सूक्ष्म शरीर का उत्कर्ष-ज्ञान योग से

December 1967

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सूक्ष्म शरीर विचार प्रधान है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय इस आवरण का आधार है। विविध कामनाएं, वासनाएं, आकाँक्षाएं, लालसाएं इसी में उठती हैं। अभिरुचि और प्रकृति का केन्द्र यही है। शरीर विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क में यह संवेदनाएं समाविष्ट हैं, अतएव मस्तिष्क को सूक्ष्म शरीर का निवास स्थल माना गया है। यों यह चेतना समस्त शरीर में भी व्याप्त है। मस्तिष्क के दो भाग हैं एक सचेतन, दूसरा अचेतन। माथे वाले अग्रभाग में सोचने, विचारने, समझने, बूझने, निर्णय और प्रयत्न करने वाला सचेतन मन रहता है और मेरुदण्ड से मिले हुये पिछले भाग में अचेतन मस्तिष्क का स्थान हैं। यह अनेकों आदतें, संस्कार, मान्यताएं, अभिमान, प्रवृत्तियाँ, मजबूती से अपने अन्दर धारण किये रहता है। शरीर के अविज्ञात क्रिया कलापों का संचालन यहीं से होता है।

गुण विभाजन के अनुसार स्थूल शरीर तमोगुण (पंच तत्वों) से, सूक्ष्म शरीर रजोगुण (विचारणा) से और कारण शरीर सतोगुण (भावना) से विनिर्मित है। स्थूल शरीर को प्रवृत्ति प्रधान, सूक्ष्म शरीर को जीव प्रधान और कारण शरीर को आत्मा (परमात्मा) प्रधान माना गया है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, आनन्दमय, विज्ञानमय कोष भी इन तीन शरीरों से अंतर्गत ही हैं, जिनका वर्णन गायत्री महाविज्ञान (तृतीय खंड) में किया जा चुका है।

इन शरीरों के विस्तृत वर्णन का अवसर यहाँ नहीं। अभी तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि सूक्ष्म शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिए ज्ञानयोग की आवश्यकता होती है। ज्ञानयोग का अर्थ उन जानकारियों को हृदयंगम करना है जो हमारे आदर्श, सिद्धान्त, मनोभाव और क्रिया कलापों का निर्माण एवं संचालन करती हैं।

स्थूल ज्ञान वह है जो साँसारिक जानकारियाँ बढ़ा कर हमारे मस्तिष्क को अधिक उर्वर, सक्षम एवं समर्थ बनाता है। यश, धन, व्यक्तित्व, शिल्प, कौशल आदि इसी आधार पर उपार्जित किये जाते हैं। इसी को शिक्षा कहते हैं। विविध विषयों की अगणित शिक्षा संस्थाएं इसी प्रशिक्षण के लिये खुली हुई हैं जिनमें पढ़ कर छात्र अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार जानकारी अर्जित करते हैं। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, परस्पर संभाषण, भ्रमण आदि साधनों से भी मस्तिष्क को समुन्नत करने वाली जानकारी मिलती है। यह सब शिक्षा के ही भेद है।

शिक्षा साँसारिक जानकारी देती है, उसकी पहुँच मस्तिष्क तक है। विद्या अन्तःकरण तक पहुँचती है और उसके द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण, निर्धारण होता है। विद्या को ही ज्ञान कहते हैं। ज्ञान का आधार अध्यात्म है। केवल शब्दों के श्रवण मनन से शिक्षा पूरी हो सकती है पर विद्या का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब उसकी पहुँच अन्तरात्मा तक हो, उसका आधार अध्यात्म, तत्व-ज्ञान रहे और उसका प्रशिक्षण ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो अपना आदर्श उपस्थित कर उन भावनाओं को हृदयंगम करा सकने में समर्थ हो। यह आधार प्राप्त न हो तो विद्या एक तरह की भौतिक शिक्षा मात्र ही बन कर रह जाती है और उससे अभिष्ट प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। आज कल अध्यात्म के नाम पर ज्ञानयोग के नाम पर वाचालता बहुत बढ़ गई है। कथा-प्रवचनों के अम्बार खड़े होते चले जाते हैं पर सुनने वालों का कौतूहल समाधान होने के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता। उनके अन्दर प्रभाव, प्रकाश एवं परिवर्तन तनिक भी दिखाई नहीं देता। इसका कारण यही है कि विद्या को भी शब्द शक्ति तक ही सीमित किया जा रहा है जबकि उसका प्रवेश और प्रकाश सीधा आत्मा तक पहुँचना चाहिये।

