हम मनस्वी और आत्म-बल सम्पन्न बनें

December 1967

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कारण शरीर आत्मा का गहनतम स्तर है। उसमें भावनाओं का संचार रहता है। यहाँ निकृष्टता जड़ जमा ले तो मनुष्य नर-पशु ही नहीं रहता वरन् नर-पिशाच बनने के लिये अग्रसर होता जाता है। यदि यहाँ उत्कृष्टता के बीज जम जायें तो देवत्व की और प्रगति होनी स्वाभाविक है। जिसकी अन्तरात्मा में आदर्शवादिता के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न हो जाय उसके लिये साँसारिक सुखों का कोई मूल्य नहीं, उसे अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता के संपर्क में इतना अधिक सन्तोष एवं आनन्द मिलता है कि कितने ही बड़े कष्ट, आपदा, अभाव सहकर भी अपना मार्ग छोड़ने को तैयार नहीं होता। ऋषि और महापुरुष इसी स्तर के निष्ठावान् व्यक्ति होते हैं। साधन उनके भी सामान्य मनुष्यों जैसे ही होते हैं पर उनकी आन्तरिक महत्ता जीवन क्रम को उत्कृष्टता की दिशा में इतनी तेजी से अग्रसर करती चली जाती है कि देखते-देखते दूसरों की तुलना में वह अन्तर आकाश पाताल जैसा बन जाता है। हेय मनोभूमि के व्यक्ति किसी प्रकार मौत के दिन भी कराहते कुड़कुड़ाते व्यतीत कर पाते हैं जब कि वे आदर्श निष्ठा की चट्टान पर खड़े व्यक्ति स्वयं प्रकाशवान् होते और असंख्यों को प्रकाशवान करते हैं।

कारण शरीर में देवत्व के जागरण का प्रथम सौपान है- साहस। अपने भीतर की समस्त सद्भावना को समेट कर साधक को एक दुस्साहस पूर्ण छलाँग लगानी पड़ती तब कहीं स्वार्थपरता और संकीर्णता का घेरा टूटता है। बहुत से लोग आदर्शवाद की विचारधारा को पसन्द करते हैं। उसकी सराहना भी तथा समर्थन भी करते हैं। पर जब कभी उन आदर्शों को कार्यान्वित करने का अवसर आता है तभी पीछे हट जाते हैं। संकोच, झिझक, भय, कृपणता, कायरता का मिला-जुला जाल उन्हें कुछ भी साहस पूर्ण कदम नहीं उठाने देता। सोचते बहुत हैं- चाहते बहुत हैं- पर कर कुछ नहीं पाते। यह दुर्बलता ही अध्यात्म में सबसे बड़ी बाधा है। गीता का अर्जुन आत्म निरिक्षण के उपरान्त अपनी इस दुर्बलता को अनुभव करता है और कहता है-

कार्पण्यं दोषोपहृत स्वभाव प्रच्छामि त्वाँ धर्म संमूढ़ चेताः।

“कायरता ने मेरे विवेक का अपहरण कर लिया है। इसलिये विमूढ़ बना मैं अर्जुन आप कृष्ण से पूछता हूँ।”

कर्तव्य-अकर्तव्य की गुत्थी बहुत पेचीदा नहीं है। मानव जीवन का सदुपयोग-दुरुपयोग किसमें है, उस महत्व को बूझना कोई कठिन नहीं है। जो अब तक सुना, समझा और विचारा है उसकी सहायता से ऐसा प्रखर कार्यक्रम आसानी से बन सकता है कि हम आज की कीचड़ में से निकल कर कल ही स्वर्ण सिंहासन पर बैठे दिखाई पड़ें। हम इसे जानते न हों ऐसी बात नहीं। बात केवल साहस के अभाव की है। कंजूसी, संकीर्णता, भीरुता हमें त्याग और बलिदान को कोई दुस्साहसपूर्ण कदम नहीं उठाने देतीं। यदि इस परिधि को तोड़ सकना किसी के लिये सम्भव हो सके तो वह अपने उस साहस के बल पर ही नर से नारायण बन सकता है।

समर्थ गुरु रामदास का विवाह हो रहा था। पुरोहित ने ‘सावधान’ की आवाज लगाई। उनने देखा जीवन के सदुपयोग का अवसर हाथ से निकला जा रहा है, ठीक यही समय सावधान होने का है। वे विवाह मंडप से भाग खड़े हुये। उनके साहस ने उन्हें महामानव बना दिया। कितने लड़की-लड़के विवाह न करके कुछ बड़ा काम करने की बात सोचते रहते हैं पर जब समय आता है तब भीगी बिल्ली बन जाते हैं। पीछे जब समय गुजर जाता है तब फिर कुड़कुड़ाते देखे जाते हैं। समर्थ गुरु की तरह जिनमें साहस हो वे ही आदर्शवादिता की दिशा में कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं।

