युग परिवर्तन की घड़ियाँ निकट आती चली जा रही हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य और ध्रुव सत्य है कि जिस घुटन भरे युग में हमें आज दिन गुजारने पड़ रहे हैं वह अधिक समय टिका नहीं रह सकता, यदि टिका रहे तो संसार को- मानव-समाज को- आज जिन कष्ट-कठिनाइयों से भरे नर्क में समय काटना पड़ रहा है, उससे भी हजारों गुनी लोमहर्षक विभीषिकाएं उपस्थित होंगी और उस रौरवीय दावानल में मानव-जाति के हर सदस्य को तिल-तिल करके जल मरना होगा। भगवान अपनी परम प्रिय रचना इस भूलोक को और अपने परम प्रिय मनुष्य को इस सीमा तक दुर्दशाग्रस्त नहीं होने देना चाहते, वे इसका सर्वनाश नहीं देखना चाहते इसलिए वे समय रहते परिस्थितियाँ उत्पन्न करने जा रहे हैं जिससे यह सम्भावना भयावह सर्वग्राही रुप धारण करने से पूर्व ही सरल हो जाय।
जुलाई की ‘अखण्ड ज्योति’ में तत्वदर्शियों, समाज-शास्त्रियों और सूक्ष्म दृष्टाओं की महत्वपूर्ण अनुभूतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। उन्हें किसी साधारण ज्योतिषी की अटकल या भविष्यवाणी नहीं समझा जाना चाहिए। वे अगले दिनों घटित होने वाली सुनिश्चित सम्भावनाएं हैं, जिन्हें हम एक-एक करके मूर्तिमान होते हुए यथा समय देखते चले जायेंगे। पिछले दिनों जिस कुमार्ग पर मनुष्य जाति चलती रही है उसके दुष्परिणाम क्रमशः अधिक परिपक्व होते चले आये हैं और अब वह स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसे आगे भी देर तक चलने दिया जा सकना असम्भव हो गया है। इस स्थिति का आमूलचूल परिवर्तन हुए बिना और कोई रास्ता अब रहा नहीं। दो ही विकल्प हैं- एक
सर्वनाश दूसरा परिवर्तन। परिवर्तन के लिए यदि हम तत्पर नहीं होते तो फिर सर्वनाश के लिए ही तैयार होना पड़ेगा। सर्वनाश से बचना है तो परिवर्तन का स्वागत करना होगा। बीच का कोई रास्ता नहीं।
जुलाई अंक में प्रस्तुत भावी सम्भावनाओं का जो रेखाचित्र प्रस्तुत किया गया है उस पर बारीकी से दृष्टिपात करने के उपरान्त यही निष्कर्ष निकलता है कि अगले दिनों दुनिया दो भागों में बंट जायगी, जिनमें एक उदार होगा दूसरा अनुदार। एक विवेकवान वर्ग होगा दूसरा मूढ़ताग्रस्त। एक को देव कहा जायगा, दूसरे को दानव। मूढ़ताग्रस्त लोगों ने अपनी बुरी आदतों, दुष्प्रवृत्तियों और संकीर्णताओं से ग्रस्त होने के कारण सारे संसार को नरक तथा देवोपम मानव जाति को नर-पिशाचों के रूप में परिणत कर दिया है। उसमें वे कुछ भी बुराई अनुभव न करेंगे और न उसे बदलना चाहेंगे। पुराने ढर्रे पर चलते रहने का उनका आग्रह होगा। समय के अनुरूप बदलना उन्हें रुचेगा नहीं। इतना ही नहीं वे परिवर्तन का विरोध करेंगे और मरते समय पंख उगने वाले चींटे की तरह प्रतिरोध की उछल-कूद भी तीव्र कर देंगे। इस समुदाय को उसी वर्ग में गिना जा सकता है, जिसके बारे में गीता के 11 वे अध्याय में अर्जुन ने कहा था।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दष्ट्रा करालानि भयानकानि।
केचिद्वलग्ना दशानान्तरेषु
संदृश्यन्ते चूर्णितेरुत्माँगैः॥
“भगवान! आपके विकराल डाढ़ों वाले भयानक मुख में वे लोग प्रवेश करते हैं और कितने ही चूर्ण-विचूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों में उलझे हैं।”
यथा प्रदीप्त ज्वलनं पतंगा
विशन्ति नाशाय समृद्ध वेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका
स्तवापि वक्त्राणि समृद्ध वेगाः॥
“जैसे मोह ग्रसित पतंगे नष्ट होने के लिये प्रज्ज्वलित अग्नि में वेगपूर्वक प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह लोग भी अपने सर्वनाश के लिये आपके मुख में दौड़ते हुए चले जाते हैं।”
जिन्हें मूढ़ता इस सीमा तक घेरे रहती है, उनकी संख्या इस संसार में कम नहीं। मरने के दिन अति निकट आ जाने और परिवार द्वारा पग-पग पर तिरस्कृत किये जाने पर भी अधिकाँश वृद्धजन मोह-माया के दल-दल में अधिक गहरे फंसने के लिये कदम बढ़ाते रहते हैं। भविष्य को नहीं देखते, दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम को नहीं सोचते वरन् आदतों से मजबूर पाप की गठरी ही सिर पर बोझिल बनाते चलते हैं। ऐसे लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं, उन पर न ज्ञान का असर होता है न विवेक का प्रकाश पड़ता है। मदोन्मत्तों की तरह वे अपनी बेढंगी चाल चलते रहते हैं। इनको सुधारना कठिन देखकर महाकाल उनको गतिरोध का रोड़ा बनने देने से रोकने