ज्ञान-योग का उद्देश्य आत्मा तक सद्ज्ञान का तत्व ज्ञान का प्रकाश है। इसका शुभारम्भ आत्म-ज्ञान से होता है। लोग साँसारिक जानकारियों के बारे में बहुत चतुर निपुण और निष्णात होते हैं, अपनी इस प्रतिभा के बल पर धन, यश, सुख और पद प्राप्त करते हैं। किन्तु खेद है कि अपने अस्तित्व, स्वरूप उद्देश्य और कर्तव्य के बारे में तात्विक दृष्टि से अनजान ही बने रहने हैं। यों इन विषयों पर भी वे एक लम्बी स्पीच झाड़ सकते हैं, पर यह केवल उनका मस्तिष्कीय चमत्कार भर होता है, यदि आत्म ज्ञान का थोड़ा भी तात्विक प्रकाश मनुष्य के अन्तःकरण में पहुँच जाय तो उसकी जीवन दिशा में उत्कृष्टता का समावेश हुये बिना नहीं रह सकता। उसकी विचारणा, निष्ठा तथा गतिविधि सामान्य लोगों जैसी नहीं असामान्य पाई जायगी। सच्चा आत्म-ज्ञान केवल जानकारी भर बन कर नहीं रह सकता। उसकी पहुँच अन्तःकरण के गहन स्तर तक होती है और उस स्थान तक पहुँचा हुआ प्रकाश-जीवन क्रम में प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकता।

अध्यात्मवाद का प्रथम प्रशिक्षण आत्म-ज्ञान की उपलब्धि के साथ ही दिया जाता है। उपनिषद्कार ने पुकार-पुकार कर कहा है-

“आत्मा व अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।”

“अपने को सुनो, अपने बारे में जानो, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिंतन करो।” वस्तुतः हम अपने को शरीर मान कर जीवन की उन गतिविधियों का निर्धारण करते हैं जिनसे केवल शरीर का ही यत्किंचित् स्वार्थ सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्पना के लिए हमारे जीवन क्रम में प्रायः नहीं के बराबर स्थान रहता है। यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन औजार मात्र समझे तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाय। समस्त गतिविधियाँ ही उलट जायें तब हम आत्मा के हित, लाभ और कल्याण को ध्यान में रख कर अपनी रीति-नीति निर्धारित करें। ऐसी दशा में हमारा स्वरूप न नर-पशु जैसा रह सकता है और न नर-पिशाच जैसा। तब हम विशुद्ध नर नारायण के रूप में परिलक्षित होंगे, देवत्व हमारे रोम-रोम से फूटा पड़ रहा होगा।

जन्म-दिन मनाने की प्रक्रिया के साथ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत आत्म-ज्ञान का व्यापक उद्बोधन-व्यापक अभियान- चलाया जा रहा है। अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक परिजन को बहुत जोर देकर कहा जा रहा है कि वह अपना जन्म दिन समारोहपूर्वक मनाया करे। उस दिन अपने में भावनात्मक उल्लास उत्पन्न किया करे। जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग के महान् तत्वज्ञान पर एकान्त में विचार किया करे और अपने आपसे यह प्रश्न पूछा करे कि अपने अस्तित्व का मूल स्वरूप क्या है? इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का उद्देश्य क्या? और इन बहुमूल्य क्षणों का सर्वोत्तम सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? इन प्रश्नों का यदि सही उत्तर भीतर से मिले और इतना साहस उत्पन्न हो जाय कि जो श्रेयस्कर है उसी को अपना लिया जाय तो हमारे जीवन में एक आध्यात्मिक क्रान्ति उपस्थित हो सकती है। हम सामान्य से असामान्य- नर से नारायण- पुरुष से पुरुषोत्तम तुच्छ महान- और आत्मा से बढ़ कर परमात्मा- बन सकते हैं।