हर महापुरुष को अपने चारों ओर घिरे हुये पुराने ढर्रे के वातावरण को तोड़-फोड़ कर नया पथ−प्रशस्त करने का दुस्साहस करना पड़ा है। बुद्ध, गाँधी, ईसा, प्रताप, शिवाजी, मीरा, सूर, विवेकानन्द, नानक, परविन्द, भामाशाह, भगतसिंह, कर्वे, ठक्कर बापा, विनोबा, नेहरू आदि किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति का जीवन-क्रम परखें उनमें से हर एक ने पुरानी परिपाटी के ढर्रे को जीने से इनकार अपने लिये अलग रास्ता चुना है और उस पर साहसपूर्वक अड़ जाने का साहस दिखाया है। उनके परिवार वाले तथा तथाकथित मित्र अन्त तक इस प्रकार के साहस को निरुत्साहित ही करते रहे। पर उनने केवल अपने विवेक को स्वीकार किया और प्रत्येक ‘शुभ चिन्तक’ से दृढ़तापूर्वक असहमति प्रकट कर दी। शूरवीरों का यही रास्ता है। आत्म-कल्याण और विश्व-मंगल की सच्ची आकाँक्षा रखने वाले को दुस्साहस को अनिवार्य रीति के शिरोधार्य करना ही पड़ता है। इससे कम क्षमता का व्यक्ति इस मार्ग पर देर तक नहीं चल सकता।

परमार्थ के लिये स्वार्थ को छोड़ना आवश्यक है। आत्म-कल्याण के लिये भौतिक श्री-समृद्धि की कामनाओं से मुँह मोड़ना पड़ता है। दोनों हाथ लड्डू मिलने वाली उक्ति इस क्षेत्र में चरितार्थ नहीं हो सकती। उन बाल बुद्धि लोगों से हमें कुछ नहीं कहना जो थोड़ा-सा पूजा-पाठ करके विपुल सुख साधन और स्वर्ग मुक्ति दोनों ही पाने की कल्पनायें करते रहते हैं। दो में से एक ही मिल सकता है। जिसकी कामनायें प्रबल हैं वह उन्हीं की उधेड़बुन में इतना जकड़ा रहेगा कि श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी। और जिसे श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी। और जिसे श्रेय साधना है उसे पेट भरने, तन ढकने में ही संतोष करना होगा तभी उसका समय एवं मनोयोग परमार्थ के लिये बच सकेगा। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के प्रत्येक श्रेयार्थी का इतिहास यही है। उसे भोगों से विमुख हो त्याग का मार्ग अपनाना पड़ा है। आत्मोत्कर्ष की इस कीमत को चुकाये बिना किसी का काम नहीं चला।

आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमते रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थ-यात्रा, व्रत उद्यापन, कथा कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिये ठीक हैं पर उनसे किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिये। उपासना से नहीं साधना से कल्याण की प्राप्ति होती है और जीवन साधना के लिये व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना ही होता है जिसमें लोक-मंगल के लिये महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।

इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है जो त्याग तप की दृष्टि से आवश्यक साहस प्रदर्शित कर सके। लोगों की निंदा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को विचार किये बिना विवेक बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुये दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा।

परमार्थ के लिये, आत्म-कल्याण के लिये, कुछ अलग से समय और धन निकालने का साहस करने का अनुरोध हर ‘अखण्ड ज्योति’ परिजन से किया जाता रहा है। एक घन्टा समय और दस पैसा प्रतिदिन नियमित रूप से निकालने के लिये कहा गया है। यह तप और त्याग का प्रथम अभ्यास है। निरर्थक भौतिक और धार्मिक विडम्बनाओं में लोग बहुत सारा समय नष्ट करते रहते हैं। सारा समय भौतिक प्रयोजनों के लिये ही नहीं है सारा धन गुलछर्रों में उड़ाने के लिये ही नहीं है। इन दोनों विभूतियों में अध्यात्म एवं लोक-मंगल का भी भाग है और ईमानदारी के साथ उसे दिया जाना चाहिये। इस प्रकार का कदम अपने को और अपनों को अखरता है तो भी साहसपूर्वक इतना त्याग और तप तो करना ही चाहिये।

यह अनुदान जितना-जितना बढ़ेगा उसी अनुपात से ‘युग निर्माण’ की सहस्रों योजनाओं को चरितार्थ किया जा सकना सम्भव होगा। यह तप त्याग ही किसी व्यक्ति की महानता का सच्चा इतिहास विनिर्मित करता है। लोक-मंगल के लिये किसी का कितना अनुदान है, इसी कसौटी पर किसी की महानता परखी जाती है। सद्गुणों की आत्मिक सम्पदा भी तो उसी मार्ग पर चलते हुये अर्जित की जाती है। साहसी ही यह सब कर पाता है।