के लिये अपनी लात से कुचलकर रख देने को विवश होते हैं। खेत जोतते समय जो कड़े ढेले रह जाते हैं, किसी प्रहार से उन्हें तोड़ने की किसान को व्यवस्था बनानी पड़ती है। युग-परिवर्तन के समय मूढ़ताग्रस्त वर्ग की अव्यवस्था के व्यवस्थित करने के लिये यही दैवी प्रकोप-चक्र गतिशील रहता है। अगले दिनों संसार में मानवीय और दैवी स्तर पर जो उत्पीड़न होने वाले हैं उनका आधार यही है। दुष्टता से निपटने का यही सनातन मार्ग है। जहाँ ज्ञान को, विवेक को, तर्क को, औचित्य को सफलता नहीं मिलती वहाँ दण्ड-प्रहार की करारी चोटें थोड़े ही समय में सब कुछ ठीक कर देती है। मनुष्य की चिर-संचित दुर्बुद्धि और हठवादिता बदली जानी आवश्यक है। इसी प्रयोजन के लिये ताण्डव नृत्य का सरंजाम जुटाना पड़ रहा है। दुष्टता के समर्थन में दुराग्रह करने वाले इन मोहान्ध लोगों की कुचेष्टा ही वह विभीषिका है जिसके लिये दैवी और मानवी विग्रह विभिन्न रूपों में उत्पन्न होकर इस पुण्य धरित्री को रक्त-रंजित करेंगे।
जुलाई के अंक का एक दूसरा निष्कर्ष यह है कि इस सन्धि वेला में मानव जाति का सद्भावना सम्पन्न वर्ग विशेष रूप से सजग होगा और महत्वपूर्ण अवसर पर अपने विशिष्ट उत्तरदायित्वों को तन्मयता के साथ वहन करेगा। आपत्तिकाल में विवेकवान् व्यक्ति आपत्ति धर्म का पालन करते हैं। सामान्य स्थिति की साधारण गतिविधियों को वे कुछ काल के लिये रोक देते हैं और इस आपत्ति धर्म की पूर्ति के लिये विशिष्ट पुरुषार्थ करते हैं। उनकी यह दूरदर्शिता न केवल उनके यश, गौरव, आत्मसन्तोष, पुण्य एवं श्रेय-साधन का निमित्त बनती है वरन् उनके सत्य प्रयत्नों से संसार की महती सेवा भी होती है। महाकाल को अपने पुण्य प्रयोजन में उपयुक्त सहायता भी इन्हीं पार्षदों से मिलती है।
जब गांव के छप्परों में आग लग रही हो तो बुद्धिमान लोग अपनी सुरक्षा की दृष्टि से भी-और परमार्थ की दृष्टि से भी-उस आग को बुझाने के लिये अपने निजी सब काम छोड़कर जुट पड़ते हैं। पुराने युग के पलटने और नये युग के प्रवेश करने का मध्यान्तर एक ऐसी ही सन्धि वेला है जैसी कि रात्रि के विदा होने और प्रभात के आगमन के अवसर पर होती है। इन घड़ियों में लोग साधारण काम-काज करने की अपेक्षा दैवी सम्बन्ध स्थापित करने की- पूजा-उपासना की- व्यवस्था करते हैं। उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त कार्य का विशेष महत्व होता है। बीज ठीक समय पर बोया जाय तो अच्छी फसल उगने की सम्भावना अधिक स्पष्ट रहती है। प्रबुद्ध आत्मायें इतनी अन्तः प्रेरणा अपने भीतर धारण किये रहती हैं-इतना प्रकाश उनके अन्दर बना रहता है कि उपयुक्त अवसर को पहचानें और विशेष प्रयोजन के लिये विशेष अवसर पर प्रस्तुत की गई ईश्वरीय पुकार को सुनें और उस दैवी निर्देश के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ मोड़ दें।
ऐसी अन्तः प्रेरणा जिन्हें मिलती है वे अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व की उपेक्षा नहीं कर सकते। जीवन यापन के सामान्य क्रम में व्यावधान सहकर भी आपत्तिकालीन युगधर्म को निबाहने के लिये तत्पर होते हैं। देश की सीमा सुरक्षा के लिये समय पर अगणित बलिदानी वीर सैनिक मोरचों पर जा पहुँचते हैं। जिनके भीतर ईश्वरीय प्रकाश की किरणें विद्यमान हैं वे युग परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर संकीर्ण स्वार्थों में हानि पड़ने की बात सोचकर, अपना बचाव करने के लिये बहाने नहीं ढूंढ़ते। बिगुल बजने पर सैनिक कमर कसने के अतिरिक्त और कुछ सोचता ही नहीं। संकटकाल में अवकाश प्राप्त सैनिक भी ड्यूटी पर लौट आते हैं। ऐसे विशिष्ट अवसर जैसाकि ऐतिहासिक सन्ध्याकाल इन दिनों उपस्थित है, सजग व्यक्तियों के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने की चुनौती उपस्थित करते हैं और वे बिना अनुनय के सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं।
मूढ़तावादी मोहग्रस्त असुर-वर्ग और लोकमंगल की भूमिका सम्पादित करने में संलग्न देव-वर्ग इन दोनों को ही अगले दिनों रीति-नीति की श्रेष्ठता-निकृष्टता प्रस्तुत करने का अवसर मिलेगा। दोनों गतिविधियों के सत्परिणाम और दुष्परिणाम उपस्थित होंगे और उनको देख-समझकर भावी पीढ़ी को यह निश्चय करने का अवसर मिलेगा कि उपरोक्त दोनों पद्धतियों में से कौन उपयुक्त और कौन अनुपयुक्त है। इनमें से किसे ग्रहण किया जाय और किसे त्यागा जाय ?