जन्म दिन के अवसर पर वर्षों के हिसाब से घृत-दीप जलाना, पंच तत्व पूजन, महा मृत्युँजय मंत्र का सामूहिक पाठ, गायत्री यज्ञ, पुष्पोपहार, अभिवन्दन, आशीर्वाद जैसे धर्म कृत्य एक भावनात्मक उल्लासपूर्ण वातावरण उत्पन्न करते हैं। मित्रों, परिजनों का सम्मिलित, सस्ता पेय जल पान, उस हंसी, खुशी को और बढ़ा देता है। उपस्थित लोगों में भी उस तरह का आयोजन करने और जन्म-दिन मनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इस पुण्य-परम्परा के प्रसारण की सम्भावना बढ़ती है। मनुष्य का निज का जन्म-दिन उसके लिए निजी दृष्टि से सबसे बड़ा त्योहार होता है। कृष्ण जी की जन्माष्टमी, राम जी की रामनवमी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है पर एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्म-दिन भी कम महत्व का नहीं। अपनापन हर किसी को पसन्द है। अपनी शकल शीशे या फोटो में देखकर, अपना नाम कहीं छपा देख कर, अपनी चर्चा कहीं सुन कर हर किसी को गर्व गौरव- सन्तोष आनन्द का- अनुभव होता है। आन्तरिक उल्लास का अभिवर्धन एक अध्यात्मिक साधन है। इस प्रकार हर दृष्टि से जन्म दिन आयोजनों का मनाया जाना, श्रेयस्कर ही है। इस प्रथा परम्परा को जितने अधिक उत्साह के साथ प्रचलित किया जायगा उतना ही राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होगा। यों संसार के सभ्य समाज में सर्वत्र जन्म दिन का उत्सव मनाने का रिवाज है। इसे अच्छा भी माना जाता है। पर अपना उद्देश्य तो इससे भी ऊंचा है। सामाजिक, पारिवारिक एवं मनोवैज्ञानिक उत्सव मात्र ही इसे नहीं रहने देना है वरन् इस महान् परम्परा को आध्यात्मिक जागरण का आधार भी बनाना है, जिससे युग निर्माण का देवत्व के परिपोषण का महान् प्रयोजन पूर्ण हो सके।

जन्म दिन के अवसर पर अपने आपसे तीन प्रश्न पूछने चाहिये-

(1) भगवान् को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र हैं। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया?

उत्तर एक ही हो सकता है- “अपने उद्यान, इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी-मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधन सुविधाएं इसलिये दी कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।”

(2) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिये कि जो सुविधायें, विभूतियाँ सम्पदायें हमें उपलब्ध हैं- “उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है ?”

उत्तर एक ही मिलेगा- “अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभा कारक एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषतायें हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत है ओर इनका उपयोग लोक-मंगल के लिये ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।”

(3) तीसरा प्रश्न अपने आपसे करना चाहिये कि “क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है?”

उत्तर यही मिलेगा- “हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवा भावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिये जीवन यापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।”

इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित है। यदि यह प्रश्न जीवन की महान् समस्या के रूप में सामने आयें और उन्हें सुलझाने के लिये हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन के लिये एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि साहसी शूरवीरों की तरह इस ईश्वरीय सन्देश को चुनौती के रूप में स्वीकार किया जा सका तो दूसरे ही दिन आकाँक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्मज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिये।

जन्म दिन मनाने और उससे प्रेरणा ग्रहण करने की साधना विधि अपनाने के लिये परिजनों से इसीलिये अनुरोध किया जाता है कि वे अपने सूक्ष्म शरीर में- मानसिक चेतना में- ज्ञानयोग का समावेश कर देवत्व का जागरण करने की दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकें।