इन्द्रिय निग्रह में तितिक्षाओं के अभ्यास में, तप साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य, व्रत उपवास, सर्दी गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान पुण्य, मौन आदि क्रिया कलाप इसलिये हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़ कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिये शरीर तथा मन को विवश किया जाय। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम है। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिये। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है आकाँक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़ कर आत्मिक उद्देश्यों में नियोजित करना। इसी प्रकार आत्म-बल सम्पन्न होने का अर्थ है आदर्शवाद के लिये बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य।

हमें मनस्वी और आत्म-बल सम्पन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिये तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिये। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उसमें देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी।

कारण शरीर में परमेश्वर की प्रतिष्ठापना

उपनिषद् ने परमात्मा के भावनात्मक स्वरूप का वर्णन करते हुये कहा है “रसो वै स” अर्थात् प्रेम ही परमेश्वर है। आँखों से भगवान् जिस भी रूप में देखा जा सके, अन्तरात्मा में उसकी संवेदना प्रेम रूप में ही पाई जाती है। जिसके अन्तःकरण में, स्वभाव में, व्यवहार में प्रेम भावना का जितना समन्वय हैं समझना चाहिये कि इसमें उतना ही ईश्वर तत्व घुला हुआ है।

‘प्रेम’ वह केन्द्र बिन्दु है जिसके इर्द-गिर्द अनेकों आध्यात्मिक सद्गुण विद्यमान रहते हैं। फूल खिलता है तो उस पर अनेक भौंरे, तितली, मधुमक्खी घुमड़ती दिखाई पड़ती हैं। ‘प्रेम’ तत्व जिसके अन्तःकरण में उगेगा उसमें सौजन्य, सहृदयता, दया, करुणा, सेवा, उदारता, क्षमा, आत्मीयता आदि अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ अनायास ही दृष्टिगोचर होंगी। प्रेम-पात्र के प्रति अपार सहानुभूति होती है। उसे अधिक सुखी और समुन्नत बनाने के लिये अन्तःकरण में निरन्तर हिलोरें उठती रहती हैं। जो अपने पास है उसे प्रेमी पर उत्सर्ग करने की अभिलाषा रहती है। इस प्रकार आकाँक्षा, अभिलाषा के होने पर स्वभावतः प्रिय-पात्र के प्रति अधिक सज्जनता का व्यवहार बन पड़ता है। और प्रेम किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित न रह कर यदि विश्व-मानव के प्रति- जनता जनार्दन के प्रति- व्यापक हो गया हो तो ऐसा व्यक्ति सन्त, ऋषि, सज्जन, देव से कम कुछ हो ही नहीं सकता। मानवोचित- देवोपम समस्त सद्गुण उसमें सुविकसित पाये जायेंगे। जिसमें ऐसी महानता हो उसे इस धरती पर ईश्वर का प्रतीक-प्रतिनिधि ही कहा जायगा।

प्रेमी का दाम्पत्ति जीवन स्वर्ग जैसा पाया जायगा। दूसरी ओर से समुचित प्रत्युत्तर न मिले तो वह अकेला अपने ही सद्व्यवहार से सन्तोष और शान्ति का आधार बनाये रह सकता है। इसी प्रकार कहीं भी किसी भी परिस्थिति में कैसे भी लोगों के बीच-प्रेमी स्वभाव का व्यक्ति सौजन्य पूर्ण वातावरण बनाये रह सकता है।

नारकीय दुष्टतायें, दुष्प्रवृत्तियाँ उन हृदयों में उगती हैं जो रूखे, नीरस शुष्क, कठोर, निर्दय प्रकृति के हैं। उनमें एक-एक करके समस्त दानवी दुर्गुण एकत्रित होते चले जायेंगे। रंग का गोरा और रूप का सुन्दर होते हुये भी ऐसा मनुष्य भयावह नर-पिशाच की तरह अपना आतंक उत्पन्न करके वातावरण को विक्षुब्ध बनाये रहता होगा। शोक सन्ताप, क्लेश कलह, द्वेष दुर्भाव ही उसके चारों ओर उमड़ते घुमड़ते पाये जायेंगे।

कारण शरीर की उत्कृष्टता प्रेम भावना की अभिवृद्धि पर निर्भर है। “भक्ति के वश में भगवान्” के होने की उक्ति प्रसिद्ध है। भक्ति का अर्थ प्रेम ही तो है। जो प्रेमी है वही भक्त है। जिसके अन्तःकरण में जितनी प्रेम भावनायें उमड़ती है ईश्वर उसे उतना ही समीप खिंचता चला आता है। सच तो यह है कि प्रेम ही परमेश्वर है। यह उदात्त भावना जहाँ भी निवास करती है वहाँ अमृत का निर्झर झरता है और इसकी छाया जिस पर पड़ जाती है वह अपने आपको धन्य अनुभव करता है।