अगले दिनों हमें इनमें से किसी एक वर्ग में सम्मिलित होना होगा, बीच में नहीं रहा जा सकता। महाकाल के विधान में प्रतिरोध प्रस्तुत करने वाले मूढ़तावादी लोगों में सम्मिलित रहना हो तो खुशी-खुशी वैसा करें और कराल काल-दण्ड के प्रहार सहने को तैयार रहें। यदि यह अभीष्ट न हो तो ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनकर चलना ही उचित है। तब हमें अपनी गतिविधियाँ अभी से बदलनी होंगी और उस पुण्य प्रक्रिया को अपनाना होगा जिसमें आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण दोनों का ही समान रूप से समन्वय हो।
हम बदलें तो युग बदले
युग परिवर्तन का आरम्भ जन साधारण का दृष्टिकोण परिवर्तन होने के साथ-साथ होता है। लोगों के विचार करने की शैली, आकाँक्षा, अभिरुचि, प्रवृत्ति यदि निकृष्टता की ओर हों तो उसके फलस्वरूप व्यक्ति एवं समाज के सम्मुख अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ, चिन्तायें तथा व्यथायें उत्पन्न होती हैं और सब ओर नारकीय वातावरण विनिर्मित होता है। इसके विपरीत यदि लोगों की रुचि उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता अपनाने में हो, प्रसन्नता का लक्ष्यबिन्दु परमार्थ हो तो संसार में स्वर्गीय परिस्थितियों का जन्म होता है और हर व्यक्ति प्रचुर सुख-शान्ति का अनुभव करता है। यही वह तथ्य है जिसके ऊपर विश्वशान्ति एवं सुख का सारा आधार निर्भर है।
युग-परिवर्तन की प्रक्रिया कहाँ से आरम्भ हुई, इसका पता लगाना हो तो उसकी एक ही कसौटी है कि कहाँ स्वार्थ की उपेक्षा करके उसके स्थान पर परमार्थ को प्रतिष्ठित किया गया ? कहाँ तृष्णा और वासना को तिलाँजलि देकर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता को चरितार्थ करने का साहस किया गया? जहाँ इस प्रकार की सत्प्रवृत्तियाँ पनप रही हों समझना चाहिए कि यहीं से युग-निर्माण का शुभारम्भ हो रहा है। भावी परिवर्तित युग में जनसाधारण को शरीर-निर्वाह के लिये सादगी से काम चला सकने जितनी स्वल्प आजीविका पर पूरा-पूरा सन्तोष करना होगा। भविष्य के लिए संग्रह करने की पद्धति किसी में न होगी। लोग परिवार सेवा का उत्तरदायित्व पूरी तरह निभायेंगे, पर बेटे-पोतों के लिये सात पीढ़ी तक बैठे-बैठे खाने के लिये सारी कमाई छोड़ जाने की मोह-मूढ़ता एक अनैतिक एवं हेय प्रवृत्ति मानी जायगी।
इस दृष्टि से समाजवाद और अध्यात्मवाद एक हैं। व्यक्ति को अपनी प्रतिभा, योग्यता एवं विभूतियों का एक अनिवार्य अंश ही अपने तथा अपने परिवार के लिए खर्च करना चाहिए और यह चेष्टा होनी चाहिए कि उसकी उपलब्धियों का अधिकाधिक लाभ समाज को मिले। यही दृष्टिकोण सतयुग का आधार है। रामराज्य की स्थापना इन्हीं सत्प्रवृत्तियों पर होगी। व्यक्ति जब तक अपने संकीर्ण स्वार्थों की कीचड़ में कीड़ों की तरह कुलबुलाता रहेगा तब तक वह दिव्य वातावरण एवं स्थिर सुख शान्ति का दर्शन करने से वंचित ही बना रहेगा। युग-परिवर्तन की नींव परमार्थ प्रवृत्ति पर निर्भर है। अतएव हमें उसी के लिये सारा ध्यान एकत्रित करना होगा और उसी प्रकार की घटनाओं की अभिवृद्धि करने का अभियान गतिशील करना होगा।