ज्ञान-योग से जन-मानस का परिष्कार

ज्ञान-योग द्वारा सूक्ष्म शरीर में देवत्व की दैनिक प्रक्रिया है स्वाध्याय। जन्मदिन वर्ष में एक बार आता है झकझोर कर चला जाता है। उसे आत्म-ज्ञान का शुभारम्भ, श्रीगणेश एवं प्रेरक पर्व कह सकते हैं, इस उपलब्धि को नित्य सींचना आवश्यक है और यह कार्य दैनिक स्वाध्याय से ही सम्भव हो सकता है।

वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। आज के वातावरण में स्वार्थपरता, वासना, विलासिता, तृष्णा, उच्छृंखलता की मनोवृत्तियाँ बुरी तरह संव्याप्त हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर लोगों की विभिन्न गतिविधियाँ संचालित होती हैं। लोग बाहर से आदर्शवादिता की बातें करते हैं पर उनके क्रिया कलाप में उपरोक्त तत्व ही घुले रहते हैं। बेईमानी और धूर्तता का सहारा लेकर साँसारिक वैभव उपार्जन करने वाले लोगों के उदाहरण चारों ओर भरे पड़े हैं। यह सारे का सारा वातावरण मौन रूप से मनुष्य को यही उपदेश करता है कि शीघ्र उन्नति करनी है- मौज-मजा के अधिक साधन उपलब्ध करने हों तो उचित अनुचित का अन्तर करने के झंझट में न पड़ कर जैसे बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिये। आज के वातावरण की मौन रूप से यही शिक्षा है और यह शिक्षा हर दुर्बल मन के व्यक्ति को प्रभावित भी करती है। फलस्वरूप जनसाधारण की रुचि अकर्म करने की ओर बढ़ती चली जाती है। असुरता को दिन-दिन बढ़ते और देवत्व को दिन-दिन क्षीण होते हम भली प्रकार देख सकते हैं।

आम लोग इस पतन प्रवाह में ही बहने लगते हैं। सामाजिक मूढ़ताएं, रूढ़ियां, अन्ध परम्परायें अधिकाँश लोगों को अपने चंगुल में जकड़े रहती हैं। उनकी देखा-देखी दुर्बल मन व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं। विवेक उनकी उपयोगिता पर सन्देह तो उत्पन्न करता है पर समर्थन न मिलने से चुप ही बैठना पड़ता है और जो ढर्रा चल रहा है उसी के साथ लुढ़कना पड़ता है। इस प्रकार अवाँछनीय सामाजिक कुरीतियाँ, मूढ़ताएं और अन्ध परम्परायें घटने की बजाय बढ़ती ही रहती हैं। अनैतिकता का अभिवर्धन व्यक्तिगत चरित्र का और सामाजिक मूढ़ताओं का विस्तार सामूहिक जीवन को जर्जर बनाते चले जा रहे हैं। पतन का पहिया तेजी से घूमता है और दुर्दशा की दिशा में हम भयावह रूप से बढ़ते चले जा रहे हैं।

इस कुचक्र को कैसे रोका जाय? इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सर्व साधारण के मस्तिष्क को पतन की ओर आकर्षित करने वाले प्रशिक्षण की तुलना में ठीक उतना ही प्रबल प्रतिरोधी वातावरण ऐसा तैयार किया जाय जो जन मानस की असुरता की विभीषिकाओं और देवत्व की शुभ सम्भावनाओं का प्रभाव उत्पन्न कर सके। अच्छा तो यह था कि जिस प्रकार दुष्टता अपना कर सफलता उपलब्ध करने वालों के अगणित उदाहरण सामने उपस्थित है वैसे ही सज्जनता का अवलम्बन लेकर प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचने वालों के उदाहरण देखने को मिलते और उनका प्रभाव ग्रहण कर अनेकों को उस सन्मार्ग का अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है। पर यदि वैसी व्यवस्था तत्काल नहीं हो सकती तो दूसरा उपाय यह है कि जन साधारण के मस्तिष्क को प्रभावित कर सकने योग्य उत्कृष्ट समर्थ विचार इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हों कि सामयिक कुशिक्षा और दूषित प्रभाव का निराकरण किया जा सके।