कारण शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिये हमें अपनी उपासना में प्रेम-भावना का समावेश करना चाहिये। सामान्यतया गायत्री उपासना की शिक्षा दी गई है। आत्मा की परिपुष्टि के लिये विभिन्न अन्यान्य विधियाँ एवं पद्धतियाँ भी प्रयुक्त की जाती हैं। अपने-अपने स्थान पर यह सभी उपयुक्त हैं। आरम्भ में नाम जप, कीर्तन, पूजन, हवन, शृंगार, उपवास, भोग प्रसाद आदि के माहात्म्य से यह पूजा पद्धतियाँ की जाती हैं पर इनका क्रमिक विकास प्रेम भावनाओं की अभिवृद्धि के साथ-साथ ही होता है। मीरा, शबरी, गोपी, सूर, तुलसी आदि की प्रखर भक्ति में उनकी प्रेम भावना ही प्रधान आधार थीं।

मन की एकाग्रता प्रेम-भावना की मात्रा पर ही निर्भर है। मन प्रेम का गुलाम है। जिन वस्तुओं से हमें प्रेम होता है उन्हीं में मन रमा रहता है। ध्यान उन्हीं का रहता है और सुख उन्हीं के चिन्तन में मिलता है। अक्सर भजन में चित्त न लगने की- मन के अन्यत्र भाग जाने की शिकायत की जाती रहती है। इसका कारण एक ही है- साँसारिक पदार्थों से वास्तविक प्रेम और ईश्वर से औपचारिक बाँध-बधाव। जिससे वास्तविक प्रेम हो मन उसी में रमेगा। जो पदार्थ, प्राणों अथवा दृश्य प्रिय लगते हैं उन्हीं में भ्रमण करने के लिये मन भाग जाता है। न तो हम ईश्वर को वास्तविक स्वरूप को जानते हैं और न उसके प्रति प्रेम भावना-आत्मीयता जैसी कोई वस्तु अपने पास है। ज्यों-त्यों करके पूजा की लकीर पिटती रहती है। ऐसी दशा में मन लगने की आशा भी कैसे की जा सकती है? और मन न लगने पर उपासना का उच्च-स्तरीय प्रतिफल कहाँ?

उच्च-स्तरीय उपासना में प्रेम भावना का समावेश अनिवार्य रूप से आवश्यक है। परिजनों को इसके लिये बहुत समय से प्रेरणा दी जाती रही है। गायत्री माता की गोद में उसके अबोध शिशु की तरह क्रीड़ा करने, पय पान करने का ध्यान इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिये बहुत ही उपयुक्त है। रुचि भिन्नता से जिनको वह ध्यान ठीक तरह न जम पाता हो उनके लिये दो ध्यान और भी हैं जो साधक के अन्तःकरण में तत्काल पुलकन उत्पन्न करते हैं।

(1) दो बालक समान वय तथा समान स्थिति के सहज स्नेह से वशीभूत होकर गले मिलते हैं, परस्पर एक दूसरे से लिपटते हैं, उसी प्रकार जीव और ब्रह्म के अबोध आलिंगन का ध्यान करना चाहिये। आत्मा और परमात्मा अपनी दूरी-पृथकता-भिन्नता दूर कर एक दूसरे के समीप, अति समीप आकर अभिन्नता की स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की स्थिति उत्पन्न करते हैं।

राम लक्ष्मण, राम भरत अथवा कृष्ण बलराम के बालकपन का परस्पर प्रेम मिलन चित्र इस प्रयोजन के लिये उपयोगी हो सकता है। अपनी वैसी ही स्थिति अनुभव करनी चाहिये। जीव और परमात्मा के बीच बहुत बड़ा अन्तर होना छोटे-बड़े का भाव रहना आत्मीयता एवं एकता में बाधक होता है। समानता में स्नेह का आदान-प्रदान अधिक सुविधा से होता है। पति-पत्नी के प्रेम में जो उभार रहता है उसमें यह समानता ही कारण है। मीरा के योग की यही विशेषता थी। सखी सम्प्रदाय तथा गोपी प्रेम के वर्णन में- रासलीला में इसी आत्मा और परमात्मा के दाम्पत्ति भाव से मिलन का संकेत है। छोटे बालक के रूप में भी दोनों रह कर समानता का आनन्द ले सकते हैं।

आत्मा अपनी समस्त श्रद्धा और समस्त उपलब्धियाँ परमात्मा को समर्पण करती है और बदले में परमात्मा उसे ज्ञान, विवेक, प्रकाश आनन्द और परम पद प्रदान करता है। इसे पाकर अन्तःकरण उल्लास आनन्द और सन्तोष से परितृप्त होकर अमृतत्व का रसास्वादन करता है।

(2) दूसरा ध्यान दीपक पर पतंगे के जलने की तरह आत्मा का परमात्मा में प्रेम विभोर होकर आत्म-समर्पण करने का है। जीव और ब्रह्म के बीच माया ही प्रधान बंधन है। वहीं दोनों को एक दूसरे से पृथक किये हुये है। अहंता, स्वार्थपरता, ममता, संकीर्णता को कलेवर ही जीव की अपनी पृथकता एवं सीमा बाँधता है। उसी की ममता में वह ईश्वर को भूलता और आदेशों की उपेक्षा करता है। इस अहंता कलेवर को यदि नष्ट कर दिया जाय तो जीव और ब्रह्म की एकता असंदिग्ध है। ईश्वरीय प्रेम में प्रधान बाधक यह ममता अहंता ही है।