अगला समय यह सुनिश्चित सम्भावना साथ लेकर आ रहा है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का नहीं समाज का स्वामित्व होगा। जिस प्रकार राजाओं के राज्य, जागीरदारों की जागीर, जमींदारों की जमींदारी देखते-देखते चली गई, उसी प्रकार अगले दिनों व्यक्तिगत सम्पत्तियों का भी राष्ट्रीयकरण होगा। व्यक्ति उसमें से उतना ही लाभ ले सकेगा जिससे उसको औसत दर्जे के भारतीय नागरिक के स्तर पर जीवित रहने की सुविधा मिल जाय। मनुष्य अपनी प्रतिभा के अनुरूप उपार्जन तो कर सकेंगे पर उसका लाभ उसी व्यक्ति के लिए सुरक्षित नहीं रहेगा वरन् समस्त मानव जाति अपने इस सदस्य की उपलब्धियों का लाभ उठाया करेगा। मनुष्य की प्रतिभाओं का विकास जिन परिस्थितियों पर निर्भर है वे समस्त मानव जाति की चिर संचित थाती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के जिन साधनों के आधार पर कोई भी व्यक्ति आगे बढ़ सकता है, वे लाखों-करोड़ों के, लाखों-करोड़ों वर्ष के अनुदान से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये समाज को पूरा-पूरा अधिकार है कि किसी व्यक्ति के पास यदि प्रतिभा, क्षमता एवं सम्पदा है तो उसका उपयोग और उपभोग करे।
आज यह बातें अटपटी लगती हैं। क्योंकि चिरकाल से हमारी विचार पद्धति एवं रीति-नीति संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रभावित होती चली आ रही है। पर अब इसे बदलना ही होगा। साम्यवादी शासन के अंतर्गत आज लगभग आधी मनुष्य जाति ने इसी रीति-नीति को स्वीकार कर लिया है और यह देख लिया है कि व्यक्ति और समाज का स्वस्थ विकास इसी पद्धति पर निर्भर है। यही मान्यता अध्यात्मवाद की भी है। प्राचीन काल में दान का भारी महत्व था। व्यक्ति के पास जैसे ही कुछ पूँजी जमा हुई की उसने लोक मंगल के लिए उसका उर्त्सग करने की बात सोची। इसी में व्यक्ति को सन्तोष होता था और सम्मान मिलता था। स्वार्थी, संग्रहशील, कंजूस, अपनी कमाई आप ही खाते रहने वाले संकीर्ण व्यक्ति यहाँ सदा से चोर, पापी, तस्कर, हत्यारे आदि नामों से तिरस्कृत किये जाते रहे हैं। भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना इसी तथ्य का साक्षी है। सम्पत्ति का उपार्जन तो व्यक्ति करते थे पर उसका अधिकाधिक अंश लोक मंगल में ही खर्च होता था। लोग अपने बच्चों के सुसंस्कारों को बनाते थे पर उनके लिये दौलत छोड़ने जैसी दुश्मनी करने की बात नहीं सोचते थे। अध्यात्मवाद का यही सुनिश्चित दृष्टिकोण है। जहाँ भी यह दृष्टिकोण कार्यान्वित होगा वहाँ पाप, शोषण, अनीति, दुष्टता के लिये कोई गुंजाइश न रहेगी। लोभ और मोह ही सामाजिक अव्यवस्था, अपराध और असन्तोष उत्पन्न करते हैं। इन दोनों को जहाँ नियन्त्रण में ले लिया गया कि सुख-शान्ति की समस्या के हल होने में फिर कोई कठिनाई शेष न रह जायगी।
युग-परिवर्तन मूलतः मनुष्य में भावनात्मक परिवर्तन ही है। आज हमारे व्यक्तिगत जीवन को वासना और तृष्णा ने बुरी तरह आच्छादित कर लिया है। मनुष्य की अधिकाँश क्षमता इन्हीं दो दुष्प्रवृत्तियों की बलिवेदी पर चढ़ती रही है। शरीर को सजाने, रंगने, मौजमजा का आस्वादन कराने के सरंजाम एकत्र करने में अपने बहुमूल्य जीवन का बहुत बड़ा भाग खर्च किया जा रहा है। इन लिप्सा-लालसाओं की पूर्ति एक छोटी सीमा तक सम्भव करने में भी जितना श्रम-समय लगता है उसका लेखा-जोखा यदि लिया जाय तो वह एक बहुत बड़ी राशि दिखाई देगी। यदि उतने समय को अपनी ज्ञान-सम्पत्ति एवं सद्गुणों की अभिवृद्धि में लगाया गया होता-परमार्थ प्रयोजनों में, लोक मंगल के लिये खर्च किया गया होता तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती। संसार के महान पुरुषों की पंक्ति में हम अपने को बैठा देखते।