यह कार्य स्वाध्याय की व्यापक सर्वांगपूर्ण व्यवस्था करके सम्पन्न किया जा सकता है। वर्तमान का काम इतिहास से चलाया जा सकता है और कुशिक्षा देने वाले वर्तमान व्यक्तित्वों के मुकाबले दूरस्थ अथवा दिवंगत महापुरुषों की विचार पद्धति सामने खड़ी की जा सकती है। स्वाध्याय इसी प्रक्रिया का नाम है। संसार में ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व हैं अथवा हो चुके हैं जिनकी ओजस्वी विचार-धारा बड़ी समर्थ और सारगर्भित है, उसे सुनने का अवसर मिलता रहे तो वर्तमान दुर्बुद्धिपूर्ण शिक्षा की काट हो सकती है। इसी प्रकार दूरस्थ अथवा दिवंगत सन्मार्ग-गामी सज्जनों के महान चरित्र आँखों के सामने प्रस्तुत होते रहें तो भी वर्तमान दुरात्माओं के भ्रष्ट अनुकरण से बचने की हिम्मत जाग सकती है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से मस्तिष्कों के सम्मुख प्रेरक प्रशिक्षण एवं घटनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जा सके तो भी पतन के प्रवाह को रोकने में बहुत सहायता मिल सकती है। स्वाध्याय इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है। स्वाध्याय ज्ञान-योग का अविच्छिन्न अंग हैं।

‘सत्य वद धर्म चर’ के बाद शास्त्र का मानव प्राणी के लिये महत्वपूर्ण निर्देश ‘स्वाध्यायान्या प्रवतव्य’ ही है। स्वाध्याय में प्रमाद करने की कठोरता पूर्वक मनाही की गई है। भोजन, शयन, स्नान जैसे नित्य कर्मों में ही स्वाध्याय की भी गणना है। जिस प्रकार आहार की आवश्यकता है, उसी प्रकार मन शरीर के लिये स्वाध्याय चाहिये। इसके बिना क्षुधा की निवृत्ति नहीं हो सकती। जिस मनोभूमि को स्वाध्याय नहीं मिलता वह ऊसर, नीरस, दुर्बल ओर विकृत होती चली जाती है। बर्तनों को नित्य माँजना पड़ता है, दाँत रोज साफ करने पड़ते हैं, स्नान नित्य किया जाता है, कमरे में झाड़ू रोज लगती है, इसी प्रकार मन पर वातावरण से निरन्तर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का-मलीनता का-निराकरण करने के लिये नित्य ही स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा मनोभूमि मलीनता से इतनी आच्छादित हो जाती है कि उसमें सड़न और दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। ऐसा मन असुरता का ही निवास-स्थल हो सकता है।

पिछले दिनों कोई-कोई पौराणिक कथा ग्रन्थ थोड़ा-थोड़ा कर बाँच लेना अथवा किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक के थोड़े-से पन्ने उलट लेना स्वाध्याय की लकीर पीटने के लिये काफी माना जाता रहा है। यह सर्वथा अपर्याप्त है। जीवन- की परिवार की- समाज की बाह्य तथा अंतरंग समस्याओं पर जो साहित्य वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ का ध्यान रख कर व्यावहारिक एवं बुद्धि संगत हल उपस्थित कर सके वहीं स्वाध्याय का उपयुक्त माध्यम माना जा सकता है। उसी से किसी उपयुक्त मार्ग दर्शन की- समस्याओं के समाधान की- आशा की जा सकती है।

खेद की बात है कि इस प्रकार का स्वाध्यायोपयोगी साहित्य ढूँढ़े नहीं मिलता। बुकसेलरों और प्रकाशकों के गोदामों में केवल कूड़ा कचरा ही भरा दिखाई पड़ता है। और मानव जाति का- देश धर्म और समाज संस्कृति का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि व्यक्ति तथा समाज का नव-निर्माण कर सकने की क्षमता सम्पन्न साहित्य का आज खटकने वाला अभाव दृष्टिगोचर होता है। इस अभाव की पूर्ति के लिये भी प्रयत्न आरम्भ हो गया है। युग निर्माण योजना’ के अंतर्गत ऐसा सर्व सुलभ साहित्य छोटे ट्रैक्टों के रूप में छापा जा रहा है जो जन मानस की विकृतियों का समाधान कर उसे आवश्यक प्रकाश एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत कर सके। जीवन के हर पहलू और समाज की हर समस्या पर इस प्रकाशन के अंतर्गत एक क्रमबद्ध प्रेरणा प्रस्तुत की जा रही है। इस एक बड़े अभाव की पूर्ति एक सीमा तक इस माध्यम से पूरी हो सकेगी ऐसी आशा करना उचित ही माना जा सकता है।