ब्रह्म को दीप ज्योति का और अहंता कलेवर युक्त जीव को पतंग का प्रतीक माना गया है। पतंगा अपने कलेवर को प्रिय पात्र दीपक में एकीभूत होने के लिये परित्याग करता है। आत्म-समर्पण करता है। कलेवर का उत्सर्ग करता है। अपनी सम्पदा विभूति एवं प्रतिभा को प्रभु की प्रसन्नता के लिये सर्वमेध यज्ञ कर्ता की तरह होम देता है। विश्व-मानव की पूजा प्रसन्नता के लिये साधक का परिपूर्ण समर्पण यही आत्म-यज्ञ है। इसमें अपने को होमने वाला- नरमेध करने वाला- ईश्वरीय सान्निध्य की सर्वोच्च गति को पाता है।

जिस माया मग्नता के कारण ईश्वर और जीव में विरोध था उसका समर्पण कर देने पर ईश्वरीय अनन्त विभूतियों का अधिकारी साधक बन जाता है और उसे प्रभु का असीम प्यार प्राप्त होता है। बिछुड़न की वेदना दूर होती है और दोनों एक दूसरे के गले मिल कर अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन करते हैं।

यह दोनों ही ध्यान समानता और समर्पण की भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण बड़े सरल, आकर्षक एवं उल्लासपूर्ण है। मन आसानी से लगता है और ध्यान में क्रमशः तन्मयता बढ़ती जाती है। इन ध्यानों में याचना की नहीं आत्मदान की भावना है। उच्चस्तरीय साधना का यही आधार भी है। निम्न स्तर की प्राथमिक उपासना में ईश्वर से साँसारिक लाभ अथवा आत्मिक अनुदान माँगे जाते हैं, पर जैसे-जैसे स्तर ऊंचा होता जाता है, साधक माँगने की तुच्छता छोड़ समर्पण की महानता अपनाने के लिये व्याकुल होता है। ध्यान अथवा भावना तक ही उसकी यह साधना सीमित नहीं रहती वरन् वस्तुतः वह विश्व के लिये, लोक-मंगल के लिये बड़े से बड़ा अनुदान देकर अपनी गणना बड़े-बड़े भक्तों में कराने का आत्म-सन्तोष उपलब्ध करता है। उसका व्यवहार अपने जीवन परिवार एवं समाज के प्रति इतना सज्जनतापूर्ण हो जाता है कि प्रतिक्रिया उसे दैवी वरदान की तरह चारों ओर से पुष्प वर्षा करती हुई परिलक्षित होती है। स्वर्ग सुख यही तो है। अहंता और ममता, वासना और तृष्णा के- बन्धनों से मुक्त जीव को मरने पर मुक्ति मिलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती वह जीवित रहते हुये भी जीवन-मुक्त होता है।

ज्ञान-यज्ञ का उद्देश्य और स्वरूप

भगवान् ने यह संसार सर्वांगपूर्ण ओर सर्वांग सुन्दर बनाया है। हर प्राणी को आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सकने योग्य सुख सुविधायें उत्पन्न की हैं। यह विश्व भगवान् का सर्वोत्तम उद्यान है। एक-से-एक सुन्दर सुसज्जायें यहाँ विद्यमान हैं। हर घड़ी चित्त प्रसन्न, हुलसित ओर पुलकित होता रहे ऐसा बहुत कुछ इस दुनिया में मौजूद हैं। परस्पर मिल-जुल कर स्नेह सहयोग के साथ रहें तो यहाँ वे सभी सुविधायें तथा परिस्थितियाँ विपुल परिणाम में पाई जायेंगी जिनकी कल्पना स्वर्ग नाम से विख्यात है।

इस ऐसे सर्वांग सुन्दर जीवन और सर्वांगपूर्ण संसार को नरक में बदल देने का कारण केवल मात्र मानवी दुर्बुद्धि है। उलटे विचार, उलटे आदर्श, उलटे आचार, उलटे व्यवहार अपना कर सब कुछ उलट दिया गया है। स्वर्ग ने नरक का रूप धारण कर लिया है।

सृष्टि के सभी प्राणी वन्य पशु, पक्षी निरोग जीवन यापन करते हैं। समय आने पर मरना तो सबको पड़ता है पर आये दिन रोगों से कराहता कोई प्राणी दिखाई नहीं देता। यह मनुष्य ही है जिसने असंयम की एक-से-एक अद्भुत ईजादें की हैं और फलस्वरूप बीमारियों की विचित्र-विचित्र फसलें उगा कर रख ली है। इनसे कितना कष्ट भोगना पड़ता है, कितना समय और धन बर्बाद होता है? जीवन की अवधि कितनी कम रह जाती है इस भयावह रहस्य को कौन नहीं जानता? फिर भी असंयम छोड़ने की इच्छा नहीं।

विलासिता, शृंगार, फैशन, शेखीखोरी की तृष्णा में कितना अनावश्यक धन व्यय होता है? सादगी की नीति अपनाई जाय तो आधे खर्च में काम चल सकता है और विलास सामग्री उत्पादन में लगी शक्ति जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुयें बनाने में लग सकती हैं। आर्थिक तंगी की समस्या को सादगी के आधार पर आधी हल किया जा सकता है, पर ढोंग रचने की दुर्बुद्धि से पिंड कहाँ छूटता है ?