महामानवों के जीवनों पर गम्भीर दृष्टिपात करने से हम एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन्होंने व्यक्तिगत महत्वकाँक्षाओं को-वासनाओं को और लालसाओं को तिलांजलि दी। सादगी से जीने का व्रत लिया। जो आसानी से मिल गया उतने- रूखे-सूखे- में ही सन्तोष करके शरीर-यात्रा का ढर्रा चलते रहना पर्याप्त माना। यह रीति-नीति अपनाते ही मस्तिष्क में जो असंख्य कामनाओं की आग मरघट की चिताओं जैसी जलती रहती थी वह शान्त हो गई, उद्विग्नता मिट गई। स्वर्गीय जीवन का यही चिन्ह है। जिसके अन्तःकरण में भौतिक कामनायें कुहराम नहीं मचातीं वस्तुतः वही योगी, यती और ज्ञानी है। शरीर-यात्रा के जैसे-तैसे साधन जुट जाने पर जिसे तृप्ति हो गई, समझना चाहिए कि उसने अध्यात्मवाद का सारा तत्व ज्ञान सार रूप से हृदयंगम कर लिया, भले ही उसने बड़े-बड़े ग्रन्थ न पढ़े हों।
भौतिक कामनायें शान्त हो जाने पर ओछे लोगों के सामने एक खतरा यह आता रहता है कि वे पलायनवादी, निराश, उदासीन, निष्क्रिय हो जाते हैं। साधु बाबाओं के वर्ग में ऐसे ही ‘जीवित मृत’ व्यक्तियों की भरमार है। यह त्याग नहीं, सन्तोष नहीं, यह तो दरिद्रता और मुमूर्षा जैसी आत्मिक अवसाद की चिन्ताजनक व्याधि है। इससे हर विवेकवान और आत्मिक प्रकाश सम्पन्न व्यक्ति बड़ी आसानी से बचा रह सकता है। गीता के 18 अध्यायों ओर 700 श्लोकों में जिस कर्मयोग का प्रतिपादन है उसमें भौतिक वासनायें, निकृष्ट लालसायें छोड़ने की बात तो है पर साथ ही यह भी प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा व्यक्ति अपनी इस श्रम, समय तथा चिन्तन की विभूतियों को बचाकर हजार गुनी तन्मयता और तत्परता के साथ परमार्थ प्रयोजन के लिये नियोजित कर देता है।
तृष्णा के सम्बन्ध में भी वही बात है। व्यक्तिगत संग्रह न करने का- अपरिग्रह का- व्रत लेने का अर्थ यह नहीं कि ऐसे लोग उपार्जन के लिये पुरुषार्थ करना बन्द कर देते हैं जो उपार्जन का पुरुषार्थ बन्द करेगा वह समाज का भार बनेगा और संसार में दरिद्रता की वृद्धि करेगा। विवेकवान अध्यात्मवादी ऐसा नहीं कर सकता। वह धन, ज्ञान, स्वास्थ्य, सद्गुण बहुत कुछ कमाता है। निरन्तर कमाता है पर इसका लाभ अपने लिये नहीं अपने आराध्य देव-विश्व-मानव के लिये-लोक मंगल के लिये समर्पित करता है। धीरे-धीरे उसके यह छोटे-छोटे अनुदान मिलकर लोक मंगल का एक यशस्वी मापदण्ड बना देते हैं और उसकी कृतियों को परखने वाले उसे असीम श्रद्धा के साथ ‘नर नारायण’ घोषित करते हैं। तृष्णा को-नारकीय अग्नि को यदि लोकमंगल की भट्टी में डाल दिया जाय तो उस पर एक-से-एक बढ़िया व्यंजन पक सकते हैं।
कुँए में पानी के छोटे-छोटे सोत इधर-उधर से आकर गिरते हैं और उन्हीं नगण्य-सी इकाइयों के अनुदान से बना यशस्वी कुंआ असंख्य मनुष्यों, प्राणियों, वनस्पतियों की प्यास चिरकाल तक बुझाते रहने में समर्थ होता है। कुंए का सारा यश उन जल-धमनियों के आत्मदान का प्रतिफल है। यदि वे संकीर्ण होतीं, अपना बचाव सोचतीं, अपनी सम्पत्ति को मुफ्त में देने से कतरातीं तो इस संसार में एक भी कुंआ न बन सका होता और यहाँ सब कोई कभी के प्यास से तड़प कर अपना अस्तित्व गंवा चुके होते।