‘अखण्ड-ज्योति’ के प्रिय परिजनों को ज्ञान-योग की साधना के लिये स्वाध्याय को अनिवार्य आवश्यकता को समझने के लिये आग्रह किया गया है। देवत्व के अभिवर्धन का- सूक्ष्म शरीर के परिष्करण का यह एक असाधारण उपाय है। हमें नित्य ही अनिवार्य रूप से इस ‘युग निर्माण साहित्य’ का अध्ययन करना चाहिये। कुछ समय इसके लिये पूजा उपासना, आहार, स्नान आदि की तरह ही निर्धारित कर लेना चाहिये और कितने ही आवश्यक कार्यों की उपेक्षा कर इस आत्मिक आहार के लिये समय निकालना चाहिये। यह प्रेरक विचारधारा जिन अन्तःकरणों से निकलती है वह इतने समर्थ हैं कि पाठक में अपनी ज्योति एवं प्रेरणा उत्पन्न कर सकें। यों सद्गुणों का महत्व कई अन्य पुस्तकों एवं व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर सुना समझा गया होगा पर यह साहित्य उन सबसे भिन्न- अपने ढंग का अनोखा है। वह पाठक के मस्तिष्क तक सीमित न रह कर अन्तःकरण के गहन स्तरों तक प्रवेश और वही हलचल उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से सम्पन्न है। इसका नियमित अध्ययन किसी भी व्यक्ति को देवत्व के सत्य पर चलने की प्रबल प्रेरणा दिये बिना नहीं रह सकता। इसका वाचन निरर्थक नहीं जा सकता, उससे किसी भी व्यक्तित्व के उत्कर्ष में आशा जनक सहायता मिल सकती है।

हममें से प्रत्येक को ईश्वर की भावनात्मक उपासना करने के लिये स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म कर्तव्य बना लेना चाहिये। ईश्वर की प्राथमिक पूजा, मूर्ति, चित्र आदि के ध्यान और अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप, दीप आदि उपकरणों के साथ होती है। पर आगे चल कर माध्यमिक उपासना उच्च विचारधारा रूपी प्रतिमा को मन मन्दिर में उपस्थित करके ही अग्रगामी बनाई जाती है। संयम, साहस, विवेक, सेवा, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सौजन्य, पवित्रता आदि सद्गुण विशुद्ध रूप से ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा ही है। स्वाध्याय सत्संग और चिंतन मनन द्वारा जितनी देर मन मन्दिर में इन सद्गुणों का प्रकाश बना रहे और उनमें अपनी श्रद्धा जमी रहे तो समझना चाहिये कि उतनी देर उच्च-स्तरीय ईश्वर पूजन होता रहा। प्रतिमायें ईश्वर की प्रतीक हैं पर उच्च-भावनायें तो प्रभु की प्रतिनिधि ही मानी गई हैं। इसलिये स्वाध्याय हमारी उपासनात्मकता को पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी हैं।

जो हमें आज की स्थिति के अनुरूप उच्च-स्तरीय मार्ग दर्शन एवं परामर्श दे सकें ऐसे मनीषी महापुरुषों का सत्संग सान्निध्य हर घड़ी- चाहे जहाँ उपलब्ध नहीं हो सकता। पर सद्ग्रन्थों के माध्यम से हम जिस भी महापुरुष को- जिस भी समय जिस भी विषय पर परामर्श देने के लिये बुलाना चाहें वह बिना किसी कठिनाई के सामने उपस्थित होगा। इतना सरल और इतना महत्वपूर्ण आत्म-कल्याण का दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता, जितना कि स्वाध्याय। अस्तु हमें मानसिक परिष्कार के इस अमोघ माध्यम को अपने दैनिक जीवन में दृढ़ता-स्थिरता और श्रद्धा पूर्वक स्थान देना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमाद न करने की शास्त्राज्ञा को एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह हमें निश्चित रूप से शिरोधार्य ही करना चाहिये।