विवाह शादी, मृत्युभोज, भूत-पलीत आदि मूर्खताओं में तथा अन्ध-विश्वासों में धन का कितना अपव्यय होता है? नशे-बाजी में कितनी विपुल सम्पत्ति स्वाहा होती है? इन कुरीतियों को मिटाया जा सके तो हमारा सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन कितना सरल हो जाय? पर कौन उधर ध्यान देता है। ढर्रे में लुढ़कते हुये भारी बर्बादी और परेशानी सहते रहते हैं।

बेईमानी की रीति-नीति अपना कर एक दूसरे को ठगते हैं। बजाय सतर्कता और सुरक्षा में हर व्यक्ति को जितना चिंतित और संलग्न रहना पड़ता है, क्या ईमानदारी की रीति-नीति अपना कर उसे बचाया नहीं जा सकता? आज की दूसरों को शोषण की मनोवृत्ति बदल जाय, परस्पर सज्जनता और सहयोग की परम्परा प्रचलित कर लें तो हर किसी को कितना हलकापन अनुभव हो और वह झंझट में लगा समय प्रगति की दिशा में नियोजित हो। पर दुर्बुद्धि को प्यार करने वाला मनुष्य इतनी दूर की बात कहाँ सोचता है ?

चिन्ता, भय, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष मदद, मत्सर, आवेश, छल, असंयम, उद्दंडता जैसे मानसिक दुर्गुणों को यदि काबू में रखा जा सके और उनके स्थान पर निर्भयता, निश्चिन्तता, आशा, उत्साह, स्नेह, सहयोग, सज्जनता, मधुरता, न्याय, सरलता, त्याग, सेवा, उदारता जैसे सद्गुणों को उगाया जा सके तो यही अपना सामान्य जीवन ऋषियों और देवताओं जैसा सुरभित बन जाय। पर दुर्गुणों को छोड़ने और सद्गुणों के अपनाने की इच्छा किसे है?

धर्म के नाम पर जितना विशालकाय आडम्बर फैला है उसे समेट कर यदि मानवीय आस्थाओं के अभिवर्धन में उस समस्त उपकरण को लगा दिया जाय तो व्यक्ति का अन्तःकरण ईश्वर के निवास स्थान जैसा ज्योतिर्मय एवं दिव्य बन जाय। किन्तु मनुष्य को आस्था से नहीं आडम्बर से मोह है।

हमारे नेता यदि राष्ट्रवादी स्वार्थों को ताक पर रख कर विश्व-बन्धुत्व के, विश्व-न्याय के, विश्व-शासन के, विश्व-धर्म, भाषा और संस्कृति को आदर्श लेकर चलें, समानता और सहयोग का आदर्श रखें तो संहार के साधन निर्माण में लग सकते हैं। सेना के जवान अध्यापन में और तोप बनाने वाले कारखाने सिंचाई के साधन बनाने में लग सकते हैं। करोड़ों व्यक्तियों का श्रम और खरबों की पूँजी जो युद्ध की तैयारी में संलग्न है, रचनात्मक दिशा में लग पड़े तो अभाव, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा, अपराध आदि का कहीं पता भी न चले। पर नेताओं में अपने पद और स्वार्थ सुरक्षित रखने में आगे बढ़ने का साहस कहाँ?

आधी दुनिया की नारी समाज को बन्दी की स्थिति में रखना, मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊंच-नीच की दीवार खड़ी करना, असीम धन पर थोड़े से व्यक्तियों का आधिपत्य होना, पशु पक्षियों का निर्दय उत्पीड़न ऐसे सामाजिक पाप हैं जिनके दंड से भारी संकट और पतन का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी इन्हें सहन ही किया जाता रहता है।

ईश्वर की लोग छुट-पुट पूजा-पत्री से अपना आज्ञानुवर्ती बनाने के प्रयत्न में संलग्न हैं। त्याग, सेवा, संयम और सज्जनता की कीमत पर उसका प्रकाश और अनुग्रह खरीदने के लिये कोई तैयार नहीं।