संसार की सुख, शान्ति, समृद्धि और सुन्दरता एक यशस्वी कुंए की तरह है जिसे सजीव रखने के लिये कुछ जल धमनियों का- उत्कृष्ट आत्माओं का- निरन्तर अनुदान मिलते रहना आवश्यक है। इन दिनों भारी दुष्काल इसी सत्प्रवृत्ति का पड़ गया है। लोग अपनी व्यक्तिगत तृष्णाओं की पूर्ति में पाँव से सिर तक डूबे पड़े हैं। दान-पुण्य एवं पूजा-पाठ के नाम पर राई-रत्ती जैसे उपकरण इस आशा में खर्च करते हैं कि अगले ही दिनों वह लाख-करोड़ गुना होकर उन्हें मिल जायगा। अविवेकी नर-पशु इस स्तर के हों तो एक बात समझ में भी आती है पर भक्ति, ज्ञान, अध्यात्म, वेदान्त, ब्रह्मज्ञान, तत्वदर्शन जैसे विषयों पर भारी माथापच्ची कर सकने में समर्थ लोग भी जब इस कसौटी पर कसे जाते हैं कि उनका अनुदान समाज के लिए क्या है? तो उत्तर निराशाजनक ही मिलता है। ऐसा सूखा ब्रह्मज्ञान भला किसी का क्या हित साधन करेगा जिसने मनुष्य के हृदय में इतनी करुणा एवं श्रद्धा उत्पन्न न की कि विश्व मानव को उसके अनुदान की महती आवश्यकता है और वह उसे देना ही चाहिए।
लोक मंगल की सर्व कल्याणकारी सत्प्रवृत्तियों से ही किसी व्यक्ति, देश, धर्म, समाज तथा संस्कृति की उत्कृष्टता नापी जा सकती है। खरे-खोटे की पहिचान इसी आधार होती है। हमारे देश में लोगों ने यश और वर्चस्व लूटने के लिए लोक मंगल के तमाशे जहाँ-तहाँ खड़े कर रखे हैं। पर यदि यह देखा जाय कि इसमें कितने व्यक्ति अपनी उपलब्धियों का कितना बड़ा अनुपात समर्पित कर रहे हैं, तो सब कुछ खोखला ही खोखला प्रतीत होता है। लोक मंगल के नाम पर खड़े किये गये यह डेरे-तम्बू आये दिन गढ़ते-उखड़ते रहते हैं। इनसे हम मनोरंजन अथवा आत्म प्रवंचना भले ही करते रहें, कोई ठोस काम न हो सकेगा। लोक मंगल की कोई प्रकाशित किरण कहीं उदय हो रही है, यह तलाश करना हो तो संस्थाओं में ऐसे लोग ढूँढ़ने पड़ेंगे जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों का बड़े से बड़ा अनुपात जनता जनार्दन के चरणों में अर्पित कर दिया हो। गरीब के पास पसीना, शिक्षित के पास मस्तिष्क और धनी के पास धन की जो बचत होती है, आत्मा का- परमात्मा का- एक ही तकाजा है कि वह उसे संकीर्णता के बन्धन तोड़कर परमार्थ प्रयोजन के लिये उत्सर्ग करें।
जो इस तथ्य को हृदयंगम कर लेते हैं और इसी आधार पर अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते हैं वस्तुतः वे ही इस धरती के देवता हैं। देवताओं के द्वारा ही युग-परिवर्तन जैसे महान कार्यों की भूमिका सम्पादित होती है। मुद्दतों से देव-परम्परायें अवरुद्ध हुई पड़ी है। अब हमें अपना सारा साहस समेटकर तृष्णा और वासना की कीचड़ से बाहर निकलना होगा और वाचालता एवं विडम्बना से नहीं अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा। हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा। वाणी और लेखनी के माध्यम से लोगों को किसी बात की अध्यात्मवाद की भी जानकारी कराई जा सकती है। इससे अधिक भाषणों का कोई उपयोग नहीं। दूसरों को यदि कुछ सिखाना हो तो उसका एकमात्र तरीका अपना उदाहरण प्रस्तुत करना है। यही ठोस, वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है। दूसरों को बदलना हो तो सबसे पहले हमें अपने को बदलना चाहिए। दूसरों को स्वार्थपरता से विरत होकर परमार्थ पथ पर चलने की चिरस्थाई प्रेरणा देनी हो तो उसका शुभारम्भ अपनी रीति-नीति को तृष्णा और वासना के जंजाल से ऊँची उठी हुई बना कर ही करना चाहिए।
युग-परिवर्तन, व्यक्ति-परिवर्तन से आरम्भ होता है। ‘अखण्ड ज्योति’ के प्रबुद्ध परिजनों में से प्रत्येक को हर दिन, हर घड़ी यह प्रश्न करना चाहिये कि क्या इस प्रकार का प्रकाश और उत्साह अपने भीतर उत्पन्न होने लगा है। यदि हाँ तो समझना चाहिए कि अपनी गणना महाकाल के देव पार्षदों में होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। तब हम अपना ही नहीं इस विश्व वसुन्धरा की सुरक्षा और सुन्दरता बढ़ाने का शाश्वत श्रेय प्राप्त करेंगे।