जो शुभ है, श्रेयस्कर है, मंगलमय है, उसे स्वयं तो ग्रहण करना ही चाहिये, अपने परिवार को भी उसका पूरा-पूरा लाभ देना चाहिये। हमारी भौतिक उपलब्धियों का लाभ परिवार के लोगों को मिलता है, उन्हें इस भावनात्मक प्रकाश का लाभ उठाने के लिये भी अवसर देना चाहिये। घर में जितने भी शिक्षित व्यक्ति हैं उन सबको उनके स्तर का स्वाध्याय साधन उपलब्ध करना चाहिये और यदि उनमें अध्ययन की रुचि न हो तो प्रयत्न पूर्वक उसे जागृत करना चाहिये। इस रुचि का न होना मानव जीवन के विकास में एक भारी विघ्न है। इस गतिरोध को हटाने-मिटाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिये और तभी चैन लेना चाहिये जब अपने प्रिय परिवार के हर शिक्षित सदस्य में स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न हो जाय और वह श्रेयस्कर साहित्य उपलब्ध करने के लिये उसकी तलाश के लिये स्वयं उत्सुक रहने लगे। इस मानसिक स्थिति तक अपने परिवार के सदस्यों को पहुँचा देना हर विवेकवान गृहपति का एक परम पवित्र धर्म कर्तव्य है। घर में जो पढ़े न हों उन्हें जीवन साहित्य सुनने का शौक लगाया जाय। पढ़े सदस्य यह सेवा स्वीकार करें और बिना पढ़ों को नित्य प्रेरक विचार धारा का कुछ न कुछ लाभ एवं प्रकाश उपलब्ध कराया करें। जिन घरों में यह परम्परा चलने लगे, समझना चाहिये, देवत्व की दिशा में अग्रसर होने के लिये इस परिवार ने एक महत्वपूर्ण अवलम्बन ग्रहण कर लिया।

समाज की एक महती सेवा के लिये- अखण्ड ज्योति परिजनों को- ‘झोला पुस्तकालय’ चलाने के लिये अनुरोध किया गया है। इस युग का यह सबसे बड़ा परमार्थ है। विचारों में उत्कृष्टता उत्पन्न करना मानव प्राणी की सबसे बड़ी सेवा है। उसी माध्यम से वह अपने बाह्य जीवन का- अन्तरंग जीवन का, परिवार का तथा समस्त समाज का हित साधन कर सकता है। बुरे विचार ही मनुष्य को नरक की आग में जलाते हैं और सद्विचारों के सहारे स्वर्गीय देव-जीवन जी सकना सम्भव होता है। अतएव सद्विचारों का दान- ब्रह्म दान- सदा से इस धरती का श्रेष्ठतम पुण्य माना जाता रहा है। साधु ब्राह्मण इसी परमार्थ के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन उत्सर्ग करते हैं। शोक संतप्त और पाप-ताप से संत्रस्त मानव जाति को वर्तमान दुर्दशा से विमुक्त करने के लिये सद्-ज्ञान की संजीवनी बूटी ही एक मात्र उपाय है। इस आवश्यकता की पूर्ति का उत्तरदायित्व हममें से हर प्रबुद्ध व्यक्ति को वहन करना चाहिये।