इस प्रकार की विडम्बनायें ही विडम्बनायें जिधर आँख उठा कर देखा जाय तो दिखाई पड़ेंगी। मंगलमय श्रेय साधन का राज-मार्ग छोड़ कर लोग कंटीली झाड़ियों से भरी पगडंडियाँ तलाश करते हुये जहाँ-तहाँ भटक रहे हैं। इनकी गतिविधियाँ न सुधारी गई, दृष्टिकोण न बदला गया तो परिस्थितियाँ बिगड़ती ही चली जायेंगी। चेचक की फुन्सियों पर मरहम लगाने से नहीं रक्त-शुद्धि की दवा लेने से काम चलेगा। व्यक्ति और समाज के सामने आज अगणित समस्या, उलझनें और कठिनाइयाँ मौजूद हैं। इन्हें सामयिक उपायों से हल नहीं किया जा सकता है। समस्त कठिनाइयों का एक ही उद्गम है मानवीय दुर्बुद्धि। इसे हटाये बिना एक भी समस्या हल न होगी और न एक भी कठिनाई का समाधान निकलेगा। कानूनों और प्रतिबन्धों से, संघर्ष और युद्धों से दृष्टता को रोका नहीं जा सकेगा। उसका आध्यात्मिक स्तर पर ही समाधान सम्भव है। जिस उपाय से दुर्बुद्धि को हटा कर सद्बुद्धि स्थापित की जा सके वही मानव कल्याण का, विश्व शान्ति का, समाधानकारक मार्ग हो सकता है।

हमें यही करना होगा। एक विश्व-व्यापी ऐसा विचार-अभियान खड़ा करना होगा जिससे मनुष्य को अपनी दुर्बुद्धि को समझने और उसके द्वारा होने वाली अपार हानि का अनुमान लगाने का अवसर मिले। अब तक परम्परा के नाम पर, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर लोग प्राचीन ढर्रों का पक्षपात एवं समर्थन करने के आदि रहे हैं। स्वतन्त्र विचारकर्ता के लिये- विवेक पूजा के लिये- अवसर नहीं आने दिया गया। जो ढर्रा चल रहा है उसी में बहते रहने में लोगों ने सरलता समझी है और जिसका अभ्यास है उसी को उत्तम माना है। यह बौद्धिक गुलामी चिरकाल से हमारे मस्तिष्कों को आच्छादित किये हुये हैं, फलतः विवेक बुद्धि इतनी कुण्ठित हो गई है कि सत्य-असत्य और उचित-अनुचित, का सही निर्णय कर सकना कठिन हो गया है। इस दुखद मनः परिस्थिति का अन्त किये बिना प्रस्तुत पतन-प्रक्रिया से सर्वनाश की विभीषिका से छुटकारा न मिल सकेगा।

युग की इस महती आवश्यकता को, पूर्ण करने के लिये ‘युग-निमार्ण-योजना’ का प्रथम चरण ‘ज्ञान-यज्ञ’ के रूप में प्रस्तुत हुआ है। इस अभियान के अंतर्गत हर व्यक्ति को स्वतन्त्र चिन्तन के लिये आमन्त्रित किया जायगा। उसे कहा जायेगा कि समस्त पूर्वाग्रह को छोड़ कर- सत्य-असत्य को- उचित-अनुचित की कसौटी पर आज की प्रत्येक विचारणा, मान्यता, रीति-नीति एवं गतिविधि को परखें। और केवल उसे स्वीकार करें जो विवेक सम्मत हो, न्याय संगत एवं सचाई पर आधारित हो। जो अनुपयुक्त है, असंगत है, अविवेकपूर्ण है उसे छोड़ दें, भले ही वह किसी के द्वारा प्रतिपादित क्यों न हो। यही इस युग की वह विचार-क्रान्ति है, जिसके आधार पर नई सुख शान्ति भरी दुनिया का अभिनव निर्माण सम्भव होगा।

हमारा ज्ञान-यज्ञ इस युग का सबसे बड़ा परमार्थ है। युग की आवश्यकता इसी से पूर्ण होगी। अभी इस अभियान को ‘अखण्ड-ज्योति-परिजनों’ के माध्यम से आरम्भ किया गया है उन्हें ही इसका होता, यजमान, अध्वर्यु, उद्गाता और आचार्य बनने के लिये आमन्त्रित किया गया है। आरम्भिक ढाँचा इसी रूप में खड़ा किया जा रहा है किन्तु क्रमशः यह आगे बढ़ेगा और समस्त विश्व के प्रत्येक नागरिक को इसमें सम्मिलित होने के लिये विवश किया जायगा।

(1) ज्ञान यज्ञ का प्रथम सोपान उस विचार-धारा का निर्माण करना है जो मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर तात्विक दृष्टि से विचार कर सकने की क्षमता तथा सहायता प्रदान कर सके। ऐसा साहित्य आज नहीं के बराबर है जो बिना किसी पक्षपात के विशुद्ध सचाई और विवेकशीलता के आधार पर आज के युग में उत्पन्न हुई अगणित समस्याओं पर ठीक तरह से उचित दृष्टिकोण के साथ विचार कर सकने की क्षमता प्रदान कर सके। सबसे पहले इसी आवश्यकता की पूर्ति की जानी है।