भावी देवासुर संग्राम और उसकी भूमिका
प्राकृत रूप से मनुष्य एक दुर्बल किस्म का पशु है। जिस प्रकार अन्य पशु पेट पालते, प्रजनन करते और परिस्थितियों का भला-बुरा प्रभाव भोगते हुए जीवन यापन करते हैं वैसे ही मनुष्य भी अपनी जिन्दगी के दिन गुजारता पैदा होता, बढ़ता और मरता है। इस स्तर के हर व्यक्ति को नर पशु कहा जा सकता है। न उसके सामने कुछ लक्ष्य, न आदर्श, न उद्देश्य, न कर्त्तव्य, जैसे बने वैसे दिन गुजारने भर की बात वह सोचता है और परिस्थितियों के जुए में जुता हुआ अन्य असंख्य मरणधर्मा प्राणियों की तरह मौत के मुख में चला जाता है। जनसंख्या में लगभग आधे इसी स्तर के पाये जाते हैं।
नर पशुओं के जीवन में जो थोड़ा बहुत आकर्षण है वह उनके निजी स्वार्थ का है। वे अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति, आकाँक्षाओं की तुष्टि सब अभावों की निवृत्ति के लिये यत्किंचित् पुरुषार्थ करते हैं। जिनके सामने यह आकर्षण भी नहीं होता वे भूख, अभाव, दंड, असहयोग, तिरस्कार आदि प्रताड़ना का भय मानकर ही थोड़ा बहुत पुरुषार्थ करते हैं। अन्यथा यदि इस प्रकार की बाधायें न हों तो उन्हें जड़ जीवन बिताने में तनिक भी संकोच न हो। जिसने इस स्तर का जीवन बिताया उन्होंने अपने प्रति एक भारी अत्याचार किया यही मानना होगा।
यह स्वार्थपरता जब उद्धत, उच्छृंखल, दुष्ट एवं आक्रमणकारी हो जाती है और मनुष्य किसी को भी, किसी भी प्रकार सताकर अपना लाभ उठाने एवं अहंकार पूरा करने के लिये निर्लज्जतापूर्वक कटिबद्ध हो जाता है तब उसे नर-पिशाच कहते हैं। यों मोटे तौर से हत्यारे, डाकू, कसाई, आततायी, झगड़ालू, गुण्डे, निर्दय, क्रूरकर्मा आदि लोगों के लिये नर-पिशाच शब्द का प्रयोग किया जाता है पर अब इसका परिष्कृत संस्करण तैयार हो गया है। उसमें ऐसी प्रत्यक्ष दुष्टता करने, कानून की पकड़ में आने और निन्दा का पात्र बनने की जरूरत नहीं पड़ती। लोग बाहर से सज्जनता का लबादा ओढ़े रहते हैं और भीतर ही भीतर ऐसी छुरी चलाते रहते हैं जिससे असंख्यों का सर्वनाश होता है। उदाहरण के लिये मादक द्रव्यों के उत्पादन, प्रसार एवं व्यवसाय में लगे मनुष्य बाहर से सीधे-साधे से लगते हैं पर उनका मस्तिष्क, धन तथा पुरुषार्थ कितने लोगों का, किस बुरी तरह आर्थिक, नैतिक, शारीरिक नाश करता है, इसका कोई लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उन्होंने लाखों मनुष्यों के जीवन में दुष्प्रवृत्तियों का बीज बोकर पतन के लिये जो व्यापक पथ प्रशस्त किया उस हानि का विवरण कितना रोमाँच कारी है। ऐसे-ऐसे उदाहरण संगठित एवं व्यक्तिगत प्रयासों के भरे पड़े हैं जिनसे प्रतीत होता है कि स्वार्थपरता यदि अनियन्त्रित हो तो वह कितनी भयंकर हो सकती है। चोरी, जेबकटी के पुराने, फूहड़, गन्दे तरीके अब गंवारों के हिस्से में चले गये हैं। शिक्षित लोगों ने ऐसी तरकीबें ढूँढ़ निकाली हैं जिससे होता वही सब कुछ है पर पता किसी को नहीं चलता। रिश्वतें अब एक दस्तूर बन गई हैं। असली में नकली की मिलावट अब हेय नहीं मानी जाती वरन् उसे ‘व्यापार चातुर्य’ कहा जाता है। व्यक्तिगत जीवन में लोग कितने नीरस, कितने स्वार्थी, कितने विश्वासघाती और कितने निर्लज्ज हैं इसका परिचय बाहर से तो नहीं मिलता पर उनके दाम्पत्य-जीवन की, पारिवारिक सौहार्द्र की अथवा सम्बन्धित व्यक्तियों की अनुभूतियों का पता लगाया जाय तो इन तथाकथित सफेदपोशों की काली कालिमा सामने आती है। इन्हें नरपिशाच नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?