एक छोटे झोले में बीस-तीस ‘युग निर्माण ट्रैक्ट’ लेकर ही हम घर से निकलें। दफ्तर में, दुकान में जहाँ भी हमारा कार्यक्षेत्र हो इस झोले को साथ रखें। जो भी विचारशील व्यक्ति दिन भर संपर्क में आवें, उनकी रुचि और आवश्यकता को समझ कर समाधान करके किसी ट्रैक्ट की चर्चा करनी चाहिये और बताना चाहिये कि उसे पढ़ने पर एक नया प्रकाश प्राप्त किया जा सकेगा। पहले दिन केवल पुस्तक का महत्व बता कर उसकी रुचि जागृत की जाय। ओर यदि उत्सुकता उत्पन्न हो जाय तो दूसरे दिन शीघ्र पढ़ कर वापिस करने का अनुरोध करते हुये वह पुस्तक देनी चाहिये। पढ़ लेने पर वापिस माँगनी चाहिये और उसमें प्रस्तुत विषयों पर अनुकूल चर्चा करनी चाहिये। इस प्रकार जिनसे भी संपर्क बने उन्हें उनकी रुचि, स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप साहित्य देने वापिस लेने का क्रम चलाना चाहिये। समय पर आवश्यक साहित्य मिल सके उसके लिये ‘झोला पुस्तकालय’ साथ रखना चाहिये।

बड़े पुस्तकालय एवं विद्यालय खोल देने की अपेक्षा एक ‘झोला पुस्तकालय’ चलाना अधिक सत्परिणाम उपस्थित कर सकता है। पुस्तकालयों में हजारों रुपया मूल्य की पुस्तकें सड़ती रहती हैं। उत्कृष्टता की ओर रुचि न होने से श्रेयस्कर पुस्तकें कोई छूता तक नहीं। गन्दी और बेहूदी पुस्तकें ही अक्सर पढ़ी जाती हैं। इस प्रकार पुस्तकालय भी उतने उपयोगी सिद्ध नहीं हो रहे हैं। लोगों की सत्साहित्य में रुचि जगाना खास बात है और वह व्यक्तिगत प्रभाव तथा दबाव डाल कर ही उत्पन्न करनी पड़ेगी। ‘झोला पुस्तकालय’ चलाने वाले को यही सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है। वह अपना सारा बुद्धि-कौशल और प्रभाव बाजी पर लगा कर ही अपने क्षेत्र में इस प्रकार की अभिरुचि उत्पन्न करता है। अतएव श्रेष्ठ साहित्य निर्माण करने वाले से भी अधिक बढ़ा-चढ़ा उसका सत्प्रयत्न माना जा सकता है। ‘झोला पुस्तकालय’ चलाने वाले का पुण्य परमार्थ किसी दार्शनिक मनीषी विद्वान् एवं लोकसेवी से किसी भी प्रकार कम नहीं वरन् कुछ बढ़ कर ही है। दस नया पैसा प्रतिदिन नियमित रूप से निकालते रहने पर एक झोला पुस्तकालय चलाते रहने के लायक साहित्य मिल सकता है। जो इतना समय और श्रम देने को तत्पर हो जायगा उसे इतनी छोटी धनराशि किसी भी प्रकार भार रूप में प्रतीत न होगी। आधे कप चाय की कीमत, एक पान की कीमत, एक छटाँक आटे की कीमत, आज कल दस पैसा है। मन में भावना हो तो इतना भार, इतने बड़े परमार्थ का लाभ देखते हुए कोई भी विचारशील व्यक्ति बड़ी आसानी से उठा सकता है। भावना न हो तो फुरसत न होने और आर्थिक तंगी रहने का घिसा-पिटा बहाना मौजूद ही है। उसे मन समझने के लिये कोई भी- कभी भी दुहरा सकता है। दो-चार दिन थोड़ी झिझक संकोच यदि छुड़ा ली जाय, लोगों से मिलने-जुलने और अपनी बात कहने में जो झिझक, भय, अनुभव होती है उस आत्महीनता को हटा दिया जाय तो फिर यह कार्य इतना अधिक आनन्द दायक प्रतीत होता है कि छोड़े नहीं छूटता।

ज्ञान योग को जन मानस में प्रतिष्ठापित कर देवत्व के जागरण का व्यापक अभियान गतिशील किया जा सकता है। जन्म दिन का प्रचलन और झोला पुस्तकालयों का हर प्रबुद्ध व्यक्ति द्वारा संचालन यह दो कार्य छोटे भले ही दीखें पर परिणाम में इतने महान् हैं कि युग निर्माण जैसी समय की पुकार को इन्हीं के माध्यम से चमत्कारिक रीति से पूर्ण किया जा सकता है।


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