदर्शक होगा दुनिया स्वयं ही उसकी तरह खिंच जायगी, पर मेहर बाबा ने आने वाले विश्व-संकट और नव-युग पर जो स्पष्ट विचार प्रकट किये हैं, वे अवश्य विचारणीय हैं-

“विश्व का तूफान जो कई दिनों से घुट रहा था, अब मानों फट कर बाहर निकल रहा है, और वह अन्तिम सीमा पर पहुँचते ही विश्वव्यापी दुर्घटना में परिणत होगा। भौतिक सुख की खींचातानी ने मनुष्यों को स्वार्थान्ध बना कर पारस्परिक विरोध की झड़का दिया है।

“इस समय संसार अंधकार और प्रकाश की महान् शक्तियों के संग्राम का अनुभव कर रहा है। एक ओर स्वार्थी मनुष्य है जो सुख और अधिकार प्राप्ति की पाशविक इच्छाओं की पूर्ति के लिये बेलगाम लालच और बेजोड़ द्वेष लिये अन्धे की तरह आगे बढ़ रहा है। कर्त्तव्य के अज्ञान से आदमी सभ्यता के नीच-तम स्तर तक पहुँच गया है। स्वार्थ और अज्ञान के बन्धनों में बँधे हुये लोग अपने दैवी ध्येय को भूल गये हैं। दूसरी ओर थोड़े ऐसे लोग भी हैं जो सहनशीलता, वीरता और स्वार्थ त्याग से अपनी शिवात्मा को प्रकट करते हैं।

“आज के दुःखदायी संघर्ष और उससे उत्पन्न होने वाले कष्टों से जिस नवीन मानवता का निर्माण होगा, उसमें भौतिक ज्ञान और उससे निर्मित व्यवहारोपयोगी साधनों को तुच्छ नहीं माना जायगा। भौतिक ज्ञान को अध्यात्म विरोधी मानना गलती है। भलाई और बुराई का आधार तो उस भौतिक ज्ञान के उपयोग करने के ढंग पर निर्भर है। जिस प्रकार कला के उचित प्रयोग से अध्यात्म-जीवन प्रकट होता है उसी प्रकार भौतिक शास्त्र का यही उपयोग भी अध्यात्म जीवन को प्रकट करने में सहायक हो सकता है। अब वह समय बहुत समीप आ गया है जब मनुष्य इस तथ्य को समझ कर दैवी मार्ग पर चलने की कोशिश करेंगे और संसार में एक नये युग का प्रकाश दिखाई पड़ने लगेगा।”

अध्यात्म जगत् के इन महामानवों और योग-सृष्टि से तीनों काल की घटनाओं को समझ सकने वाले मनीषियों ने जो कुछ कहा है, उससे महाभारत, मनुस्मृति, भागवत् आदि द्वारा प्रकट किये गये युग परिवर्तन के सिद्धान्त का पूर्णतः समर्थन होता है। यद्यपि युगों की गणना जैसे साधन और श्रमसाध्य विषय में सौ-पचास साल का अन्तर हो जाना असम्भव नहीं है, पर हम अभी तक उसी निर्णय को तर्कसंगत मानते हैं, जो सन् 1939 में हमने ‘सतयुग‘ के प्रथम अंक में प्रकाशित किया था। उसमें महाभारत और भागवत के ‘यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तथा तिष्य बृहस्पती’ वाले श्लोक के आधार पर (1 अगस्त 1943) को कलियुग-सतयुग की संधि का प्रथम दिवस माना गया था। हमने उसी समय लिख दिया था कि “इस समय युग परिवर्तन का मुहूर्त अवश्य हो गया है, पर सब लोगों को उसका अनुभव होने लगे इसमें 30-40 वर्ष अवश्य लग जायेंगे, क्योंकि मानव जाति के विकास का एक-एक ‘स्टेज’ सैकड़ों, हजारों वर्ष में पूरा होता है और धीरे-धीरे ही प्रकट होता है। इतना ही नहीं युग-परिवर्तन के ठीक अवसर पर तो तरह-तरह की हलचलों और विभिन्न दलों के झगड़ों के कारण परिस्थिति ऐसी संकटपूर्ण हो जाती है कि सुधार के बजाय उलटा बिगाड़ नजर आता है। तो भी युग- परिवर्तनकारी दैवी शक्तियाँ धीरे-धीरे अपना काम करती रहती हैं और अन्त में पुराने युग के बजाय नये युग की परिस्थितियाँ अपना स्थान ग्रहण कर लेती हैं।”

जुलाई के अंक में हमने बाइबिल, कुरान, ज्योतिषाचार्य केरो, नोस्टरडम आदि अनेक महापुरुषों द्वारा प्रकट किये गये जो भविष्य-कथन प्रकाशित किये थे, उनमें भी नया युग आने के सम्बन्ध में यही बातें कही गई हैं। वर्तमान समय में संसार में जो घोर अशांति फैली हुई है और हरएक देश लड़ाई के लिये नये से नये और भयंकर से भयंकर हथियार बनाने में अपना सर्वस्व झोंके दे रहा है उससे किसी बड़े संसार-संकट के आने और उसके द्वारा दुनिया की कायापलट होकर नये युग का प्रभाव भली प्रकार जमने लग जाने पर साधारण जन समुदाय भी उसे अनुभव करने लगेगा। ऐसा महान् परिवर्तन हजारों वर्षों में एक बार दिखाई पड़ता है और उस तरह के संकट भी संसार के ऊपर कभी-कभी ही आते हैं। इसलिये अपना तथा समाज का हित और कल्याण चाहने वाले सभी व्यक्तियों का कर्त्तव्य है कि वे धर्म, नीति, न्याय के नियमों पर इस प्रकार दृढ़ रहें कि जिससे आगामी दुर्घटनाओं का प्रभाव उन पर कम से कम पड़े और समाज की रक्षा तथा युग के युग निर्माण में भी वे अधिक से अधिक सहायक हो सकें।


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