जिस प्रकार ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने मन्तव्य को विश्व-व्यापी बनाने और जन-मानस में उतारने के लिये बाइबिल तथा उसके लूका, युहन्ना, मत्ती मार्क्स आदि अध्यायों को अत्यन्त सस्ते मूल्य में करोड़ों की संख्या में छापा था, उसी तरह जीवन साहित्य के निर्माण ही नहीं प्रचार की भी व्यवस्था ‘ज्ञान-यज्ञ’ के अंतर्गत की जानी है। लेखन-कार्य तीव्र गति से-परिपूर्ण साहस और उत्तरदायित्व के साथ चल रहा है। ‘अखण्ड-ज्योति’ तथा ‘युग-निर्माण’ पत्रिकायें अपना काम जादू की तरह कर रही है। सस्ते ट्रैक्ट लगभग 200 की संख्या में लिखे जा चुके। जीवन चरित्र, कथा, कविता के माध्यम से भी यही विचार-धारा प्रस्तुत की जानी है। आशा करनी चाहिये कि न्यूनतम 100 ट्रैक्ट तो हर साल लिखे ही जाते रहेंगे और उनकी संख्या 1000 से कम न रहेगी। प्रकाशन में आर्थिक कठिनाई पहाड़ की तरह खड़ी है। केवल हिन्दी भाषा में एक दो हजार की संख्या में यह साहित्य छपता है जो बहुत महंगा पड़ता है। भारत की 14 भाषाओं में अनुवाद एवं प्रकाशन हों तो इस ज्ञान का प्रकाश प्रत्येक भारतवासी तक पहुँचे। इसी प्रकार संसार की प्रमुख सौ भाषाओं में उसका अनुवाद, प्रकाशन हो तो ‘ज्ञान-यज्ञ’ का सन्देश प्रत्येक विश्व-नागरिक के पास पहुँचे। आशा करनी चाहिये कि जिस परमेश्वर की प्रेरणा से यह ‘ज्ञान-यज्ञ’ आरम्भ हुआ है वही ऐसे साधन भी बनायेगा जिनसे यह महान् प्रकाश एक छोटे दायरे में ही सीमित बन कर न रह जाय।

(2) साहित्य निर्माण एवं प्रकाशन के बाद दूसरा कार्य उसे शिक्षितों, अशिक्षितों तक पहुंचाने का है। सबसे बड़ी कठिनाई लोगों की अरुचि एवं अनिच्छा है। बौद्धिक स्तर जनता का बहुत नीचा होने के कारण अभी विचार तत्व की आवश्यकता एवं उपयोगिता ही समझ में नहीं आई है। फिर इस तरह की चीजों को पढ़े कौन? आज लोग नौकरी के लिये पढ़ते हैं। नौकरी लगते ही पढ़ने का गोरखधन्धा समाप्त हो जाता है। पढ़ना ही हुआ तो कोई रासलीला किस्सा कहानी किताब पढ़ ली। बाकी सबसे अरुचि। इस कठिनाई के बीच प्रबुद्ध व्यक्तियों का उत्तरदायित्व हजार गुना बढ़ जाता है। उन्हें इस अरुचि को बदल कर विचारकता की भूख उत्पन्न करनी है। जिस प्रकार चेचक का टीका लगवाने या बुखार की कड़वी दवा खिलाने के लिये बच्चों को फुसलाया जाता है उसी प्रकार नव-निर्माण साहित्य का चटपटा महात्म्य बता कर तब किसी को पढ़ने के लिये मुश्किल से तैयार किया जा सकता है। ‘झोला पुस्तकालय’ चलाने के लिये हर प्रबुद्ध व्यक्ति से यही आग्रह किया गया है कि वह स्वयं पढ़े, अपने परिवार का एक भी सदस्य ऐसा न रहने दे जो उन्हें पढ़ता न हो। पड़ौसियों और मित्रों को पढ़ायें और इस कार्य के लिये एक ‘झोला पुस्तकालय’ साथ रखें। पढ़ों को पढ़ने देकर तथा बिना पढ़ों को सुनाने की व्यवस्था बना कर ही ‘ज्ञान-यज्ञ’ का दूसरा चरण पूरा किया जा सकता है। ‘झोला पुस्तकालय’ आन्दोलन वस्तुतः साहित्य निर्माण से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली होगा।

(3) सभा सम्मेलन, विचार गोष्ठियाँ, गायत्री यज्ञ, गीता-कथा, रामायण आयोजन, पर्व और त्योहारों के आयोजन, संस्कारों के माध्यम से परिवार प्रशिक्षण जैसे धर्म मंच से हो सकने वाले आयोजन ‘ज्ञान-यज्ञ’ की दृष्टि से अपना अनुपम स्थान रखते हैं। कुशल वक्ता, गायक एवं कर्मकाण्ड ज्ञान से सम्पन्न विद्वान् व


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