जन-साधारण में असुर और देव के बारे में बड़ी भ्राँत धारणायें जड़ जमाये बैठी हैं। असुरों के बारे माना जाता है कि उनका मुँह काला होता है, दाँत, बड़े होते हैं, पशुओं की तरह सींग उगे होते हैं। देवताओं के बारे में मान्यता है कि वे गौरवर्ण, आनन्दधाम, स्वर्ग के निवासी, भक्तों की सहायता के लिये दौड़ आने वाले होते हैं। यह वर्णन अलंकारिक है। किसी अन्तरिक्ष लोक में इस प्रकार के प्राणी पाये जाने की सम्भावना नहीं। न इस पृथ्वी पर ही ऐसे जीवों का अस्तित्व देखा जाता है, न प्राचीन काल में था। मनुष्य की आन्तरिक अवस्थाओं के आधार पर ही यह देव-दानव चित्रण अलंकारिक रूप से किया गया है। मुँह काला अर्थात् कलंक कालिमा, अपयश, निन्दा से आच्छादित घृणित जीवन। बड़े दाँत अर्थात् अधिक खाने, अधिक समेटने, अधिक भोगने की दुष्प्रवृत्ति। सींग अर्थात् दूसरे के साथ दुष्टता का बरताव करने की- सताने, टोंचने, मर्माहत करने की- आदत। यह दुर्गुण जिस भी मनुष्य हों, उसे असुर कहना चाहिए भले ही वह रंग का गौरवर्ण, रूपवान् ही क्यों न हो। इसी प्रकार जिनमें उदारता, संयम, परमार्थ, सेवा जैसी सत्प्रवृत्ति बढ़ी-चढ़ी हों उन्हें देव कहना चाहिये। देव सदा पूजे जाते हैं उनका यश गाया जाता है, उनके सेवापूर्ण कर्तृत्व से असंख्य प्राणियों के शोक-सन्ताप में कमी होती है। यह विभाजन आज भी आत्म-निरीक्षण करने वाले को यह बता सकता है कि वह असुर है या देव। उनका समय, श्रम, धन, चिन्तन कितना स्वार्थ संजोने में लगता है, कितना परमार्थ प्रयोजन में? इसका लेखा-जोखा हम स्वयं ही तैयार कर सकते हैं, क्योंकि बाहर वालों को असलियत मालूम नहीं होती। हमारी अन्तरंग स्थिति ही हमें देव अथवा असुर वर्ग की पंक्ति में बैठा सकती है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि परिवर्तन की भावी घड़ियों में हमें महाकाल की एड़ी से कुचले जाने का दण्ड भोगना है अथवा ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न पार्षदों की पंक्ति में खड़े होकर विजय का वरण करना होगा।
नर-पशुओं और नर-पिशाचों का बाहुल्य जब कभी भी संसार में होगा तो विपत्तियाँ आयेंगी और अगणित प्रकार की विभीषिकायें उत्पन्न होंगी। यह अभिवृद्धि जब चिन्ताजनक स्तर तक पहुँच जाती है तब ईश्वर की इस परमप्रिय सृष्टि के लिये सर्वनाश का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसी को बचाने के लिये उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ता है- अवतार लेना पड़ता है। गीता में इसी तथ्य का भगवान् ने स्पष्टीकरण किया है- “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की अभिवृद्धि होती है तब साधुता का संरक्षण और दुष्टता का उन्मूलन करने के लिये मैं आत्मा का सृजन करता हूँ।”
अनैतिकता की दुरभिसन्धि का उन्मूलन करने के लिए एक व्यक्ति नहीं वरन् एक वर्ग ही समर्थ हो सकता है। इसलिये इन विषम परिस्थितियों में सदा ही एक ऐसे वर्ग को सतेज होना पड़ता है जिसे अध्यात्म भाषा में देव अथवा नर-नारायण और बोलचाल की भाषा में परमार्थ परायण सज्जन- महापुरुष- नर-रत्न आदि कहते हैं। यों इस वर्ग का अस्तित्व सदा बना रहता है। पृथ्वी धर्मात्माओं, सज्जनों, परमार्थियों और ईश्वर-भक्तों से कभी रहित नहीं होती। पर देखा यह जाता है कि असुरता की बाढ़ में यह देवत्व शिथिल पड़ जाता है। ग्रीष्म के आतप से जैसे दूब घास जल जाती है उसी प्रकार प्रोत्साहन न मिलने के कारण देवत्व की प्रवृत्ति भी सूख जाती है किन्तु जब भी सन्तुलन को स्थापित करने के लिये महाकाल का अभियान आरम्भ होता है तो यह विश्रृंखलित, मूर्छित एवं उपेक्षित देव-श्रद्धा वर्षा के जल से हरी हुई दूब की तरह पुनः सजीव होकर अपना अस्तित्व सिद्ध करने लगती है।
असुरता के अभिवर्धन को नियन्त्रित करने के लिये समय-समय पर देवत्व को सक्रिय एवं संघर्षरत होना पड़ा है। पौराणिक उपाख्यानों में इस तथ्य का पन्ने-पन्ने पर प्रतिपादन है। 18 पुराणों और 18 उपपुराणों में देवासुर संग्राम की सहस्रों कथायें विद्यमान हैं। छल−बल में असुर तगड़े पड़ते हैं, फिर भी ईश्वरीय सहायता देव-वर्ग को मिलती है और अन्ततः वही जीतता है। असुरता को हर इतिहास में पराजय का ही मुँह देखना पड़ा है। दुष्टता के पास छल−बल से एकत्रित साधन बहुत होते हैं, इसलिये कुछ उसका आतंक ऐसा छाया रहता है कि सर्वसाधारण को प्रतिरोध का साहस नहीं होता। किन्तु यह स्थिति देर तक नहीं रहती, सृष्टि का सन्तुलन न बिगड़ने देने में सतर्क भगवान् यथा समय देव-वर्ग को सजग करते हैं-उसमें प्राण फूँकते हैं और देखते-देखते सामान्य प्रतीत होने वाले मनुष्य असामान्य उत्कृष्टता की भूमिका